संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिंसा की शिकार, दूसरी महिलाओं के हाथों भी..
17-May-2023 4:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिंसा की शिकार, दूसरी महिलाओं के हाथों भी..

फोटो : सोशल मीडिया

झारखंड के पलामू जिले में बीस बरस की एक लडक़ी शादी करना नहीं चाहती थी, लेकिन मां-बाप मर चुके थे, और वह चचेरे भाई और भाभी के हवाले थी। वे उसकी शादी करवाना चाहते थे जिसके लिए लडक़ी मना कर चुकी थी। भाई ने रिश्ता तय करके बारात बुला ली, लेकिन लडक़ी घर छोडक़र चली गई। दो दिन बाद वह जब लौटी तो पंचायत जुटी और उसके खिलाफ तालिबानी फैसला सुनाया, भाई-भाभी ने ही उसके बाल काट दिए, चेहरे पर कालिख पोती, और जूते-चप्पल की माला पहनाकर उसे जंगल में छोड़ दिया। अगले दिन जब पुलिस को वह लडक़ी मिली, तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, और उसका कहना है कि चचेरा भाई उसके माता-पिता की छोड़ी हुई संपत्ति को हड़पना चाहता है, इसलिए जबर्दस्ती उसकी शादी करवाना चाहता है। 

अभी कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र की एक दूसरी खबर आई थी, और उस पर इस अखबार के  यूट्यूब चैनल पर एक रिपोर्ट भी बनाई गई थी कि बारह बरस की एक बच्ची मां-बाप खोने के बाद भाई-भाभी के पास रह गई थी, और उस बच्ची को पहली बार माहवारी आई तो उसके कपड़ों पर खून देखकर भाई को उस पर शक हुआ, भाभी ने भाई को और भडक़ाया, और भाई ने पीट-पीटकर उस बच्ची को मार डाला। इन दोनों ही मामलों में भाई की की हुई हिंसा में भाभी बराबरी की हिस्सेदार रही, और एक महिला से दूसरी महिला के लिए जिस हमदर्दी की उम्मीद की जा रही थी, वह कहीं नजर नहीं आई। ऐसे तमाम मामले देख लें तो उनमें हिंसा का हमला लड़कियों और महिलाओं पर ही होता है। जिस झारखंड की घटना से आज की यह बात शुरू की गई है उस झारखंड में महिलाओं को टोनही कहकर मारने की बड़ी पुरानी परंपरा है, और काला जादू करने के आरोप में मर्दों को शायद ही कहीं मारा जाता है, महिलाएं ही मारी जाती हैं। 

महिलाओं पर हिंसा के मामले में हिन्दुस्तान बहुत आगे है। गर्भ में पलती लडक़ी की शिनाख्त भी अगर सोनोग्राफी से हो जाती है, तो उस लडक़ी को हिन्दुस्तान में अहिंसक तबके भी जिस आसानी से मार डालते हैं, वैसा तालिबानों के राज में भी कन्या भ्रूण के साथ नहीं होता। वहां पर लड़कियों और महिलाओं के पैदा होने के बाद उनके साथ तरह-तरह के हिंसक भेदभाव किए जाते हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या शायद भारत की ही बड़ी मौलिक हिंसा है जिसकी मिसाल कम ही जगहों पर होगी। जानकार लोगों का यह मानना है कि परिवार में लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव देखते हुए ही जो बच्चे बड़े होते हैं, और जो अपनी मां-बहनों के साथ परिवार के दूसरे लोगों की हिंसा देखते हुए उससे सीखते रहते हैं, वे बड़े होकर प्रेमिका, पत्नी, और बेटियों के साथ हिंसा करते हैं। लेकिन इससे भी अधिक खतरनाक बात यह होती है कि बचपन से ही अपने खिलाफ हिंसा झेलते हुए, और परिवार की दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा देखते हुए बड़ी होने वाली लड़कियां खुद भी वक्त आने पर दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा करने लगती हैं। यह सांस्कृतिक सोच अपने तजुर्बों से बनती है, और पुख्ता होते चलती है। 

