विचार / लेख

लब पे ताले को काहे को दरकार है ?
18-Mar-2021 2:50 PM
लब पे ताले को काहे को दरकार है ?

( "आईना साज" से उध्दृत पंक्तियां)

-रमेश अनुपम
क्या आपको लगता है जब उदयप्रकाश से लेकर मंगलेश डबराल तक साहित्य अकादमी का पुरस्कार यह कहकर लौटा चुके हों कि यह सरकार फासीवादी सरकार है, जो घृणा की राजनीति में विश्वास करती है। उसी सरकार से साहित्य अकादमी का पुरस्कार स्वीकार करना क्या अनामिका जैसी लेखिका को शोभा देता है ?

जिस पुरस्कार की दौड़ में भारत सरकार के शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक’ भी थे, जिस ज्यूरी में चित्रा मुदगल को छोड़कर दो गैर साहित्यकार सदस्य थे, जिनका हिंदी साहित्य से कोई लेना देना ही नहीं है, उनमें से एक हमारे रायपुर के सिरमौर भी हैं।

ऐसे साहित्य अकादमी पुरस्कार के बारे में आप क्या कहेंगे ?
घोर असहिष्णुता के सबसे खराब दौर में जब देश के अनेक जाने माने बुद्धिजीवियों को जेलों में ठूंस दिया जा रहा है। देश के किसान अपनी जायज मांगों को लेकर तीन महीने से ऊपर हो गए सड़कों पर हैं, यूएपीए, सीएए और एनआरसी जैसे काले कानून का डर दिखाया जा रहा है।

कश्मीर में 370 और 35 ए को खत्म कर घाटी में लोकतंत्र की हत्या की जा रही है, छद्म राष्ट्रवाद बनाम हिंदू राष्ट्रवाद का खुलेआम बिगुल फूंका जा रहा है।

जिस देश में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्या को दूर करने की जगह जोर शोर से अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण में पूरी सरकार जुट गई हो, उस देश में बेचारी जनता और असहाय लोकतंत्र की हालत क्या होगी आप सब जानते-समझते हैं।

तो साहित्य क्या समाज और राजनीति से अलग किसी अंधेरी और बहरी गुफा में पाई जाने वाली कोई मृतप्राय वस्तु है, जिसे अपनी जनता और समाज से कोई लेना देना नहीं है।

नहीं, साहित्य हर देश और युग में अपनी जनता और समाज के सुख-दुख से सरोकार रखने वाला वह जीवंत सूर्य की तरह है जिसे काले बादलों की ओट में बहुत समय तक छिपा पाना मुश्किल होता है।

अनामिका जी से मेरा बहुत पुराना परिचय है। केदार नाथ सिंह के साथ दो तीन बार उनके घर जाना भी हुआ। अभी हाल में जब मैं उनके नए उपन्यास "आईना साज” की समीक्षा ’वागर्थ’ के लिए कर रहा था, उस दरम्यान भी उनसे काफी बातें होती रही।

अमीर खुसरो को केंद्र में रख कर लिखे गए "आईना साज” को लेकर मेरे प्रश्नों का भी उन्होंने सुंदर जवाब दिए थे।

बावजूद इन सबके और अनामिकाजी के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए मैं उनसे तथा हिंदी साहित्य जगत से यह जरूर कहना चाहूंगा पुरस्कार आते-जाते रहते हैं, लेकिन एक ईमानदार लेखक की निष्ठा पर कोई आंच आए इसे समाज कभी माफ नहीं कर पाएगा।

अनामिका ने स्वयं अपने उपन्यास '' आईना साज ” में अमीर खुसरो के वसीयत में लिखा है :

"मेरे बच्चों, तुम यह न करना। मेहनत और हुनर की रोटी खाना-मेहनत की कुव्वतेबाजू की रोटी। किसी अमीर, किसी शाह, किसी सुलतान, हाकिम हुकूमत को खुश रखने के पीछे उम्रे अजीज़ न बिताना। इसके एवज में कुछ पाकर भी खुशी नहीं होती और जो कुछ मिलता है, वह ठहरता नहीं।

आज मेरे पास क्या बचा है ? दौलत शान शौकत निभाने में लूटी, कुछ मैंने बांट भी दी, लूटा दी, कुछ यों ही बर्बाद कर दी। बची है तो मेरी यह शायरी बची है, यही मेरे लहू पसीने की कमाई। यही चंद किताबें जो मेरी जिंदगी के तजुर्बे, हालात, इतिहास, फलसफे, खुदा और इंसान के इश्क के ताजादम हैं।

तुम भी इश्क अख्तियार करना, सच्चाई की जिंदगी जीना, जुल्म से नफरत करना और आदमी से मोहब्बत। बाकी तमाम उम्र सभी नफरतों से आजाद रहना।”
("आईना साज" पृष्ठ 115)

यहां अनामिका के उपन्यास "आईना साज" के एक पात्र के कथन को भी उद्धृत करना चाहूंगा :

"अगर मेरी चले तो अयोध्या के विवादित ढांचे पर एक ऐसा पुस्तकालय खड़ा कर दूं जिसमें दुनिया के सब मजहबों की किताबें एक साथ रखी हों, और उनके धर्म-निरपेक्ष साहित्यिक भाष्य...देश कालसापेक्ष व्याख्या हो धर्म की..तभी अनर्गल विवाद थम सकते हैं"।
("आईना साज" पृष्ठ 224)

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