संपादकीय
छत्तीसगढ़ के कांकेर में सरकारी मदद से चलने वाले एक अनाथाश्रम का एक वीडियो सामने आया जिसमें वहां काम करने वाली युवती दो बहुत छोटी बच्चियों को पटक-पटककर मार रही थी। वीडियो पिछले बरस का बताया जा रहा है, और वहां लगे सीसीटीवी कैमरे की इस रिकॉर्डिंग पर राज्य सरकार का महिला और बाल विकास विभाग जांच करके इस मामले को अच्छी तरह दफन कर चुका था, अब फिर यह कब्र फाडक़र निकला है तो हंगामा मचा है। नीचे से ऊपर तक भ्रष्ट इस विभाग के लोगों ने निजी संस्थाओं को ऐसे सेंटर चलाने के लिए अनुदान देने का धंधा बना रखा है, और जिस तरह गौशाला के अनुदान में हिस्सा खाया जाता है, उसी तरह बच्चों से जुड़े हुए अधिकतर ऐसे केन्द्रों में यही तरीका चलता है। यह तो एक वीडियो सुबूत मौजूद है, वरना इसके रहते हुए भी पिछले बरस तो सबने मिलकर यह मामला दफन कर ही दिया था। बच्चों पर हिंसा करने वाली इस युवती पर एफआईआर हुई है, और उसकी गिरफ्तारी हुई है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में कांकेर जिला हाईवे पर है, और यहां जिला मुख्यालय में यह मामला सामने आया है। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि प्रमुख सडक़ों से दूर के जो इलाके हैं, वहां पर हालत इसके मुकाबले अधिक बुरी होना तय है क्योंकि वहां मीडिया का भी ऐसा फोकस नहीं रहता है।
अब अगर पुरानी घटनाओं को याद करें तो यही कांकेर है जहां पर दस बरस पहले झलियामारी आदिवासी छात्रावास में 15 नाबालिग बच्चियों के साथ संगठित तरीके से लंबे समय तक बलात्कार का सिलसिला चला। इसमें एक शिक्षाकर्मी और चौकीदार हॉस्टल की महिला वार्डन के साथ मिलकर बच्चियों से बलात्कार करते थे। अदालत से इन तीनों को उम्रकैद हुई थी। अदालत ने इन बच्चियों को एक करोड़ रूपये से अधिक का कुल मुआवजा देने का भी फैसला दिया था। इसके साथ ही शिक्षा विभाग के कुछ और अधिकारियों को पांच-पांच बरस की कैद हुई थी। छत्तीसगढ़ की ही एक दूसरी घटना जो सामने आती है वह उत्तर छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में जशपुर जिले की है, और वहां अभी दो-तीन बरस पहले मूकबधिर बच्चों के एक सरकारी आश्रय केन्द्र में नशे में धुत्त चौकीदार और इंचार्ज ने लड़कियों का पीछा कर-करके, दौड़ा-दौड़ाकर उन्हें दबोचा था। वहां की महिला इंचार्ज ने जब रोकने की कोशिश की, तो इन लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया था। यह थाने से सौ मीटर की घटना थी, और यौन शोषण की शिकार इन बच्चियों में से एक नाबालिग के साथ बलात्कार भी हुआ था। इस मामले में भी विभाग के लोगों ने सब कुछ दबाने की पूरी कोशिश की थी, लेकिन फिर एक कर्मचारी से यह बात बाहर निकली थी। और उसके बाद एफआईआर हुई।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां पर मीडिया की बड़ी मौजूदगी है वहां भी अगर खुद सरकार के या सरकारी अनुदान से चलने वाले केन्द्रों का यह हाल है, जिला मुख्यालयों में ऐसा हाल है जहां कि कलेक्टर-एसपी बसते हैं, तो फिर बाकी जगहों का हाल तो इससे बहुत अधिक खतरनाक और नाजुक होता होगा। अभी कल छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के एक जज जो कि विधिक सेवा प्राधिकरण के प्रभारी भी हैं, उन्होंने, जस्टिस गौतम भादुड़ी ने पूरे प्रदेश के ऐसे केन्द्रों की जांच करने और उनकी रिपोर्ट भेजने को कहा है। किसी घटना के हो जाने के बाद यही उसका सबसे सही तरीका हो सकता है कि उस तरह के खतरे वाले दूसरे तमाम केन्द्रों की तुरंत जांच करवाई जाए। किसी दुर्घटना या जुर्म को रोकना हर बार मुमकिन नहीं हो पाता, लेकिन उनसे सबक लेना तो किसी भी मामूली समझदार के भी बस की बात रहती है।
हमारा यह भी ख्याल है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले किसी भी तरह के जुर्म में बेहतर अफसरों को जांच में लगाना चाहिए, रिपोर्ट पर तुरंत कड़ी अदालती कार्रवाई शुरू होनी चाहिए, और ऐसे लोगों की जमानत आसानी से नहीं होनी चाहिए क्योंकि दिल्ली में अभी बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी न होने का, और उसके खुले रहने का असर यह देखने मिल रहा है कि शायद वहां नाबालिग महिला पहलवान ने अपनी शिकायत वापिस ले ली है। सरकारी भ्रष्टाचार की कमाई से संपन्न लोग मामले को इसी तरह प्रभावित कर सकते हैं, इसलिए बच्चों के खिलाफ जुर्म के मामलों में जमानत नहीं होनी चाहिए।
हमारा यह भी मानना है कि सिर्फ सरकारी अमला और उसके अनुदान से चलने वाली संस्थाओं के बीच अगर बात सीमित रहेगी, तो वह भ्रष्टाचार की वजह से हर जुर्म को दबा देगी। ऐसे तमाम केन्द्रों में, अनाथाश्रम से लेकर हॉस्टल तक में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों को भी रखना चाहिए, और वकीलों के संगठन जैसे कुछ संगठनों के पदाधिकारियों को भी रखना चाहिए जो कि कानून का टूटना समझ सकें। छत्तीसगढ़ के लिए यह घटना जिस तरह खबरों में आई है, वह ऐसा मौका लेकर आई है कि राज्य के बाकी सभी केन्द्रों के इंतजाम को सुधार लिया जाए। हाईकोर्ट जज का यह आदेश भी ऐसा मौका दे रहा है, और राज्य में अगर बाकी कलेक्टर-एसपी जिम्मेदार होंगे, बाकी विभागों के प्रमुख और दीगर अफसर जिम्मेदार होंगे, तो वे अपना-अपना घर सुधारने में लग जाएंगे।
आज 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है, और लोग तरह-तरह से इस दिन पर्यावरण के महत्व को याद कर रहे हैं। ऐसे सालाना दिनों पर नसीहत तो तमाम लोग पोस्ट करते हैं, लेकिन उस पर अमल मुश्किल भी होता है, और तकरीबन न के बराबर होता है। सुबह से लोग याद दिला रहे हैं कि किस तरह छत्तीसगढ़ में कोयले की खदानों को और बढ़ाने का काम चल रहा है, किस तरह जंगल खतरे में हैं, और किस तरह तालाब सिमटते जा रहे हैं। दूसरी तरफ कुछ व्यापक पैमानों पर एक अलग फिक्र भी चल रही है कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए जो नई तकनीक इस्तेमाल हो रही है, वह खुद आगे जाकर किस तरह की तकलीफ में बदल जाएगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि इन दिनों बिजली बनाने के एक सबसे अच्छे साधन, सोलर पैनल का इस्तेमाल लगातार बढ़ते चल रहा है, लेकिन इसकी जिंदगी 25 साल या उससे कम है, और जब ये अपनी उम्र पूरी कर चुके रहेंगे, तो इनका क्या होगा? इनमें लगी हुई धातुओं को कैसे री-साइकिल किया जा सकेगा? अच्छी बात यह है कि री-साइकिल करने की टेक्नालॉजी इस्तेमाल होने लगी है, और फ्रांस में ऐसी पहली फैक्ट्री की उम्मीद है कि वह सोलर पैनर के 99 फीसदी हिस्से को फिर से इस्तेमाल के लायक बना सकेगी। इसी किस्म की बात बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों को लेकर है कि कुछ बरस इस्तेमाल के बाद जब वे बैटरियां गाडिय़ों से निकालना पड़ेगा, तब उनका क्या किया जाएगा? उनका एक पहाड़ खड़ा हो जाएगा, और क्या वैसी ही नौबत नहीं आ जाएगी जैसी कि आज बढ़ती हुई गाडिय़ों के टायरों को लेकर आ गई है जिनके पहाड़ खड़े हो रहे हैं। लेकिन इसमें भी एक अच्छी बात यह है कि विज्ञान और टेक्नालॉजी ने खराब हो चुके टायरों के रबर का इस्तेमाल सडक़ बनाने में शुरू कर दिया है, और उससे काफी कुछ निपटारा हो सकता है, या यह भी हो सकता है कि सारे के सारे खराब टायर सडक़ बनाने में खप जाएं। आज की टेक्नालॉजी प्लास्टिक के कचरे का भी सीमेंट प्लांट में, सडक़ बनाने में कर रही है, और इससे भी धरती पर कचरा कुछ घट सकेगा।
विज्ञान और टेक्नालॉजी की कई तरह की खोज, और उनका इस्तेमाल बड़ी उम्मीद भी जगाते हैं। बाजार व्यवस्था बढऩे के साथ-साथ लोगों की खपत भी बढ़ रही है, और कचरा भी बढ़ते चल रहा है। ऐसे में आज पर्यावरण दिवस पर यह सोचने की जरूरत है कि कचरा कम कैसे हो सकता है, और उसका निपटारा कैसे हो सकता है ताकि उसके अधिकतर हिस्से को री-साइकिल किया जा सके। यह काम बहुत उच्च तकनीक की जरूरत का भी नहीं है। जहां कहीं भी स्थानीय संस्थाओं, म्युनिसिपलों को चलाने वाले लोग जागरूक और कल्पनाशील हैं, वहां पर कचरे को उठाने के पहले ही घरों और कारोबारों को नसीहत दी जाती है कि वे अलग-अलग किस्म का कचरा, अलग-अलग करके रखें। और यहीं से भविष्य का बचना शुरू होता है। हमने बड़ी-बड़ी राजधानियों में म्युनिसिपलों की अतिसंपन्नता की वजहों से कचरे को इकट्ठा करने और उसके निपटारे में परले दर्जे की लापरवाही देखी है। नतीजा यह होता है कि कचरे का एक बड़ा हिस्सा कभी निपटाया नहीं जा सकता। दूसरी तरफ छोटे-छोटे शहर भी अगर काबिल और मेहनती अफसरों के हवाले हैं, तो वे वहां नागरिकों को जिम्मेदारी सिखाते हैं, और लोगों के घर-दुकान से अलग-अलग किया हुआ कचरा ही उठाते हैं। दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल कचरे के निपटारे पर एक रूपया भी खर्च नहीं करते, दूसरी तरफ वे छांटे हुए कचरे को बेचकर कमा भी लेते हैं। बात महज बचत और कमाई की नहीं है, यह धरती की बर्बादी की बचत भी है, और बेहतर पर्यावरण की कमाई की भी है।
सरकारों और स्थानीय संस्थाओं की संपन्नता प्रतिउत्पादक (काउंटर-प्रोडक्टिव) साबित हो रही है। लोगों को अलाल बनाया जा रहा है, लापरवाह बनाया जा रहा है, और अधिक से अधिक सफाई कर्मचारियों और गाडिय़ों को जोतकर यह संस्कृति विकसित की जा रही है कि म्युनिसिपल का काम लोगों को बेहिसाब सहूलियत देना है। इस सिलसिले को तुरंत ही बंद करना चाहिए। भारत सरकार को चाहिए कि ऐसे किसी म्युनिसिपल को कोई भी फंड देना बंद कर दे जो कि कचरा पैदा करने वाले लोगों से ही उसे अलग-अलग जमा करने का काम न करवा रहे हों। यह बड़ा आसान काम है, और प्लास्टिक कचरा अलग, और सडऩे वाला जैविक कचरा अलग करना कोई मुश्किल बात नहीं है। आज चूंकि यह जिम्मेदारी सिखाई नहीं जा रही है, इसलिए लोग लापरवाह होकर तमाम कचरे को एक कर दे रहे हैं, और दुनिया की कोई भी ताकत इसका किफायती निपटारा नहीं कर सकती। पूरे देश में इसके निपटारे को लेकर जिम्मेदारी सिखाना युद्धस्तर पर शुरू होना चाहिए ताकि धरती पर बोझ बढऩा धीमा हो।
दुनिया के विकसित और सभ्य देशों में आधी सदी से कचरे को अलग-अलग डिब्बों में रखने का काम चल रहा है, और लोग ऐसे नियम को मानना पीढिय़ों पहले सीख चुके हैं। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में लोगों के मिजाज में अराजकता है, और मामूली नियम तोड़े बिना उन्हें खाना नहीं पचता है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। भारत में ठोस कचरे के निपटारे के बहुत से कामयाब तजुर्बे हैं, भारत सरकार को अलग-अलग शहरों के ऐसे कामयाब अफसरों या निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इकट्ठा करके उनसे बाकी देश को भी राह दिखलानी चाहिए। पर्यावरण को बचाने और बेहतर बनाने के लिए सौ किस्म की बातें हो सकती हैं, लेकिन जब आम लोगों को जिम्मेदारी सिखाई जाएगी, तो फिर जिम्मेदारी की वह भावना बाकी कई किस्म के सुधार खुद ही कर लेगी।
हिन्दुस्तान में पेशेवर दिखते सोशल मीडिया एक्टिविस्ट लोगों की एक बड़ी फौज ऐसी है जो रात-दिन सिर्फ नफरत फैलाने में लगी है। यह काम करते हुए उसे यह परवाह भी नहीं है कि वह लगातार सुबूत छोड़ते चल रही है, और किसी दिन देश-प्रदेश की सरकार ईमानदारी से कार्रवाई करेगी तो ऐसे लोग लंबी कैद पाएंगे। ताजा मामला परसों रात ओडिशा के बालासोर में हुए ट्रेन हादसे का है। कल जब लाशों की गिनती बढ़ती चल रही थी, उस वक्त भी समर्पित और पेशेवर नफरतियों की यह फौज यह फैलाने में लगी थी कि जहां यह भयानक एक्सीडेंट हुआ है उसके पास एक मस्जिद है, और परसों का दिन शुक्रवार का था, और यह एक्सीडेंट मासूम नहीं था। बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया पर हादसे की तस्वीर के साथ एक इमारत की तरफ तीर का निशान दिखाकर लिखा कि शुक्रवार का दिन है और पड़ोस में मस्जिद है जेहाद करने को ही हाईवे और रेलवे ट्रैक से लगते हुए मुस्लिम कॉलोनी और मस्जिद उगाई जा रही हैं। कुछ ऐसी तस्वीरें भी गढक़र या कहीं से काटकर लगाई गई हैं जिनमें पटरियों पर टायर पड़े दिख रहे हैं, और मस्जिद और जुम्मे का जिक्र करके लिखा जा रहा है कि यह साजिश के तहत किया गया है। बात भयानक है, और जब प्रधानमंत्री कल उस जगह पर जाकर आए हैं, और रेलमंत्री 24 घंटों से वहां डेरा डाले हुए हैं, तो ऐसे आरोपों की जांच होनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा है कि इसके पीछे जो भी जिम्मेदार हैं उन्हें बहुत कड़ी सजा दी जाएगी, इसलिए भी यह जरूरी है कि सोशल मीडिया पर लगे इन आरोपों की जांच की जाए, और अगर ये आरोप सच न निकलें, तो इन्हें लगाने वाले लोगों को सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के मुताबिक जेल भेजा जाए। ये आरोप छोटे नहीं है, ये एक धर्मस्थल और एक समुदाय को इतने बड़े हादसे के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
अब हिन्दुस्तान में एक-एक करके बहुत सी ऐसी वेबसाइटें हो गई हैं जो कि फैक्ट चेक का काम करती हैं। जिनका सारा काम ही झूठ को पकडऩे, और साजिश का भांडाफोड़ करने का है। इसमें देश में सबसे आगे ऑल्टन्यूज नाम की वेबसाइट है, और उसकी एक हिन्दू रिपोर्टर ने इन आरोपों की जांच की। उसने एक-एक करके बहुत से ऐसे सोशल मीडिया पोस्ट निकाले जिनमें यह आरोप लगाया गया है कि यह मुसलमानों द्वारा किया गया एक हमला था। बाद में ऑल्टन्यूज ने कुछ दूसरे एंगल से ली गई तस्वीरों को देखा तो उनमें यह ढांचा मस्जिद की जगह मंदिर दिख रहा था। उसके बाद इस वेबसाइट ने दुर्घटना स्थल पर मौजूद एक पत्रकार से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि यह बाहानगा का इस्कॉन मंदिर है, और पांच महीने पहले इसका एक यूट्यूब वीडियो भी पोस्ट किया गया था। इस पत्रकार ने मंदिर तक जाकर वहां से इसी इमारत की बोर्ड सहित एक तस्वीर खींची, और उसे भेजा। जिस ढांचे को नफरतियों ने मस्जिद बताकर मुसलमानों को इस साजिश का जिम्मेदार बताया था, वह ढांचा कई तरह की तस्वीरों और वीडियो से इस्कॉन का मंदिर निकला, और मंदिर के लोगों से संपर्क करने पर उन्होंने भी बताया कि वह मंदिर उसी जगह है जहां बगल की पटरी पर एक्सीडेंट हुआ है, उन्होंने यह भी बताया कि हादसे की जो तस्वीरें चारों तरफ फैली हैं, उनमें जो ढांचा दिख रहा है वह इसी मंदिर का है। ऑल्टन्यूज ने यह भी पाया है कि रेलवे के सूत्रों ने पहली नजर में इसे सिग्नल की एक गलती माना है, और जिस लाईन में मालगाड़ी खड़ी थी, उसी लाईन में कोरोमंडल एक्सप्रेस छोड़ दी गई थी।
अब अगर यह वेबसाइट नफरत की इस साजिश का भांडाफोड़ करने के लिए नहीं रहती, तो जाहिर है कि इस रेल हादसे को मुस्लिमों की साजिश करार दिया गया रहता। आज भी जरूरी नहीं है कि इस झूठ और नफरती साजिश का भांडाफोड़ हो जाने के बाद भी बाकी नफरती लोग चुप बैठ जाएंगे, वे हो सकता है कि इस झूठ को और बढ़ाते चलें, क्योंकि इसके झूठ साबित हो जाने के बाद भी इसे आगे बढ़ाने वाले समर्पित लोग रहेंगे ही। अभी इस पल जब हम इस झूठ के बारे में लिख रहे हैं तब भी लगातार लोग इसे आगे बढ़ा ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें मुस्लिमों को बदनाम करना अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद लग रहा होगा।
चूंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वहां कुछ घंटे गुजारकर आए हैं, और उन्होंने कहा है कि इस दुर्घटना के जो भी जिम्मेदार होंगे, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी, ऐसे में यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इस दुर्घटना की झूठी खबरें गढक़र देश में साम्प्रदायिकता और नफरत फैलाने की एक बड़ी साजिश पर भी उन्हें कार्रवाई करनी चाहिए, और सजा दिलवानी चाहिए। इसके बिना हो सकता है कि इस ट्रेन हादसे की तीन सौ के करीब मौतों से कहीं ज्यादा मौतें किसी साम्प्रदायिक घटना में हो जाएं। जिस तरह रेलवे को ट्रेनों की टक्कर रोकने के लिए कवच नाम की एक तकनीक की जरूरत बताई जाती है, उसी तरह देश में समुदायों के बीच जानलेवा टकराव रोकने के लिए भी सद्भाव के एक कवच की जरूरत है, और हिंसक-नफरती लोगों को सजा दिलवाने की जरूरत है। अगर प्रधानमंत्री के स्तर पर एक बार ऐसी कार्रवाई हो जाएगी, तो पूरा देश सुधर जाएगा क्योंकि उन्हें अपने जुर्म के बचाव का भरोसा नहीं रह जाएगा। इससे कम कुछ भी होने पर हिंसा और नफरत का यह सिलसिला चलते ही रहेगा। जिस सुप्रीम कोर्ट ने हेटस्पीच पर पुलिस को खुद होकर जुर्म दर्ज करने कहा है, उसे रोज सुबह ऑल्टन्यूज जैसी दर्जन भर वेबसाइटें देखने के लिए हमारे किस्म का कोई न्यायमित्र नियुक्त कर देना चाहिए जो कि रोज सुप्रीम कोर्ट की तरफ से राज्य सरकारों से जवाब मांगते रहें।
हिन्दुस्तान के ताजा इतिहास का सबसे बुरा रेल हादसा बीती शाम हुआ जब ओडिशा से गुजर रही एक ट्रेन के कई डिब्बे पटरी से उतरे, और वे बगल की पटरी पर जा रही एक दूसरी ट्रेन से जा टकराए, और एक मालगाड़ी इन दोनों से टकराई। नतीजा बहुत ही तकलीफदेह रहा, अब तक 238 मौतों की जानकारी पुख्ता है, और करीब हजार लोग जख्मी हुए हैं। पिछला ऐसा बड़ा हादसा पिछली सदी में 1999 में हुआ था जिसमें 285 लोग मारे गए थे। तब से अब तक इन 25 बरसों में भारत की रेल टेक्नालॉजी में हिफाजत लगातार बढऩे की बात की जाती रही है, और मौजूदा रेलमंत्री ने एक मंच से यह दावा किया था कि भारत की कवच नाम की सुरक्षा तकनीक दुनिया की सबसे अच्छी सुरक्षा तकनीकों के टक्कर की है, और आमने-सामने आती हुई ट्रेनें भी खुद चार सौ मीटर दूर ठहर जाएंगी। उसका वीडियो लोगों ने आज पोस्ट किया है, और रेलमंत्री का यह दावा कल शायद सही साबित नहीं हुआ है।
