राजपथ - जनपथ
यह वक्त न शादी का, न मरने का
कोरोना के चलते हुए आज देश भर में इतने तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं कि कोई समझदार इंसान न इस बीच मरेंगे, और न ही शादी करेंगे। मरने पर कंधा देने वाले इतने कम लोग रहेंगे कि घर के लोगों को छोडक़र बाकी लोग कोसते हुए लौटेंगे क्योंकि जरूरत से अधिक कंधा देना पड़ेगा। दूसरी तरफ शादी का खर्च तो न्यूनतम खर्च तो होगा ही, पचास मेहमानों में से लिफाफे आ भी जाएंगे, तो कितने आएंगे? ऐसे माहौल में हिफाजत से घर में रहना, जिंदगी को बचाकर रखना, और शादी को आगे किसी बेहतर मौके के लिए बचाकर रखना ही बेहतर होगा। लेकिन राजनीति और सार्वजनिक जीवन में ऐसा हो नहीं पा रहा है। कचरे के निपटारे के प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई, तो उसी में भीड़ ऐसी लगी कि तस्वीरों में धक्का-मुक्की दिख रही थी। अब कौन समझाए कि इस धक्का-मुक्की में कोई एक भी कोरोना पॉजिटिव निकल गया, तो तमाम लोग एक पखवाड़े के लिए घर कैद कर दिए जाएंगे। दूसरी जो बात लोगों को समझ नहीं आ रही है, वह यह कि महज खुद मास्क लगाना काफी नहीं है, सामने के लोगों को भी मास्क लगाना जरूरी है, वरना उनके बोलते हुए उनके थूक के छींटे आप पर पड़ सकते हैं। और सबसे अधिक खतरनाक तो है एक मेज पर बैठकर लोगों का खाना जिसमें खाते हुए थूक के छींटे सामने या अगल-बगल वालों के खाने पर गिरना तय सा रहता है। अब खाते हुए तो मास्क भी नहीं लगाया जा सकता, और चबाते हुए बोलने का मतलब छींटे उड़ाना ही रहता है। आगे लोग अपनी जिंदगी की खुद ही परवाह करें क्योंकि यमराज किनारे बैठकर आराम कर रहे हैं, और कोरोना से चार तरकीबें सीख भी रहे हैं।
उइके फिर खबरों में, उम्मीद से, पर...
पूर्व विधायक रामदयाल उइके एक बार फिर सुर्खियों में हैं। वे विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस छोडक़र भाजपा में चले गए थे। मगर उन्हें पाली-तानाखार सीट से करारी हार का सामना करना पड़ा। वे दिवंगत पूर्व सीएम अजीत जोगी के निधन के बाद से मरवाही में सक्रिय हैं। उइके पहली बार भाजपा की टिकट से मरवाही से विधायक बने थे, लेकिन अजीत जोगी के सीएम बनने के बाद अपनी सीट जोगी के लिए छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे।
उइके जोगी परिवार के करीबी रहे हैं। वे अब मरवाही में भागदौड़ कर रहे हैं। मरवाही से सात किमी दूर उनका अपना मकान है जहां हाल ही में मरम्मत कराने के बाद से रह रहे हैं। कुछ लोगों का अंदाजा है कि उइके मरवाही से भाजपा प्रत्याशी हो सकते हैं। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि यदि जाति प्रमाण पत्र के उलझनों के चलते अमित जोगी उपचुनाव नहीं लड़ते हैं, तो जोगी पार्टी, उइके का समर्थन कर सकती है। हल्ला तो यह भी है कि उइके देर सवेर कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। वैसे भी कई जोगी के कई करीबी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। चुनाव को लेकर अमित जोगी ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं। चाहे कुछ भी हो, रामदयाल उइके की सक्रियता चर्चा का विषय बना हुआ है।
जन्मदिन हो, और विवाद नहीं, ऐसा कैसे?
