विचार / लेख

प्रज्ञा ठाकुर मैदान से बाहर और दिग्विजय सिंह ने बदला मैदान, अब कैसी है भोपाल की लड़ाई
03-Apr-2024 3:03 PM
प्रज्ञा ठाकुर मैदान से बाहर और दिग्विजय सिंह ने बदला मैदान, अब कैसी है भोपाल की लड़ाई

सलमान रावी

बात साल 1984 की है। तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी।

पूरे देश में कांग्रेस के लिए और खास तौर पर राजीव गांधी के लिए सुहानुभूति की लहर थी। उसी साल हुए लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला।

भोपाल की लोकसभा की सीट पर भी कांग्रेस के प्रत्याशी केएन प्रधान ने बड़ी जीत दर्ज की थी। भोपाल लोकसभा सीट पर ये कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन था।

कुल मतों का 61.73 प्रतिशत वोट प्रधान को मिला जो अब तक इस सीट पर कांग्रेस के किसी भी प्रत्याशी को मिलने वाले वोटों का रिकॉर्ड है।

लेकिन, अगले ही चुनावों में, यानी वर्ष 1989 में, प्रधान को भारतीय जनता पार्टी के सुशील चन्द्र वर्मा ने हरा दिया था। फिर इस सीट पर कांग्रेस कभी नहीं जीत पाई।

भोपाल की लोकसभा की सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा। भोपाल को भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सपिछले लोकसभा के चुनावों में इस सीट पर तब रोचक मुकाबला देखने को मिला जब भारतीय जनता पार्टी ने मैदान में प्रज्ञा ठाकुर को उतारा था।

कांग्रेस ने भी, जिसे कहते हैं ‘पुटिंग बेस्ट फुट फॉरवर्ड’, यानी अपने सबसे मजबूत खिलाड़ी दिग्विजय सिंह को उनके खिलाफ मैदान में उतारा था।

दिग्विजय सिंह को पांच लाख से भी ज़्यादा वोट मिले थे। मगर उसके बावजूद प्रज्ञा ठाकुर ने उनको तीन लाख 64 हजार वोटों से हरा दिया था।

भोपाल की सीट पर पहले भी कई जाने-माने लोगों ने अपनी किस्मत आजमाई है।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी और उमा भारती ने भी इस सीट से जीत दर्ज की थी।

वहीं इस सीट पर 1991 में भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मंसूर अली खान पटौदी को भी हार का सामना करना पड़ा था। वो कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहे थे।

साध्वी का टिकट कैसे कटा

इस बार भोपाल की लोकसभा की सीट के चुनावी रण में ना तो प्रज्ञा ठाकुर हैं और ना ही दिग्विजय सिंह।

प्रज्ञा को पार्टी ने दोबारा उम्मीदवार नहीं बनाया और दिग्विजय सिंह अपने राजनीतिक क्षेत्र, राजगढ़ से इस बार चुनावी मैदान में 33 सालों बाद उतरे हैं।

प्रज्ञा की जगह भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल के महापौर रह चुके आलोक शर्मा को टिकट दिया है। हालाँकि शर्मा को हाल ही में संपन्न विधानसभा के चुनाव में भोपाल उत्तर विधानसभा की सीट से हार का सामना करना पड़ा था।

राजनीतिक हलकों में पहले से ही इस बार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के दोबारा उम्मीदवार बनाए जाने की संभावना कम ही व्यक्त की जा रही थी।

उसके कई कारणों में से एक था, प्रधानमंत्री का ये कहना कि वो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को ‘कभी दिल से माफ़ नहीं कर सकते।’

प्रधानमंत्री का बयान तब आया था, जब संसद में वर्ष 2019 में एक चर्चा के दौरान प्रज्ञा ठाकुर ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ कहा था। इससे पहले भी वो मुंबई हमलों के दौरान मारे गए भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हेमंत करकरे पर दिए गए बयान को लेकर विवादों में घिरी थीं।

समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, जब टिकट कटने पर पत्रकार उनकी प्रतिक्रिया लेने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि पिछले पांच सालों से मीडिया उन्हें बदनाम करने की हर कोशिश कर रहा है और वो अब मीडिया से बात करना नहीं चाहती हैं।

उनका कहना था कि उनके बयानों को मीडिया ने हमेशा तोड़ मरोड़ कर पेश किया है।

पीटीआई ने उनके हवाले से लिखा, ‘अब मुझे जो कहना होगा उसका वीडियो मैं अपने सोशल मीडिया पर डाल दूंगी। वहीं से आप लोग ले लीजियेगा। अब किसी से बात नहीं करूंगी।’