हम किसी हादसे की प्रारंभिक जांच के भी पहले उसकी जवाबदेही तय करना नहीं चाहते, लेकिन रेलों का जो हाल है वह आम हिन्दुस्तानी के लिए बहुत बड़ी फिक्र का सामान है। लोगों का जीना मुहाल हो गया है, और गरीब ट्रेनों से भी बाहर हो रहे हैं, और रोजगार से भी। कल की दुर्घटना के सिलसिले में इस अखबार ने जनहित के मुद्दों को लेकर अदालत पहुंचने वाले एक प्रमुख वकील सुदीप श्रीवास्तव से बात की, तो उनका कहना था कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पटरियों का ढांचा कमजोर हो रहा है, और रेल सुरक्षा बहुत बुरी तरह खतरे में आ चुकी है। उनका कहना है कि कई इंजन जोडक़र बड़ी-बड़ी रेलगाडिय़ां एक साथ चलाई जा रही हैं, जो कि पटरियों की क्षमता से अधिक है, और उनमें वक्त के पहले दरार आ रही है। उनसे हुई बातचीत इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर आज हम पोस्ट करेंगे, लेकिन यह बात तो अपनी जगह महीनों से लिखी जा रही है कि किस तरह आम मुसाफिरों को लूटकर सरकार अधिक से अधिक मुनाफाखोरी कर रही है, और छोटे-छोटे स्टेशनों पर रेलगाडिय़ों का रूकना बंद करने से वहां से मजदूरी और रोजगार के लिए आने वाले लोगों की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है, पढऩे के लिए आने वाले छात्र-छात्राओं को शहरों में ही रहना पड़ रहा है, और वहां पर किराया बढ़ रहा है। रेलगाडिय़ों के बारे में भी लगातार यह छपते रहा है कि मोदी सरकार ने किस तरह भाड़ा बढ़ाया है, तत्काल जैसे नियमों को इस तरह बदला है कि ट्रेन के खाली डिब्बों में भी तत्काल से ही टिकट मिल रही है। अलग-अलग सौ किस्मों से लोगों को लूटा जा रहा है, और इस अंदाज में निजीकरण किया जा रहा है कि स्टेशन, ट्रेन, और कमाई की बाकी सुविधाएं सभी कारोबारियों के हाथ चली जाएं।
हम रेलवे की टेक्नालॉजी के इतने बड़े जानकार नहीं हैं कि हम कल की दुर्घटना के बारे में अधिक अटकल लगा पाएं, लेकिन यह मौका भारत की रेल व्यवस्था के बारे में सोचने का है जहां पर सरकार ने कोयले की आवाजाही को ऐसी प्राथमिकता दे रखी है कि मुसाफिर गाडिय़ां दस-दस, बारह-बारह घंटे लेट होती हैं, स्टेशनों के बाहर खड़ी रहती हैं। ट्रेनों की जगह बताने वाले मोबाइल ऐप ट्रेन शुरू होते ही यह बता देते हैं कि आखिरी स्टेशन तक ट्रेन कितनी लेट होगी, किन स्टेशनों के बीच कितनी लेट होगी। हमें अपनी पूरी याद में पिछले कई दशकों में ट्रेनों की ऐसी बदहाली याद नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ ट्रेनों को ही केन्द्र सरकार ने प्रचार का डिंडोरा पीटने का एक जरिया बना रखा है। प्रधानमंत्री खुद आए दिन कहीं न कहीं वंदे भारत नाम के एक नए ट्रेन-ब्रांड को झंडी दिखाते दिखते हैं। अब आम गाडिय़ों को रद्द कर दिया गया, हजारों स्टेशनों पर रूकना बंद कर दिया गया, आम मुसाफिर डिब्बे घटा दिए गए, कमाई देने वाले एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए, और मानो इन तमाम तकलीफों को वंदे भारत नाम की एक दीवार उठाकर ट्रंप विजिट के वक्त अहमदाबाद की गरीब बस्तियों की तरह छुपा दिया गया।
हिन्दुस्तानी रेलगाडिय़ां चौथाई सदी से अधिक से कामयाबी से चल रही थीं, वे बहुत कुछ समय पर चल रही थीं, बिना किसी तामझाम और हंगामे के नई गाडिय़ां समय-समय पर शुरू होती थीं, लेकिन उनके लिए मौजूदा गाडिय़ों को किनारे खड़ा नहीं किया जाता था। आज एशिया का यह सबसे बड़ा उद्योग बहुत बदहाली का शिकार है, और चूंकि यह केन्द्र सरकार का मोनोपोली कारोबार है, इसलिए इसकी बदहाली का कोई इलाज भी नहीं है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन यह समझ नहीं पड़ता है कि पहले यह सिलसिला खत्म होगा, या रेलवे पर सरकारी मालिकाना हक। एक-एक करके तमाम चीजों का जब निजीकरण हो जाएगा, तब कारोबारी जनता से और भी मनमानी उगाही करेंगे। सरकार ने जनकल्याण की अपनी जिम्मेदारी वैसे भी छोड़ दी है, ट्रेनों को मुनाफे का जरिया बनाने के लिए तमाम फैसले लिए जा रहे हैं। बुजुर्गों को मिलने वाली रियायत पहले तो लॉकडाउन और कोरोना के खतरे को गिनाकर रोकी गई थी, और फिर उसे पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसी तरह छोटे स्टेशन, सस्ते डिब्बों के मुसाफिर, छोटी सफर के लोग, इन सबको किस तरह खत्म किया जा सकता है, इस पर सरकार लगी हुई है क्योंकि निजीकरण के लिए सिर्फ मुनाफे वाला हिस्सा बचाकर रखना है। लोगों को इस बारे में हमसे अधिक जानकार लोगों का लिखा हुआ भी पढऩा चाहिए, और अपने अखबार वालों से, अपने निर्वाचित नेताओं से पूछना चाहिए कि वे इन मुद्दों को कितना उठा रहे हैं। लोगों का मानना है कि मायने रखने वाले तमाम लोग अब सिर्फ हवाई सफर करते हैं, इसलिए ट्रेन मुसाफिरों की तकलीफों से सब अपनी नजरें दूर रखते हैं।
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सुनील से सुनें : रेलवे किस तरह, किस हद तक जनविरोधी...
हिन्दुस्तान के रेल हादसों के इतिहास में यह पहला मौका नहीं है कि इतने अधिक लोग मरे हैं, यह एक अलग बात है कि इस सदी में यह सबसे ही बड़ी दुर्घटना है, अब तक 261 मौतों की खबर है। हादसे की खबर के साथ-साथ वे वीडियो भी तैर रहे हैं कि किस तरह रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने यह दावा किया था कि भारतीय रेलवे के पास टक्कर रोकने के लिए कवच नाम की एक ऐसी सुरक्षा प्रणाली है जो कि ट्रेनों को चार सौ मीटर दूर ही रोक देती है। हकीकत यह है कि यह कवच कुल दो फीसदी जगहों पर ही अमल में है, और कल जहां हादसा हुआ वह जगह बिना कवच की थी। इस हादसे के अलावा भी भारतीय रेलवे कौन सी खामियों से गुजर रही है उस पर अदालत में पीआईएल लगाने वाले एक वकील सुदीप श्रीवास्तव से बातचीत में बहुत से मुद्दे सामने आए हैं जिनको सुनना और समझना जरूरी है। इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को सुनें न्यूजरूम से।
गुजरात की खबर है कि एक दलित आदमी को ऊंची कही जाने वाली जाति के कुछ लोगों ने बनासकांठा जिले में पीटा जो कि इस दलित व्यक्ति के अच्छे कपड़े पहनने और धूप का चश्मा लगाने से खफा थे। पुलिस में इस व्यक्ति ने रिपोर्ट लिखाई है कि उसे और उसकी मां को पीटा गया। यह कहा गया कि वह इन दिनों बहुत ऊंचा उड़ रहा है, और उसे कत्ल की धमकी दी। उसी रात राजपूत समुदाय के आधा दर्जन लोगों ने लाठियों से लैस होकर कपड़ों और चश्मे को लेकर उसे गालियां बकीं और उसे पीटा। जब उसकी मां उसे बचाने आई तो उसे भी मारा गया और उसके कपड़े फाड़ दिए गए। अभी तक इसमें कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। दलितों के खिलाफ यह रूख पूरी तरह अनदेखा-अनसुना नहीं है। देश भर में जगह-जगह आज भी दलितों को प्रताडऩा के लायक माना जाता है। सोशल मीडिया पर उत्तरप्रदेश का कहा जा रहा एक ऐसा वीडियो भी तैर रहा है जिसमें किसी सरकारी सर्वे के लिए एक हेडमास्टर किसी घर पहुंचे हैं, और वहां पर ब्राम्हण गृहस्वामी उनके कपड़ों से धोखा खाकर उन्हें पानी के लिए पूछ लेते हैं, और पानी देने पर हेडमास्टर उसे गिलास से पी लेते हैं। इसके बाद जैसे ही ब्राम्हण देवता को पता लगता है कि हेडमास्टर हरिजन है, तो उसे चीख-चिल्लाकर, फटकारकर भगा देता है कि गिलास से पानी पीने की हिम्मत कैसे हुई। अब इस वीडियो की सच्चाई तो अभी सामने नहीं आई है, लेकिन हर कुछ महीनों में कहीं न कहीं से दलितों के खिलाफ जुल्म की खबरें आती ही हैं।
एक तरफ तो हिन्दू समाज अपनी आबादी को बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर आमादा रहता है, और गिनती लगाते समय दलितों और आदिवासियों को हिन्दुओं में गिना जाता है, दूसरी तरफ दलितों से बर्ताव ऐसा होता है कि वे हिन्दू धर्म छोडक़र दूसरे धर्मों में जा रहे हैं, हर बरस दसियों लाख लोग हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं, लेकिन यह धर्म अपने शूद्रों के साथ बर्ताव नहीं सुधार रहा। अब तो देश का कानून इतना कड़ा हो गया है, और जगह-जगह एसटी-एससी एक्ट के तहत कार्रवाई भी हो जाती है, इसलिए दलितों पर हिंसा अब उतनी खुलकर नहीं होती, लेकिन दलित अपने ध्रुवीकरण को खो भी बैठे हैं। अब दलितों की किसी पार्टी के रूप में मायावती की बसपा अपनी ताकत खो बैठी है, मायावती जुबान खो बैठी हैं, और जिस उत्तर भारत में एक वक्त बसपा का सिक्का चलता था, आज दलितों के पास वहां कोई राजनीतिक पसंद नहीं रह गई है। मायावती अपने ही कई किस्म के गलत कामों में उलझकर रह गई हैं, और पिछले चुनावों में उन्होंने तकरीबन घर बैठने का काम किया है। लेकिन उनकी कुनबापरस्त पार्टी किसी और दलित पार्टी के लिए जगह भी खाली नहीं कर रही है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त कांग्रेस दलितों की पसंदीदा पार्टी होती थी, लेकिन फिर जब दलितों की अपनी पार्टी बन गई, उसने जोर पकड़ लिया, तो दलितों ने हाथ का हाथ छोड़ दिया।
हिन्दुस्तानी राजनीति में जिस जाति के संगठनों की ताकत है, सरकारों की नजरों में उन्हीं का महत्व है। दलित जब कई पार्टियों के बीच बंट जाते हैं, तो वे एक जाति या समुदाय के रूप में अपना वजन खो बैठते हैं। आज हिन्दुस्तान में नौबत यही है। और तो और जिस महाराष्ट्र में अंबेडकरवादी दलित लोगों की बड़ी संख्या है, वहां भी उनके वोट बाकी चार प्रमुख पार्टियों के बीच भी बंटते हैं, और इसीलिए दलितों को वहां जायज राजनीतिक हक नहीं मिल पाता। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही देखने मिलता है। हिन्दीभाषी प्रदेशों और पंजाब जैसे कुछ दूसरे राज्यों में भी बसपा की एक संभावना थी, लेकिन वह अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। अब बसपा का अस्तित्व बहुत तेजी से खत्म होना जरूरी है ताकि उसका कोई विकल्प सामने आ सके, और यह काम भी बड़ी तेज रफ्तार से होने का नहीं है, इसमें भी कुछ चुनाव निकल जाएंगे।
हिन्दुस्तान की चुनावी राजनीति में जातियों का दबदबा ऐसा है कि आज तमाम प्रदेशों में ओबीसी सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि इनका आबादी में अनुपात भी काफी है, और ये बड़ी तेजी से राजनीतिक ध्रुवीकरण करते हैं। यूपी-बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ भी इसकी एक बड़ी मिसाल है कि अब यहां कांग्रेस और भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां ओबीसी के अलावा कुछ नहीं सोच पा रही हैं। किसी पार्टी पदाधिकारी या सत्ता के किसी को हटाने की बात हो, तो ओबीसी की जगह सिर्फ ओबीसी नाम पर चर्चा होती है, और वैसा ही मनोनयन होता है। बिहार में जाति जनगणना के पीछे ओबीसी ही सबसे बड़ा मुद्दा है, और आज भारत की चुनावी राजनीति का पूरी तरह से ओबीसीकरण हो गया है। एक वक्त था जब दलितों पर जुल्म के मामले सामने आते थे तो सरकारें हिल जाती थीं। अब वह सिलसिला खत्म हो गया है। अब दलित हो या आदिवासी उन पर जुल्म से सरकारों की सेहत पर पहले सरीखा फर्क नहीं पड़ता। कई जगहों पर तो यह भी देखने में मिलता है कि प्रदेश में ताकतवर दो या तीन बड़ी पार्टियां, सभी के रूख इन तबकों के लिए एक सरीखे रहते हैं, और सभी बेफिक्र रहती हैं कि दलित-आदिवासी जाएंगे तो जाएंगे कहां?
इसलिए भारत में दलितों पर जुल्म की घटनाओं को सिर्फ पुलिस के नजरिये से नहीं देखा जा सकता, और न ही इन्हें सिर्फ पुरानी वर्ण व्यवस्था के आधार पर देखा जा सकता है। आज जब तक किसी राजनीतिक दल को दलितों के ध्रुवीकरण का खतरा नहीं दिखेगा, सत्ता या प्रतिपक्ष इनके मुद्दों के प्रति बेपरवाह बने रहेंगे। आज देश में दलितों का किसी बैनरतले एक होना जरूरी है, और ऐसा होते ही सरकारों और पार्टियों का रूख उनके प्रति बदल जाएगा।
कश्मीर और केरल पर फिल्में आ जाने के बाद देश के इतिहास और वर्तमान को तोड़-मरोडक़र पेश करने का सिलसिला थमा नहीं है। गांधी और गोडसे पर बदनीयत से कुछ फिल्में बनाई गई हैं, कुछ बनाई जा रही हैं। ताजा मामला सावरकर पर बनी एक फिल्म का है जिसमें बॉलीवुड के एक चर्चित कलाकार ने सावरकर का किरदार किया है। इस कलाकार ने फिल्म के प्रचार के लिए ट्विटर पर लिखा कि सावरकर अंग्रेजी राज के सबसे अधिक तलाशे जाने वाले हिंदुस्तानी थे, और वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, और खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों की प्रेरणा थे। अब भगत सिंह और खुदीराम बोस के कोई संबंधी शायद इस झूठ के खिलाफ बोलने मौजूद न हों, लेकिन नेताजी के पड़पोते ने इस बात को झूठ करार दिया है और कहा है कि उनके परदाता सावरकर से नहीं, विवेकानंद से प्रेरित थे। चंद्रकुमार बोस ने इस बात को भी गलत बताया कि सावरकर पर बन रही फिल्म में दूसरे क्रांतिकारियों की कहानी बताई जा रही है, और उन्हें सावरकर से प्रेरित बताया जा रहा है। चंद्रकुमार बोस ने कहा कि सावरकर की सोच और उनके विचार सभी से अलग थे, सावरकर हिंदुत्ववादी सोच के समर्थक थे, और हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे, लेकिन नेताजी हिंदू महासभा के खिलाफ थे। उन्होंने कहा कि नेताजी धर्मनिरपेक्षता पर भरोसा रखते थे, और उन्होंने विवेकानंद को अपना गुरू माना था। उन्होंने कहा कि अगर सावरकर की इज्जत करनी है, तो उसके लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ मत कीजिए। उन्होंने यह भी लिखा कि अंग्रेज सरकार की नजर में नेताजी मोस्ट वांटेड थे, और वे अकेले ऐसे प्रमुख नेता थे जिनके खिलाफ अंग्रेज सरकार ने देखते ही गोली मारने का हुक्म जारी किया था।
दरअसल आज हिंदुस्तान जिस दौर से गुजर रहा है उसमें फिल्में तो दूर रहीं, स्कूल-कॉलेज की किताबों को भी बदला जा रहा है, और इतिहास के बहुत से अध्याय मिटाए जा रहे हैं। हमने कुछ समय पहले लिखा भी था कि जो लोग कोई इतिहास लिखने लायक नहीं रहते हैं, वे असल इतिहास को मिटाने का काम तो कर ही सकते हैं। ऐसे लोग पेंसिल की तो नोंक भी नहीं करते, और पीछे लगे रबर से दूसरों का लिखा मिटाते जरूर हैं। आज हिंदुस्तान में हकीकत को झूठ के साथ मिलाकर फिल्में बनाई जा रही हैं, जिनमें अदालती दखल के बाद जोड़ा जा रहा है कि वे हकीकत नहीं हैं, काल्पनिक कहानी हैं, लेकिन देश का एक बड़ा राजनीतिक तबका ऐसी कहानी को असल इतिहास साबित करने के लिए झोंक दिया जा रहा है। जब लाखों लोग रात-दिन इसे सच साबित करने पर उतारू हो जाते हैं, तो करोड़ों लोगों को वह सच ही लगने लगता है, उसमें काल्पनिक कुछ नहीं रह जाता। एक के बाद एक फिल्मों को बनाकर, उनका चुनावी, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, और नफरती-हिंसक इस्तेमाल करके इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जहर घोला जा रहा है। सावरकर क्या थे, इसे अगर इतिहास के एक छोटे हिस्से को ही दिखाकर, और बाकी की हकीकत को छुपाकर कोई उन्हें हीरो दिखाना चाहते हैं, तो भी ठीक है, लेकिन जिस भगत सिंह ने सबसे बहादूरी से फांसी के फंदे को चूमा, उस भगत सिंह को माफी मांगने वाले सावरकर का प्रेरणास्रोत बताया जा रहा है, तो यह केंद्र सरकार के लिए कानूनी कार्रवाई करने का सामान है। भगत सिंह के नाम के साथ सावरकर का नाम लेना भी एक खराब बात होगी, और अगर सावरकर को भगत सिंह का प्रेरणास्रोत बताया जा रहा है तो केंद्र सरकार तुरंत इस पर कार्रवाई करे। यह मांग उठाने के साथ ही हम जानते हैं कि यह कचरे की टोकरी के लायक मानी जाएगी क्योंकि आज की केंद्र सरकार ऐसी तमाम राजनीतिक कोशिशों की हिमायती दिख रही है, और तरह-तरह से हिंदुत्व के प्रतीकों को हर किस्म के क्रांतिकारियों के ऊपर दिखाया जा रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। इस देश के आम लोग भी ऐसी हरकत के खिलाफ जनहित याचिका लेकर अदालत जा सकते हैं। भगत सिंह के इतिहासकार प्रोफेसर चमन लाल अभी जिंदा हैं, और हम इंतजार कर रहे हैं कि वे इस फिल्म के इस दावे के खिलाफ ऐतिहासिक तथ्य सामने रखेंगे। नेताजी की तरफ से उनका परिवार सामने आया है, और उन्हें भी अदालत जाना चाहिए।
वकीलों के एक संगठन, बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है कि किसी भी रिटायर्ड जज को कार्यकाल खत्म होने के दो साल बाद तक किसी तरह की राजनीतिक नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। यह याचिका कुछ मिसालों के साथ लगाई गई है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हुए मोहम्मद हिदायतुल्ला ने रिटायरमेंट के दस साल बाद उपराष्ट्रपति बनना मंजूर किया, इसके पहले तक वे तमाम प्रस्तावों को मना करते रहे। वकीलों के संगठन ने कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ऐसी रोक लगाना जरूरी है क्योंकि अगर कम से कम से दो साल का ऐसा प्रतिबंध नहीं रहेगा तो कोई भी जज सरकारी ओहदे की चाह में सरकार की पसंद के फैसले देने से नहीं हिचकेंगे। यह पिटीशन ऐसे वक्त आई है जब एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राममंदिर के फैसले के चार महीने बाद ही राज्यसभा भेज दिए गए, और इसी बेंच के एक दूसरे जज को रिटायर होने के एक माह बाद ही आंध्र का राज्यपाल बना दिया गया। ये दूसरे जज, जस्टिस एस अब्दुल नजीर नोटबंदी के खिलाफ दायर तमाम याचिकाओं को खारिज करने वाली बेंच में भी थे। मोदी सरकार ने इनके अलावा भी रिटायर्ड जजों को राज्यपाल बनाया और दूसरी जगह भेजा।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से हितों के ऐसे टकराव के खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने अपने स्तर पर भी ऐसे इंतजाम कर रखे हैं कि देश के बहुत से संवैधानिक पदों पर, और कानूनी जरूरतों वाले दूसरे पदों पर रिटायर्ड जजों को ही रखा जा सकता है। ऐसे दर्जनों ओहदे हैं, और अधिकतर जज रिटायर होने के बाद भी इन कुर्सियों पर कानूनी जानकारी वाले कामों पर रखे जाते हैं। लेकिन उपराष्ट्रपति बनाना, राज्यपाल या राज्यसभा सदस्य बनाना इसके लिए किसी का रिटायर्ड जज होना जरूरी नहीं रहता, और ऐसे में जजों को इन जगहों पर लेकर आना एक खतरनाक सिलसिला है।