पिछले दिनों सरकार के मंत्री अमरजीत भगत के जन्मदिन के मौके पर बधाई देने अंबिकापुर में समर्थकों की भीड़ उमड़ी, तो सामाजिक दूरी धरी की धरी रह गई। लॉकडाउन के बीच भगत के जन्मदिन कार्यक्रम को लेकर काफी आलोचना हो रही है। हालांकि भगत ने सफाई दी कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए मास्क बांटने का कार्यक्रम रखा गया था, लेकिन यह जन्मदिन के उपलक्ष्य में नहीं था। उम्मीद नहीं थी कि मास्क लेने के लिए इतनी भीड़ आ जाएगी।
मंत्रीजी को कौन समझाए। कोई चीज मुफ्त में बंट रही हो और उसे लेने के लिए लोग न आए, ऐसा कैसे हो सकता है। खैर, सोशल मीडिया में मंत्रीजी के जन्मदिन समारोह को लेकर काफी कुछ लिखा गया। यह भी कहा गया कि मंत्रीजी से जन्मदिन कार्यक्रम को लेकर स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है। कुछ मंत्रियों के हवाले से यह बात कही गई कि भगत के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। मगर ऐसा कुछ नहीं था। किसी ने स्पष्टीकरण नहीं मांगा बल्कि सीएम और अन्य मंत्रियों ने फोन कर भगत को जन्मदिन की बधाई दी।
विशिष्ट व्यक्तियों के जन्मदिन समारोह में सामाजिक दूरी का पालन हो, यह बेहद कठिन है। बृजमोहन अग्रवाल के पिछले महीने जन्मदिन के मौके पर लॉकडाउन की खुले तौर पर धज्जियां उड़ी। यद्यपि बृजमोहन ने समर्थकों से अपील की थी कि वे जन्मदिन की बधाई देने निवास न आएं । मगर समर्थक कहां मानने वाले थे। बड़ी संख्या में उनके निवास पर जमा हो गए। अब भगत तो सरकार में हैं , और कोई चीज मुफ्त में बांट रहे हैं तो भीड़ आना स्वाभाविक था।
सीनियर और जूनियर अब साथ-साथ
आखिरकार निलंबन और बहाली के छह महीने बाद काबिल आईएफएस अफसर एसएस बजाज की लघुवनोपज संघ में पोस्टिंग हो गई। उन्हें एडिशनल एमडी बनाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि संघ के एमडी संजय शुक्ला हैं, जो कि कॉलेज के दिनों से ही एक दूसरे से परिचित हैं। आईएफएस के 87 बैच के अफसर संजय शुक्ला वैसे तो कॉलेज में बजाज से एक साल जूनियर हैं। जबकि आईएफएस कैडर में एक साल सीनियर हैं। बजाज 88 बैच के हैं। कॉलेज के जूनियर, संघ में अब बजाज के सीनियर हैं।
कहां मलाई बाकी है, कहां खुरचन भी नहीं..
निगम-मंडलों की सूची जल्द जारी हो सकती है। कुछ दावेदार तो पसंदीदा निगम-मंडल छांट रहे हैं। एक दावेदार ने निगम-मंडलों का अध्ययन कर पाया कि ज्यादातर निगमों की माली हालत बेहद खराब है। कुछ तो अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पा रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि पूर्व में काबिज लोगों ने इतने गुलछर्रे उड़ाए कि कुछ निगम-मंडल तो दिवालिया होने के कगार पर है।
आरडीए, हाऊसिंग बोर्ड और पर्यटन बोर्ड को ही लीजिए, यहां बैठे लोगों ने इतने पैसे बनाए कि एक-दो तो खुद की कॉलोनियां बनवा रहे हैं। आरडीए का हाल अब यह है कि पुरानी प्रापर्टी बेचकर किसी तरह कर्ज अदा कर पा रही है। आरडीए की खराब माली हालत को देखते हुए विभाग ने हाऊसिंग बोर्ड में विलय का प्रस्ताव दे दिया है। हाऊसिंग बोर्ड के चेयरमैन का पद काफी मलाईदार रहा है। पर मौजूदा हाल यह है कि बोर्ड के पास अपने कर्मचारियों को किसी तरह वेतन दे पा रहा है।