समाज की ऐसी हिंसक सोच कानूनी कार्रवाई से कुछ कम की जा सकती है, लेकिन इसके लिए सामाजिक सुधार की भी बहुत जरूरत है। दिक्कत यह है कि समाज जिन लोगों को सुनता है, वे धर्मगुरू, और प्रवचनकर्ता, धर्म की अपनी बुनियादी सीख के चलते हुए महिलाओं के साथ भेदभाव बढ़ाते चलते हैं, कभी भी उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दे पाते, और उनके साथ होने वाली व्यापक हिंसा के खिलाफ मुंह नहीं खोलते। जिन समाजों में कन्या भ्रूण हत्या सबसे आम हैं, उन समाजों के प्रवचनों में भी उसके खिलाफ कुछ नहीं कहा जाता। नतीजा यह निकलता है कि इस किस्म की चुप्पी एक किस्म से ऐसी हिंसा को मौन सहमति दे देती है, और हिंसक मुजरिमों को लगता है कि वे समाज में किसी तरह का अपमान नहीं झेल रहे, धर्म उन्हें गलत करार नहीं दे रहा। 

समाज में ऐसे मामलों पर निगरानी रखने के लिए दूसरे लोग असरदार हो तो सकते हैं, लेकिन वे भी परिवारों में फैसले लेने वाले मुखिया से ही संबंध निभाते हैं, और मुसीबत में फंसी लडक़ी या महिला का साथ देने समाज से भी कोई नहीं आते। अगर उस इलाके में काम कर रहे महिला अधिकार संगठन सक्रिय हैं, तो जरूर कभी-कभी किसी लडक़ी या महिला को मदद मिल जाती है, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। फिर यह भी है कि मुसीबत में पड़ी लडक़ी हिंसा के खिलाफ अगर पुलिस में जाए, तो उसके लिए नारी निकेतन जैसी जगह रहती है जहां उसके लिए कोई भविष्य नहीं रह जाता। न सिर्फ मुसीबत में फंसी और हिंसा झेल रही लड़कियां, बल्कि तमाम किस्म की लड़कियां और महिलाएं तरह-तरह के समझौते करके जिंदा रहती हैं, और यह जाहिर है कि ऐसे तनाव, ऐसी कुंठाओं में जीते हुए उनकी संभावनाएं एकदम खत्म हो जाती हैं। आज दुनिया में आर्थिक रूप से वही देश तरक्की करते हैं जहां महिलाओं का कामकाज में बड़ा हिस्सा है, जहां वे बराबरी से शामिल हैं। हिन्दुस्तान इस मामले में एकदम ही नीचे है, और यहां के कामगारों में 20 फीसदी से कम महिलाएं हैं, उनका घर के बाहर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादक योगदान बहुत कम हो पाता है, और घर के भीतर के उनके योगदान को तो सामाजिक भाषा में उत्पादक गिना ही नहीं जाता है। देश में लड़कियों और महिलाओं पर हिंसा के जुर्म के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जरूरत है, लेकिन इसके लिए पुलिस में खुद महिलाओं की सोच महिलाओं के खिलाफ हिंसक रहती है, हिकारत की रहती है। ऐसी ही सोच पुलिस की तरफ से अदालत में खड़ी होने वाली महिला वकील की भी रहती है, और बहुत से मामलों में महिला जज की सोच भी महिलाविरोधी रहती है। इसलिए किसी तरह का सुधार आसान नहीं है। यह एक लंबी लड़ाई है, लेकिन लड़ाई लड़े बिना इस देश में सतीप्रथा बंद नहीं हुई थी, बालविवाह कम नहीं हुए थे, और विधवा विवाह शुरू नहीं हुए थे। इसलिए लगातार संघर्ष करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

सुनील से सुनें : हार्दिक पांड्या को सौ खून माफ, बच्ची को माहवारी का खून भी नहीं!

बारह बरस की बिन मां-बाप की एक बच्ची की माहवारी आई तो कपड़ों पर खून देखकर भाई को कुछ और शक हुआ, और बहन को पीट-पीटकर मार डाला। लड़कियों के साथ भेदभाव से लदे हुए हिन्दुस्तानी समाज में लडक़ों और मर्दों की हिंसा बचपन से शुरू होती है, और पचपन के बाद भी चलती रहती है। इस तकलीफदेह खूनी हिंसा पर इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को न्यूजरूम से सुनें।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news