यह बात सिर्फ रिटायर्ड जजों पर लागू नहीं होती है। रिटायर्ड अफसरों पर भी लागू होती है जो कि अपने राज्यों में सरकार को खुश रखते हैं, और कार्यकाल पूरा होने के बाद वृद्धावस्था पुनर्वास की तरह कोई न कोई ओहदा पा जाते हैं, और भारी महत्व, भारी मेहनताने, और भारी सहूलियतों के कई साल गुजारते हैं। ऐसे अफसर अपनी नौकरी के आखिरी बरसों में सत्ता को खुश करने में लगे रहते हैं ताकि उन्हें रिटायर होते ही कोई न कोई काम मिले। कई अफसर तो सत्ता के ऐसे चहेते बन जाते हैं कि वे वृद्धावस्था पुनर्वास भी एक के बाद एक कई तरह के पाते रहते हैं। यह एक सीधे-सीधे लेनदेन का मामला रहता है, और हम इसका विरोध लंबे समय से कर रहे हैं। अगर प्रदेश के कुछ संवैधानिक ओहदों पर कुछ खास किस्म के तजुर्बे वाले रिटायर्ड जजों और अफसरों को रखना ही है, तो उन्हें दूसरे प्रदेशों से लाना चाहिए, न कि ठकुरसुहाती के फैसले देने वाले, काम करने वाले उसी प्रदेश के जजों और अफसरों को रखना चाहिए। इसके लिए जरूरत हो तो पूरे देश में एक टेलेंटपूल बनाया जा सकता है, और राज्य उसमें से बाहरी लोगों को छांट सकते हैं। आज सत्ता की मेहरबानी इस तरह हावी रहती है कि ऐसे ओहदों पर आने के बाद भी ये लोग सत्ता की पसंद के खिलाफ का कोई काम नहीं करते। हितों के टकराव का यह मामला भ्रष्ट आचरण से कम कुछ नहीं है। इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। हम लगातार यह मांग उठाते रहे हैं, और अब जजों तक सीमित ऐसी एक याचिका वकीलों के संगठन ने लगाई है, जिसे जनहित में मंजूर किया जाना चाहिए।
बहुत किस्म की ऐसी सरकारी नौकरियां रहती हैं जिनमें रिटायर होने के कुछ बरस बाद तक कोई दूसरी नौकरी नहीं की जा सकती। यह तो एक सामान्य समझबूझ की बात है कि रिटायर्ड फौजी अगले ही दिन से किसी हथियार कंपनी की नौकरी करने लगे, तो उसमें एक सीधा खतरा यह रहेगा कि फौज में रहते हुए उसने इस कंपनी के लिए कारोबार की जगह बनाकर छोड़ी होगी। चूंकि न्यायपालिका एक अलग किस्म का सम्मान चाहती है, और अपने-आपको अवमानना के सामंती कानूनों के घेरे में महफूज भी रखती है, इसलिए उसे तो संदेहों से और भी परे रहना चाहिए। पूरे देश में हितों के टकराव पर एक व्यापक फैसला आना चाहिए जो कि जजों और अफसरों पर बराबरी से लागू होता हो, और सार्वजनिक जीवन से भ्रष्ट आचरण और संदेह दोनों को खत्म कर सके।
दिल्ली में अभी एक बस्ती की गली में लोगों की आवाजाही के बीच एक नौजवान ने नाबालिग दोस्त लडक़ी की जिस तरह चाकू भोंक-भोंककर हत्या कर दी, उसका सीसीटीवी वीडियो बहुत भयानक है। अपनी प्रेमिका को इस अंदाज में मारना, और मारते ही चले जाना, और चाकुओं के वार से परे बड़ा सा पत्थर उठाकर उसके सिर पर और पटक देना हिंसा के दर्जे को बताता है। लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए यह नौजवान जितना हिंसक था, उतने ही बेअसर अगल-बगल खड़े हुए लोग, बगल से गुजर रहे लोग भी थे। इस तरह की हिंसा हो रही थी कि बदन से चाकू निकाल-निकालकर यह लडक़ा वापिस घोंप रहा था, और दो-चार फीट की दूरी से लोग गुजर रहे थे, खड़े होकर देख रहे थे, और दूर हट जा रहे थे। जाहिर है कि उस जगह पर बड़े-बड़े कई पत्थर पड़े थे, और नहीं तो कम से कम कोई पत्थर उठाकर इस हत्यारे को मार सकता था, जख्मी कर सकता था, लेकिन एक भी व्यक्ति ने यह जहमत नहीं उठाई। यह देश की राजधानी दिल्ली में दिनदहाड़े खुली सडक़ का हाल है तो दूरदराज देश में दूसरी जगहों पर कानून के राज और लोगों की सामाजिक जवाबदेही का क्या हाल होगा यह अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। एक सिरफिरे और हिंसक नौजवान की प्रेम में निराशा से उपजी हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन ऐसी हिंसा के गवाह बने हुए बाकी लोगों की उदासीनता समझ नहीं आती है। आबादी का ऐसा ही हिस्सा मोहब्बत के खिलाफ झंडे-डंडे लेकर वेलेंटाइन डे पर निकल पड़ता है, बाग-बगीचों में लडक़े-लड़कियों को पकडक़र पीटने लगता है, उन्हें धमकी देने लगता है, और राखी बंधवाने लगता है, लेकिन जब उनकी आंखों के सामने, कुछ फीट दूरी पर इतने भयानक तरीके से कत्ल होते रहता है, तो किसी की सामाजिक जागरूकता जागती नहीं रहती है, वह मौके से हट जाने में ही अपनी हिफाजत देखती है। समाज नाम की यह व्यवस्था एकदम से गायब हो जाती है, और एक कमउम्र लडक़ी को एक हिंसक हत्यारे के हाथ अकेले छोड़ देती है।
अब इस घटना के कुछ दूसरे पहलुओं पर भी सोचना जरूरी है। हत्यारा लडक़ा 20 बरस का एक मुसलमान मैकेनिक है, और लडक़ी 16 बरस की एक हिन्दू राजमिस्त्री की बेटी है जो पढ़-लिखकर वकील बनना चाहती थी। लडक़ी के परिवार का कहना है कि उन्हें इस प्रेम-संबंध के बारे में कुछ नहीं मालूम था। लडक़े ने बयान दिया है कि लडक़ी दो साल से उसके साथ प्रेम में थी, और अब उसे छोडक़र अपने पुराने प्रेमी के पास लौटना चाहती थी, इसलिए उसने उसे मार डाला, और उसे इसका कोई अफसोस भी नहीं है। अब सोचने की बहुत सारी बातों में एक यह भी है कि अगर 14 बरस की उम्र के पहले भी इस लडक़ी का कोई प्रेमी था, तो परिवार और समाज ने लड़कियों को प्रेम-संबंधों में जिम्मेदारी रखने की सीख नहीं दी थी। दूसरी बात यह भी है कि इस उम्र के प्रेम-संबंध न धर्म देखते न जाति देखते, न खानपान देखते। लेकिन अगर प्रेम-संबंधों को आगे बढक़र शादी में तब्दील होना है, तो उस वक्त ये सारी बातें मायने रखती हैं। धर्म और जाति के साथ पारिवारिक रहन-सहन, रीति-रिवाज, और संस्कार जुड़े रहते हैं, खानपान जुड़े रहता है, उस धर्म या जाति से जुड़े हुए कानून जुड़े रहते हैं। बात सिर्फ हिन्दू और मुस्लिम धर्मों की नहीं है, हिन्दू धर्म के भीतर भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग कानूनी दर्जे हैं, और ऐसे प्रेम-संबंधों में कई बार उनसे जुड़े हुए कानूनों का भी इस्तेमाल होता है। लडक़े-लड़कियां इस देश में प्रेम और देह-संबंध की उम्र और हालत में पहुंच जाते हैं, लेकिन वे दिमागी रूप से इसके लिए तैयार नहीं किए जाते कि ऐसी नौबत में उन्हें कैसी समझ का इस्तेमाल करना चाहिए। न सिर्फ देह-संबंधों में, बल्कि भावनाओं के मामले में भी, और भविष्य के लिए फैसले लेने में भी उन्हें तैयार नहीं किया जाता। न मां-बाप कुछ सिखाते, और न ही स्कूल-कॉलेज में इसकी कोई गुंजाइश रहती। इन सबसे परे जो सीख बाजार में मौजूद रहती है, वह बहुत ही घटिया किस्म की रहती है। सेक्स शिक्षा के नाम पर पोर्नो, प्रेम के नाम पर सतही कहानियां, और भविष्य के नाम पर पूरी तरह अनजान नौबत रहती है।
दूसरी तरफ ऐसी हिंसा में लडक़ों के दिमाग में अपने बचपन से छाई हुई एक मर्दानगी रहती है जो कि घर पर मां और बहन को दूसरे दर्जे की नागरिक की तरह देखते हुए पनपी रहती है। जब घर की महिलाओं को कभी बराबरी का दर्जा मिलते नहीं दिखता, तब मर्दानगी की यही सोच इन लडक़ों के दिमाग में गहरे पैठ जाती है, और हिंसा की तरफ ले जाती है। वे किसी लडक़ी या महिला से ना सुनने के आदी नहीं रहते, और ऐसी नौबत आने पर वे तेजी से हिंसक हो जाते हैं। उन्हें अपने तौर-तरीके कुछ नहीं लगते, लेकिन वे लडक़ी या महिला से वफादारी की हर उम्मीद रखते हैं, उनसे एक गुलाम की तरह रहने की उम्मीद भी करते हैं। इसलिए जगह-जगह होने वाली हिंसा में अधिकतर ऐसी रहती हैं जिनमें हिन्दुस्तानी मर्द या लडक़े ही औरत या लडक़ी पर ज्यादती करते दिखते हैं।
हिन्दुस्तान में औरत-मर्द के बीच सामाजिक दर्जे में इतनी गहरी और चौड़ी खाई खुदी हुई है कि छोटे-छोटे लडक़े भी लड़कियों को बराबरी देने के बारे में नहीं सोच पाते, और संसद चलाने वाले बड़े-बड़े बुजुर्ग नेता तो कभी भी महिला आरक्षण के बारे में सोचना नहीं चाहते। देश की पूरी सोच मर्दानगी की शिकार है, मर्द इस सोच के शिकार हैं, और महिलाएं इसकी हिंसा की शिकार हैं। आज लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अधिकतर हिंसक जुर्म रोके जाने लायक इसलिए नहीं हैं कि देश की मानसिकता को रातों-रात बदलना मुमकिन नहीं है। और रातों-रात की बात क्यों करें, इसे बदलने के बारे में सोचा भी नहीं जा रहा है। कुछ महिला संगठन, और कुछ राजनीतिक चेतनासंपन्न लोग जरूर महिलाओं के हक की बात करते हैं, लेकिन असल जमीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता है। यह हिंसा बर्ताव में तो बहुत बाद में आती है, लेकिन औरत-मर्द की गैरबराबरी की शक्ल में वह बचपन से ही दिमाग में बैठी रहती है, और इस हिंसा का खात्मा उस उम्र से ही सोच बदलने से ही हो सकता है।
ब्राजील में महीने भर से एक वीडियो गेम चल रहा था जो 17वीं सदी में वहां प्रचलित गुलाम प्रथा पर बना हुआ था। गूगल प्ले पर मौजूद यह गेम स्लेवरी-सिमुलेटर नाम का था जो खेलने वालों को यह छूट देता था कि वे खेल में गुलाम खरीदें, बेचें, उनको सजा दें, या उनके साथ सेक्स करें। यह खिलाडिय़ों को दो में से एक रास्ता चुनने का मौका देता था कि वे या तो गुलामी को खत्म करने वाले बनें, या फिर पैसे वाले, गुलामों के मालिक बनें। इसके खिलाफ चारों तरफ से शिकायतें हुई थीं और लोगों ने कहा था कि यह उस देश में अकल्पनीय है जहां पर कि रंगभेद एक जुर्म है, और जो देश गुलामी के जख्मों से गुजरा है वहां पर कोई डिजिटल प्लेटफार्म इस तरह का भयानक हिंसक और अमानवीय खेल बना सकता है! वहां की संसद में बहस के दौरान एक सांसद ने कहा कि नौजवान और किशोर ही आमतौर पर खेल खेलते हैं, और उनके बीच गुलामी की हिंसा पर आधारित ऐसे खेल को रखने की बात सोची भी कैसे गई होगी? गूगल के खिलाफ यह शिकायत भी हुई कि उसने ब्राजील के एक कानून को तोड़ा है जो कि किसी भी तरह के रंगभेद के खिलाफ है, और यह खेल काले गुलामों को खरीदने-बेचने और उन्हें सेक्स जैसी कई किस्म की सजा देने का खेल था। इस सांसद ने सरकारी एजेंसियों को इस बात की जांच करने के लिए भी कहा है कि गूगल प्ले पर जिन लोगों ने इस गेम के रिव्यू में लिखा है कि वे असल जिंदगी में भी ऐसा करना चाहेंगे, उन लोगों की जांच होनी चाहिए। एक व्यक्ति ने तो यह तक लिखा था कि यह वक्त गुजारने के लिए शानदार खेल है, लेकिन इसमें और अधिक प्रताडऩा देने के विकल्प जोडऩे चाहिए, जैसे किसी गुलाम को कोड़ों से मारना। ब्राजील की सरकार ने इस गेम की जांच शुरू कर दी है, लेकिन इसे हटाए जाने के पहले तक इसे हजारों लोग डाउनलोड कर चुके थे। यह खेल खिलाडिय़ों को सुरक्षा कर्मचारी रखकर गुलामों को भागने से रोकने का विकल्प भी देता था। इसमें गुलामों के मालिक गोरे दिखाए गए थे, और काले गुलामों को सलाखों के पीछे या जंजीरों में कैद दिखाया गया था।
दुनिया की बड़ी-बड़ी डिजिटल कंपनियों पर विकसित देशों की सरकारें और संसद अपने कामकाज को सुधारने के लिए, उन पर से हिंसा और नफरत को दूर करने के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध लगा रही हैं, फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को अमरीकी संसद की सुनवाई में कई बार पेश होना पड़ा है, और सांसदों ने उनसे यह साफ कर दिया है कि फेसबुक से आपत्तिजनक सामग्री हटाने के लिए वो जो कर रहे हैं, वह काफी नहीं है। दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुर्माने लग रहे हैं, और गूगल या माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को बहुत सी जगहों पर तरह-तरह के प्रतिबंध झेलने पड़ रहे हैं। लेकिन अधिक जागरूक सरकारों का यह मानना है कि ये कंपनियां मुनाफा कमाने में इतनी डूबी हुई हैं कि ये अपने प्लेटफॉर्म से नफरत और हिंसा, झूठ और धमकियों को हटाने के लिए पर्याप्त कोशिशें नहीं कर रही हैं। हिन्दुस्तान में तो हम रात-दिन यही देखते हैं कि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बेकाबू हिंसा बेकसूरों के खिलाफ अभियान चलाती रहती है, और ऐसे हिंसक लोगों पर कोई रोक-टोक नहीं है। हिन्दुस्तान का आईटी कानून वैसे तो जरूरत से अधिक मजबूत है, लेकिन सरकारें इसका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक सोच के मुताबित करती हैं, और सरकार को नापसंद लोगों के खिलाफ हिंसा का सैलाब भी अनदेखा किया जाता है, और बेकसूर लोगों को किस तरह प्रताडि़त किया जाता है यह अभी-अभी ऑल्टन्यूज के मोहम्मद जुबैर के केस में दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने साफ किया है।
लेकिन आज 21वीं सदी में अगर दुनिया की कोई गेम कंपनी ऐसा गेम बनाने का सोचती भी है जो गुलामों को खरीदने-बेचने और उनसे हिंसा करने, उनसे सेक्स करने, उन्हें प्रताडि़त करने का खेल है, तो इस पर महज प्रतिबंध लगाना काफी नहीं है बल्कि ऐसी कंपनी पर अंतरराष्ट्रीय अदालतों में मुकदमा भी चलना चाहिए, और उनका दीवाला निकल जाने की हद तक उन पर जुर्माना भी लगना चाहिए। 20-25 बरस पहले तक दुनिया की सबसे मशहूर ईमेल वाली कंपनियों ने अपने प्लेटफॉर्म पर ऐसे चैटरूम को भी धड़ल्ले से छूट दे रखी थी जो बच्चों से सेक्स की चर्चा करते थे, उसे बढ़ावा देते थे, और एक-दूसरे के लिए उसका इंतजाम करते थे। यह अधिक पुरानी बात नहीं है, एक चौथाई सदी के भीतर की ही है, लेकिन दुनिया के लोगों ने तेजी से उसका विरोध किया, तो आज इस तरह की हिम्मत कोई कर नहीं सकते हैं।
लेकिन इस बात को भी समझने की जरूरत है कि रंगभेद और जातिभेद जिन देशों और समाजों में जुर्म है, वहां भी वह मौजूद तो है ही। अभी अमरीका और कनाडा में एक-एक करके अलग-अलग शहरों में, शिक्षा-बोर्ड में ऐसे कानून बनते जा रहे हैं जो कि जातिभेद को जुर्म करार दे रहे हैं। इसकी शुरूआत अमरीका में बसे हुए दलितों को बचाने के लिए की गई जो कि वहां बसे हुए गैरदलित, सवर्ण हिन्दुओं के हाथों जातिभेद के शिकार हैं। अमरीका जाने के बाद भी लोगों को हिन्दुस्तान की जाति व्यवस्था भुलाए नहीं भूल रही है, और अब वहां दलित आंदोलनकारी जगह-जगह इसकी पहल कर रहे हैं, और जाति व्यवस्था की हिंसा को जानकर, समझकर अमरीका और कनाडा के लोग इसके खिलाफ कानून बनाते जा रहे हैं। जाति व्यवस्था एक किस्म से रंगभेद भी है, और एक किस्म से वह गुलामी प्रथा का विस्तार भी है। हिन्दुस्तान में जिन लोगों को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, उन्हें अमरीका में हिन्दुस्तानियों के बीच हकीकत देखनी चाहिए कि वे खुद तो गोरे अमरीकियों के बीच पूरे हक का दावा रखते हैं, लेकिन यहां से गए हुए नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ भेदभाव करते हैं। अब वहां का कड़ा कानून हिन्दुस्तानी जाति व्यवस्था को भी खत्म करेगा।
हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट में चल रहे मामलों को देखें तो उनका एक बड़ा हिस्सा सरकारों के ही खिलाफ है। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जो इस लोकतंत्र में सरकारों को तानाशाह के अंदाज में काम करने वाला बताते हैं। कल ही इस अखबार के यूट्यब चैनल पर एक वीडियो में हमने यह सवाल उठाया था कि किस तरह एक फैक्टचेकर मोहम्मद जुबैर को दिल्ली की पुलिस एक फर्जी मामले में फंसाते रही, और दिल्ली हाईकोर्ट ने जब पुलिस को घेर लिया कि उसके पास जुबैर के खिलाफ कोई केस ही नहीं है, तो पुलिस ने यह मामला खत्म करने की अपील की। हाईकोर्ट ने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि नफरत की बातें करने वालों के खिलाफ खुद होकर केस दर्ज करना पुलिस का खुद का काम है, इसके लिए उसे किसी शिकायत का इंतजार नहीं करना है, और अगर ऐसे मामले दर्ज नहीं किए गए तो इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। इसके बाद भी देश में कहीं पुलिस को नफरत के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की कोई हड़बड़ी नहीं है। बल्कि कई प्रदेशों में, और केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली में पुलिस नफरत फैलाने वालों के साथ खड़ी दिख रही है, और नफरत के खिलाफ लड़ रहे लोगों को देशद्रोही बताकर जेल भेजने में उसकी हड़बड़ी देखने लायक है। जो लोकतंत्र सरकारों को तकरीबन बेहद हक देता है, वे सरकारें उन हकों का तकरीबन बेजा इस्तेमाल करने की हड़बड़ी में दिखती हैं। सरकारों के खिलाफ अदालतों में चल रहे मुकदमों को देखें तो यह समझ नहीं पड़ता कि वे जनता के लिए सरकार चला रहे हैं, या जनता के खिलाफ।
ऐसा लोकतंत्र जिसके तीन हिस्सों में से सबसे अधिक असर और इस्तेमाल वाली सरकार गलत काम करने में जुटी हो, जनता का खजाना लूटने में जुटी हो, अपने ही ईमानदार कर्मचारियों के खिलाफ ज्यादती करने में लगी हो, अपने भ्रष्ट और दुष्ट लोगों को बचाने में लगी हो, वैसी सरकारों को लोकतंत्र के तहत मिले गए हक देने का क्या फायदा? एक तरफ तो ये सरकारें जनकल्याणकारी और धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और जवाबदेह होने का ढकोसला भी करती हैं, और दूसरी तरफ उनका बर्ताव इसके ठीक खिलाफ रहता है। अगर सरकारों के कुकर्मों से अदालतें लदी हुई न रहें, तो लोगों के बाकी मामले-मुकदमे जल्दी निपट सकेंगे। किसी भी लोकतंत्र में अदालती ढांचा इतना बड़ा और इतना मजबूत तो बनाया नहीं जा सकता कि वह सरकार के ही गलत कामों से निपटने में थककर चूर हो जाए।
जिस तरह किसी मामूली जुर्म के मुकदमे में कटघरे में खड़े हुए छोटे से मुजरिम का छोटा सा वकील बड़े-बड़े तर्क देकर अपने मुवक्किल के खिलाफ मुकदमे को गलत साबित करने में लगे रहता है, यह साबित करता है कि उसके मुवक्किल की उंगलियों में खुजली हो रही थी, इसलिए उसने सामने वाले की जेब में उंगलियां डाल दी थीं, कुछ उसी तरह जब देश-प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी वकील अपनी सरकार के लिए बहस करते दिखते हैं तो दिल शर्म से भर जाता है कि क्या ऐसे ही लोकतंत्र के लिए इन सरकारों को चुना गया था? बड़ी-बड़ी सरकारें अपने नामी-गिरामी मुखिया के साथ जिस तरह कटघरे में खड़े होकर अपने जुर्म छुपाने के लिए तरह-तरह के खोखले तर्क सामने रखती हैं, वे शर्मनाक रहते हैं, लेकिन यह आए दिन की बात हो गई है। दरअसल संविधान बनाने वाले लोगों ने बहुत से प्रावधान बनाते समय यह सोचा भी नहीं था कि एक दिन सरकारें मुजरिम चलाएंगे। वे गौरवशाली लोकतंत्र के दिन थे जब संविधान सभा में भविष्य के संविधान पर चर्चा हुई थी। अब उसमें से कुछ भी बाकी नहीं रह गया है, न लोगों में गरिमा रह गई है, न परंपराओं का कोई सम्मान रह गया है, और न ही अगली पीढ़ी के लिए एक इज्जतदार लोकतंत्र छोडक़र जाने की जिम्मेदारी का अहसास रह गया है।
दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में एक बेहतर कल आने की गुंजाइश नहीं रह गई है, क्योंकि न तो पार्टियां बेहतर बनते दिख रहीं, न ही उन पार्टियों में बेहतर नेताओं के आने की संभावना दिख रही है। सैद्धांतिक रूप से जो पार्टियां ईमानदार दिखती हैं, वे निर्वाचित लोकतंत्र में हाशिए पर जा चुकी हैं। जो पार्टियां हर किस्म के साम्प्रदायिक और जाति आधारित समझौते करने पर आमादा हैं, जिनके पास चुनाव लडऩे के लिए भ्रष्टाचार की अपार दौलत है, उन्हीं पार्टियों का भविष्य दिख रहा है। कुल मिलाकर देश और प्रदेशों में राजनीति लोकतंत्र से पर्याप्त परे जा चुकी दिख रही है। कुछ लोग कमसमझ हैं, उन्हें यह लग सकता है कि हर पांच बरस में होने वाले चुनाव किसी किस्म का लोकतंत्र हैं। हिन्दुस्तानी चुनाव अब सबसे अधिक खर्च करने वाले, सबसे अधिक समझौते करने वाले, सबसे अधिक धार्मिक उन्माद बढ़ाने वाले दलों का खेल रह गया है, जिसकी चर्चा करने के लिए लोकतंत्र जैसे शब्द को बदनाम नहीं करना चाहिए। यह लोकतंत्र फिलहाल पटरी से इंजन और तमाम डिब्बों सहित उतरा हुआ दिख रहा है। अब यह कब वापिस पटरी पर आ सकेगा, कब पटरियों की उतनी मरम्मत हो सकेगी, यह कल्पना करना आज आसान नहीं है। बिना कोई नशा किए हुए जिन लोगों को आज इस लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भरोसा है, उन्हें देखकर हमें रश्क भर होता है।
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जिस वक्त अलग-अलग कई राज्यों में सरकारी नौकरियों के लिए इम्तिहान करने वाले राज्य के लोकसेवा आयोग या दूसरे संस्थान तरह-तरह के भ्रष्टाचार में उलझे हुए दिखते हैं, केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली संस्था यूपीएससी ऐसे विवादों से परे दिखती है। सत्तारूढ़ पार्टी कोई भी रहे, देश के लिए सबसे ऊंचे अफसर छांटने वाली संघ लोकसेवा आयोग का काम ठीक चलते रहता है। इसलिए अभी जब यूपीएससी के नतीजों ने दिल्ली पुलिस के हवलदार रामभजन को चुना है, तो यह इस इम्तिहान की आम साख के मुताबिक ही बात है। रामभजन एक गरीब मजदूर परिवार से आए हैं, और खुद भी मजदूरी करते थे। राजस्थान से आकर दिल्ली पुलिस में नौकरी मिली, उन्होंने एक दूसरे पुलिस अफसर को देखा जो पहले दिल्ली पुलिस में सिपाही थे, और फिर यूपीएससी पास करके आईपीएस बने, तब से वे लगातार यूपीएससी की तैयारी कर रहे थे। उनकी जिंदगी की इस असल कहानी पे हम यहां इसलिए लिख रहे हैं कि अगर नौकरियां और कॉलेजों में दाखिला देने वाले इम्तिहानों में ईमानदारी हो, तो कुछ ऐसे गरीब लोगों को भी मौका मिल सकता है। रामभजन की कहानी गांव के सरकारी स्कूल से शुरू, और फिर 12वीं के बाद पुलिस सिपाही बनने की है। नौकरी करते हुए ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन, रोज ड्यूटी के बाद सात-आठ घंटे यूपीएससी की तैयारी, और इम्तिहान के एक महीने पहले छुट्टी लेकर पूरे वक्त तैयारी। कई बार की कोशिशों के बाद उन्हें यह कामयाबी मिली है।
अब सरकारी नौकरी के लिए छांटने वाले संस्थानों की बात अलग है, हम लोगों के सपनों के बारे में भी लिखना चाहते हैं। भ्रष्ट व्यवस्था को तो लोग बदल नहीं सकते, लेकिन उनके बीच ही जहां-जहां गुंजाइश निकल सकती है, उसके लिए तैयारी और कोशिश जरूर कर सकते हैं। हर बरस यूपीएससी और कई राज्यों के इम्तिहानों की खबरें आती हैं कि किस तरह किसी ऑटोरिक्शा ड्राइवर की बेटी ने कामयाबी पाई, या किसी मजदूर के बेटे ने। जिन लोगों को यह लगता है कि सब कुछ भ्रष्ट है, सब कुछ बिका हुआ है, ईमानदार मेहनत से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था के भीतर भी छोटी-मोटी ऐसी संभावना शायद हर जगह बची ही रहती है। और इन संभावनाओं तक वही गरीब पहुंच पाते हैं जो जमकर मेहनत करते हैं। जिन लोगों को यह लगता है कि भ्रष्ट व्यवस्था में मेहनत बेकार है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जब तक वोटों के बहुमत से ऐसी सरकार न आए जो कि भ्रष्टाचार को खत्म करे, तब तक अपनी मेहनत और अपनी कोशिश के अलावा और कोई रास्ता तो है नहीं। एक भ्रष्ट परीक्षा या प्रतियोगिता तंत्र के भीतर मेहनत करते हुए भी लोग चाहे वहां कामयाबी न पा सकें, लेकिन अपने आपको तो मांज ही सकते हैं, अपने को पहले से बेहतर बना सकते हैं, और जिंदगी के दूसरे गैरसरकारी मुकाबलों के लिए भी तैयार कर सकते हैं। पाया हुआ ज्ञान, सीखा हुआ हुनर, और हासिल की हुई समझ कहीं नहीं जाते, किसी न किसी वक्त वे काम आते हैं, और उसी को ध्यान में रखते हुए लोगों को अपनी तैयारी तो जारी रखनी ही चाहिए, फिर चाहे वे भ्रष्ट तंत्र के भीतर कुछ पा सकें या नहीं।
दूसरी बात यह भी है कि सरकारी नौकरियां बहुत बुरी तरह से घटती चल रही हैं। केन्द्र सरकार हर सार्वजनिक प्रतिष्ठान को बेचने के फेर में हैं, और उसके बाद तो नौकरियां सिर्फ निजी कंपनियों के हाथ रह जाएंगी, सरकार का अपना आकार घट जाएगा। इसलिए घटती हुई नौकरियों और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, लोगों को अपने आपको अधिक काबिल, अधिक बेहतर बनाना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि इम्तिहानों से परे ऐसे इंटरव्यू का सामना भी करना पड़ सकता है जहां पर उनका व्यक्तित्व भी काम आ सकता है, भाषा, बोलने का लहजा, सामान्य ज्ञान, और सहज-समझ सबकी कीमत हो सकती है। हिन्दुस्तान में आज दिक्कत यह लगती है कि बेरोजगार इतने हताश हैं, और सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत का इंतजाम करते लगे रहते हैं कि वे सही तैयारी नहीं करते। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि सरकारी नौकरियों से परे निजी क्षेत्र में न तो उस तरह की रिश्वत चलती, न ही सलेक्शन में वैसा भ्रष्टाचार रहता। इसलिए असल तैयारी रिश्वत के बाद भी सरकारी नौकरी पाने में मदद कर सकती है, और बिना रिश्वत के निजी नौकरी पाने में भी।
जिस मिसाल से हमने आज की यह बात शुरू की है उस पर लौटें, तो एक तकरीबन अनपढ़ मजदूर परिवार से निकलकर रामभजन 12वीं के बाद से दिल्ली पुलिस की मुश्किल नौकरी भी कर रहा है, और इम्तिहान की तैयारी भी। अपने ही दम पर, बिना किसी महंगी कोचिंग के, वो यहां तक पहुंचा, साथ-साथ 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी पत्नी की भी पढ़ाई शुरू करवाई, और गांव के स्कूल में उसका जाना शुरू करवाया। यह पूरा मामला उन तमाम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी मिसाल है जो लोग मेहनत न करने के हजार किस्म के बहाने तलाशकर बैठे रहते हैं। बहुत से लोगों को बेहतर सहूलियते हासिल रहती हैं, और उन्हें यह भी देखना चाहिए कि वंचित तबके का एक लडक़ा किस तरह की अभावग्रस्त जिंदगी में कामयाबी हासिल करता है। आज इस मुद्दे पर लिखना सिर्फ इसीलिए है कि चारों तरफ भ्रष्टाचार का अंधेरा दिखता है, लेकिन ऐसी ही अंधेरी सुरंग के आखिर में इस किस्म की एक रौशन मिसाल भी दिखती है जिसे देखकर हर किसी को मेहनत करनी चाहिए।
राजस्थान में होने जा रहे एक सामूहिक विवाह की दावत के इंतजाम की खबर आई है, इसमें पांच लाख मेहमानों के आने का अंदाज है, और हजार रसोईये सात दिनों से पकवान बनाने में लगे हैं, समारोह स्थल पर ट्रैक्टरों से खाना सप्लाई होगा, और गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स वाले इस रिकॉर्ड को दर्ज करने के लिए डेरा डाले हुए हैं। इसमें 22 सौ जोड़ों की शादी होने जा रही है, जिनमें 111 जोड़े मुस्लिम हैं, और बाकी हिन्दू समाज की अलग-अलग जातियों के हैं। एक सामाजिक संस्था इसे करीब सौ करोड़ रूपये की लागत से करवा रही है।
इस खबर पर आज लिखने की जरूरत कुछ अलग-अलग वजहों से लगती है, पहली बात तो यह कि न सिर्फ अलग-अलग जातियों के जोड़ों की शादी एक साथ हो रही है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग भी इसमें शामिल हैं। हर जोड़े पर औसत करीब डेढ़ लाख रूपये खर्च होने का अंदाज है जो कि आज किसी भी आम शादी के खर्च से कम ही है। इसलिए इसे बहुत खर्चीला आयोजन नहीं कहा जा सकता क्योंकि गरीबों में भी कुछ खर्च तो होता ही है। इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि समाज से सौ करोड़ रूपये का यह खर्च निकल रहा है, और किसी धार्मिक आयोजन के बिना, एक सामाजिक मकसद से लोग पैसे दे रहे हैं। भारत में धर्म और आध्यात्म के नाम पर तो लोगों की जेब से पैसे निकल जाते हैं, लेकिन अन्य किसी किस्म की मदद के लिए कम निकलते हैं। इसलिए सामूहिक विवाह जो कि इस किस्म से धर्म और जातियों को एक साथ जगह दे रहा है, गरीबों को भी धूमधाम से शादी का एक मौका दे रहा है, और जिस तरह 22 सौ जोड़ों पर पांच लाख मेहमानों का अंदाज है, तो हर जोड़े के पीछे दो सौ मेहमानों को जगह मिलने वाली है, और यह धूमधाम से हो रही शादी दिखती है। फिर यह भी है कि बिना खर्च, बराबरी से, और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली ये शादियां मामूली या गरीब आय वर्ग के लोगों को हमेशा याद भी रहेंगी।
यह मुद्दा केवल इसी एक वजह से लिखने के लिए काफी नहीं है इसलिए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर भी कुछ अलग बातें लिखनी हैं। एक तो यह कि अलग-अलग शादियों में साधन और सुविधाओं की इतनी बर्बादी होती है, फिजूलखर्ची होती है, हर किसी को असुविधा होती है, इसलिए भी सामूहिक विवाहों का चलन बढऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि शादियों में जिसे हम फिजूलखर्ची कह रहे हैं, वह करोड़ों लोगों के लिए रोजगार भी है, अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा भी है, लेकिन राजस्थान की इस मिसाल को देखकर, या हमारी सलाह को पढक़र रातों-रात तो शादियां खत्म होनी नहीं हैं, और न ही इससे जुड़े कारोबार खत्म होने हैं। अपने से अधिक संपन्नता वाले समाज की देखादेखी लोगों के बीच शादियों पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करने की परंपरा बनी हुई है, और उसका सामाजिक दबाव भी बना रहता है। ऐसे सामाजिक दबाव को खत्म करने के लिए सामूहिक विवाह एक अच्छा जरिया है, और इससे खासकर कमजोर तबकों और मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिल सकती है। ऐसे आयोजनों से समाज के कुछ सबसे रईस लोगों को भी जुडऩा चाहिए जो अपने परिवार की शादियां यहां पर करें, और उससे ऐसे आयोजनों को एक अधिक सामाजिक मान्यता मिल सके। अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी खर्च पर ऐसी शादियां होती हैं, लेकिन वे सरकारी मदद से होती हैं, इसलिए शायद उनमें समाज के संपन्न तबकों के लोग शामिल नहीं होते। इसकी बजाय, या इसके साथ-साथ अलग से अगर सामाजिक स्तर पर ऐसी पहल होगी, संपन्न और मशहूर लोग भी अपने परिवारों की शादियां सामूहिक विवाह में करेंगे, तो बाकी लोगों के बीच भी उसे एक अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी, और गरीब-मध्यमवर्गीय परिवारों पर पडऩे वाला अंधाधुंध दबाव खत्म होगा।
राजस्थान के इस आयोजन का जो बड़ा पैमाना है, वह भीड़भरे कार्यक्रमों के मैनेजमेंट के अध्ययन का एक दिलचस्प केस भी है। हमें भरोसा है कि कुछ बड़े मैनेजमेंट संस्थानों के छात्र और प्राध्यापक इसे देखने, और इससे सीखने को जरूर पहुंचे होंगे, लेकिन इनके साथ-साथ उन राज्यों को भी अपने अफसरों को भेजना चाहिए जहां पर छोटे पैमाने पर ही सही इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। तमाम राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं को ऐसे बड़े आयोजनों का अनुभव अपने अमले को करवाना चाहिए। हो तो यह भी सकता था कि आईएएस जैसी नौकरी के प्रशिक्षण संस्थान भी अपने नए अफसरों को ऐसी जगह भेज सकें, और हो सकता है कि उन्होंने भेजा भी हो। हमें तो इतने बड़े पैमाने की और कोई दूसरी खबर याद नहीं पड़ रही है, इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि सीखने और सिखाने के ऐसे अधिक मौके बार-बार नहीं आते हैं।
भारत जैसे परंपराओं वाले देश में राज्य सरकारों को अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, और अपने खर्च का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में डुबाने के बजाय सामाजिक संस्थाओं को ऐसे आयोजन करने में मदद करनी चाहिए। भारत एक गरीब देश है, और यहां के कमजोर तबके भी बहुत सी परंपराओं को ढोते हैं, सामाजिक रीति-रिवाज उन पर लदे रहते हैं, इसलिए सरकारों को सामाजिक सरलता और किफायत को बढ़ावा देने की ऐसी सामूहिक कोशिशों को बढ़ावा देना चाहिए।
राजस्थान में होने जा रहे एक सामूहिक विवाह की दावत के इंतजाम की खबर आई है, इसमें पांच लाख मेहमानों के आने का अंदाज है, और हजार रसोईये सात दिनों से पकवान बनाने में लगे हैं, समारोह स्थल पर ट्रैक्टरों से खाना सप्लाई होगा, और गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स वाले इस रिकॉर्ड को दर्ज करने के लिए डेरा डाले हुए हैं। इसमें 22 सौ जोड़ों की शादी होने जा रही है, जिनमें 111 जोड़े मुस्लिम हैं, और बाकी हिन्दू समाज की अलग-अलग जातियों के हैं। एक सामाजिक संस्था इसे करीब सौ करोड़ रूपये की लागत से करवा रही है।
इस खबर पर आज लिखने की जरूरत कुछ अलग-अलग वजहों से लगती है, पहली बात तो यह कि न सिर्फ अलग-अलग जातियों के जोड़ों की शादी एक साथ हो रही है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग भी इसमें शामिल हैं। हर जोड़े पर औसत करीब डेढ़ लाख रूपये खर्च होने का अंदाज है जो कि आज किसी भी आम शादी के खर्च से कम ही है। इसलिए इसे बहुत खर्चीला आयोजन नहीं कहा जा सकता क्योंकि गरीबों में भी कुछ खर्च तो होता ही है। इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि समाज से सौ करोड़ रूपये का यह खर्च निकल रहा है, और किसी धार्मिक आयोजन के बिना, एक सामाजिक मकसद से लोग पैसे दे रहे हैं। भारत में धर्म और आध्यात्म के नाम पर तो लोगों की जेब से पैसे निकल जाते हैं, लेकिन अन्य किसी किस्म की मदद के लिए कम निकलते हैं। इसलिए सामूहिक विवाह जो कि इस किस्म से धर्म और जातियों को एक साथ जगह दे रहा है, गरीबों को भी धूमधाम से शादी का एक मौका दे रहा है, और जिस तरह 22 सौ जोड़ों पर पांच लाख मेहमानों का अंदाज है, तो हर जोड़े के पीछे दो सौ मेहमानों को जगह मिलने वाली है, और यह धूमधाम से हो रही शादी दिखती है। फिर यह भी है कि बिना खर्च, बराबरी से, और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली ये शादियां मामूली या गरीब आय वर्ग के लोगों को हमेशा याद भी रहेंगी।
यह मुद्दा केवल इसी एक वजह से लिखने के लिए काफी नहीं है इसलिए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर भी कुछ अलग बातें लिखनी हैं। एक तो यह कि अलग-अलग शादियों में साधन और सुविधाओं की इतनी बर्बादी होती है, फिजूलखर्ची होती है, हर किसी को असुविधा होती है, इसलिए भी सामूहिक विवाहों का चलन बढऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि शादियों में जिसे हम फिजूलखर्ची कह रहे हैं, वह करोड़ों लोगों के लिए रोजगार भी है, अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा भी है, लेकिन राजस्थान की इस मिसाल को देखकर, या हमारी सलाह को पढक़र रातों-रात तो शादियां खत्म होनी नहीं हैं, और न ही इससे जुड़े कारोबार खत्म होने हैं। अपने से अधिक संपन्नता वाले समाज की देखादेखी लोगों के बीच शादियों पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करने की परंपरा बनी हुई है, और उसका सामाजिक दबाव भी बना रहता है। ऐसे सामाजिक दबाव को खत्म करने के लिए सामूहिक विवाह एक अच्छा जरिया है, और इससे खासकर कमजोर तबकों और मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिल सकती है। ऐसे आयोजनों से समाज के कुछ सबसे रईस लोगों को भी जुडऩा चाहिए जो अपने परिवार की शादियां यहां पर करें, और उससे ऐसे आयोजनों को एक अधिक सामाजिक मान्यता मिल सके। अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी खर्च पर ऐसी शादियां होती हैं, लेकिन वे सरकारी मदद से होती हैं, इसलिए शायद उनमें समाज के संपन्न तबकों के लोग शामिल नहीं होते। इसकी बजाय, या इसके साथ-साथ अलग से अगर सामाजिक स्तर पर ऐसी पहल होगी, संपन्न और मशहूर लोग भी अपने परिवारों की शादियां सामूहिक विवाह में करेंगे, तो बाकी लोगों के बीच भी उसे एक अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी, और गरीब-मध्यमवर्गीय परिवारों पर पडऩे वाला अंधाधुंध दबाव खत्म होगा।
राजस्थान के इस आयोजन का जो बड़ा पैमाना है, वह भीड़भरे कार्यक्रमों के मैनेजमेंट के अध्ययन का एक दिलचस्प केस भी है। हमें भरोसा है कि कुछ बड़े मैनेजमेंट संस्थानों के छात्र और प्राध्यापक इसे देखने, और इससे सीखने को जरूर पहुंचे होंगे, लेकिन इनके साथ-साथ उन राज्यों को भी अपने अफसरों को भेजना चाहिए जहां पर छोटे पैमाने पर ही सही इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। तमाम राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं को ऐसे बड़े आयोजनों का अनुभव अपने अमले को करवाना चाहिए। हो तो यह भी सकता था कि आईएएस जैसी नौकरी के प्रशिक्षण संस्थान भी अपने नए अफसरों को ऐसी जगह भेज सकें, और हो सकता है कि उन्होंने भेजा भी हो। हमें तो इतने बड़े पैमाने की और कोई दूसरी खबर याद नहीं पड़ रही है, इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि सीखने और सिखाने के ऐसे अधिक मौके बार-बार नहीं आते हैं।