पर्यटन बोर्ड का हाल भी कुछ ऐसा ही है। प्रदेश के तकरीबन सभी पर्यटन पूछताछ केन्द्रों को बंद कर दिया गया है। संविदा-दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को निकाल दिया गया है, जो काम कर रहे हैं, उन्हें भी समय पर वेतन नहीं मिल पा रहा है। ब्रेवरेज कॉर्पोरेशन को लेकर अब धारणा बदल गई है। पहले मलाईदार माने जाने वाले इस कॉर्पोरेशन में नियुक्ति के लिए काफी हसरत रहती थी।
पिछली सरकार में तो एक मीसाबंदी ने कॉर्पोरेशन के चेयरमैन का पद पाने के लिए नागपुर से जुगाड़ लगवाया था। पद पाने के थोड़े दिन बाद ही मीसाबंदी पुरानी मोटरसाइकिल से महंगी गाड़ी में घूमते देखे जाने लगे। मगर अब कॉर्पोरेशन के लिए वैसा आकर्षण नहीं रह गया है। सरकार ने शराब खरीदी के लिए अलग से मार्केटिंग कारपोरेशन का गठन कर दिया है। इससे कॉर्पोरेशन का काम सिमटकर रह गया है। यानी सारी मलाई अब मार्केटिंग कंपनी में है।
कुछ तो मानते हैं कि ऐसे निगम-मंडलों में तो उपाध्यक्ष-सदस्य के पद से बेहतर तो एल्डरमैन के पद हैं। एल्डरमैन का कम से कम मानदेय तो तय है। अलबत्ता, नागरिक आपूर्ति निगम, छत्तीसगढ़ भवन एवं अन्य संनिर्माण कर्मकार कल्याण मंडल को लेकर क्रेज अभी भी बाकी है। निगम भले ही घपले-घोटालों के लिए कुख्यात रहा है, मगर सालाना टर्नओवर 5 हजार करोड़ से अधिक का है। कुछ इसी तरह कर्मकार कल्याण मंडल में अभी भी पांच सौ करोड़ योजनाओं के मद में रखे हैं। ऐसे में इन्हीं दोनों पद के लिए ज्यादा खींचतान देखने को मिल रही है।
जोगी की मोदी की यादें...
पूर्व सीएम अजीत जोगी के निधन के बाद जोगी पार्टी के प्रमुख नेताओं की भाजपा से नजदीकियां चर्चा में हैं । पूर्व सीएम के निधन के बाद मरवाही में उपचुनाव होना है। इन सबके बीच दिवंगत पूर्व सीएम के पुत्र अमित जोगी ने श्री जोगी के निधन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के डॉ. रेणु जोगी को लिखे पत्र को फेसबुक पर साझा किया है।
अमित ने लिखा कि आदरणीय मोदीजी के प्रति मेरे पिताजी की क्या भावनाएं थीं, उसकी अभिव्यक्ति पापा की कोरोनाकाल में लिखी और जल्द ही प्रकाशित होने वाली आत्मकथा से मैं उन्हीं के ही शब्दों में कर रहा हूं:
मैं इसे भी अपना सौभाग्य मानता हूं कि जब मैं कांग्रेस का मुख्य प्रवक्ता था तो मेरे साथ ही भाजपा के दो अत्यन्त वरिष्ठ नेता, वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज, भाजपा के मेरे समकालीन प्रवक्ता थे। उन दिनों टेलीविजन के चारों चैनलों में हमारी जोरदार बहस हुआ करती थी पर कई बार एक साथ टेलीविजन स्टूडियो द्वारा भेजी गई कार में हम लोगों को एक साथ आना पड़ता था और डिबेट के पहले और बाद हम लोगों में बड़े अंतरंग पारिवारिक संबंध बन गये थे। मैं इसे श्री नरेन्द्र मोदीजी का बड़प्पन मानता हूं कि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कभी मुझसे यह प्रेम संबंध नहीं तोड़े। वे बड़े सफल और विश्वस्तरीय नेता बन गये हैं और एक ही उदाहरण उनकी उदारता को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त होगा।
