विचार / लेख
जो सुप्रीम कोर्ट के आदेशों, फैसलों, प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाए, उसे ही मोदी सरकार लोग कहते हैं। केन्द्र सरकार ने दिल्ली विधानसभा और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार को घटाने एक विधेयक पेश किया है। वह 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सांविधानिक प्रावधानों के फैसले के खिलाफ ही है।
कभी आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल मंत्रियों सहित दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर के सरकारी आवास के गेस्ट हाउस में पांच दिनों तक धरने पर बैठे थे। उनकी पहली मांग थी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए। दूसरी कि केन्द्र के उकसावे पर दिल्ली के आईएएस आफिसर्स जो तीन महीनों से हड़ताल पर हैं, को काम पर लौटने के आदेश दिए जाएं। आरोप लगा कि केजरीवाल काम छोड़ धरने पर बैठकर खोई हुई राजनीतिक जमीन पाने की कोशिश करते रहे हैं। संविधान का अनुच्छेद 239-कक. कहता है-‘दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र को दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र कहा जाएगा और अनुच्छेद 239 के अधीन नियुक्त उसका प्रशासक उपराज्यपाल होगा।‘ दिल्ली की विधानसभा में 70 विधायक चुने जाते हैं। दस प्रतिशत मंत्री बन सकते हैं। बाकी राज्यों में पंद्रह प्रतिशत विधायक मंत्री बन सकते हैं। दिल्ली के लिए चुनाव कराने हेतु संसद को अधिकार हैं। अन्य राज्यों की तरह कई अधिकार दिल्ली विधानसभा को नहीं हैं।
राज्यपाल और मंत्रिपरिषद के रिश्तों पर अनुच्छेद 163 कहता है ‘राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा।‘ लगता तो है राज्यपाल पर मंत्रिपरिषद की सलाह मानने की कोई बाध्यता नहीं है लेकिन डॉ. अंबेडकर ने साफ कहा था राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानना जरूरी होगा सिवाय उन बातों के जहां संवैधानिक स्वायत्तता हो। अनुच्छेद 239 क क (4) में दिल्ली के लिए पर कतर दिए गए हैं। अनुच्छेद कहता है-‘उप राज्यपाल और उसके मंत्रियों के बीच किसी विषय पर मतभेद की दशा में, उप राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को विनिश्चय के लिए निर्देशित करेगा और राष्ट्रपति द्वारा उस पर किए गए विनिश्चय के अनुसार कार्य करेगा तथा ऐसा विनिश्चय होने तक उप राज्यपाल किसी ऐसे मामले में, जहां वह विषय, उसकी राय में, इतना आवश्यक है जिसके कारण तुरन्त कार्रवाई करना उसके लिए आवश्यक है वहां, उस विषय में ऐसी कार्रवाई करने या ऐसा निर्देश देने के लिए, जो वह आवश्यक समझे, सक्षम होगा।‘ अरविन्द केजरीवाल का मुख्य आरोप रहा है कि जितने अधिकार पिछली कांग्रेस और भाजपाई दिल्ली सरकारों के पास थे, वे भी एक के बाद एक आम आदमी पार्टी की सरकार से केन्द्र द्वारा छीन लिए गए।
पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और केरल के मुख्यमंत्री केजरीवाल को समर्थन देने और प्रधानमंत्री द्वारा हस्तक्षेप करने को लेकर दिल्ली प्रवास पर पहुंचे थे। गोदी मीडिया कायर और पक्षपाती आचरण करता रहा। चार प्रदेशों के मुख्यमंत्री दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल से मिल नहीं पाए। संविधान की आयतों का गला घोंटने का केन्द्र सरकार और लेफ्टिनेंट गर्वनर का उदाहरण बना। मुख्यमंत्रियों की प्रेस वार्ता को प्रकाशित तक नहीं किया। चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर। कटना तो दिल्ली की जनता को ही हुआ। अरविंद केजरीवाल परेशानी की फितूर के हुनरमंद सियासी खिलाड़ी हैं। आम आदमी पार्टी संविधान की मूल इबारत के राजपथ के बनिस्बत पगडंडियों से चलकर लक्ष्य तक जाना चाहती है। राजपथ पर सत्ता की ठसक-गाडिय़ों के कारण जाम लगा होता है।
इतिहास याद रखे दो मुखर कम्युनिस्ट सदस्यों इंद्रजीत गुप्त और दशरथ देव ने दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य और समस्त अधिकार सम्पन्न विधानसभा की धारदार पैरवी की थी। दशरथ देव ने कड़े शब्दों में मनोनीत सदस्यों के किसी मनोनीत निकाय के बदले विधानसभा की उपयोगिता पर जोर दिया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमूर्त दार्शनिक शैली में दिल्ली निवासियों की कठिनाइयों को जोर शोर से उठाया था। यह भी जोड़ा दिल्ली में तमाम विदेशी राजनयिकों और दूतावासों की उपस्थिति के कारण प्रशासन व्यवस्थित हो और संवैधानिक दुर्बोध से मरहूम रखा जाए। उन्होंने माना था कि संविधान में कमियां हैं।
दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की ओर देखता मौजूदा अनुच्छेद 239 क क संविधान के 74 वें संशोधन के जरिए आया। केन्द्रीय गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने प्रस्ताव रखते दो टूक कहा था कि फिलहाल दिल्ली का प्रशासन दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 के तहत चल रहा है। मेट्रोपोलिटन काउंसिल प्रशासक को केवल सलाह दे सकती थी। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज आर.एस. सरकारिया की अध्यक्षता में 24 दिसम्बर 1987 को कमेटी गठित की। उसे एस. बालाकृष्णन ने 14 दिसम्बर 1989 को पूरा किया। कहा दुनिया की अन्य राजधानियों के मद्देनजर दिल्ली की संवैधानिक स्वायत्तता पर फैसला मुनासिब होगा। नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, शंकरराव चव्हाण के दिए गए नीति, व्यावहारिकता और संभावनाओं के त्रिभुज पर आधारित तर्क त्रिशंकु नहीं रहे हैं। वे लेकिन दिल्ली के लोगों की महत्वाकांक्षाओं का त्रिलोक भी नहीं हैं।