भारत जैसे परंपराओं वाले देश में राज्य सरकारों को अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, और अपने खर्च का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में डुबाने के बजाय सामाजिक संस्थाओं को ऐसे आयोजन करने में मदद करनी चाहिए। भारत एक गरीब देश है, और यहां के कमजोर तबके भी बहुत सी परंपराओं को ढोते हैं, सामाजिक रीति-रिवाज उन पर लदे रहते हैं, इसलिए सरकारों को सामाजिक सरलता और किफायत को बढ़ावा देने की ऐसी सामूहिक कोशिशों को बढ़ावा देना चाहिए।
देश के इतिहास में नेताओं पर हुए सबसे बड़े नक्सल हमले, झीरम घाटी, में छत्तीसगढ़ के दो दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे, जिनमें कांग्रेस के कुछ सबसे बड़े नेता थे, कुछ उनके साथ के लोग थे। आज उसके दस बरस पूरे हो रहे हैं, और इस पर जितनी जांच और अदालती कार्रवाई हुई है, उससे कहीं अधिक राजनीति चल रही है, वह जारी ही है। लोकतंत्र में नक्सलियों के इलाके में घुसकर राजनीतिक कार्यक्रम करना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन उसमें उस वक्त के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, कांग्रेस के एक और सबसे बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल, बस्तर के सबसे बड़े नक्सल-विरोधी नेता और कांग्रेस पार्टी के महेन्द्र कर्मा, विधायक उदय मुदलियार जैसे बड़े-बड़े नेता उस हमले में शहीद हुए। राज्य में भाजपा की सरकार थी, रमन सिंह मुख्यमंत्री थे, केन्द्र में यूपीए के मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उस वक्त से जांच, जांच आयोग, सरकारों के बीच टकराव, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तरह-तरह की पिटीशन का जो सिलसिला चल रहा है, वह आज भी थमा नहीं है, वह बस अदालती स्थगन से रोका गया है, वरना कार्रवाई जारी है।
यह मामला भारत में अलग-अलग राजनीतिक दलों वाले संघीय ढांचे का है, जांच एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र के टकराव का भी है, और राज्य की सत्ता पर, केन्द्र की सत्ता पर अलग-अलग पार्टियों के आने-जाने से बदले हुए हालात, और अदालतों की दखल का भी है। छत्तीसगढ़ में घटना के समय भाजपा की सरकार थी, और मारे गए लोग कांग्रेस के थे। उस वक्त से ही झीरम को लेकर एक राजनीतिक टकराव ऐसा चले आ रहा है कि इस मामले की जांच और अदालती फैसला किसी किनारे नहीं पहुंच पा रहे। जांच आयोग के काम करने के तरीके से असहमति, आयोग में नई नियुक्ति, नए मुद्दे तो चल ही रहे हैं, वे खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं, बल्कि मौजूदा कांग्रेस सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है, और अदालती स्थगन से उसके हाथ बंधे हुए हैं। दस बरस बाद भी देश की सबसे बड़े जांच एजेंसी एनआईए का मामला एनआईए कोर्ट में चल ही रहा है, और वह किसी किनारे पहुंचते नहीं दिख रहा है। यह हालत न्यायपालिका की भी है कि ऐसे खुले हमले के दस बरस बाद भी पहली अदालत से भी कोई फैसला अभी तक नहीं हो पाया है, जाहिर है कि इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रास्ता सभी के लिए खुला रहेगा, और शायद अगले दस बरस भी आखिरी इंसाफ न हो सके।
नक्सल संगठनों के भीतर इस हमले को लेकर असहमति भी सामने आई थी, और नक्सल नेताओं ने यह माना था कि स्थानीय नक्सलियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर यह अराजकता दिखाई थी, ऐसा हमला किया था, और इसमें नंदकुमार पटेल के बेटे दिनेश पटेल को भी मारा गया था जिनका कि किसी नक्सल-विरोधी अभियान से कोई लेना-देना नहीं था। लेना-देना तो विद्याचरण शुक्ल का भी नहीं था जिन्होंने अपने लंबे राजनीतिक जीवन में कभी राज्य की राजनीति नहीं की थी, और आखिरी दौर में जब वे 2003 का विधानसभा चुनाव एनसीपी में जाकर लड़ रहे थे, तब भी किसी नक्सल मुद्दे से उनका कोई लेना-देना नहीं था। इस तरह नक्सलियों ने उस हमले में जिस तरह की मनमानी की थी, बेकसूर लोगों को छांट-छांटकर मारा था, उससे नक्सल आंदोलन भी बदनाम हुआ था, और उनके नेताओं को भी सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी।
अब आज इस बरसी पर जब हम झीरम में मरने वाले लोगों के परिवारों के साथ इंसाफ के बारे में सोचते हैं तो लगता है कि पार्टियों की राजनीति, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों में टकराहट के चलते इंसाफ अभी दूर कहीं मृगतृष्णा बना हुआ बैठा है। हिन्दुस्तानी अदालती रिवाज के मुताबिक कभी न कभी इस पर फैसला जरूर आएगा, और अपीलों से गुजरते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जरूर पहुंचेगा, लेकिन इस दौरान जितनी बयानबाजी और जितनी कड़वाहट सामने आ रही है, उससे लगता है कि हर कुछ महीनों में सामने आती ऐसी टकराहट से मृतकों के परिवारों की तकलीफ बढ़ती ही होगी। खैर, जब अधिकतर मृतक या शहीद कांग्रेस से जुड़े हुए थे, तो जाहिर है कि यह मामला राजनीति से परे का रह भी नहीं सकता। अब एक दिक्कत यह है कि कांग्रेस और भाजपा से जुड़े हुए नेता हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पिटीशनर बने हुए हैं, और अदालतें अपने मिजाज के मुताबिक बरसों तक सुनवाई कर रही हैं, हर किस्म की जांच पर स्थगन आया हुआ है, तो फिर इंसाफ का सिलसिला आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? हम यहां किसी पार्टी को कुसूरवार ठहराने का काम नहीं कर रहे, लेकिन इतना जरूर सोच रहे हैं कि यह मामला जांच, राजनीति, और अदालती प्रक्रिया की उलझनों की एक इतनी बड़ी मिसाल है कि उसे कई किस्म के कोर्स में पढ़ाया जा सकता है। इसमें केन्द्र-राज्य संबंध भी हैं, नक्सली-लोकतांत्रिक टकराव भी है, राजनीतिक दलों के बीच की कटुता भी है, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र की बहस भी इसमें है, और केन्द्र और राज्य में सत्तारूढ़ पार्टियां बदल जाने से जांच और अदालती कार्रवाई में आने वाला फर्क भी इसमें है। यह समझना मुश्किल है कि चुनावी लोकतंत्र में ऐसी उलझन को कम कैसे किया जा सकता है? झीरम की बरसी के इस मौके पर श्रद्धांजलि देकर फिर अगले बरस तक उसे अनदेखा करना बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम होगा, लोकतंत्र में ऐसी जटिलताओं पर कुछ बेहतर सोच-विचार करना चाहिए।
दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग परंपराएं रहती हैं। और देशों के भीतर ही हर इलाके के अपने रिवाज रहते हैं। लोग उन्हें बहुत गंभीरता से लेते हैं, और कई इलाकों में पीढिय़ों तक ये रिवाज चले आते हैं। अभी आन्ध्र के एक गांव वेमना इंडलू पर बीबीसी की एक रिपोर्ट आई है। इसके मुताबिक इस गांव में सभी लोग नंगे पैर रहते हैं, कोई जूते नहीं पहनते, और गांव के बाहर से अगर कोई बड़े अफसर भी वहां आ जाएं, तो उन्हें गांव के बाहर ही जूते उतारकर भीतर आना पड़ता है। इस गांव के लोग बीमार पडऩे पर इलाज नहीं कराते, और मंदिर की परिक्रमा करके ठीक हो जाने की मान्यता रखते हैं। सांप काट ले तो भी इलाज को नहीं ले जाते कि ईश्वर ठीक कर देंगे। गांव के बाहर का न तो कुछ खाते, न बाहर का पानी पीते। घर से ही पानी लेकर निकलते हैं, और उसी पर जिंदा रहते हैं। कुल 80 लोगों की आबादी है, 25 घर हैं, कुछ लोग ही ग्रेजुएट हुए हैं, लेकिन बाकी लोग गांव की ही खेती-बाड़ी पर चल रहे हैं। माहवारी के दौरान महिलाओं के रहने के लिए गांव के बाहर एक कमरा बना दिया गया है, और पांच दिन उन्हें वहीं रहना पड़ता है। यह जाति ओबीसी में आती है, और इसके बच्चे स्कूल जाते हैं तो वहां दोपहर का भोजन नहीं करते, खाना खाने घर आते हैं। किसी को छूते हैं तो नहाने के बाद ही घर में घुसते हैं। महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल नहीं ले जाया जाता। इस गांव में दलितों का दाखिला नहीं है, और लोग दलितों से बात भी नहीं करते। इस रिपोर्ट के मुताबिक यह गांव तिरुपति से 50 किलोमीटर दूर है, और अफसरों का कहना है कि वे लोगों का अंधविश्वास करने की कोशिश करेंगे।
हिन्दुस्तान परंपराओं से लदा हुआ देश है, और ये परंपराएं लोगों की जिंदगी को जकडक़र रख देती हैं। लोग समाज की परंपराओं से भी लदे रहते हैं, गांव या कस्बे की बातों को भी मानने को मजबूर रहते हैं, और परिवार के रीति-रिवाज को तो मानना ही होता है। इस देश में इस बात को बहुत बड़ा माना जाता है कि कहां किस संयुक्त परिवार के कितने दर्जन लोग एक छत के नीचे रहते हैं, एक रसोई में बना हुआ खाते हैं। जाहिर है कि इन दर्जनों लोगों में कम से कम तीन पीढिय़ों के लोग तो रहते ही होंगे, और ऐसी संयुक्त परिवार व्यवस्था में सबसे बुजुर्ग की बात का सबसे अधिक वजन रहता है। और जाहिर है कि यह बुजुर्ग पीढ़ी नौजवान पीढ़ी से आधी सदी बूढ़ी रहती है, उसकी सोच पुरानी रहती है, बदलती हुई दुनिया का न उन्हें अंदाज रहता है, और न परवाह। ऐसे बरगदों के नीचे जीने वाले लोगों की नई पीढ़ी अपनी हसरतों और महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखकर एक चूल्हे का खाने का फख्र हासिल करती रहती है। जिस गांव की कहानी इस रिपोर्ट में है, वह ऐसे ही एक बड़े परिवार की तरह का है, उसमें कई दर्जन लोग हैं, एक ही जाति के हैं, और जिंदगी के बहुत से गैरजरूरी और महत्वहीन पहलुओं को ढोकर चलने वाले हैं। वे रोजमर्रा की व्यवहारिकता से अछूते रहकर एक अलोकतांत्रिक तौर-तरीके से चल रहे हैं। न महिलाओं को बराबरी का हक है, न दलितों को घुसने का हक है, और न लोगों को बाहर की दुनिया में जाकर खाने-पीने का हक है। और तो और बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन करने का हक नहीं है क्योंकि गांव की परंपरा उसके खिलाफ है। यह पूरा सिलसिला इतिहास के एक पन्ने की तरह लगता है, जिसे इतिहास बन जाना चाहिए था, लेकिन वह वर्तमान बना हुआ है, और भविष्य की छाती पर मूंग दल रहा है।
लोकतंत्र और संविधान दोनों का तकाजा यह है कि ऐसे समाज बदले जाने चाहिए, चूंकि वहां पीढिय़ां रह रही हैं, इसलिए सबसे पुरानी पीढ़ी के सामने और किसी का कुछ चलना नहीं है, कोई समाज सुधार हो नहीं सकता, इसलिए कानून दखल देना चाहिए। घर के भीतर के रीति-रिवाजों में तो कानून की जगह नहीं निकल सकती, लेकिन गांव में जूते-चप्पल पहनकर न घुसने के नियम को तो सरकार तोड़ ही सकती है, दलितों का गांव में दाखिला करवाना ही चाहिए। जब तक सरकारी दखल नहीं होगी, तब तक यह गांव एक किस्म से कुएं में जीता रहेगा, इसके लोगों को कुएं से बाहर लाकर दुनिया दिखाने के लिए जहां-जहां कानून की भूमिका हो सकती है, उसका इस्तेमाल करना चाहिए।
न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया भर में जगह-जगह धर्म, आध्यात्म, और सम्प्रदायों के नाम पर कई किस्म के पाखंड, कई किस्म की हिंसक परंपराएं चलती रहती हैं। तमाम विकसित और सभ्य लोकतंत्रों में इनको तोडऩे के लिए सरकारें दखल देती ही हैं। अमरीका में एक वक्त एक किसी स्वघोषित गुरू के मातहत हजारों लोगों का एक ऐसा कम्यून बना हुआ था जो कि सरकारी सैनिकों से भी टकराव ले रहा था, और सरकार ने फौजी मदद से ही उसे तोड़ा था। हिन्दुस्तान में राम-रहीम से लेकर बहुत से दूसरे ऐसे गुरू रहे हैं जिन्होंने कानून के खिलाफ जाकर, अलोकतांत्रिक तरीके से अपने सम्प्रदाय चलाए, और फिर आखिर में जेल पहुंचे। लोकतंत्र में सरकार देश-प्रदेश के किसी भी हिस्से को कानून से ऊपर रखने की इजाजत नहीं दे सकती, यह उसकी बुनियादी जिम्मेदारी रहती है कि लोग अगर कानून के खिलाफ चल रहे हैं तो उन्हें पटरी पर लेकर आए। अभी जिस गांव की चर्चा चल रही है वह शारीरिक हिंसा तो नहीं कर रहा है, लेकिन दलितों का बहिष्कार करके, अपनी महिलाओं को अछूत मानकर वह सामाजिक हिंसा कर रहा है, इसलिए अफसरों को जरूरत पडऩे पर लड़ाई का इस्तेमाल करके भी इस सिलसिले को खत्म करवाना चाहिए।
मोदी सरकार को देश की जनता ने पांच बरस के लिए चुना है, उसमें अभी साल भर बाकी है, इसलिए मोदी को तो जनता ने एक किस्म से देश की सरकार लीज पर दे दी है, लेकिन जनता विपक्ष लीज पर नहीं देती, वह तो बिखरा हुआ रहता है, और उसे समेटना उसका अपना काम रहता है। आज हिन्दुस्तान में विपक्ष के सामने संभावनाएं मोदी सरकार के मुकाबले अधिक हैं। सत्तारूढ़ पार्टी अपने दसवें बरस में खोने का खतरा अधिक रखती है, लेकिन विपक्ष उसके खिलाफ अनगिनत मुद्दों पर आपसी तालमेल से, और एकजुट होकर सरकार को बड़ी चुनौती दे सकता है। और आज देश की जनता इसी का इंतजार कर रही है। देश भर में मोदी सरकार के खिलाफ मुद्दे इतने बिखरे हुए हैं, और इतने अधिक हैं कि उन पर देश की अलग-अलग गैरएनडीए पार्टियों में एकता हो सकती है, लेकिन इन पार्टियों की प्राथमिकताएं पहले अपने मतभेदों का हिसाब चुकता करना है, उसके बाद ही वे मोदी के बारे में कुछ सोचने की सोचेंगी।
देश की राजनीति के जानकार बहुत से लोगों को मोदी के खिलाफ किसी विपक्षी एकता को लेकर अधिक उम्मीद नहीं है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ऐसी उम्मीद तो इमरजेंसी के दौरान भी नहीं दिखती थी, लेकिन बाद में विपक्षी न सिर्फ एक हुए, बल्कि उन्होंने अपनी पार्टियों का अस्तित्व भी मिटा दिया, और सब मिलकर जनता पार्टी बनीं, और देश का इतिहास बदल डाला। अब इस तर्क पर सोचने की बहुत सारी बातें हैं, क्या इमरजेंसी के दौरान देश में लोकतंत्र की जो हालत थी, और जिसकी वजह से अस्तित्व पर खतरा झेल रहीं पार्टियां, और नेता एक हुए, क्या आज हालात उस तरह के दबाव वाले हैं? दूसरी बात यह कि उस वक्त बहुत से प्रदेशों में कांग्रेस की ही सरकार थी जो कि संजय गांधी की इमरजेंसी का विस्तार करने में उसी खूंखार उत्साह से लगी हुई थीं, और आज देश के प्रदेशों में हालात उस कदर खराब नहीं हैं कि लोकतंत्र में एक बगावत की नौबत आए। इमरजेंसी में नेताओं को जेलों में बंद रहते हुए एकता की मजबूरी भी समझ आई थी, और एकता के लिए बातचीत का मौका भी जुटा था। आज विपक्षी एकता के लिए मायने रखने वाले अधिकतर नेता अपने-अपने प्रदेशों में मुख्यमंत्री हैं, उनके सामने एकता न कोई बेबसी है, और न ही दूसरों के साथ बैठना उनकी मजबूरी है। ऐसे में अलग-अलग कोई पहल कहीं चल रही है, तो उनकी वजह से चल रही है जो कि ऐसे किसी संभावित विपक्षी गठबंधन के मुखिया बनने की हसरत रखते हैं। उससे परे एक साथ बैठकर आधा दर्जन नेता भी कोई बात कर रहे हों, ऐसा नहीं दिखता है। चीटियां भी जब एक साथ जुटती हैं, तो वे अपने बदन से सौ गुना वजनी पत्ते या कीड़े को ढोकर ले जाते दिखती हैं, लेकिन उसके लिए उनका एकजुट होना जरूरी रहता है, और तालमेल से चलना जरूरी रहता है।
अब दिल्ली की ही खबर है कि वहां सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को अधिकारियों पर नियंत्रण के अधिकार देने का जो फैसला सुनाया है, उसे बेअसर करने के लिए केन्द्र सरकार एक अध्यादेश लाई है ताकि केजरीवाल के पंख बंधे ही रहें। अब इस मामले पर केजरीवाल सारी विपक्षी पार्टियों से अपील कर रहे हैं कि जब संसद में इसे पेश किया जाए, तब तमाम पार्टियां एक होकर इसका विरोध करें। इसे लेकर ऐसी खबर भी आ गई थी कि कांग्रेस इस मुद्दे पर अध्यादेश का विरोध करेगी। लेकिन अधिक देर नहीं लगी, कांग्रेस ने इन खबरों का खंडन किया, और कहा कि अभी इस पर पार्टी ने कोई फैसला नहीं लिया है, और पार्टी अपने राज्य संगठन, और दूसरे हमखयाल राजनीतिक दलों के साथ इस पर सलाह करेगी। जबकि कांग्रेस के साथ ठीकठाक तालमेल रख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर केजरीवाल का साथ दिया है, और खुलकर कहा है कि निर्वाचित सरकार को दी गई ताकतें कैसे छीनीं जा सकती हैं, यह संविधान के खिलाफ है, और वे केजरीवाल के साथ हैं, और सभी विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त राहुल गांधी के खिलाफ गुजरात की एक अदालत का फैसला आया, और उनकी संसद सदस्यता अगले दिन खत्म कर दी गई तब केजरीवाल ने खुलकर उसके खिलाफ बयान दिए थे। अगर विपक्ष में एकता की कोई संभावनाएं देखनी हैं, तो उसके लिए लोगों को एक-दूसरे की मुसीबत में साथ देने के बारे में सोचना पड़ता है। मतभेद तो विपक्षी पार्टियों में भी हमेशा ही बने रहेंगे, लेकिन चीटियों को कोई बड़ा सामान उठाकर ले जाना है, तो उन्हें जरूरत के वक्त एकजुट होकर कदमताल करनी पड़ती है, और अपने निजी अस्तित्व को कुछ वक्त के लिए भूलना भी पड़ता है।
चूंकि हमने इमरजेंसी के दौर की विपक्षी एकता से आज की एक तुलना करने का खतरा उठाया है, तो यह भी समझना पड़ेगा कि नेहरू की बेटी को हराने के लिए पार्टियों ने अपने अस्तित्व को भी खत्म कर दिया था, आज की जो भाजपा देश की सरकार पर काबिज है, वह भाजपा भी जनसंघ की शक्ल में जनता पार्टी में विलीन हुई थी, और जनता पार्टी खत्म होने के बाद वह भाजपा बनकर फिर अस्तित्व में आई थी। नाजुक वक्त के ऐसे बहुत से तकाजे रहते हैं जब लोगों को निजी महत्वाकांक्षा, निजी अस्तित्व भूलकर भी एक-दूसरे के साथ हाथ में हाथ थामकर खड़े होना पड़ता है। इमरजेंसी और आज की दूसरी कई किस्म की अलग बातों से परे एक और बात अलग है कि उस वक्त प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से पूरी तरह मुक्त जयप्रकाश नारायण अगुवाई करने को मौजूद थे, और आज बारात में चलने को तैयार हर कोई घोड़ी चढ़े दूल्हा बने दिख रहे हैं। अब ऐसे में बारात आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? फिलहाल पूरी तरह निराश होने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि कोई विपक्षी गठबंधन आखिरी के महीनों में भी हो सकता है, लेकिन एक बात गौर करने लायक यह है कि देश में ऐसी एक सुगबुगाहट चल रही है कि क्या मोदी सरकार संसद के कार्यकाल के पहले छह महीने बाद के कुछ विधानसभा चुनावों के साथ आम चुनाव भी करवा सकती है? अगर ऐसी नौबत आती है, तो अपने-अपने टापुओं पर राज कर रहे विपक्षी नेताओं के पैर सम्हल नहीं पाएंगे।