जब 2014 में वो प्रधानमंत्री बने तो उसके पहले कांग्रेस पार्टी के बहुत से नेताओं को शासकीय आवास किसी न किसी बहाने से आवंटित किये गए थे। स्वाभाविक कारणों से वे सभी शासकीय आवास के आवंटन निरस्त किये गये और सभी को अपनी अलग से व्यवस्था करनी पड़ी। कांग्रेस संगठन की जवाबदारियों के कारण मुझे दिल्ली में रहना अनिवार्य था और स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं दिल्ली में महंगे किराये के मकान में रह सकूं।
मेरे सौभाग्य और संयोग से उन्हीं दिनों संसद भवन की आउटर गैलरी में मैं अपनी व्हील चेयर चलाता हुआ जा रहा था कि दूसरी ओर से तमाम सुरक्षा कवच से भरे हुये प्रधानमंत्री जी आ रहे थे। दूर से उन्हें देखकर सम्मान देने की दृष्टि से मैंने अपनी व्हील चेयर अत्यन्त किनारे कर ली और उनके निकलने का इंतजार करने लगा। उनकी पैनी नजर दूर से ही मेरे पर पड़ गई और सीधे सुरक्षा कवच को चीरते हुये मेरे पास तक आये और मेरी व्हील चेयर पर अपने हाथों से पकड़कर भरे प्रेम से मेरा और मेरे परिवार का हालचाल पूछा। हम दोनों प्रवक्ताकाल में एक-दूसरे को भाई साहब कहा करते थे। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मुझे भाई साहब कहकर मुझसे बातचीत की।
न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं आवास के बारे में अपनी कठिनाई उन्हें बताऊं और मेरे मुंह से निकल पड़ा कि भाई साहब, आप प्रधानमंत्री बन गये हैं और मेरे जैसा व्यक्ति आवास के लिये आपके रहते हुये भी दर-दर भटक रहा है। उनके बड़प्पन की पराकाष्ठा थी कि उन्होंने इस संबंध में मुझे कोई आश्वासन नहीं दिया। मुझे लगा कि वे टालकर चले गये। देर शाम मुझे उनके प्रमुख सचिव और सीनियर आईएएस नृपेन्द्र मिश्रा का फोन आया और मुझसे कहा कि प्रधानमंत्रीजी ने उन्हें आदेशित किया है कि तत्काल नार्थ या साऊथ ऐवेन्यू में मेरी सुविधानुसार आवास आवंटित किया जाय। स्वाभाविक रूप से दूसरे ही दिन मनचाहा आवास मिल गया और उसे खाली करने के लिये कोई नोटिस नहीं मिला। ([email protected])
दिल्ली जाकर अब पछता रहे हैं...
सरकार बदलने के बाद ख़ासकर पिछली सरकार के करीबी आईएएस अफसरों के केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने की होड़ मच गई थी। पहले रिचा शर्मा, फिर सुबोध सिंह, मुकेश बंसल प्रतिनियुक्ति पर चले गए। एक आईपीएस-आईएफएस, पति-पत्नी भी दिल्ली जाने के इच्छुक थे। मगर कोरोना के फैलाव के बाद अफसर तो बैठकों के सिलसिले में भी दिल्ली जाने से परहेज करने लगे हैं। कोरोना के बाद दिल्ली का जीवन डराने लग गया है। सुनते हैं कि जो भी दिल्ली में हैं, वे अब पछताने लग गए हैं। कोरोना के चलते अफसरों के परिवार एक तरह से घर में कैद होकर रह गए हैं। अफसर किसी तरह नौकरी कर पा रहे हैं। एक आईएएस ने बताया की दफ्तर पहुंचकर 30 मिनट तो कंप्यूटर, के बोर्ड, और टेबल खुद साफ करने में लग जाते हैं, उतना ही वक्त घर लौटने के बाद खुद को साफ करने में लग जाता है।
