विचार / लेख

मेघनाद यग्नेश्वर बोधनकर
17-Mar-2021 2:18 PM
मेघनाद यग्नेश्वर बोधनकर

-प्रकाश दुबे

मौत अड़ जाती है। काल का दूत कहता है-साथ चलो। निडर घायल तपाक से कहे-अपनी मर्जी से प्रस्थान करेंगे। महाभारत के भीष्म या सावित्री सत्यवान की ऐसी कहानियां पुराणों की परिक्रमा करती हुई राजस्थान के राणा सांगा तक पहुंच जाती हैं।  इतिहास के खंडहर में न तो प्रेत बनकर मंडराती हैं और न चमगादड़ की तरह तिरस्कृत होती हैं। अतीत के गहरे खारे सागर में डूबने वालों का नामोनिशान मिट जाता है। विविध कारणों से विद्याचरण शुक्ल को अतीत अनदेखी के कफन में नहीं लपेट सका। शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। आयु के अंतिम छोर के पास जा पहुंचे शिकार को पाकर मौत का दूत निश्चित ही उत्साहित रहा होगा। हर दिन मौत को इंतजार कराते, छकाते, वापस लौटाते अचेत विद्याचरण पर काबू पाने में असहाय काल उपचार करने वाले चिकित्सकों की तरफ बेबसी से ताकता। डॉक्टर भी हथियार डाल चुके थे। सात दशक से अधिक समय तक सक्रिय देह ने मौत को खूब छकाया।  

शुक्लजी के देहावसान के कई बरस बाद पत्रकार ने काल को खूब नाच नचाया। का है। 86 वर्ष पूरे कर 87 वें कदम रख चुके मेघनाद यज्ञेश्वर बोधनकर का दिल और दिमाग इतनी फुर्ती से काम करता रहा कि फेफड़े अपनी समस्या बताने मेें सकुचाते रहे।  बोधनकर जी परेशानियों को चुस्की और चुटकी में उड़ाने में माहिर थे। उन्हें नेशनल केंसर इंस्टीट्यूट में भर्ती करने की बहुत कम लोगों को जानकारी थी। जिन्हें पता लगा वे चकित होकर अपने आप से सवाल करते रहे- एनसीआई में क्यों? 

खबर के खैरख्वाह बोधनकर जी ने गले में तकलीफ के कारण बस इतना ही कहा- बोलने में थोड़ी परेशानी होती है। खतरे के निशान तक पहुंची परेशानी की उपेक्षा करते हुए अस्पताल में बोधनकर जी ने बेटे से पूछा-सुमित, टेस्ट का नतीजा क्या हुआ? वे क्रिकेट के शौकीन थे। अस्पताल में तीन बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा। रविवार को तीसरे दौरे के बाद आंखें मूंदे मूंदे वे बुदबुदाए होंगे-विकेट लेकर दिखाओ। मध्यरात्रि से मात्र  कुछ पल पहले काल ने कैच लपक लिया। 
राजनीति की गहरी समझ रखने वाले दो ही संपादक-पत्रकारों को मैंने क्रिकेट पर इस तरह फिदा देखा है। प्रभाष जोशी मैच देखते देखते जनसत्ता अपार्टमेंट के पहले मंजिल के अपने फ्लैट में काल के हाथों कैच हुए थे। चार दशक से अधिक समय तक निरंतर ए शेड लाइटर कालम लिखकर प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर के रिकार्ड को बोधनकर ने चुनौती दी। श्री नैयर राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अंतिम दिनों तक कलम चलाते रहे। बोधनकर ने सिनेमा, साहित्य, क्रिकेट सहित खेल जैसे अनेक विषयों को अपने कालम में समेटा। रविवार को सुबह उनका स्तंभ अखबार में गायब था। उसी रात उनकी जीवन फिल्म का दी ऐंड हुआ। अच्छी फिल्मों की समझ विकसित करने के लिए नागपुर में सिने मोंताज़ संस्था बनी। बोधनकर उसके संस्थापक अध्यक्ष थे। संयोग यह, कि कुछ दिन के लिए लाकडाउन खुलने पर सिने मोंताज़ के अंतिम कार्यक्रम में बतौर अध्यक्ष उन्होंने संबोधित किया। विदर्भ क्रिकेट एसोसिएशन की सदस्यता संस्थापकों में से एक एडवोकेट वी आर मनोहर ने उन्हें स्वयं बुलाकर दी थी।   

