विचार / लेख

बस्तर में आदिवासी असंतोष के मायने
12-Dec-2022 3:57 PM
बस्तर में आदिवासी असंतोष के मायने

- रमेश अनुपम

प्रदेश की राजनीति की दृष्टि से भानुप्रतापपुर विधानसभा उपचुनाव कई मायने में एक अभूतपूर्व चुनाव साबित हुआ है। इस चुनाव में पहली बार खुले आम सर्व आदिवासी समाज ने दस्तक देकर आगामी वर्ष 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बस्तर की 12 विधानसभा सीटों का रास्ता कांग्रेस के लिए काफी कठिन कर दिया है।

भानुप्रतापपुर में सर्व आदिवासी समाज ने इस बात का भी स्पष्ट संकेत दे दिया है कि बस्तर की 12 विधानसभा सीटें आसानी के साथ कांग्रेस की झोली में नहीं जाने वाली है।  

जिस तरह डॉ. रमन सिंह की भाजपा सरकार में अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस को अपनी बी.टीम. बनाकर छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने का काम बखूबी करती रही है, सुना है कि भानुप्रतापुर विधानसभा चुनाव में अब वही खेल भाजपा सर्व आदिवासी समाज के साथ खेल रही थी।

जाहिर है अगले वर्ष छत्तीसगढ़ राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा अपने इस खेल को न केवल खुल कर खेलेगी वरन बस्तर में होने वाले चुनाव में एक निर्णायक भूमिका में भी होगी।

सर्व आदिवासी समाज की शक्ति को और स्वयं इसके चुनाव में हिस्सेदारी को बस्तर में इतना आसान नहीं समझना चाहिए, बल्कि पिछले कुछ वर्षों में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के प्रति उनकी नाराजगी को आज गंभीरतापूर्वक समझे जाने की जरूरत है।

पिछले कुछ वर्षों से बस्तर के आदिवासियों में सरकार के खिलाफ असंतोष साफ-साफ दिखाई दे रहा है। इस असंतोष की चिंगारी को कारगर रूप से उसका हल निकालकर बुझा दिया जाए ऐसी कोई कोशिश प्रदेश के कांग्रेस सरकार द्वारा नहीं की गई है।फलस्वरूप यह असंतोष एक दावानल के रूप में बढ़ती चली जा रही है।

दक्षिण बस्तर के दुर्गम इलाके सुकमा क्षेत्र में हुए सिलगेर आंदोलन कई महीनों तक स्वत: स्फूर्त ढंग से चलने वाला एक आदिवासी आंदोलन है, जो नक्सलियों के नाम पर  आदिवासियों पर हो रहे दमन के खिलाफ आंदोलन है। सिलगेर में सी.आर.पी.एफ. के जवानों ने नक्सलवादियों के नाम पर पांच निर्दोष लोगों की निर्मम हत्या कर दी थी जिसमें एक गर्भवती आदिवासी महिला भी शामिल है। इस कांड की जांच करवाए जाने और दोषी जवानों पर हत्या का मुकदमा चलाए जाने की मांग से जुड़ा हुआ इस आंदोलन  को अब तक गंभीरता से नहीं लिया गया है।

पिछले दिनों नारायणपुर सहित बस्तर के अनेक जिलों में इस तरह के आंदोलन चलते रहे हैं।

इसी वर्ष 24 मार्च को बस्तर के सैंकड़ों आदिवासी विधानसभा घेरने के लिए बस्तर से जत्थों में निकल पड़े  थे। जिन्हें ले दे कर धमतरी से आगे रायपुर जगदलपुर मार्ग पर पुरूर के पास रोककर किसी तरह समझा-बुझा कर वापस भेजा गया था।

यह अच्छा हुआ कि बोधघाट परियोजना जैसे विवादास्पद प्रोजेक्ट को कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। बोधघाट परियोजना में कितने गांव और जंगल उजड़ जाते जिसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। बोधघाट परियोजना भी कांग्रेस के लिए गले की हड्डी साबित होती।

उम्मीद थी कि कांग्रेस के राज में जैसा कि शपथ लेते ही बस्तर के लोहंडीगुड़ा की अधिग्रहित जमीन आदिवासियों को पुन: वापस कर दी गई थी, इसी तरह के आदिवासियों के हित में जुड़े हुए अनेक फैसलों को भी  कांग्रेस सरकार द्वारा अंजाम दिया जाएगा। पर दुर्भाग्य से ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

विश्वास यह भी था कि भूपेश बघेल की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में खासकर पुलिस और नक्सलवादियों के बीच मारे जा रहे या झूठे केस में फंसाए जा रहे आदिवासियों को वाजिब न्याय मिलेगा। उनके जल, जंगल और जमीन पर केवल उनका अधिकार होगा। ग्रामसभा की अनुमति के बगैर किसी तरह के निर्माण कार्य को अंजाम नहीं दिया जाएगा। इसमें पुलिस कैंप और सडक़ों का निर्माण भी शामिल है।
जो बिना ग्रामसभा की अनुमति से पुलिस के पहरे में आज जोर जबरदस्ती किए जा रहे हैं।

बस्तर में आदिवासियों के विकास के नाम पर जो कुछ भी एक लंबे अरसे से किया जा रहा है वह बस्तर के आदिवासियों के लिए विकास कम विनाश का सबब ज्यादा है। यह कटु सत्य है कि बिना आदिवासियों की रायशुमारी के हम जो भी तथाकथित विकास कार्य को अंजाम देंगे वह बिचौलियों, लुटेरों और शोषकों के लिए ही सबसे अधिक फायदेमंद सिद्ध होगा।

इस सत्य को पूरी ईमानदारी से समझे जाने की जरूरत है कि छत्तीसगढ राज्य बनने के बीते 21 वर्षों में बस्तर का अंधेरा और घना और विकराल ही हुआ है। सलवा जुडूम से लेकर जो-जो नए प्रयोग हुए हैं उन सारे जख्मों को बस्तर के आदिवासियों के चेहरों पर साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। उनकी गरीबी मुफलिसी के किस्से पुराने हैं और आदिवासियों को हमारे जैसे इंसान नहीं मानने की परम्परा भी इसी तरह पुरानी है।

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