भारतीय जनता पार्टी के मध्य प्रदेश के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में सबकी भूमिका निर्धारित रहती है।

वो कहते हैं कि प्रज्ञा को संगठन दूसरी जि़म्मेदारी देगा। वो ये भी कहते हैं कि इस बार लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने पूरे भारत में 34 प्रतिशत पुराने चेहरों को बदला है।

उनका कहना था, ‘बीजेपी में हर व्यक्ति मूलत: एक कार्यकर्ता है और हर कार्यकर्ता एक दायित्व को निभाने के भाव से बीजेपी में काम करता है। साध्वी प्रज्ञा भी भारतीय जनता पार्टी की ही कार्यकर्ता हैं।’

पंकज चतुर्वेदी कहते हैं, ‘वर्ष 1989 से आज तक भोपाल की जनता की कृपा भारतीय जनता पार्टी के कमल चुनाव चिह्न के साथ है। सांसद के रूप में साध्वी प्रज्ञा ने अद्भुत सेवा की है। उनके साथ किस प्रकार की प्रताडऩा की गई थी मालेगांव मामले में, वो किसी से छुपा नहीं है।’

लेकिन वरिष्ठ पत्रकार अनूप दत्ता को लगता है कि प्रज्ञा ठाकुर ने सांसद के रूप में उतना काम भी नहीं किया था, जिसकी वजह से पार्टी को भी उन्हें टिकट देने में कई बार सोचना पड़ा होगा।

वो कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी इसी तरह से टिकटों का बँटवारा करती है और चेहरे बदलती रहती है।

वो कहते हैं कि कई चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें भाजपा ने ‘रिपीट’ नहीं किया है। इनमे कई बड़े नाम भी हैं। और, प्रज्ञा ठाकुर के बारे में तो पहले से ही समझ में आने लग गया था कि इनको भारतीय जनता पार्टी दोबारा टिकट नहीं देगी।

अनूप दत्ता कहते हैं, ‘जो पिछला चुनाव था, उसके जैसा ‘इंटरेस्ट’ इस बार के चुनावों में भोपाल की लोकसभा की सीट पर तो नहीं देखने को मिलेगा। पिछली बार एक तरीक़े से हिंदुत्व ‘आईकन’ प्रज्ञा ठाकुर एक तरफ़ थीं तो दूसरी तरफ़ दिग्विजय सिंह थे जो पूरे समय आरएसएस या बीजेपी पर ‘अटैक’ कर रहे थे और काफी ‘लाइमलाइट’ में थे। अब दोनों ही किरदार भोपाल सीट से नहीं लड़ रहे हैं तो पिछला जो चुनावी परिदृश्य था अब वो पूरा का पूरा पलट गया है।’

दिग्विजय सिंह ने लगाई थी ‘प्रतिष्ठा’ दांव पर

जानकारों को लगता है कि पिछले लोकसभा  के चुनाव के दौरान भोपाल में बहुत ज़्यादा ध्रुवीकरण था लेकिन इसके बावजूद दिग्विजय सिंह ने पार्टी के कहने पर ‘अपनी प्रतिष्ठा को दांव’ पर लगा दिया था।

प्रदेश कांग्रेस कमिटी के प्रवक्ता अभिनव बरोलिया कहते हैं कि दिग्विजय सिंह ने कई वर्ष पहले ही घोषणा कर दी थी कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे।

बरोलिया कहते हैं, ‘इसके बावजूद, जब पार्टी ने उन्हें साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ मैदान में उतारा तो उन्होंने बिना इनकार किए इस फैसले को स्वीकार किया और अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी। समाज में इतने ध्रुवीकरण के बावजूद दिग्विजय सिंह को पांच लाख से भी ज़्यादा वोट मिले थे। ये इस बात का संकेत है कि वो सर्वमान्य नेता हैं जो प्रदेश में कहीं से भी चुनाव लडऩे की हैसियत रखते हैं।’

बरोलिया का कहना था कि इस बार भी कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि उन्हें चुनाव लडऩा है और इस फ़ैसले को उन्होंने फिर स्वीकार कर लिया और वो इस बार राजगढ़ से चुनाव लड़ रहे हैं।

मध्य प्रदेश में लोकसभा की कुल 29 सीटें हैं, जिसमे से 28 सीटें भारतीय जनता पार्टी के पास हैं। छिन्दवाड़ा की एकमात्र ऐसी सीट है, जिस पर कांग्रेस लगातार जीत दर्ज करती आ रही है। ये पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का सबसे मजबूत गढ़ है। पिछली बार उनके पुत्र, नकुलनाथ ने ये सीट जीती थी।