केजरीवाल का तर्क है कि अन्य राज्यों के बराबर समान संवैधानिक अधिकार दिए जाएं। केवल तीन बिन्दुओं पुलिस, विधि तथा व्यवस्था और राजस्व के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार नहीं होने से केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथों विधानसभा, मंत्रिपरिषद और दिल्ली के नागरिकों की अश्वगति की ख्वाहिषों पर सईस की नकेल है। राजस्व उगाही के अरबों रुपयों का इस्तेमाल विरोधी पार्टी भाजपा के नुमाइंदे पुलिस, राजस्व उगाही और कानून तथा व्यवस्था के नाम पर अधिकारियों को भडक़ा-फुसलाकर राज्य सरकार के खिलाफ काम ही नहीं करने दें। संविधान क्या टुकुर टुकुर देखता भर रहे? सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विधानसभा, राज्य सरकार और उप राज्यपाल के संवैधानिक रिश्तों को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया था। फैसला अहम है लेकिन दिल्ली विधानसभा के लिए संविधान ने जो मर्यादाएं तय की हैं, उनका खुलासा व्याख्या करने तक सीमित रहा है। केजरीवाल सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों की ठीक मीमांसा की थी कि उपराज्यपाल केन्द्र की कठपुतली की तरह होते हैं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं होते।
दिल्ली विधानसभा को राज्य सूची के विषय क्रमांक 1, 2, 18, 64, 65 और 66 को छोडक़र तथा समवर्ती सूची के सभी विषयों में अन्य विधानसभाओं के बराबर अधिकार हैं। उपराज्यपाल ने समझा होगा विधानसभा कोई भी कानून बनाए। वे फाउल की सीटी बजा देंगे और गेंद को अंपायर राष्ट्रपति के मैदान में ठेल देंगे। राष्ट्रपति की भी केंद्रीय मंत्रिपरिषद से अलग से राय कैसे होगी? 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल सरकार का मुर्गमुसल्लम बनाया जा सकेगा। उपराज्यपाल चूक गए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पकड़ा।
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सैद्धान्तिक स्थापनाएं कीं। उसके अनुसार संविधान की समझ के लिए लोकतंत्रीय भावना, सामूहिक नागरिक प्रतिनिधित्व, संवैधानिक चरित्र और सत्ता के विकेन्द्रीकरण को लेकर समझौता नहीं किया जा सकता। संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है कि हम भारत के लोग अपना संविधान खुद को दे रहे हैं। यही समीकरण सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि उपराज्यपाल को असहमत होने के असीमित अधिकार मिल जाएंगे तो लोकतंत्र की मर्यादा ही नहीं रहेगी। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों को परस्पर सहयोग से काम करने की हिदायत भी दी क्योंकि भारत एक संघीय राज्य है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत पहले आ जाता तो दिल्ली प्रशासन पर छाई धुंध नागरिक अधिकारों के लिए साफ की जा सकती थी।
पृथक फैसले में जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया। उससे फैसला बहुआयामी हो गया है। राजधानी क्षेत्र के निवासियों की उम्मीद को उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली के राजनैतिक प्रतीक और राष्ट्रीय सरकार की संवैधानिकता के साथ जोडक़र भी देखने की कोशिश की। उन्होंने साफ किया कि आखिरकार यह जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका तर्क यह भी है कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं। उपराज्यपाल को सलाह तथा सहायता देने की मंत्रिपरिषद की शक्ति जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के इरादों की अभिव्यक्ति का दूसरा नाम है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने बेहतर लिखा कि अनुच्छेद का अनुदेश संस्थागत सरकार से है। उसमें ही जनता की सहभागिता है। एक महत्वपूर्ण वाक्य यह भी लिखा कि राज्य मंत्रिपरिषद की शक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिका शक्ति एक दूसरे में अंतर्निहित है। उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। राज्यपाल उन विषयों के लिए मंत्रिपरिषद से अलग हैं जिन विषयों के लिए विधानसभा को संविधान ने अधिकार नहीं दिए हैं। संविधान में ‘किसी भी विषय’ का जो उल्लेख आया उसे ‘प्रत्येक विषय’ की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। ऐसे में विधानसभा और मंत्रिपरिषद की उपादेयता, अस्तित्व और लोकतांत्रिक भूमिका का क्या होगा? अलबत्ता राज्यपाल उन्हेें विशेष दिए गए अधिकारों पर निर्णय ले सकते हैं। यह केवल कुछ चुने गए विषयों को लेकर ही है। बहरहाल यह फैसला केंद्रीय राज्य क्षेत्र के अंतर्गत बनी विधानसभाओं के अधिकारों का नया दरवाजा खोलता लेकिन मोदी सरकार के कारण फिर पचड़ा है।