विचार / लेख
वैसे गेरुआ तो महात्मा बुद्ध के कासाय का मोहक का रंग है! जोगिया तो नाथ सिद्ध जोगियों का खिलता हंसता रंग है।! राजस्थान के रण बांकुरों का बलिदानी रंग है केसरिया!
जोगनों का रंग है जोगिया। यशोधरा गेरुआ पहन कर प्रतीक्षा करती थी अपने सिद्धार्थ की! पढ़ो और देखो रंग के मामले में पुराने लोग कितने स्वायत्त हैं।
भगही वालों का भगवा बौद्धों से लिया उधार है। यह कासाय रंग श्रमण परंपरा की देन है। संत परंपरा में गेरुआ की अवधारणा नहीं थी। संन्यास में मुंडित होकर कैसे भी वस्त्र पहनने की प्रथा थी। नाथ सम्प्रदाय के जोगी सनातन के संन्यासियों से अलग दिखने के लिए ऐसा बाना धारण किए!
दुर्वासा केवल चिथड़े पहनते थे। "दुर वासन" यानी चिथड़े पहनने वाला ! उनको चिथड़े कहां से मिलते रहे होंगे? किसी भी साधु, संत सन्यासी, फकीर को कपड़े और भोजन गृहस्थ ही देते हैं। दुर्वासा को जोगिया या बाघंबर पहनाना उनका अपमान है। लेकिन इस पर भी आजादी है कि पहनाने वाला कुछ भी पहनाए!
तुम्हारी नैतिकता को धक्का न लगे तो बुद्ध को आम्रपाली भी वस्त्र दान देती थी और महात्मा बुद्ध ने ससम्मान उसे ग्रहण किया है। तुम चाहो तो आम्रपाली को कुछ भी मानो लेकिन वह बुद्ध के लिए आदरणीया थी। बुद्ध भी केवल एक रंग में नहीं बंधे थे। जब जैसा मिला पहना। उनके सामने हीनयान महायान और अन्य मत विभाजन नहीं हुए थे!
हमारी सौंदर्य परंपरा में नायिकाएं हर रंग पहनती रही हैं। वस्त्र भी ऋतु के हिसाब से पहने जाते थे। सीता का जिस दिन हरण हुआ वे गाढ़े पीले रंग की साड़ी पहने थीं। गाढ़ा पीला जोगिया ही है भाई!
अब हम कहें कि रावण जब सीता का हरण करेगा तो सिनेमा वाले उनको जोगिया या पीला कपड़ा नहीं पहनाएं! गजब करते हो भाई। कहां से लाते हो इतना अविवेक?
अब यह बताए कोई कि ये कौन लोग हैं? जो हर चीज के माई बाप बन बैठे हैं! इनके पापा का देश है क्या? इनसे पूछ कर पहनो पहनाओ। इनसे पूछ कर खाओ खिलाओ। इनसे पूछ कर पढ़ो पढ़ाओ। इनसे पूछ कर मिलो मिलाओ। इनसे पूछ कर आओ जाओ। इनसे पूछ कर उठो बैठो। जैसे देश इनके पापा की जागीर हो! और संविधान इनकी खाप से चलता है! ये हैं कौन!
सीता वनवास में हों या अयोध्या में या लंका में, किसी दशरथ राम या रावण की हैसियत नहीं हुई उनके वस्त्र तय करने की! तुम कौन हो! जिस देवी, जिस मां, जिस लड़की, जिस स्त्री, जिस हीरोइन, जिस डांसर, जिस धाविका, जिस तैराक को जो पहनना होगा पहनेगी! तुम निर्धारित करने वाले कौन हो? यह अधिकार कहां से मिला है?
हमारे यहां तो न पहनने की भी आजादी रही है। लाखों "नागा" संत नहीं पहनते। लेकिन वे भस्म पहनते हैं। चाहें तो वह भी न पहने! जो कुछ नहीं पहनते हमने उनको आकाश रूपी वस्त्र पहना दिया है। वे हमारे आदरणीय "दिगम्बर" कहे जाते हैं!
नागा और दिगम्बर एक ही हैं। बस दो विचार परंपरा में हैं! बुद्ध का श्रमण और नाथ सम्प्रदाय का जोगी एक ही रंग में रंगे हैं। किंतु विचार भिन्न है। हम इस विचार भिन्नता को ऐसे नहीं मिटने देंगे। यही हमारा लोकतंत्र हमको देता है।
अपने एक महात्मा ने लंदन के साम्राज्य और वैभव का सामना एक धोती या कहें लंगोटी पहन कर किया था। जब हमारे उस पुरखे ने सम्राटों के वस्त्र विन्यास और नियमावली की फिक्र नहीं की बल्कि अपने विचार पर अडिग रहा। तो हम क्यों करें?
जान लो वस्त्र बोझ और बंधन नहीं बल्कि सौंदर्य, सुविधा और सोच का विषय भी है। कपड़े का रंग, क्वालिटी, आकार, रूप कभी किसी संकट का कारण नहीं हो सकता!
इसलिए कह रहा हूं, चलो कुछ पढ़ो लिखो! इतना अधिक जाहिल होना लोकतंत्र और तुम सब के घरेलू स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं!
-बोधिसत्व, मुंबई