बिहार से बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि वहां मुस्लिमों के शेरशाहबादी तबके में एक रिवाज के चलते लड़कियां बूढ़ी हो जाती हैं, लेकिन उनकी शादी नहीं हो पाती। छोटे-छोटे गांव-कस्बों में भी ऐसी दर्जनों लड़कियां हैं जिनकी शादी की उम्र निकलती चली गई, और अब उम्र बढ़ जाने से शादी की गुंजाइश नहीं सरीखी रह गई। यह रिपोर्ट इस समुदाय के एक रिवाज को बताती है कि शेरशाहबादी मुस्लिम अपनी लड़कियों का रिश्ता करने की पहल खुद नहीं करते, बल्कि लडक़ों की तरफ से शादी के लिए पैगाम आता है, या मध्यस्थता करने वाले अगुवा आते हैं। समाज में यह माना जाता है कि अगर लड़कियों के मां-बाप पहल कर रहे हैं, तो उनमें कोई खोट होगी। अब इस सामाजिक धारणा के तहत जीते हुए लड़कियों के परिवार अपनी लड़कियों को बूढ़ा होते देखते हैं, खुद मर जाते हैं, और लड़कियों को अकेले मरने के लिए छोड़ देते हैं। जैसे ही शादी की उम्र थोड़ी सी पार होती है, संभावनाएं तेजी से फिसलती चली जाती हैं। अब हाल यह है कि कमउम्र से ही बच्चियों पर यह डर मंडराते रहता है कि कहीं वे बिना शादी के न रह जाएं। एक और चलन यह है कि यह समाज सिर्फ गोरी लडक़ी ढूंढता है, इसलिए जो लड़कियां गोरी नहीं हैं, वे भी घर बैठे रह जाती हैं। ऐसे में परिवार किसी बूढ़े से भी अपनी जवान लडक़ी की शादी कर देते हैं, ताकि शादी हो तो सही।
यह रिपोर्ट कई सवाल खड़े करती है। और बुनियादी तौर पर तो मुस्लिमों के इस समुदाय के लिए करती है, लेकिन मुस्लिमों के बाकी समुदायों में भी कमउम्र की नाबालिग गरीब लडक़ी को किसी बूढ़े पैसे वाले के साथ शादी करके भेज देने के मामले हैदराबाद से बहुत सुनाई देते थे। सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें समाज का मखौल बनाते रहती हैं जिनमें किसी बहुत बूढ़े के साथ कोई कमउम्र लडक़ी दिखती है। एक तो गरीबी, दूसरी अशिक्षा, तीसरी बात किसी तरह की आत्मनिर्भरता की क्षमता न होना, और फिर समाज के तंगनजरिये का कैदी रहना, इन सब वजहों से न सिर्फ मुस्लिमों, बल्कि कई समाजों में लड़कियों की संभावनाएं शुरू होने के पहले ही खत्म हो जाती हैं। मुस्लिमों में खासकर इसलिए कि कमउम्र में शादी कानूनी है, इसलिए गरीब परिवार लडक़ी की पढ़ाई बिना, उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना कोई लडक़ा, आदमी, या बूढ़ा देखकर शादी कर देते हैं, और फिर उस लडक़ी की जिंदगी का रूख हमेशा के लिए एक खाई की तरफ तय हो जाता है। इसलिए जब हिन्दुस्तान के किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री अपनी सारी साम्प्रदायिकता के साथ भी एक से अधिक शादियों पर रोक लगाने की बात करता है, तो हम उसका समर्थन करते हैं। जब देश में ऐसा कानून बना कि तीन बार तलाक शब्द कहकर मुस्लिम पति पत्नी को छोड़ न सके, तो हमने उसका भी समर्थन किया। जब हिजाब पर कर्नाटक में रोक की बात आई, तो हमने व्यक्तिगत पसंद की वकालत करते हुए मुस्लिम लडक़ी के हिजाब के हक का तो समर्थन किया, लेकिन उसे हिजाब से मुक्ति दिलाने के समाज के भीतर माहौल बनाने की भी वकालत की। आज बुर्के और हिजाब की वजह से, और बहुत से गैरमुस्लिम समाजों में तरह-तरह के पर्दों की वजह से लड़कियों और महिलाओं के बराबरी से आगे बढऩे की संभावनाएं खत्म होती हैं। ये चीजें व्यक्तिगत पसंद की हद तक तो ठीक हैं, इन्हें कोई स्कूल-कॉलेज या सरकारी दफ्तर जबर्दस्ती रोके, हम उसके खिलाफ हैं, लेकिन हम ऐसी पोशाक के खिलाफ हैं जो कि महज महिलाओं पर लादी जाती है, चाहे वह मुस्लिम महिला का हिजाब-बुर्का हो, चाहे वह राजस्थानी महिला का घूंघट हो।
बिहार के जिस मुस्लिम समुदाय में लड़कियों की हालत देखकर यह बात लिखी जा रही है, उसे सरकार के स्तर पर भी देखने की जरूरत है। सरकार को ऐसी सामाजिक जागरूकता की कोशिश भी करनी चाहिए कि अलग-अलग समुदाय अपने पुराने पड़ चुके रिवाजों से निकल सकें, वहां महिलाओं को बराबरी के हक मिल सकें, और बेइंसाफी खत्म हो सके। बहुत से समाजों में पर्दे से परे की भी कई तरह की पुरानी परंपराएं चली आ रही हैं, वे नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं को खत्म करती हैं, उनकी संभावनाओं का गला घोंटती हैं, और समाज के मठाधीश उन्हें जारी रखने में अपनी कामयाबी मानते हैं। धर्म और समाज के अधिकतर मुखियाओं का राज पाखंड के जारी रहने से आसानी से जिंदा रहता है, और आगे बढ़ता है। शहरीकरण तो खुद होकर कुछ हद तक इस सिलसिले को तोड़ता है, लेकिन कहीं कानून बनाकर, कहीं सामाजिक जागरूकता लाकर यह सिलसिला खत्म भी करना चाहिए।
जब हम किसी धर्म की परंपराओं और उस धर्म में महिलाओं के हक के बीच टकराव देखते हैं, तो हम महिलाओं के हक के हिमायती रहते हैं। धर्म तो ताजा-ताजा है, लेकिन महिलाओं का अस्तित्व तो धरती पर इंसानों के अस्तित्व से चले आ रहा है, उनका हक धर्म के ऊपर रहना चाहिए। इसलिए किसी धर्म के रिवाज अगर महिलाओं के हक को छीनते हैं, कुचलते हैं, तो ऐसे रिवाज बदलने की जरूरत है। इसके लिए लोकतंत्र अगर कानून भी बदलना पड़े, तो वह भी करना चाहिए। धार्मिक कट्टरता से लादे जा रहे पाखंडी रीति-रिवाजों को लोकतंत्र और मानवाधिकार से ऊपर दर्जा नहीं देना चाहिए। एक वक्त हिन्दुस्तान में सती बनाने की भी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी, बाल विवाह धड़ल्ले से होते थे, अब कानून बनाकर इनको रोका गया। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये कानून किसी धर्म के रिवाज को खत्म कर रहे हैं, लेकिन धर्म को इंसान के बुनियादी हकों से ऊपर जगह देना नाजायज है। इसलिए जहां समाज खुद होकर सुधार नहीं ला पाता है, वहां लोकतांत्रिक सरकार को दखल देनी ही चाहिए।
अभी बलात्कार के आरोप का एक ऐसा मामला सामने आया है जो बहुत से उलझे हुए सवाल खड़े करता है। यह जांच एजेंसी पुलिस और अदालत के सामने तो एक जटिल मुद्दा रहेगा ही, यह अखबारों के लिए भी एक मुश्किल मामला है कि इसकी खबर कैसे बनाई जाए। क्या दो पक्षों की तरफ से पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट के तथ्यों को ज्यों का त्यों ले लिया जाए, या फिर अपनी अक्ल का भी इस्तेमाल किया जाए? रिपोर्टिंग करते हुए आमतौर पर यह बात आसान रहती है कि बिना जज बने हुए पुलिस या अदालत में दर्ज तथ्यों को ज्यों का त्यों पाठकों के सामने रख दिया जाए, लेकिन क्या इस तरह का मशीनी बर्ताव पाठकों या दर्शकों को सचमुच का सच बता पाता है? यह सवाल आसान नहीं है क्योंकि दर्ज तथ्यों का अधिक विश्लेषण करना, और फिर सोच-समझकर तथ्यों को सामने रखना एक किस्म से अदालत के पहले मीडिया की अदालत में, या रिपोर्टर की समझ में इंसाफ करने जैसा काम हो जाता है। कल से ऐसा ही एक मामला परेशान कर रहा है।
हम जानबूझकर इसमें हिन्दुस्तान के इस प्रदेश और उसके शहर का नाम नहीं दे रहे हैं क्योंकि यह मामला कहीं भी हो सकता है। एक गरीब परिवार की नाबालिग लडक़ी पुलिस को रोती-बिलखती मिली, और उससे पता लगा कि पिछले कुछ बरस से दूसरे धर्म का एक लडक़ा उससे प्यार की बातें करते हुए देह-संबंध बना रहा था। यह सिलसिला लगातार चलते रहा। जब यह लडक़ी मारपीट झेलकर पुलिस को मिली तो पुलिस ने इस लडक़े को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद लडक़े के परिवार के दस बरस के बच्चे की ओर से पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई कि बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने वाली लडक़ी की विधवा मां उस बच्चे को लालच देकर अपने घर ले गई, और उसके निजी अंगों से छेडख़ानी की। इस रिपोर्ट के आधार पर पॉक्सो एक्ट के तहत केस दर्ज करके इस महिला को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया, और जेल भेज दिया गया। बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने वाली नाबालिग लडक़ी का कहना है कि पुलिस बलात्कारी के साथ मिलकर समझौता करने, और शिकायत वापिस लेने के लिए धमका रही थी, पैसों का लालच दिया जा रहा था, और जब यह गरीब परिवार उसके लिए तैयार नहीं हुआ, तो उसकी मां के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट लिखाकर उसे आनन-फानन गिरफ्तार करवाया गया। बलात्कार की शिकार लडक़ी हिन्दू है, और आरोपी गिरफ्तार युवक मुस्लिम है, और उसके परिवार के छोटे बच्चे की तरफ से हिन्दू लडक़ी की मां के खिलाफ यौन शोषण की रिपोर्ट दर्ज कराई गई है जिस पर गिरफ्तारी हुई है। इस मामले में एक और पेंच यह भी है कि मुस्लिम युवक को भाजपा से जुड़ा हुआ बताया जा रहा है। अब कुछ हिन्दू संगठन इस मामले को लेकर पहली रिपोर्ट करने वाली लडक़ी के पक्ष में खड़े हो रहे हैं, आंदोलन की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ पहली रिपोर्ट पर गिरफ्तार मुस्लिम युवक भाजपा से जुड़ा होने के बाद भी भाजपा की तरफ से कोई बयान नहीं आया है।
अब सोचने की कई बातें उठती हैं। एक गरीब परिवार की लडक़ी जो कि विधवा मां के साथ रह रही है, वह बलात्कार की रिपोर्ट लिखाती है, और लडक़े की गिरफ्तारी के बाद उसके परिवार का एक बच्चा इस विधवा महिला के खिलाफ यौन शोषण की रिपोर्ट लिखाता है, और पुलिस उस महिला को भी तुरंत गिरफ्तार कर लेती है। बिना किसी की नीयत पर शक किए हुए पहली नजर में देखा जाए तो ऐसा लगता है कि पहली रिपोर्ट के मुकाबले यह दूसरी रिपोर्ट हुई है, और इन दोनों के बीच पुलिस पर यह आरोप भी लगा है कि वह दबाव डालकर लडक़ी से शिकायत वापिस करवाने की कोशिश कर रही थी। अब इस मामले में पुलिस चाहे जैसा मामला बनाए, अदालत जिसे चाहे उसे गुनहगार ठहराए, लेकिन हमारे सामने एक दुविधा और दिक्कत यह है कि इस पूरे मामले की रिपोर्ट कैसे की जाए? अखबार में तथ्यों को बिना जज बने हुए कैसे रखा जाए? इतनी दुविधा कम मामलों में सामने आती है। देश के कुछ हिस्सों में ऐसा जरूर हुआ है कि एक परिवार की बलात्कार की रिपोर्ट के मुकाबले दूसरे परिवार की महिलाओं ने भी बलात्कार की रिपोर्ट लिखा दी। लेकिन एक छोटे बच्चे की तरफ से ऐसी शिकायत का यह मामला बड़ा अजीब है। न तो हम उस लडक़ी की नीयत पर कोई शक कर रहे, न ही इस बच्चे की नीयत पर, लेकिन यह इतना नाजुक मामला हो गया है कि पुलिस को अपनी साख बचाने के लिए, और इंसाफ के लिए भी ईमानदारी और संवेदनशीलता से इसकी जांच करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बता रही है कि 18 साल की उम्र तक यौन संबंध बना लेने वाले लोगों में लड़कियों की संख्या लडक़ों से ज्यादा है। चूंकि यह भारत सरकार का किया हुआ सर्वे है, और आज की सरकार कमउम्र में सेक्स को बढ़ावा देने वाली तो है नहीं, इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं हो सकती कि यह सर्वे गलत होगा। दूसरी बात, इस सर्वे में ही यह लिखा गया है कि ये आंकड़े पूरी तरह से लोगों से बातचीत पर आधारित हैं, और भारत में महिलाएं और लड़कियां इस तरह के रिश्ते पर बात करने में हिचकिचाती हैं, इसलिए हो सकता है कि जितने आंकड़े बताए गए हैं, उनमें आधे छुपा लिए गए हों। रिपोर्ट यह भी कहती है कि गांव की लड़कियां शहर की लड़कियों के मुकाबले कमउम्र में सेक्स-संबंध बनाती हैं। यहां यह समझने की जरूरत है कि यह सर्वे शादीशुदा और बिना शादी वाली, सभी किस्म की लड़कियों और महिलाओं के बारे में हैं, और इसका एक तथ्य यह भी बताता है कि युवकों में 6 फीसदी ने सेक्स वर्कर से देह-संबंध की शुरुआत बताई है, लेकिन महिलाओं के एक हिस्से का कहना है कि उन्होंने अपने परिचितों के साथ सेक्स की शुरुआत की थी। यह राष्ट्रीय सर्वे कई किस्म के मकसद को लेकर किया गया है जिसमें सहमति से सेक्स की उम्र को घटाने की की जा रही मांग पर विचार करने के लिए भी एक जमीन तैयार होगी, और भी कई किस्म के कानूनों में इसके बाद सोचने-विचारने की जानकारी सामने आएगी। अभी माना जा रहा है कि परिवार की सोच, किशोरों और युवाओं के बदन की जरूरत, नौजवानों के आपसी रिश्ते, और कानून, इनके बीच कोई ठीक-ठाक तालमेल नहीं है। हो सकता है कि ऐसे सर्वे के बाद अगर इस पर कोई गंभीर विचार-विमर्श हो, तो कुछ कानून बदल सकते हैं जो कि नौजवान पीढ़ी की जिंदगी को कुछ आसान कर सकते हैं।
इसके साथ-साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि जब लडक़े-लड़कियों का एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा 15 बरस की उम्र में सेक्स-संबंध बनाने की बात खुद होकर मंजूर कर रहा है, तो इस पीढ़ी की सेक्स की जानकारी में इजाफा करने, उन्हें वैज्ञानिक बातों को समझाने, और पहले सेक्स के पहले उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से परिपक्व बनाने की जरूरत दिख रही है। भारत के स्कूलों और कॉलेजों में देह-शिक्षा या सेक्स-शिक्षा की बात आधी सदी से चल रही है, लेकिन लोगों का एक हिस्सा ऐसा है जो इसे पश्चिमी संस्कृति बताता है, और इसका विरोध करने के लिए झंडे-डंडे लेकर टूट पड़ता है। इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ, हिन्दू धर्म के खिलाफ बता दिया जाता है, जबकि भारतीय संस्कृति में सैकड़ों बरस पहले से खजुराहो जैसे अनगिनत मंदिरों की दीवारों पर सेक्स की प्रतिमाएं बनी हुई हैं जो बताती हैं कि इस देश में मुगलों और अंग्रेजों के आने के सैकड़ों बरस पहले से सेक्स पर खुलकर चर्चा होती थी। वात्सायन ने कामसूत्र जैसा विश्वविख्यात ग्रंथ तीसरी शताब्दी के बीच में किसी समय तैयार किया था जो कि सेक्स के आनंद के पहलू पर दुनिया का एक सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। इतिहास गवाह है कि हिन्दुस्तान ने अपने बेहतर वक्त में सेक्स को गंदा नहीं माना, और इसे जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना। हाल की सदियों में धर्म ने अपने पाखंड का प्रचार करते हुए सेक्स की भावना के लिए तरह-तरह के अपराधबोध वाले शब्द गढ़े, और लोगों के मन में इसके लिए वैराग्य और हिकारत पैदा करने की कोशिश की। ऐसे ही कुछ तथाकथित शुद्धतावादियों ने जिंदगी से सेक्स को बाहर करने की कोशिश की, और एक चर्चित तथाकथित आध्यात्मिक संगठन तो पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहने को कहता है। जाहिर है कि ऐसे दाम्पत्य जीवन से पति-पत्नी कहीं न कहीं अलग-अलग सेक्स ढूंढने लगेंगे, और उससे समाज में बवाल बढ़ेगा ही, सेक्स कहीं कम नहीं होगा।
कभी धर्म का नाम लेकर, कभी तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों का नाम लेकर हिन्दुस्तान में एक कट्टर तबका लोगों को, खासकर नौजवानों को सेक्स से दूर रहने की नसीहत देता है। नौजवान तन और मन अपनी जरूरतों को पूरा करने के रास्ते ठीक उसी तरह ढंूढ लेते हैं जिस तरह किसी पहाड़ी नदी का पानी अपने लिए रास्ता ढूंढ लेता है, इस रोक पाना मुमकिन नहीं होता, असल इंसानी जिंदगी में कांक्रीट के बांध तो बनाए नहीं जा सकते कि नौजवान तन-मन की जरूरतों को रोक दिया जाए। नतीजा यह होता है कि समाज नई पीढ़ी को सेक्स की जानकारी देना नहीं चाहता, और यह पीढ़ी बिना वैज्ञानिक समझ के, अपनी सामान्य समझबूझ से, या फिर हाल के दशकों में इंटरनेट की मेहरबानी से हासिल पोर्नोग्राफी को ही सेक्स-शिक्षा मानकर आगे बढ़ जाती है। नतीजा यह होता है कि बदन के प्राकृतिक और स्वाभाविक काम को यह पीढ़ी पोर्नोग्राफी के नजरिये से देखती है, और उसकी वजह से उसका बड़ा नुकसान भी होता है, उसमें एक अलग और अजीब किस्म की हिंसा भी आ जाती है, इस पीढ़ी को यह लगने लगता है कि पोर्नोग्राफी में दिखाए गए तरीके ही सेक्स के स्वाभाविक तरीके हैं।
भारत सरकार के इस ताजा सर्वे की जानकारी से यह बात साफ होती है कि लड़कियों को घर में दबाकर रखना, और लडक़ों को बिना किसी जानकारी और समझ के खुला छोड़ देना कामयाब नहीं हो पा रहा है। इससे सेक्स रूक नहीं रहा है, यह एक अलग बात है कि ऐसे अपरिपक्व उम्र और दिमाग के, और परिपक्व बदन के सेक्स में कोई सावधानी शायद न बरती जा रही हो। इसके बहुत किस्म के खतरे हैं, लड़कियों के गर्भवती हो जाने से लेकर दोनों ही जोड़ीदार के किसी सेक्स-बीमारी को पा लेने तक कई चीजें हो सकती हैं। आज जब अदालतों में यह बहस चल रही है कि सहमति से सेक्स की उम्र घटानी चाहिए, तो यह बात जाहिर है कि ऐसी घटी हुई उम्र के साथ सेक्स की जानकारी भी देनी चाहिए, उसकी समझ भी देनी चाहिए, और खतरों से बचने की नसीहत भी इसी के साथ दी जा सकती है। अपने आपको ऐसा पाखंडी बनाए रखना कि इस देश में शादी के पहले कोई सेक्स नहीं होता, एक झूठे सांस्कृतिक-अहंकार को तो सहला सकता है, लेकिन नई पीढ़ी को वह शर्तिया खतरे में धकेलता है। किसी भी जिम्मेदार और समझदार समाज को एक ऐसे इतिहास में जीने की कोशिश नहीं करना चाहिए जो कि कभी हुआ ही नहीं है। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपनी पहल से किसी सेक्स-शिक्षा को शुरू कभी नहीं करेंगे, उन्हें उन वोटरों की नाराजगी की आशंका होगी, जिन्हें खुद राजनीतिक दलों ने पाखंडी बना रखा है। इसलिए जरूरत पड़े तो कोई जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाना चाहिए, और बताना चाहिए कि वोटरों के मोहताज राजनीतिक दल कभी अपनी सरकार रहते यह काम नहीं करेंगे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ही वैज्ञानिक समझ रखने वाले मनोचिकित्सकों और शिक्षाशास्त्रियों की एक विशेषज्ञ कमेटी बनाकर देश में देह या सेक्स-शिक्षा लागू करे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी एक पश्चिमी देश से एक घटना सामने आई। आदमी-औरत का एक जोड़ा 18 महीने से साथ रह रहा था, और उनका रिश्ता ठीक-ठाक ही चल रहा था। अचानक महिला की नजर अपने जोड़ीदार के लैपटॉप पर पड़ी जो कि खुला हुआ था, और उस पर कुत्ते के एक खूबसूरत पिल्ले की तस्वीर देखकर उसने उसे क्लिक किया। वह देखकर सदमे में आ गई कि उसका 57 बरस का जोड़ीदार उसकी (महिला की) तस्वीरें छुपे हुए कैमरों से ले रहा था, और नहाते, कपड़े बदलते उसकी नग्न तस्वीरों को पोर्नो वेबसाइटों पर पोस्ट कर रहा था। इसके साथ-साथ वह इस महिला के फेसबुक की प्रोफाइल फोटो को भी डाल रहा था ताकि लोगों को पता लग जाए कि ये नग्न तस्वीरें किसकी हैं। यह बदला लेने के लिए किसी भूतपूर्व प्रेमी का किया हुआ काम नहीं था, बल्कि वर्तमान प्रेमी, लिव इन पार्टनर, 57 बरस के कारोबारी आदमी ने जगह-जगह कैमरे लगाकर अपनी साथी की ऐसी तस्वीरें खिंचीं थीं, और उनके नीचे गंदे कमेंट भी पोस्ट किए थे।