विद्याचरण शुक्ल का उल्लेख अनायास ही नहीं किया। आपातकाल से कुछ पहले नागपुर से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक हितवाद की नैया डूबने लगी। रायपुर से दि स्टेट्समैन को खबरें भेजने और दोस्तों में रमने वाले बोधनकर हितवाद के लिए रायपुर से काम करने के बाद नागपुरआ चुके थे। उन दिनों विद्याचरण शुक्ल देश की राजनीति में महाबली के रूप में स्थापित हो रहे थे। बोधनकर जी दि हितवाद के कर्मचारियों की यूनियन में सक्रिय थे। वीसी ने उन्हें दिल्ली बुलाया। बड़ी सी कोठी में प्रवेश करते ही इंतजार कर रहे वीसी ने अंदर बुलाया। शुक्ल जी गुसलखाने में दाढ़ी बना रहे थे। वहीं बात हुई। बोधनकरजी की इस मांग को वीसी ने मान लिया कि किसी कर्मचारी को निकाला नहीं जाए। प्रोग्रेसिव राइटर्स एंड पब्लिशर्स नाम का नया प्रबंधन हितवाद का संचालन करने लगा। शुक्ल ने वैचारिक कट्टरता छोडक़र संपादकीय कर्मियों को कायम रखा। बोधनकर ने माक्र्सवादी विचार थोपने के बजाय माक्र्स के सिद्धांत को अपनाते हुए विरोधी वैचारिक पृष्ठभूमि वाले हर साथी की नौकरी बचाने में सफलता पाई। एन राजन जैसे वामपंथी वरिष्ठ और दाईं रुझान वाले गोविंदराव परांडे।  सबने मिलकर हितवाद को नया जीवन दिया। शुक्लजी बोधनकर की वैचारिक पृष्ठभूमि से भली भांति परिचित थे। इसके बावजूद परस्पर विश्वास का दोनों का रिश्ता आजीवन अटूट रहा। कामरेड बोधनकर निरी सिद्धांतवादिता के बजाय सही मायने में कामरेड थे।  उनकी यह खूबी बलवंत सिंह गर्चा के साथ नागपुर की छात्र राजनीति में सक्रिय होने के साथ् विकसित होती चली गई। शरद कोठारी, लज्जाशंकर हरदेनिया आदि ने मिलकर विद्यार्थियों का अखबार निकाला। कोठारी ने बाद में राजनांदगांव से अपना दैनिक समाचार पत्र शुरु किया। गर्चा ने अमेरिका पहुंचकर पत्रकारिता की। हरदेनिया जी मध्यप्रदेश की पत्रकारिता और राजनीति में सक्रिय हैं। बोधनकर अंतिम सांस तक सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता में मग्न रहे। हितवाद के संपादक पद से निवृत्ति का कारण नए मालिक की राजनीतिक रुझान में बदलाव माना जाता है। दि हितवाद के सौ बरस पूरे होने पर जश्न हुआ। मरणासन्न समाचार पत्र को जिलाने में बोधनकर की भूमिका का सही सही आंकलन और आदर उस जश्न में नहीं हो सका। 

