विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
लाइब्रेरी से एक-एक कर किताबें जब अलमारी से उतारता हूँ तो अपने पापा के साथ यादों का सफर शुरू हो जाता है. दरअसल , किताबें वो टिकट हैं जो स्मृति की यात्रा करवाती हैं.
बरसों से घर का हिस्सा रहीं किताबों में वो यादें वो सपने होते हैं जो न रहे लोगों के बिलकुल साथ होने का अहसास दिलाते हैं.
हमारा घर सिर्फ रेत, ईंट, काँक्रीट से नहीं किताबों से ज़्यादा बना है. किताबें बहुत पुरानी हैं इसलिए घर की बुनियाद भी पक्की है. विविध तरह की किताबें एक साथ बहुत ख़ूबसूरती से हैं इसलिए खूबसूरत से घर में विविधता है, एकता है ..
घर ज़रूर बदला आगे भी बदल सकता है पर किताबें साथ रहीं. घर के लोग न रहे पर उनकी महक हर अच्छी पुस्तक में हम महसूस करते हैं.
किताबों को हमेशा यथा संभव प्राथमिकता दी गयी. सरकारी घर में रहते वहां की दीवारें और वातावरण कई बार प्रतिकूल था किताबों को नुक़सान भी पहुंचा फिर भी अपनी तरफ से पूरी कोशिशें की.
घर जब बनवाया तो पहले लाइब्रेरी का काम हुआ, दरअसल लाइब्रेरी के लिए बेसमेंट बनवाना तय किया था ...ये और बात है एक बार फिर लाइब्रेरी को लेकर प्रयासरत हैं.
हमारी लाइब्रेरी में सारी किताबें नहीं हैं. ढेर सारी जो बेहद ज़रूरी हैं ऐसी किताबें भी नहीं हैं पर इसके बावज़ूद बहुत महत्वपूर्ण किताबें ज़रूर हैं. आज़ादी से पहले से लेकर अब तक की अच्छी ज्ञानवर्धक, विचारोत्तेजक किताबें साहित्य मौजूद है.
120 साल पुरानी पुस्तकें भी हैं. जैसे God and the agnostics 1903 में लंदन से Swan sonnenschein & co से प्रकाशित हुआ था.. इसकी प्रिंटिंग देखिये, 120 बरस बाद भी क्वालिटी देखिये, मान जायेंगे. इसी तरह John Mulgan -Davin की इंग्लिश लिटरेचर जो ऑक्सफ़ोर्ड से 1947 को प्रकाशित हुई थी, हर दृष्टि से लाजावाब है.
लंदन ही नहीं अपने देश में देखिये आज़ादी से पहले 'नया साहित्य' पत्रिका किताब के रूप में प्रकाशित होती है ,जिसके संपादन मंडल में नरेंद्र शर्मा, अमृत लाल नागर, यशपाल, शिवदान सिंह चौहान, शमशेर आदि थे. इस 'नया पथ ' के स्तर को शायद ही आज तक कोई पत्रिका-लघु पत्रिका छू पायी हो, प्रिंटिंग और पन्नों की क्वालिटी भी शानदार.
सुप्रसिद्ध साहित्यकार लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक राजेंद्र यादव कविता भी लिखते थे कभी. राजेंद्र यादव का कविता संग्रह 'आवाज़ तेरी है ' 1960 में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हुआ था.
ये पुस्तक उन्होंने घनश्याम अस्थाना को समर्पित की थी. इसी तरह उन्होंने लौरेंस बिनयन की पुस्तक 'अकबर' का अनुवाद 1963 में किया था. ये पुस्तकें क्या आपने पढ़ी ? कितने लोगों के पास होंगी ऐसी दुर्लभ पुस्तकें ?
ऐसी ही ढेर पुस्तकें हमारी लाइब्रेरी की एक -एक पवित्र ईंट की तरह है जिस पर हमारी लाइब्रेरी आधारित है.
जो 'हिन्दू राष्ट्र का नव निर्माण' करना चाहते हैं, आचार्य चतुरसेन की 1948 में प्रकाशित जैसी पुस्तकें हैं तो सोवियत रूस के रादुगा -प्रगति प्रकाशन की सभी पुस्तकें भी हैं, एक सूची मैंने पोस्ट भी की थी. जब सरकारी घर में थे तो एक समय ऐसा भी आया जब कभी-कभी इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर सा दृश्य भी बनता था. बनता क्या था ये मेरे उस घर की ही तस्वीर समझिये. तब ये तय हुआ फिलहाल और किताबें नहीं आएँगी नए घर में लाइब्रेरी बनने के बाद ही आएँगी. पर उस ज़माने में रद्दी के कारोबार से जुड़े लोग जानते थे शहर में अच्छी-दुर्लभ पुस्तकें किसी दी जाए. लिहाज़ा कॉलेज से आते वक़्त वो पापाजी को पुस्तकें देते और ये पुस्तकें फल और सब्ज़ियों के बीच करीने से रखी जातीं ताकि किसी को ख़बर न हो पर इनका प्रवाह रुका नहीं .... तस्वीर से ये भी जानिये कि इस स्थिति में आने के बाद भी पुस्तकों का शुभागमन होता रहा. इसके बावज़ूद एक बार दूसरे शहर 'दार्जलिंग चाय ' की पेटियां आयीं. चाय की पेटियां थीं कोड वर्ड 'चाय ' थी ....समझ सकते हैं पेटियों में कौन सा अनमोल खज़ाना होगा ?
लाइब्रेरी जो बेहद परिश्रम, प्यार और मेहनत से बनी इसकी छोटी सी कहानी इसलिए सुनाई ताकि कुछ लोग /दोस्त समझ सकें " किताबें भी प्रेम की कैंची है"