बदला लेने के लिए तो दुनिया में प्रेम के वक्त के अंतरंग वीडियो का नाजायज इस्तेमाल बहुत मामलों में दिखता है, लेकिन साथ जीते हुए भी लोग ऐसा कर सकते हैं, यह हक्का-बक्का करने वाली बात है। परिवार के भीतर किस तरह जुर्म होते हैं, इस बारे में अभी हफ्ते भर पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा था, लेकिन अभी दो दिन पहले एक और मामला सामने आया है कि हमारे ही इलाके में एक नौजवान ने मां-बाप और दादी को मारकर घर के आंगन में ही जला डाला, वह इनकी दौलत पर काबिज होना चाहता था, और पिता की जगह सरकारी नौकरी पाना चाहता था। अब लगता है कि लोग आखिर किस किस्म की औलादों की उम्मीद करते हुए उनके लिए अपनी जिंदगी भर की कमाई छोडक़र जाते हैं, उन्हें वारिस बनाकर जाते हैं। इसी महिला के मामले को देखें जो भरोसे के साथ अपने प्रेमी के साथ रह रही थी, और अब उसके खुफिया कैमरों से खिंची अपनी तस्वीरें पोर्नो वेबसाइटों को देखकर वह उसके खिलाफ अदालत तक पहुंची है।
आज इस मामले पर लिखने का मकसद यही है कि लोग परिवार और प्रेम को लेकर जरूरत से अधिक भरोसे में जी रहे हों, तो वे जाग जाएं। कितना ही गहरा प्रेम हो, कितना ही करीबी रिश्ता हो, बहुत से मामलों में इंसान जिंदगी के तमाम मूल्यों और सिद्धांतों को खोकर, छोडक़र, महज अपने बदन की भूख पर उतर आते हैं, यह परले दर्जे के मतलबपरस्त होकर दूसरे सबको मारकर भी उनकी दौलत पर काबिज होना चाहते हैं। वे कुछ मिनटों के अपने देहसुख के लिए घर के बच्चों से बलात्कार पर उतारू हो जाते हैं, या आसपास के बच्चों को चॉकलेट का लालच देकर उनसे बलात्कार करते हैं। दिक्कत यही हो जाती है कि समाज में तथाकथित इंसानियत के साथ जितने किस्म के मूल्य जोड़ दिए गए हैं, उन मूल्यों को लोग समाज में आम इस्तेमाल हो रहे मान लेते हैं। होता यह है कि इंसान के भीतर वह हैवानियत भी बराबरी से काबिज रहती है जिसे लोग इंसान के बाहर की कोई चीज बताना चाहते हैं। वह इंसानियत का ही एक हिस्सा है, और बेहतर बन चुके इंसान उस हैवानियत पर काबू रखते हैं। यह काबू भी कब तक रह पाता है, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। इसलिए एक आदमी अपनी लिव इन पार्टनर, प्रेमिका की नग्न तस्वीरें खुफिया कैमरों से खींचकर उसे पोर्नो वेबसाइट पर पोस्ट करता है, और उसका मजा लेता है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि यह आदमी किसी मानसिक बीमारी का शिकार था, लेकिन हकीकत तो यह है कि अधिकतर लोगों के बीच किसी न किसी किस्म की कोई मानसिक खूबी या खामी रहती है, वह अक्सर छुपी रहती है, और कभी मौका मिलने पर बाहर निकलती है।
आज का वक्त ऐसा है कि टेक्नालॉजी ने हर हाथ में एक कैमरा और रिकॉर्डर थमा दिया है, जो आपको बहुत पसंद हैं, वे अपने मन में आपके लिए कैसी भावना रखते हैं, उसका भी कोई अंदाज नहीं लग सकता। लोगों को याद होगा कि चाल्र्स शोभराज नाम का एक चर्चित हत्यारा बहुत सी लड़कियों को प्रेमिका बनाते रहता था, और उनके कत्ल भी करते रहता था। वह दिखने में आकर्षक था, और लड़कियों को लुभाता भी रहा होगा, तभी वह अनगिनत लड़कियों को प्रेम का झांसा देकर उन्हें कत्ल कर पाया। लोगों को अपनी जिंदगी में दिल पर भरोसे से अधिक अक्ल पर भरोसा करना चाहिए। अक्ल यही कहती है कि अपने बहुत करीबी लोगों से प्रेम रखते हुए भी इतनी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए कि वे आपको तबाह न कर सकें। किसी के भी हाथ में इतनी ताकत नहीं देना चाहिए कि वह आपकी जीने की ताकत को पल भर में खत्म कर सकें। किसी को भी किसी दूसरे पर इतना भरोसा करने के पहले अपने तन-मन के प्रति, अपने जीवन के प्रति, अपनी जिम्मेदारी के बारे में पहले सोचना चाहिए। कोई भी जिंदगी हर दर्जे का धोखा खाकर जी नहीं सकती, छोटे धोखों से तो वह उबर सकती है, लेकिन बहुत बड़े धोखों से वह बाकी सांसों के खत्म हो जाने तक भी नहीं उबर पाती। किसी समझदार ने एक वक्त कहा था कि अपनी बहुत गोपनीय बात, अपने रहस्य, अपने सबसे करीबी इंसान को भी न बताएं, क्योंकि आप अगर इन बातों को बताए बिना नहीं रह पाए, तो वे करीबी लोग किसी और को बताए बिना कैसे रह लेंगे? और यह बात तो याद रखना ही चाहिए कि आज जो सबसे करीबी दोस्त हैं, वे किसी दिन दुश्मन भी बन सकते हैं, और आज उनसे बांटा गया अपने दिल का बोझ उस दिन उनके हाथ इतना बड़ा हथियार रहेगा जिससे कि वे आपको तबाह कर सकें।
पश्चिम के इस ताजा मामले से तमाम लोगों को सबक लेना चाहिए, किसी भी और के प्रति भरोसे से पहले अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करें, क्योंकि आप अगर लापरवाह रहेंगे, तो दुनिया में किसी और पर उसके लिए सावधान रहने की जिम्मेदारी नहीं बनती।
केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू को चर्चित कानून मंत्रालय से हटाकर एक ऐसे मंत्रालय में भेजा गया है जिसका नाम और काम भी लोगों को ठीक से समझ नहीं आ रहा है। उन्हें अब पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय दिया गया है। दूसरी तरफ कानून मंत्रालय राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल को स्वतंत्र प्रभार के रूप में दे दिया गया है। आज केवल यही एक फेरबदल सामने आया है, और इसे लेकर देश के प्रमुख वकील, और भूतपूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने ट्वीट करके मजा लिया है। उन्होंने लिखा है- किरेन रिजिजू, कानून नहीं, अब पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, कानूनों के पीछे का विज्ञान समझना आसान नहीं होता, अब विज्ञान के कानूनों के साथ भिडऩा, गुड लक माई फ्रेंड।
दरअसल किरेन रिजिजू पिछले एक-दो बरस से लगातार सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव के अंदाज में एंग्री यंग मैन बनकर खड़े हुए थे। कोई सार्वजनिक मंच ऐसा नहीं रहता था जहां से वे सुप्रीम कोर्ट को कोंचने से बाज आते हों। नतीजा यह था कि सार्वजनिक जीवन में, मीडिया और सोशल मीडिया पर केन्द्र सरकार लगातार सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ हमलावर दिख रही थी। किरेन रिजिजू का मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों से जुड़े हुए मामलों को समय पर निपटा नहीं रहा था, और यह भी हो सकता है कि उन्हें समय पर निपटाना पूरी केन्द्र सरकार का एक फैसला ही रहा हो, जो भी हो, मामलों से लदी हुई अदालतों की खाली कुर्सियों पर फैसले के बजाय कानून मंत्रालय बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था, और सुप्रीम कोर्ट से जुबान लड़ा रहा था। यह एक बहुत ही शर्मनाक नौबत चल रही थी, और जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा संवेदनशील जज ऐसे सरकारी रूख को लेकर आहत भी थे, और नाराज तो रहे ही होंगे। ऐसे में जब पहले बाम्बे हाईकोर्ट, और फिर सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की तरफ से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और किरेन रिजिजू के बयानों को लेकर एक जनहित याचिका लगाई गई कि इनके बयान अदालतों के लिए अपमानजनक हैं, और संविधान के खिलाफ भी हैं, तो पहले बाम्बे हाईकोर्ट ने उसे खारिज किया, और फिर उसके खिलाफ अपील को सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज किया। अदालत ने दरियादिली दिखाते हुए यह कहा कि हाईकोर्ट का नजरिया ठीक है, अगर किसी जिम्मेदार पद पर बैठे हुए लोग कोई नाजायज बयान देते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट उसे सही नजरिये से देखने में सक्षम है। अदालत ने इस याचिका को खारिज करते हुए कोई कड़ी टिप्पणी भी नहीं की।
लोगों को याद होगा, और इस जगह पर हमने पहले कई बार लिखा भी है कि कानून मंत्री की हैसियत से किरेन रिजिजू एक निहायत ही गैरजरूरी और नाजायज टकराव खड़ा कर रहे थे। वे सुप्रीम कोर्ट को एक किस्म से उसकी औकात समझाने पर आमादा थे, जो भी औकात वे सुप्रीम कोर्ट की समझते थे। वे मौजूदा और रिटायर्ड जजों के खिलाफ अपनी बयानबाजी को दुहराते रहते थे, और कुछ रिटायर्ड जजों के बारे में उन्होंने कहा था कि वे एंटी इंडिया ग्रुप का हिस्सा बन गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम को लेकर भी उन्होंने अपमानजनक और हिकारत वाले बयान दिए थे, और जजों को नीचा दिखाने की उनकी नीयत बार-बार उनकी जुबान पर आती थी। यह बात सही है कि आज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और कई दूसरे जज केन्द्र सरकार को उतनी सहूलियत के नहीं लग रहे होंगे जितने कि बाकी जज पिछले बरसों में लगते आए हैं। लेकिन एक ईमानदार अदालत किसी भी देश-प्रदेश में सत्ता के गलत कामों के खिलाफ जब ईमानदार फैसले देगी, तो वह सत्ताविरोधी तो लगने लगेगी। जब सत्ता बेइंसाफ हो जाए, और अदालत महज संवैधानिक इंसाफ करे, तो भी वह टकराव की मुद्रा में देखी जा सकती है। अभी सुप्रीम कोर्ट के साथ केन्द्र सरकार के रिश्ते कुछ इसी तरह के चल रहे थे। अदालत और सरकार के रिश्ते मधुर भी नहीं रहने चाहिए, लेकिन उनमें मुकाबले की कड़वाहट नहीं रहनी चाहिए। संविधान में इन दोनों की बिल्कुल अलग-अलग भूमिकाएं तय हैं, और जब सरकार वक्त पर अपना काम न करने के लिए बदनाम हो, और वह सुप्रीम कोर्ट पर हमले करती रहे, तो उससे लोगों की नजर में सरकार खलनायक की तरह दिख रही थी। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए उनका कोई अदना सा मंत्री सुप्रीम कोर्ट से इतना बड़ा टकराव लेने का फैसला खुद करता हो। इसलिए हटाया चाहे किरेन रिजिजू को हो, यह नौबत सरकार पर भी झलकती है।
इसी किस्म की बड़बोली बातें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ लगातार कर रहे थे, और वे बिना किसी औपचारिक भूमिका के हर मंच और माइक से अवांछित बातें बोल रहे थे, जो कि न सिर्फ अदालत को नीचा दिखा रही थीं, बल्कि हिन्दुस्तान के संविधान के सबसे बड़े अदालती फैसले पर भी सवाल उठा रही थीं। केशवानंद भारती नाम से चर्चित देश के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ा अदालती फैसला देश के संविधान की अब तक की सबसे बड़ी व्याख्या माना जाता है, और धनखड़ लगातार उस फैसले के खिलाफ बोल रहे थे। मोदी सरकार चाहे जिस वजह से इस फेरबदल पर पहुंची हो, यह मानना ठीक होगा कि इससे देश की हवा में एक गंदगी घुलना बंद होगा, और उपराष्ट्रपति को भी शायद यह समझ आएगा कि नाजायज बातें करने का क्या नतीजा निकला है। जैसा कि कपिल सिब्बल ने कहा है किरेन रिजिजू अब विज्ञान के सिद्धांतों से टक्कर ले सकते हैं, और डार्विन के सिद्धांतों को स्कूली किताबों से खारिज करके केन्द्र सरकार ने उनके लिए एक संभावना खड़ी की हुई है। वे वहां जोर आजमाईश करें क्योंकि डार्विन की अदालत में केन्द्र सरकार के मुकदमे नहीं खड़े हैं।
झारखंड के पलामू जिले में बीस बरस की एक लडक़ी शादी करना नहीं चाहती थी, लेकिन मां-बाप मर चुके थे, और वह चचेरे भाई और भाभी के हवाले थी। वे उसकी शादी करवाना चाहते थे जिसके लिए लडक़ी मना कर चुकी थी। भाई ने रिश्ता तय करके बारात बुला ली, लेकिन लडक़ी घर छोडक़र चली गई। दो दिन बाद वह जब लौटी तो पंचायत जुटी और उसके खिलाफ तालिबानी फैसला सुनाया, भाई-भाभी ने ही उसके बाल काट दिए, चेहरे पर कालिख पोती, और जूते-चप्पल की माला पहनाकर उसे जंगल में छोड़ दिया। अगले दिन जब पुलिस को वह लडक़ी मिली, तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, और उसका कहना है कि चचेरा भाई उसके माता-पिता की छोड़ी हुई संपत्ति को हड़पना चाहता है, इसलिए जबर्दस्ती उसकी शादी करवाना चाहता है।
अभी कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र की एक दूसरी खबर आई थी, और उस पर इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर एक रिपोर्ट भी बनाई गई थी कि बारह बरस की एक बच्ची मां-बाप खोने के बाद भाई-भाभी के पास रह गई थी, और उस बच्ची को पहली बार माहवारी आई तो उसके कपड़ों पर खून देखकर भाई को उस पर शक हुआ, भाभी ने भाई को और भडक़ाया, और भाई ने पीट-पीटकर उस बच्ची को मार डाला। इन दोनों ही मामलों में भाई की की हुई हिंसा में भाभी बराबरी की हिस्सेदार रही, और एक महिला से दूसरी महिला के लिए जिस हमदर्दी की उम्मीद की जा रही थी, वह कहीं नजर नहीं आई। ऐसे तमाम मामले देख लें तो उनमें हिंसा का हमला लड़कियों और महिलाओं पर ही होता है। जिस झारखंड की घटना से आज की यह बात शुरू की गई है उस झारखंड में महिलाओं को टोनही कहकर मारने की बड़ी पुरानी परंपरा है, और काला जादू करने के आरोप में मर्दों को शायद ही कहीं मारा जाता है, महिलाएं ही मारी जाती हैं।
महिलाओं पर हिंसा के मामले में हिन्दुस्तान बहुत आगे है। गर्भ में पलती लडक़ी की शिनाख्त भी अगर सोनोग्राफी से हो जाती है, तो उस लडक़ी को हिन्दुस्तान में अहिंसक तबके भी जिस आसानी से मार डालते हैं, वैसा तालिबानों के राज में भी कन्या भ्रूण के साथ नहीं होता। वहां पर लड़कियों और महिलाओं के पैदा होने के बाद उनके साथ तरह-तरह के हिंसक भेदभाव किए जाते हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या शायद भारत की ही बड़ी मौलिक हिंसा है जिसकी मिसाल कम ही जगहों पर होगी। जानकार लोगों का यह मानना है कि परिवार में लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव देखते हुए ही जो बच्चे बड़े होते हैं, और जो अपनी मां-बहनों के साथ परिवार के दूसरे लोगों की हिंसा देखते हुए उससे सीखते रहते हैं, वे बड़े होकर प्रेमिका, पत्नी, और बेटियों के साथ हिंसा करते हैं। लेकिन इससे भी अधिक खतरनाक बात यह होती है कि बचपन से ही अपने खिलाफ हिंसा झेलते हुए, और परिवार की दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा देखते हुए बड़ी होने वाली लड़कियां खुद भी वक्त आने पर दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा करने लगती हैं। यह सांस्कृतिक सोच अपने तजुर्बों से बनती है, और पुख्ता होते चलती है।
समाज की ऐसी हिंसक सोच कानूनी कार्रवाई से कुछ कम की जा सकती है, लेकिन इसके लिए सामाजिक सुधार की भी बहुत जरूरत है। दिक्कत यह है कि समाज जिन लोगों को सुनता है, वे धर्मगुरू, और प्रवचनकर्ता, धर्म की अपनी बुनियादी सीख के चलते हुए महिलाओं के साथ भेदभाव बढ़ाते चलते हैं, कभी भी उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दे पाते, और उनके साथ होने वाली व्यापक हिंसा के खिलाफ मुंह नहीं खोलते। जिन समाजों में कन्या भ्रूण हत्या सबसे आम हैं, उन समाजों के प्रवचनों में भी उसके खिलाफ कुछ नहीं कहा जाता। नतीजा यह निकलता है कि इस किस्म की चुप्पी एक किस्म से ऐसी हिंसा को मौन सहमति दे देती है, और हिंसक मुजरिमों को लगता है कि वे समाज में किसी तरह का अपमान नहीं झेल रहे, धर्म उन्हें गलत करार नहीं दे रहा।
समाज में ऐसे मामलों पर निगरानी रखने के लिए दूसरे लोग असरदार हो तो सकते हैं, लेकिन वे भी परिवारों में फैसले लेने वाले मुखिया से ही संबंध निभाते हैं, और मुसीबत में फंसी लडक़ी या महिला का साथ देने समाज से भी कोई नहीं आते। अगर उस इलाके में काम कर रहे महिला अधिकार संगठन सक्रिय हैं, तो जरूर कभी-कभी किसी लडक़ी या महिला को मदद मिल जाती है, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। फिर यह भी है कि मुसीबत में पड़ी लडक़ी हिंसा के खिलाफ अगर पुलिस में जाए, तो उसके लिए नारी निकेतन जैसी जगह रहती है जहां उसके लिए कोई भविष्य नहीं रह जाता। न सिर्फ मुसीबत में फंसी और हिंसा झेल रही लड़कियां, बल्कि तमाम किस्म की लड़कियां और महिलाएं तरह-तरह के समझौते करके जिंदा रहती हैं, और यह जाहिर है कि ऐसे तनाव, ऐसी कुंठाओं में जीते हुए उनकी संभावनाएं एकदम खत्म हो जाती हैं। आज दुनिया में आर्थिक रूप से वही देश तरक्की करते हैं जहां महिलाओं का कामकाज में बड़ा हिस्सा है, जहां वे बराबरी से शामिल हैं। हिन्दुस्तान इस मामले में एकदम ही नीचे है, और यहां के कामगारों में 20 फीसदी से कम महिलाएं हैं, उनका घर के बाहर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादक योगदान बहुत कम हो पाता है, और घर के भीतर के उनके योगदान को तो सामाजिक भाषा में उत्पादक गिना ही नहीं जाता है। देश में लड़कियों और महिलाओं पर हिंसा के जुर्म के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जरूरत है, लेकिन इसके लिए पुलिस में खुद महिलाओं की सोच महिलाओं के खिलाफ हिंसक रहती है, हिकारत की रहती है। ऐसी ही सोच पुलिस की तरफ से अदालत में खड़ी होने वाली महिला वकील की भी रहती है, और बहुत से मामलों में महिला जज की सोच भी महिलाविरोधी रहती है। इसलिए किसी तरह का सुधार आसान नहीं है। यह एक लंबी लड़ाई है, लेकिन लड़ाई लड़े बिना इस देश में सतीप्रथा बंद नहीं हुई थी, बालविवाह कम नहीं हुए थे, और विधवा विवाह शुरू नहीं हुए थे। इसलिए लगातार संघर्ष करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
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सुनील से सुनें : हार्दिक पांड्या को सौ खून माफ, बच्ची को माहवारी का खून भी नहीं!
