संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पर्यावरण के लिए लोगों को जिम्मेदार बनाना भी जरूरी
05-Jun-2023 6:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पर्यावरण के लिए लोगों को  जिम्मेदार बनाना भी जरूरी

आज 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है, और लोग तरह-तरह से इस दिन पर्यावरण के महत्व को याद कर रहे हैं। ऐसे सालाना दिनों पर नसीहत तो तमाम लोग पोस्ट करते हैं, लेकिन उस पर अमल मुश्किल भी होता है, और तकरीबन न के बराबर होता है। सुबह से लोग याद दिला रहे हैं कि किस तरह छत्तीसगढ़ में कोयले की खदानों को और बढ़ाने का काम चल रहा है, किस तरह जंगल खतरे में हैं, और किस तरह तालाब सिमटते जा रहे हैं। दूसरी तरफ कुछ व्यापक पैमानों पर एक अलग फिक्र भी चल रही है कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए जो नई तकनीक इस्तेमाल हो रही है, वह खुद आगे जाकर किस तरह की तकलीफ में बदल जाएगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि इन दिनों बिजली बनाने के एक सबसे अच्छे साधन, सोलर पैनल का इस्तेमाल लगातार बढ़ते चल रहा है, लेकिन इसकी जिंदगी 25 साल या उससे कम है, और जब ये अपनी उम्र पूरी कर चुके रहेंगे, तो इनका क्या होगा? इनमें लगी हुई धातुओं को कैसे री-साइकिल किया जा सकेगा? अच्छी बात यह है कि री-साइकिल करने की टेक्नालॉजी इस्तेमाल होने लगी है, और फ्रांस में ऐसी पहली फैक्ट्री की उम्मीद है कि वह सोलर पैनर के 99 फीसदी हिस्से को फिर से इस्तेमाल के लायक बना सकेगी। इसी किस्म की बात बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों को लेकर है कि कुछ बरस इस्तेमाल के बाद जब वे बैटरियां गाडिय़ों से निकालना पड़ेगा, तब उनका क्या किया जाएगा? उनका एक पहाड़ खड़ा हो जाएगा, और क्या वैसी ही नौबत नहीं आ जाएगी जैसी कि आज बढ़ती हुई गाडिय़ों के टायरों को लेकर आ गई है जिनके पहाड़ खड़े हो रहे हैं। लेकिन इसमें भी एक अच्छी बात यह है कि विज्ञान और टेक्नालॉजी ने खराब हो चुके टायरों के रबर का इस्तेमाल सडक़ बनाने में शुरू कर दिया है, और उससे काफी कुछ निपटारा हो सकता है, या यह भी हो सकता है कि सारे के सारे खराब टायर सडक़ बनाने में खप जाएं। आज की टेक्नालॉजी प्लास्टिक के कचरे का भी सीमेंट प्लांट में, सडक़ बनाने में कर रही है, और इससे भी धरती पर कचरा कुछ घट सकेगा। 

विज्ञान और टेक्नालॉजी की कई तरह की खोज, और उनका इस्तेमाल बड़ी उम्मीद भी जगाते हैं। बाजार व्यवस्था बढऩे के साथ-साथ लोगों की खपत भी बढ़ रही है, और कचरा भी बढ़ते चल रहा है। ऐसे में आज पर्यावरण दिवस पर यह सोचने की जरूरत है कि कचरा कम कैसे हो सकता है, और उसका निपटारा कैसे हो सकता है ताकि उसके अधिकतर हिस्से को री-साइकिल किया जा सके। यह काम बहुत उच्च तकनीक की जरूरत का भी नहीं है। जहां कहीं भी स्थानीय संस्थाओं, म्युनिसिपलों को चलाने वाले लोग जागरूक और कल्पनाशील हैं, वहां पर कचरे को उठाने के पहले ही घरों और कारोबारों को नसीहत दी जाती है कि वे अलग-अलग किस्म का कचरा, अलग-अलग करके रखें। और यहीं से भविष्य का बचना शुरू होता है। हमने बड़ी-बड़ी राजधानियों में म्युनिसिपलों की अतिसंपन्नता की वजहों से कचरे को इकट्ठा करने और उसके निपटारे में परले दर्जे की लापरवाही देखी है। नतीजा यह होता है कि कचरे का एक बड़ा हिस्सा कभी निपटाया नहीं जा सकता। दूसरी तरफ छोटे-छोटे शहर भी अगर काबिल और मेहनती अफसरों के हवाले हैं, तो वे वहां नागरिकों को जिम्मेदारी सिखाते हैं, और लोगों के घर-दुकान से अलग-अलग किया हुआ कचरा ही उठाते हैं। दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल कचरे के निपटारे पर एक रूपया भी खर्च नहीं करते, दूसरी तरफ वे छांटे हुए कचरे को बेचकर कमा भी लेते हैं। बात महज बचत और कमाई की नहीं है, यह धरती की बर्बादी की बचत भी है, और बेहतर पर्यावरण की कमाई की भी है। 

सरकारों और स्थानीय संस्थाओं की संपन्नता प्रतिउत्पादक (काउंटर-प्रोडक्टिव) साबित हो रही है। लोगों को अलाल बनाया जा रहा है, लापरवाह बनाया जा रहा है, और अधिक से अधिक सफाई कर्मचारियों और गाडिय़ों को जोतकर यह संस्कृति विकसित की जा रही है कि म्युनिसिपल का काम लोगों को बेहिसाब सहूलियत देना है। इस सिलसिले को तुरंत ही बंद करना चाहिए। भारत सरकार को चाहिए कि ऐसे किसी म्युनिसिपल को कोई भी फंड देना बंद कर दे जो कि कचरा पैदा करने वाले लोगों से ही उसे अलग-अलग जमा करने का काम न करवा रहे हों। यह बड़ा आसान काम है, और प्लास्टिक कचरा अलग, और सडऩे वाला जैविक कचरा अलग करना कोई मुश्किल बात नहीं है। आज चूंकि यह जिम्मेदारी सिखाई नहीं जा रही है, इसलिए लोग लापरवाह होकर तमाम कचरे को एक कर दे रहे हैं, और दुनिया की कोई भी ताकत इसका किफायती निपटारा नहीं कर सकती। पूरे देश में इसके निपटारे को लेकर जिम्मेदारी सिखाना युद्धस्तर पर शुरू होना चाहिए ताकि धरती पर बोझ बढऩा धीमा हो। 

दुनिया के विकसित और सभ्य देशों में आधी सदी से कचरे को अलग-अलग डिब्बों में रखने का काम चल रहा है, और लोग ऐसे नियम को मानना पीढिय़ों पहले सीख चुके हैं। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में लोगों के मिजाज में अराजकता है, और मामूली नियम तोड़े बिना उन्हें खाना नहीं पचता है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। भारत में ठोस कचरे के निपटारे के बहुत से कामयाब तजुर्बे हैं, भारत सरकार को अलग-अलग शहरों के ऐसे कामयाब अफसरों या निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इकट्ठा करके उनसे बाकी देश को भी राह दिखलानी चाहिए। पर्यावरण को बचाने और बेहतर बनाने के लिए सौ किस्म की बातें हो सकती हैं, लेकिन जब आम लोगों को जिम्मेदारी सिखाई जाएगी, तो फिर जिम्मेदारी की वह भावना बाकी कई किस्म के सुधार खुद ही कर लेगी। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news