दिल्ली की हालत पर छत्तीसगढ़ में बरसों तक ऊंचे पद पर काम कर चुके एक पूर्व आईएएस अफसर का कहना है कि दिल्ली में भले ही कोरोना पीडि़तों की संख्या 65 हजार के आसपास बताई जा रही है, मगर 10 लाख लोग इससे संक्रमित हैं। बिना लक्षण वाले कोरोना मरीजों को तो डॉक्टर भी नहीं देख रहे हैं। उन्हें घर में ही रहने की सलाह दी जा रही है। उन्होंने बताया कि केवल गंभीर मरीजों का ही इलाज हो पा रहा है। कोरोना पीडि़तों के लिए अस्पतालों में बेड नहीं है। आप चाहे कितने भी बड़े अफसर हैं, दिल्ली में मौजूदा हालत में कोई पूछपरख नहीं रह गई है। दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ में कोरोना का फैलाव तो है, लेकिन जनजीवन सामान्य है। यहां कोरोना पीडि़तों में 85 फीसदी प्रवासी मजदूर हैं। कोरोना संक्रमित भी जल्द ठीक हो जा रहे हैं। ऐसे में जो बाहर हैं उन्हें भी अब छत्तीसगढ़ लुभाने लगा है।
हर मोड़ पर हिना फूड कॉर्नर!
देश भर में चाइनीज खाना खिलाने वाले रेस्त्रां से लेकर खेलों तक की हालत खराब है। अपने बोर्ड से लेकर मेन्यु कार्ड तक चाइनीज नाम का क्या करें? गुजरात में तो लोगों ने कुछ गुजराती सा लगने वाला शब्द चाइनीज की जगह लिख दिया है और लोग उसी से चाइनीज ढांक रहे हैं। लोगों को याद होगा कि साल दो साल पहले जब पाकिस्तान से तनाव हुआ था तो कहीं करांची बेकरी पर हमला हो रहा था, तो कहीं किसी और पाकिस्तानी नाम पर। अब चीनी नामों पर हमला होने के करीब आ गए हैं। ऐसे में एक कल्पनाशील ठेले वाले ने अंग्रेजी के चाइना से च हटा दिया, और हिना रह गया। थोड़े दिन में हिना नाम की लड़की और महिला को अजीब सा लगेगा कि हर मोड़ पर उसके नाम के ठेले या रेस्त्रां हैं।
सेवा के बदले में मेवा?
सरकार के निगम मंडलों में नियुक्ति के लिए कई नाम सोशल मीडिया में तैर रहे हैं। इनमें से एक युवा नेता के नाम पर तो कुछ लोग शर्त लगाने के लिए भी तैयार हैं। सुनते हैं कि युवा नेता को एक बड़े पदाधिकारी के सत्कार की जिम्मेदारी दी गई थी। युवा नेता ने पदाधिकारी के सेवा सत्कार में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
पार्टी जब संसाधनों की कमी से जूझ रही थी ऐसे समय में भी युवा नेता, पदाधिकारी के लिए रैंज रोवर या फिर फॉर्चूनर गाड़ी लेकर हाजिर रहते थे। बताते हैं कि पदाधिकारी युवा नेता के सेवा से काफी खुश हैं, और वे उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते हैं। अब जब लालबत्ती बंटने वाली है, तो युवा नेता का नाम चर्चा में है। कुछ लोगों का अंदाजा है कि युवा नेता की लालबत्ती के लिए पदाधिकारी वीटो भी लगा सकते हैं। सेवा के बदले में मेवा मिलता है या नहीं, यह देखना है।
कोचिंग, अभी ठंडी, आगे क्या?