बारह बरस की बिन मां-बाप की एक बच्ची की माहवारी आई तो कपड़ों पर खून देखकर भाई को कुछ और शक हुआ, और बहन को पीट-पीटकर मार डाला। लड़कियों के साथ भेदभाव से लदे हुए हिन्दुस्तानी समाज में लडक़ों और मर्दों की हिंसा बचपन से शुरू होती है, और पचपन के बाद भी चलती रहती है। इस तकलीफदेह खूनी हिंसा पर इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को न्यूजरूम से सुनें।
झारखंड के मुख्यमंत्री कल जब दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े से मिले, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं थी क्योंकि झारखंड की सरकार में कांग्रेस एक भागीदार भी है, और कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस एक मजबूत मोदी विरोधी ताकत बनकर उभरी है, इसलिए एनडीए विरोधी पार्टियों का कांग्रेस के आसपास आना अब स्वाभाविक ही है। लेकिन इसके साथ-साथ 2024 के आम चुनाव को देखते हुए यह भी देखना होगा कि आने वाले महीनों में देश का माहौल क्या रहता है? छह महीने बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें कांग्रेस एक बार फिर एक ताकतवर पार्टी बनकर उभरने की संभावना रखती है। उसकी तेलंगाना और मिजोरम में तो संभावना नहीं है, लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में उसकी अच्छी संभावना हो सकती है, जहां तक बाद में आम चुनाव में लोकसभा में भी काफी सीटें रहेंगी। यह एक अलग बात है कि इन तीनों ही राज्यों में उसे दूसरी पार्टियों से किसी तालमेल की जरूरत नहीं है, और कांग्रेस अपने दम पर वहां सत्ता में आने की संभावना रखती है। इसलिए 2024 की विपक्षी तस्वीर को छह महीने बाद के इन चुनावों के बाद देखने की जरूरत है जब कांग्रेस और ताकतवर दिख सकती है। आज मोदी और एनडीए विरोधी गठबंधन में कांग्रेस के अलावा ऐसी कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जिसकी कि पूरे देश में मौजूदगी हो। विपक्षी गठबंधन के नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की हसरत कई दूसरे नेताओं में हो सकती है, और अब तक नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, केसीआर जैसे कुछ लोग खुलकर सामने आ भी चुके हैं, लेकिन जरा सी मजबूत हो जाने के बाद कांग्रेस अब एक स्वाभाविक पसंद हो सकती है। कल की ही एक खबर है कि कर्नाटक के नतीजों के बाद ममता बैनर्जी का रूख कांगे्रस के प्रति कुछ बदला हुआ दिख रहा है, अभी तक वे कांग्रेस से खासा परहेज कर रही थीं, लेकिन कर्नाटक के बाद अब वे तालमेल की बात कर रही हैं।
यह बात समझने की जरूरत है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष जब तक बंटा रहेगा, तब तक मोदी राज करते रहेंगे। दूसरी तरफ अगर विपक्षी पार्टियों में एक जायज तालमेल के साथ अगर एकता कायम हो सकती है, हर कोई अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा थोड़ी-थोड़ी छोडक़र, थोड़ी-थोड़ी नरमी बरतकर साथ आने को तैयार हों, तो 2024 मोदी के लिए खासा मुश्किल भी हो सकता है। विपक्ष की राह बहुत आसान इसलिए भी नहीं है कि क्षेत्रीय स्तर पर भी परस्पर विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों के हित आपस में बहुत बुरी तरह टकराते हैं, और विपक्ष का कोई भी गठबंधन इन सबको साथ में नहीं ला सकता। मिसाल के तौर पर बंगाल में ममता और वामपंथी किसी तालमेल में नहीं आ सकते, यूपी में सपा और बसपा में खासी कड़वाहट है, और इन दोनों को ही कांग्रेस से बड़ा परहेज है। ऐसा हाल जगह-जगह है, पंजाब और दिल्ली में आप भी है, भाजपा और कांग्रेस भी हैं, और अकाली भी हैं, जिनकी कि बसपा के साथ अभी-अभी दोस्ती हुई है। अब इनमें से मोदी विरोधी गठबंधन में कौन रह सकते हैं यह साफ नहीं है, लेकिन सारे के सारे लोग तो रह नहीं सकते। लोगों को लोकसभा के आम चुनाव में मोदी का विरोध तो करना है, लेकिन अपने प्रदेश में अपने अस्तित्व को भी बचाकर रखना है। अब अगर घोड़ा घास से दोस्ती करेगा, तो खाएगा क्या? इसी हिसाब से हर प्रदेश की स्थानीय राजनीति वहां की क्षेत्रीय पार्टियों की राष्ट्रीय जिम्मेदारी पर बहुत बुरी तरह हावी रहेंगी। यह भी एक वजह है कि राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन चाहे वह एनडीए हो, चाहे वह यूपीए का कोई नया संस्करण हो, उसे किसी राष्ट्रीय पार्टी की लीडरशिप में होना चाहिए। अब आज कांग्रेस के अलावा बाकी सारे नेता जो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के दिख रहे हैं, वे क्षेत्रीय पार्टियों के हैं।
कांग्रेस के साथ एक खतरा यह दिख रहा है कि कर्नाटक की जीत उसके कुछ नेताओं के दिमाग पर चढ़ सकती है, और वे किसी संभावित राष्ट्रीय गठबंधन को लेकर बेदिमाग और बददिमाग बातें कर सकते हैं। आज का वक्त सबसे बड़ी पार्टी के दिल सबसे बड़े रखने का है। कांग्रेस को सबसे समझदारी से बात करना चाहिए, बल्कि जरूरत हो तो पार्टी को अपने नेताओं में से कुछ को छांटकर अधिकृत करना चाहिए कि वे लीडरशिप से चर्चा करके ही विपक्षी एकता की संभावनाओं के बारे में कुछ बोलें। गैरजरूरी जुबान जमाखर्च से बनती हुई बात भी बिगड़ जाती है, और कांग्रेस ऐसी चूक पहले भी कई बार करते आई है। आज सबसे अधिक संभावनाएं कांग्रेस की लीडरशिप की है, और उसे ही सबसे बड़ा दिल दिखाना चाहिए, सबसे कम बोलना चाहिए।
अमरीका में टीवी और फिल्म लेखकों की हड़ताल को आज दस दिन पूरे हो गए हैं, और वे बेहतर भुगतान के लिए एक एसोसिएशन के बैनरतले हड़ताल पर हैं। अमरीकी स्टूडियो 15 बरस के बाद लेखकों की ऐसी हड़ताल देख रहे हैं। लेखकों का यह भी कहना है कि सिनेमाघरों और टीवी चैनलों से परे ओटीटी प्लेटफॉम्र्स पर उनके काम का इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन उन्हें उसका कोई भुगतान नहीं मिल रहा है। फिल्मों और टीवी की जो ग्लैमरस दिखती है, वह बहुत से लेखकों को जिंदा रहने जितना भी मेहनताना नहीं देती। साढ़े 11 हजार लेखकों की राइटर्स गिल्ड ऑफ अमरीका ने 15 बरस बाद ऐसी हड़ताल की है, और बहुत से मशहूर टीवी कार्यक्रमों के नए एपिसोड की जगह उनके कोई पुराने एपिसोड दिखाना शुरू हो गया है। लेकिन इसमें बाकी तमाम बातों के साथ-साथ लेखकों के अस्तित्व पर एक बड़ा खतरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित लिखने वाली वेबसाइटें हैं जो कि लिखने के काम को हल्का कर रही हैं। हड़ताल कर रहे लेखक यह नारे भी लगा रहे हैं कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उनकी जगह नहीं ले सकता।
हॉलीवुड के लेखकों की हड़ताल से हमारा सीधा कुछ लेना-देना नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान में भी बहुत से तबके हड़ताल की नौबत पर चल रहे हैं, लेकिन हड़ताल इसलिए नहीं कर रहे कि मौजूदा मजदूर कानूनों और सरकारी रवैये के चलते उन्हें कोई कामयाबी मिलनी नहीं है। हड़ताल की नौबत वहीं मजदूरों के काम आ सकती है जहां कानून तक उनकी पहुंच हो, और जहां कानून अंधा न हो। लेकिन अमरीका की इस हड़ताल से ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का खतरा दुनिया में पहली बार हड़ताल तक पहुंचा है, और आने वाला वक्त इसी किस्म की हड़तालों से भरा हुआ दिख रहा है। टेक्नालॉजी लोगों की जगह लेने जा रही है, कम से कम बहुत से मौजूदा रोजगार खाने जा रही है, और लोगों को दूसरे कोई ऐसे रोजगार देखने पड़ेंगे जिन्हें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस न कर सके। अब फिल्म और टीवी लेखकों की तरह के ही काम मीडिया के हैं, अखबारों, टीवी, और वेबसाइटों पर लिखने का बहुत सारा काम रहता है, और चैटजीपीटी जैसी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वेबसाइट ने यह साबित कर दिया है कि मामूली गलतियों के साथ वह बहुत सारा कामचलाऊ लेखन कर सकती है जिससे कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी के इम्तिहान भी पास किए जा सकते हैं। अब मीडिया में लिखने का काम अगर चैटजीपीटी और उसी किस्म का गूगल का बार्ड नाम का ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस साफ्टवेयर करने लगेंगे, तो जाहिर है कि काम कम्प्यूटरों से होने लगेगा, रोजगार घटने लगेंगे। एक सीधा खतरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के साथ मौजूदा संचार टेक्नालॉजी और टीवी स्क्रीन मिलाकर दिख रहा है कि अब बहुत से स्कूल पढ़ाई-लिखाई के कोर्स ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से गिने-चुने टीचर्स से वीडियो-कैमरों पर करवाकर बाकी स्कूलों को भी बेच सकेंगे, और क्लासरूम में एक बड़ी सी स्क्रीन टीचर की जगह ले सकती है। शुरू में टेक्नालॉजी कुछ महंगी पड़ सकती है, लेकिन आगे जाकर वह टीचरों की तनख्वाह से सस्ती पडऩे लगेगी, और चुनिंदा सबसे अच्छे टीचर्स के वीडियो लेक्चर पूरे देश में बिक सकते हैं, और टीचर्स को घटा सकते हैं।
यह पूरा सिलसिला इतनी तेजी से बढ़ सकता है कि लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि कब वे नौकरी खो बैठे। चैटजीपीटी के मुकाबले गूगल का बार्ड बहुत से और फीचर्स लेकर आया है, और लोग इन पर बोल-बोलकर तस्वीरें भी बना सकते हैं, और भी कई किस्म के काम कर सकते हैं, और यह तो सिर्फ शुरुआत है। अभी दो दिन पहले हिन्दुस्तान के एक अखबार ने यह रिपोर्ट छापी है कि उसने गूगल के बार्ड से उसका यह अंदाज निकलवाया कि हिन्दुस्तान की किसी एक खास कंपनी के शेयर के दाम कितने होने चाहिए, और उसने आंकड़ों में अपना अंदाज बतला दिया। अब तक चैटजीपीटी इससे परहेज करता है, लेकिन गूगल को चूंकि उससे आगे निकलना था, शायद इसलिए उसने यह परहेज छोड़ दिया, और वित्तीय भविष्यवाणी भी करने लगा।
दुनिया में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आगे रिसर्च रोकने की मांग उठ रही है, और यह इसलिए उठ रही है कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जाने किस पल इंसानी अक्ल से आगे निकल जाएगी, शायद निकल चुकी है, और उस पर किसी नैतिकता का बोझ नहीं है, परंपराओं और सामाजिक मूल्यों का बोझ नहीं है। ऐसे किसी भी बोझ से मुक्त ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस दुनिया के लिए तबाही का सामान पल भर में बना सकता है, क्योंकि वह किसी अपराधबोध, प्रायश्चित, और झिझक से पूरी तरह मुक्त भी है। चूंकि दुनिया को आपसी सहमति से ऐसा कोई कानून बनाते बरसों लग जाएंगे कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को आगे बढ़ाने का रिसर्च रोका जाए। तब तक दुनिया की कंपनियां इतनी रफ्तार से एक-दूसरे के मुकाबले इसे बढ़ाते चलेंगी कि बरसों बाद अगर ऐसे कानून बनते भी हैं तो वे किसी काम के नहीं रह जाएंगे, विज्ञान का इतिहास मुगल शासन काल की तरह मिटाया नहीं जा सकता।
लोगों को आज के अपने कामकाज, आज के अपने रोजगार के बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए क्योंकि इन सबका भविष्य कैसा रहेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। एक तरफ ड्रोन सरीखी टेक्नालॉजी, और दूसरी तरफ ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसी तकनीक, इन दोनों का मेल दुनिया के लिए जानलेवा साबित हो सकता है, कामगारों के लिए बेरोजगारी ला सकता है, और दुनिया के लोगों के पास महज इसे देखते रहने के सिवाय और कुछ नहीं है क्योंकि सरकारें रफ्तार से इस सुनामी को रोक नहीं सकतीं। हम तो इसकी सिर्फ चर्चा कर रहे हैं क्योंकि लोगों को ऐसे किसी खतरे की तरफ से सावधान रहना चाहिए, तैयार रहना चाहिए।
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव के साथ-साथ कुछ और राज्यों में उपचुनाव भी हुए हैं। चुनाव आयोग इसी तरह करता है कि उपचुनावों को किसी दूसरे बड़े चुनाव के साथ जोड़ देता है। ऐसे में पंजाब के जलंधर में लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो वहां आम आदमी पार्टी के सुशील रिंकू ने कांग्रेस की करमजीत कौर चौधरी को 58 हजार से अधिक वोटों से हराया। राज्य में आम आदमी पार्टी की ही सरकार है, और उपचुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की ताकत कुछ तो काम आती है। लेकिन इसमें देखने की बात यही है कि आप प्रत्याशी सुशील रिंकू चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस छोडक़र आप में आए थे। यह कोई अकेला और अनोखा मामला नहीं है, दलबदल कर आने वाले लोगों को आनन-फानन टिकट देने में किसी पार्टी को परहेज नहीं रहता है, और कुछ पार्टियां तो बाहर से आने वाले लोगों को मंत्री और मुख्यमंत्री भी बना देती हैं।
लेकिन लोकतंत्र के हिसाब से अगर देखें तो क्या चुनाव सुधारों में यह बात शामिल नहीं होनी चाहिए कि दलबदलुओं को रातों-रात दूसरी पार्टी का उम्मीदवार बनने का हक न रहे? एक वक्त कई किस्म के लोगों को चुनाव लडऩे का हक था, फिर चुनाव सुधारों से नए नियम बने, और कई किस्म के जुर्म वाले नेताओं को चुनाव लडऩे का हक नहीं रहा। इसलिए लोकतंत्र में सुधार तो लगातार चलते रहने चाहिए, और दलबदल करके संसद और विधानसभाओं में पहुंचना जो लोग जारी रखते हैं, उस पर रोक लगनी चाहिए। हमने पहले भी इस बारे में लिखा है कि जब लोग कोई पार्टी छोड़ते हैं, तो नई पार्टी से कुछ बरस के लिए उनके लोकसभा या विधानसभा के चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। जिस तरह सरकारी अफसर रिटायर होने के बाद कुछ बरस कोई निजी नौकरी नहीं कर सकते, जज रिटायर होने के बाद कुछ वक्त के लिए वकालत नहीं कर सकते, उसी तरह की रोक दलबदल वालों पर भी लगनी चाहिए। रातों-रात पार्टी बदल दें, और उसी विधानसभा में या अगली विधानसभा में नए पार्टी निशान पर पहुंच जाएं, यह सिलसिला ठीक नहीं है, यह लोकतंत्र में ईमानदारी की बात नहीं है। चूंकि नेता और पार्टी को इस सिलसिले से कोई परहेज नहीं है, इसलिए देश में कानून ही ऐसा बनाना चाहिए कि लोग दलबदल के बाद सत्ता पर काबिज रहने की मौकापरस्ती न दिखा सकें। साफ-साफ शब्दों में कहें तो लोगों के पार्टी छोडऩे के बाद कुछ बरस के लिए नए निशान पर उनके चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। वे नई पार्टी में भी उसके तौर-तरीकों को सीखें, उसकी कुछ सेवा करें, तब जाकर उसके हिस्से का मेवा खाएं।
चुनाव सुधारों में कई और बातों को जोडऩा ठीक है। अब ऐसे सुधार महज आयोग के दायरे के नहीं हैं, इनके लिए संसद और सुप्रीम कोर्ट की भी जरूरत पड़ सकती है। देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सियों पर लोगों के कार्यकाल तय होने चाहिए। अमरीकी राष्ट्रपति चार बरसों के दो कार्यकाल के बाद भरी जवानी में बाकी पूरी जिंदगी बिना किसी सरकारी ओहदे के रहते हैं, और वे इन आठ बरसों में अपना सबसे अच्छा काम करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसके बाद उनके पास कुछ कर दिखाने का मौका नहीं रहेगा। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश में लोग मरने तक 15-20 बरस भी पीएम-सीएम बने रहते हैं, वे अपना सबसे अच्छा काम कर चुके रहते हैं, उनके पास कोई कल्पनाशीलता बाकी नहीं रहती, कोई उत्साह नहीं रहता, और आखिरी के बरसों में कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं रहती। ऐसा सिलसिला देश के लिए ठीक नहीं है। लोगों के कार्यकाल सीमित रहने चाहिए ताकि उन्हें अपने सरकारी भविष्य की आखिरी तारीख मालूम रहे। इसी तरह चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के पदों पर रहने वाले लोगों का कार्यकाल भी तय रहना चाहिए कि लोग पूरी जिंदगी एक पार्टी के मुखिया न बने रहें। आज हिन्दुस्तान में हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल किसी एक सुप्रीमो के तहत उसके मरने तक मातहत काम करते रहते हैं, और अधिकतर मामलों में उनके बाद उनकी आल-औलाद संगठन संभालने को तैयार रहती हैं। ऐसी कुनबापरस्ती और तमाम जिंदगी के कार्यकाल के खिलाफ भी कुछ करने की जरूरत है, अब पता नहीं इसके लिए संसद, अदालत, या चुनाव आयोग कुछ कर सकते हैं, या नहीं।
भारतीय लोकतंत्र में कुछ बातों का इलाज बिल्कुल नहीं है। देश की संसद और विधानसभाएं लगातार पैसे वालों से भरती चल रही हैं, और वहां पर गरीब इसलिए भी नहीं पहुंच पाते कि अब पार्टियां भी गरीब को टिकट देने से कतराती हैं कि उनका चुनाव जीतना मुश्किल रहेगा। नतीजा यह होता है कि जो लोग सांसद या विधायक बन रहे हैं, उन्हें गरीबों के मामलों की समझ बहुत कम है, और गरीबों के मुद्दे सदन में उठ ही नहीं पाते। इस सिलसिले को कैसे सुधारा जाए यह राजनीतिक ताकतें तो कभी नहीं करेंगी, क्योंकि वहां पर तो करोड़पतियों और अरबपतियों का कब्जा हो गया है, वे भला अपने हितों के खिलाफ कुछ क्यों करेंगे, लेकिन किसी न किसी को इस बारे में सोचना चाहिए। एक क्रांतिकारी सोच तो यह भी हो सकती है कि संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे वालों पर एक सीमा से अधिक दौलत देश के लिए देने का नियम बना दिया जाए, फिर देखें कि कितने लोगों के मन में देश सेवा का जज्बा बचता है।
एक आखिर बात इस सिलसिले में महिला आरक्षण की है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक कई बार पहुंचा और कई बार दम तोड़ चुका है। अब सार्वजनिक दबाव राजनीतिक दलों पर पडऩा चाहिए, हर सांसद को, हर विधायक को सार्वजनिक रूप से घेरना चाहिए, और अभी से एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण लागू नहीं होता है, तो देश की महिलाएं, और तमाम महिला समर्थक आदमी भी, मौजूदा सांसदों को पूरी तरह खारिज कर देंगे, और उनके खिलाफ वोट देंगे। ऐसा एक आंदोलन पूरी तरह लोकतांत्रिक हो सकता है, और इसे छेडऩा चाहिए। यह अपने आपमें एक लंबी चर्चा का मुद्दा हो सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव कैसे बेहतर बनाए जा सकते हैं, उस चर्चा में बाकी मुद्दों के साथ-साथ इस पर इतनी ही चर्चा हो सकती है। लोगों को चाहिए कि यहां उठाए गए हर मुद्दों पर आसपास के लोगों के साथ विचार-विमर्श करें, और सोचें कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।