दिग्विजय सिंह के एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरने से कांग्रेस की उम्मीदें जगी हैं कि वो इस बार लोकसभा के चुनावों में पहले से बेहतर प्रदर्शन करेगी।

इस बार कांग्रेस ने भोपाल जिले की ग्रामीण कमिटी के अध्यक्ष अरुण श्रीवास्तव को मैदान में उतारा है जो राजनीतिक परिवार से आते हैं।

प्रदेश कांग्रेस कमिटी के उपाध्यक्ष जेपी धनोपिया ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि अरुण श्रीवास्तव की माँ भी जि़ला परिषद् की अध्यक्ष रह चुकी हैं और इस सीट पर कायस्थ मतदाताओं की अच्छी खासी आबादी है।

वो कहते हैं, ‘पिछले तीन दशकों से जो सीट कांग्रेस जीत नहीं पाई है। इस बार इस सीट पर कड़ा मुकाबला होगा।’

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राज्यसभा के सदस्य होने के बावजूद दिग्विजय सिंह का लोकसभा का चुनाव लडऩा इस बात की तरफ़ संकेत देता है कि वो कांग्रेस पार्टी के ‘एकमात्र’ जन नेता हैं, जो इस तरह के चुनौती को बार बार स्वीकार कर लेते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित कहते हैं, ‘यह संयोग है कि भोपाल की सीट पर पिछले लोकसभा के चुनावों में दिग्विजय सिंह को सबसे ज़्यादा वोट मिले थे और सबसे बड़ी हार भी उन्हीं की हुई। लेकिन मुझे लगता है कि दिग्विजय सिंह की हार का एक और कारण भी था और वो था कांग्रेस के भीतर चल रही गुटबाज़ी।’

‘अगर दिग्विजय सिंह राघोगढ़ से निकलकर और भोपाल आकर सांसद बन जाते, तो भोपाल के कई ऐसे कांग्रेसी थे, जिनकी दुकान बंद हो जाती। दिग्विजय सिंह ने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि से कोई समझौता नहीं किया और आरएसएस, बीजेपी पर हमलावर रहे।’

उनका कहना था कि 2019 के लोकसभा के चुनावों में प्रज्ञा ठाकुर को ‘अंतिम क्षणों में लाया गया था।’ इसके अलावा दिग्विजय सिंह को हराने में संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के अलावा कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं की भूमिका भी रही।

वो कहते हैं, ‘प्रज्ञा के साथ संघ के वो लोग जुड़े थे जो चाहते थे कि एक बार ‘अग्रेसिव हिंदुत्व’ को भी परखा जाना चाहिए। इस खांचे में प्रज्ञा फिट बैठती थीं।’

अलोक शर्मा से हमारी मुलाकात उनके चुनाव कार्यालय में हुई। वो तब एक बैठक को संबोधित कर रहे थे।

बैठक के बाद बीबीसी से बात करते हुए वो बताने लगे कि वो ‘धरती पुत्र’ हैं और टिकट मिलने से वो बहुत ख़ुश हैं।

उनका कहना था, ‘भोपाल की अपनी अलग संस्कृति है जो पूरे भारत से अलग है। यहाँ की भाषा का ‘फ्लेवर’ भी अलग है और लोगों का रहन सहन भी। यहाँ ‘कंपोजिट सोसाइटी’ है। यानी सब लोग आपस में मिलजुल कर रहते हैं। चूँकि मैं यहीं पला बढ़ा और यहीं राजनीति में आया तो मेरा लोगों के साथ एक अलग ही रिश्ता है। चाहे शादी-ब्याह या जनाजे में शामिल होना हो, मैं लोगों के बीच ही रहा हूँ। इसलिए शायद पार्टी ने टिकट दिया है।’

वो कहते हैं कि वो भोपाल की जनता के बीच ‘विकास के मुद्दों’ को ही लेकर जा रहे हैं। ‘मेरी यही कोशिश है कि भोपाल कैसे और बेहतर हो। चाहे वो शहरी क्षेत्र हों या ग्रामीण।’

जानकार कहते हैं कि अलोक शर्मा भले ही ‘कम्पोजिट कल्चर’ की बात कर रहे हों, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि 1992 के दंगों के बाद भोपाल का राजनीतिक परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है और यहाँ समाज में तेजी से ध्रुवीकरण बढ़ता ही चला गया। कांग्रेस भी कमजोर पडऩे लगी।

कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि कांग्रेस का कमजोर होना और किसी तीसरी राजनीतिक शक्ति के नहीं होने का पूरा चुनावी फायदा भारतीय जनता पार्टी को तीन दशकों से मिलता रहा है। (bbc.com/hindi)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news