छत्तीसगढ़ के 10वीं और 12वीं के नतीजे निकल गए। अब ऐसा लगता है कि इस बरस तो इन क्लासों के बच्चे राजस्थान के कोटा जाने से रहे जहां पर कोचिंग-उद्योग अभी-अभी कोरोना की वजह से बहुत बुरा हाल देख चुका है। अभी जो नतीजे निकले हैं, ये तो कोटा गए हुए बच्चों के नहीं हैं, और अभी जो 10वीं पास कर रहे हैं उनमें से संपन्न परिवारों के चुनिंदा बच्चे जरूर कोटा जाते हैं, लेकिन इस बार स्थानीय कोचिंग का कारोबार बढऩे की उम्मीद है, जब कभी भी सरकार इसकी छूट देगी। सिर्फ प्रवासी मजदूरों का बाहर जाना कम नहीं होगा, पढऩे के लिए बाहर जाने वाले बच्चे भी यहीं रहकर पढऩे की कोशिश करेंगे। अभी फिलहाल 15 अगस्त तक न स्कूल-कॉलेज खुलते दिख रहे, और न ही कोई कोचिंग क्लास। इसके बाद हो सकता है कि पढ़ाई के नुकसान की भरपाई के लिए अधिक लोग कोचिंग क्लास की ओर देखने लगें। ([email protected])
आपस की गंदगी, फुटपाथ तक बदबू
अभी दो दिन पहले ही हमने इसी जगह अलग-अलग किस्म के काम से बनने वाले अलग-अलग मिजाज की बात कही थी। सबसे बुरा हाल तब होता था जब एक अखबार वाला दूसरे अखबार वाले के पीछे पड़ता था। नतीजा चारों तरफ गंदगी बिखरने पर जाकर खत्म होता था, और चौराहे पर दोनों के कपड़े उतर जाते थे। इसीलिए यह कहा जाता था कि अखबार वालों को अखबार वालों के खिलाफ नहीं लिखना चाहिए, और इसके लिए एक अवैज्ञानिक मिसाल भी ढूंढ ली जाती थी कि कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता। ऐसा कहीं नहीं लिखा हुआ है कि कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता।
अब अखबारों से आगे बढ़कर यह बात एक ताजा तबके पर आ गई है, जिसे आरटीआई एक्टिविस्ट कहते हैं। अब होता यह है कि अच्छे दिनों में आरटीआई एक्टिविस्ट मिलकर काम करते हैं, लेकिन जब उनमें खटपट हो जाती है, तो अच्छे दिनों तमाम बुरी बातों की यादों को लेकर वे एक-दूसरे पर टूट पड़ते हैं। इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कुछ ऐसा ही चल रहा है, आपस की गंदगी को सड़कों पर इतना ज्यादा धोया जा रहा है कि फुटपाथ तक बदबू फैल चुकी है। अब दोनों ही तरफ के लोग पुलिस, कोर्ट-कचहरी सबके इतने जानकार हैं कि हमारे जैसी मामूली समझ के लोगों के पास उनके लिए कोई नसीहत भी नहीं है। लेकिन इससे बाकी लोगों को एक समझ मिलेगी कि अच्छे दिनों में भी अपने राज चना-मुर्रा की तरह न बांटें, किसी दिन आप ही के खिलाफ बेकाबू होकर इस्तेमाल होंगे।
दौरे का राज कुछ और?