अध्येंदुभूषण बर्धन,एस के सान्याल, सुधीर मुखर्जी सहित अनेक वाम नेता उनके मित्र रहे। कांग्रेस और अन्य दलों में उनके मित्रों की कमी नहीं रही। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पूर्णो संगमा छिंदवाड़ा से आधी रात में नागपुर पहुंचे। उन्होंने वादा किया था-मैं आ रहा हूं। रात का खाना साथ खाएंगे। रात ढलती जा रही थी। मित्र रात को ठेंगा दिखाते डटे रहे। बोधनकर की पत्रकारिता में दोस्ती और तथ्यों के आदान-प्रदान के ऐसे कई किस्से शामिल हैं। 
प्रवीरचंद्र भंजदेव की मौत का रोंगटे खड़े करने वाला किस्सा जिन्हें याद है, उन्हें यह भी याद होगा कि बस्तर पर लाडली मोहन निगम ने रपट तैयार की थी। रपट के आधार पर लोकसभा में बोलते हुए समाजवादी नेता डा राम मनोहर लोहिया ने प्रधानमंत्री को चेतावनी दी थी-गोली दागने वाले काल के जिन हाथों ने भंजदेव और आदिवासियों का खून किया, वे हाथ आपकी तरफ आ सकते हैं। बरसों बाद यह चेतावनी सच साबित हुई। शायद ही कोई बचा हो जो यह  बताए कि लाडली जी रायपुर के शारदा चौक में सबेरा होटल में रुकते थे। 

सारी रात चाय पीते हुए वे जिन पत्रकार मित्रों से बतियाते रहते उनमें बोधनकर के सिवा रम्मू श्रीवास्तव, राज नारायण मिश्र और सत्येन्द्र गुमाश्ता शामिल थे। सिहावा के जंगल सत्याग्रह और बस्तर रपट के तथ्यों को उपलब्ध कराने और उनकी सत्यता की पड़ताल करने में इन पत्रकारों का योगदान रहा। जगदलपुर के किन्ही वाजपेयी पत्रकार समाजसेवी की मदद का बोधनकर जी कई बार उल्लेख करते थे। रायपुर के पंकज शर्मा से लेकर पत्रकारिता छोडक़र रेशम बोर्ड के अधिकारी अब्न उफ अहमद, काला जल के रचनाकार गुलशेर अहमद शानी, चंदूलाल चंद्राकर से लेकर गुरुदेव काश्यप और रमेश नैयर, ललित सुरजन के बाद की पीढी से आत्मीयता कायम रही। राजनीति में सक्रिय अरविंद नेताम समेत कई नाम और किस्से उनकी यादों में शामिल रहे। छत्तीसगढ़ को समर्पित चार व्यक्तियों में से दो का पत्रकारिता से नाता रहा। श्यामाचरण शुक्ल और रामचंद्रसिंह देव छत्तीसगढ़ के जल संसाधनों को सुरक्षित रखना चाहते थे। नर्मदा पर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई को विरोध करते हुए मुख्यमंत्री शुक्ल ने तत्कालीन केन्द्रीय सिंचाई मंत्री के एल राव को काला राव कह दिया था। शालीन, संयत, संवेदनशील शुक्ल के मुंह से का ला राव सुनकर चकित होने वाले बोधनकर अकेले नहीं थे। बोधनकर के बाद स्टेट्समैन के रायपुर संवाददाता एन के-बाबू तिवारी सरकारी नौकरी में भी छत्तीसगढ़ को नहीं भूले। बोधनकर का पिच सुदूर ओडिशा तक जाता था। 