पीएल पुनिया अचानक रायपुर पहुंचे, तो कांग्रेस में हलचल मच गई। वैसे तो यह प्रचारित किया गया कि वे निगम मंडलों में नियुक्ति के मसले पर चर्चा के लिए आए थे। मगर अंदर की खबर कुछ और है। सुनते हैं कि प्रदेश के एक दिग्गज नेता ने राजस्थान में राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के राष्ट्रीय प्रभारी महामंत्री केसी वेणुगोपाल को काफी कुछ कहा था।
वेणुगोपाल कांग्रेस के राज्यसभा प्रत्याशी थे। नेताजी को पार्टी की तरफ से चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वेणुगोपाल चुनाव जीत गए, तो नेताजी की बात पर गौर किया और उन्होंने हाईकमान को इससे अवगत कराया। फिर क्या था पुनिया को रायपुर जाकर वस्तुस्थिति की जानकारी लेने और सबकुछ ठीक करने के लिए कहा गया। पुनिया रात में चुपचाप पहुंचे और फिर अलग-अलग नेताओं के साथ बैठक की। कुछ दिग्गजों के बीच खींचतान चल रही थी, जिसे दूर करने की कोशिश हुई। अब आ गए, तो लगे हाथ निगम मंडलों की नियुक्ति को लेकर भी चर्चा हो गई। मगर पुनिया के दौरे से क्या फर्क पड़ता है, यह देखना है।
ऐसा फिलहाल दिखता नहीं
कांग्रेस के रायपुर संभाग के एक सीनियर विधायक को वित्त आयोग का अध्यक्ष बनाने पर सहमति बनी है। वैसे तो विधायक महोदय मंत्री बनना चाह रहे थे। मंत्रिमंडल में फेरबदल की अटकलें भी थीं। जिस मंत्री को बाहर करने की चर्चा थी, वे दो दिन पहले ही बेटे के साथ दाऊजी से मिल आए थे। मंत्रीजी ने अपनी तरफ से गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की। आखिरकार फेरबदल की अटकलों पर विराम लग गया।
अब 18 महीने बिना लालबत्ती के गुजार चुके हैं। ऐसे में और इंतजार करना विधायक महोदय को भारी पड़ रहा था। लिहाजा जो मिला उसमें संतोष करना उचित समझा और आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो गए। ये अलग बात है कि विधायक महोदय, अविभाजित मध्यप्रदेश और फिर जोगी सरकार में मंत्री रह चुके हैं और मौजूदा मंत्रिमंडल में कई तो उस समय विधायक भी नहीं थे। दूसरी तरफ, पूर्व मंत्री अमितेष शुक्ला के तेवर अभी भी नरम नहीं दिख रहे हैं। चर्चा है कि उन्हें निगम मंडल का ऑफर दिया गया था, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया है। शुक्ल बंधुओं के इकलौते राजनीतिक वारिस अमितेष को उम्मीद है कि देर सवेर उन्हें मंत्री बनाया जाएगा। अब अमितेष की उम्मीद तो सरकार इस कार्यकाल में पूरी होगी, ऐसा फिलहाल दिखता नहीं है।
पार्टनरशिप ऑफर
पिछले 15 साल भाजपा के लोगों का ट्रांसपोर्ट व्यावसाय में एकतरफा राज रहा है। रेत से लेकर कोयला परिवहन में उन्हीं की ट्रकें लगती थीं। धमतरी और कांकेर जिले की रेत खदानों में तो भाजपा के पूर्व मंत्री के इशारे के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था। अब तस्वीर बदल गई है। रेत और मायनिंग में अब कांग्रेस के लोग कूद पड़े हैं और एक-एक कर भाजपा के लोगों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं।
इसमें दुर्ग संभाग के युवा विधायक और युवक कांग्रेस के ऊंचे ओहदे पर बैठे पदाधिकारी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। जिन अफसरों पर भाजपा नेताओं को पूरा भरोसा था और उनके सहारे मलाई छान रहे थे, वे अब कांग्रेस नेताओं के मार्गदर्शक बन गए हैं। भाजपा के लोग अब कांग्रेस के बड़े नेताओं के आगे पीछे हो रहे हैं और अपनी तरफ से पार्टनरशिप ऑफर भी भिजवा रहे हैं ताकि उनका धंधा जारी रहने दिया जाए। मगर उनकी दिक्कत यह है कि कांग्रेस के लोग उनके ऑफर पर गौर तक नहीं कर रहे हैं।
रमन ने कह दिया