सीखने वालों ने कहे-अनकहे तरीके से बोधनकर से बहुत कुछ सीखा। पहली बात, पत्रकार के लिए बहुभाषी होना सदा लाभदायी होता है। वर्तमान ओडिशा के नवापारा में जन्मे बोधनकर ने नवीन और उनके पिता बीजू पटनायक, नंदिनी सत्पथी से लेकर अंतिम नौकरी के संपादक नायक तक ओडिया में संवाद किया। अंगरेजी, हिंदी, मराठी के सिवा उन्हें बांग्ला आती थी। संपादन और समाचार संकलन की उनकी शैली अनोखी थी। गज़ल को नई ऊंचाई देने वाली बेग़म अख्तर अहमदाबाद के कार्यक्रम में पहुंचीं। वहीं उनका देहावसान हुआ। उन दिनों,(और आज भी ) किसी कलाकार के निधन की खबर दो पैराग्राफ में निबटाने का रिवाज़ था। बोधनकर दि हितवाद के समाचार संपादक थे। उन्होंने छोटी सी खबर को अपनी जानकारी सहित संपादित किया। अखबार के पहले पेज पर एंकर छपा। रोमन लिपि में इटैलिक में शीर्षक था-अय मोहब्बत तेरे अंज़ाम पै रोना आया।  अंगरेजी अखबार का यह मार्मिक शीर्षक भारतीय जनसंचार संस्थान से लेकर देश के अनेक पत्रकारिता विश्विवद्यालयों, विभागों और कार्यशालाओं में चिर्चत रहा। रायपुर और नागपुर के पत्रकारिता विभाग में बरसों तक पढ़ाते समय उनकी सीख थी-काम नफासत से करो। खबर का मर्म पहचानो। खबर हो या कोई लेख, टाइपराइटर और इन दिनों लैप टाप पर बैठने के बाद उनकी अंगुलियां फटाफट नाचते हुए चुटकियों में काम आसान कर देती। बांधनकर नदी की तरह, मेघों से बरसने वाले जल की तरह रहे। जल ही जीवन है कहने के बावजूद यदि संरक्षण नहीं करो, तो तुम्हारा ही नुकसान है। मैंने तो जो पाया, वह पत्रकारिता को समर्पित कर दिया। तकनीकी विकास के बावजूद किसी बोधनकर पर वीडियो फिल्म नहीं बनी। समकालीन पत्रकारिता और इतिहास को सहेजने में अक्षम पत्रकारों की बिरादरी अपने संगठन, शराब की कमाई से पुलकित क्लब-कारोबार, साहित्य संस्कृति का जतन करने के दावेदार संस्था-संगठन और सरकारें अपनी विरासत की उपेक्षा पर अविचलित हैं।   

मराठी मुहावरे का प्रयोग करूं तो बोधनकर हाड़- मांस और विचार से मार्क्सवादी थे। इसके बावजूद उनकी जीवन शैली का संतुलन चौंकाता है। सहधर्मिणी आशा भाभी जब तक बैंक की नौकरी में रहीं तब तक वे नियम से प्रतिदिन छोडऩे और लेने जाते थे। भाभी जी धार्मिक प्रवृत्ति की हैं। गजानन महाराज पर उनकी अगाध श्रद्धा है। बोधनकर जी ने कभी उनके आयोजन में बाधा नहीं आने दी।सदा सहयोग किया। एक बार मैंने उन्हें ईएमएस नम्बूदिरिपाद का किस्सा सुनाया। मार्क्सवादी ईएमएस को गुरुवयुर के देव द्वार पर देखकर किसी ने पूछा-कामरेड आप तो कम्युनिस्ट हैं? हकलाते हुए ईएमएस ने उत्तर दिया- मैं पति भी हूं। इसी लोकतांत्रिक भाव को अपनाने वाले बोधनकर जी ने तपाक से कहा-यह बात मैं बिना हकलाए कह सकता हूं। 

उनके अंतिम संस्कार के दिन कोरोना महामारी के कारण नागपुर में लाक डाउन था। हर पीढ़ी में घुलमिल जाने वाले, हर चुनौती से जूझने वाले बोधनकर यदि दो पल के लिए शव वाहन से देख पाते तो चकित रह जाते। अपनी जिजीविषा, साहस और मिलनसारिता से पीढिय़ों का हौसला बढ़ाने वाले बोधनकर देख पाते कि पद अर्जित करने वाली संपादकों की पीढ़ी,  सरकार, प्रशासन और कोरोना महामारी के प्रकोप-प्रचार से आतंकित है। बोधनकर जी की चहेती गज़ल गायिका बेगम अख्तर ने भले आखिरी दिन कशिश के साथ कहा होगा-कभी तक्दीऱ का मातम कभी दुनिया का गिला, मंजिले इश्क में हर गाम पै रोना आया। लेकिन हमारे पारिवारिक जीवन और वर्तमान पत्रकारिता में पिता तुल्य बोधनकर जी के चेहरे पर आखिरी पल तक वही पारदर्शी मुस्कान रही। वे रोते नहीं। रुआंसे न होते।  

नागपुर में लाक डाउन के दौरान इस आतंक और कापुरुषता को पहचान कर वे निश्छल हंसी के साथ चुटकी लेने से न चूकते। 
कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
मंजि़ल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news