प्रदेश भाजपा की नई टीम का गठन होना है। नई टीम में राजेश मूणत और भूपेन्द्र सवन्नी को महामंत्री के रूप में जगह मिलना तकरीबन तय माना जा रहा है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में पूर्व सीएम रमन सिंह ने भूपेन्द्र सवन्नी को महामंत्री कह दिया। अब रमन सिंह ने कुछ कह दिया, तो उसे सच मान लेना चाहिए। वैसे भी उन्होंने नेता प्रतिपक्ष और फिर प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपनी पसंद पर मुहर लगवाकर अपनी ताकत दिखा चुके हैं। ([email protected])
योग दिवस और चर्चा
कोरोना की वजह से योग दिवस का कार्यक्रम सिमटकर रह गया। सरकारी आयोजन तो हुए ही नहीं, थोड़ी बहुत भाजपा कार्यालय एकात्म परिसर में रौनक देखने को मिली। यहां भाजपाध्यक्ष विष्णुदेव साय कुछ पुरुष-महिला पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के साथ योग करते दिखे। एकात्म परिसर के समानांतर पूर्व सीएम रमन सिंह के घर पर भी योग दिवस का कार्यक्रम हुआ। यहां रमन सिंह, नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक,राजेश मूणत और भूपेन्द्र सवन्नी योग करते नजर आए।
रमन सिंह के घर से चंदकदम दूरी पर अजय चंद्राकर का भी घर है, लेकिन इस बार वे रमन सिंह के बजाए अपने घर में ही योग करते दिखे। यह बात जाहिर है कि कुछ समय पहले सरकार के खिलाफ भाजपा नेताओं का धरना प्रदर्शन हुआ था। तब अजय अपने घर में धरना देने के बजाए रमन सिंह के घर जाकर साथ ही धरने पर बैठे थे। ये बात अलग है कि उस समय प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हुई थी। अब सारी नियुक्तियां हो चुकी है, ऐसे में अब इधर-उधर जाने का कोई मतलब भी नहीं रह गया है। कुछ भी हो, भाजपा के योग दिवस कार्यक्रम की काफी चर्चा रही।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने योग दिवस पर अपनी योग करते तस्वीरें पोस्ट कीं, तो लोग हैरान रह गए। इस उम्र में भी वे शीर्षासन करते हैं, और रोज करते हैं। सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरों को देखकर लोग उन्हें देश का सबसे फिट सीएम करार देते रहे।
खबर ना मिली तो खफा !
पहली बार पीएल पुनिया चुपके-चुपके शनिवार को रायपुर पहुंचे। पीसीसी ने उनका दौरा कार्यक्रम जारी नहीं किया था। कुछ नेताओं को छोडक़र बाकियों को तो इसकी भनक भी नहीं लगी। जो चार-पांच नेता उन्हें लेने पहुंचे थे, वे भी विमानतल के बाहर अपनी कार में बैठे थे। जैसे ही पुनिया अपने पीए के साथ बाहर निकले, इन नेताओं ने कार से बाहर निकलकर औपचारिक रूप से उनका स्वागत किया और अपने साथ ले गए।
पुनिया के आने की खबर जैसे-जैसे पीसीसी के बाकी नेताओं और सरकार के मंत्रियों तक पहुंची, हर कोई यह जानने के लिए उत्सुक थे कि आखिर बिना पूर्व सूचना के क्यों आए हैं? निगम-मंडल के कुछ दावेदार नेता भागदौड़ करते रहे। कुछ तो बहुत टेंशन में भी थे। वजह यह थी कि जब भी पुनिया रायपुर आते थे, वे उनका स्वागत के लिए जाते थे। मगर इस बार उन्हें पुनिया के आने की सूचना भी नहीं मिली।
इससे खफा पीसीसी के एक नेता ने रात में काफी हंगामा मचाया। चर्चा है कि नाराज नेता ने पुनिया के एक सहयोगी को गुपचुप दौरे के लिए जमकर खरी खोटी सुनाई। वे यही नहीं रूके, उन्होंने पुनिया और अन्य बड़े नेताओं को फोन भी किया, लेकिन रात काफी हो चुकी थी, किसी ने उनके फोन का जवाब नहीं दिया। वे यह कहते भी सुने गए कि बड़े नेताओं का रवैया ऐसा ही रहा, तो छत्तीसगढ़ में भी कोई सुशांत सिंह जैसा कदम उठा सकता है।
कौन चोर कौन पुलिस?
पुलिस विभाग में अखबारों का हमेशा से खासा महत्व रहा है। पुलिस के छोटे-बड़े सभी दर्जे के कर्मचारी-अधिकारी अपनी कामयाबी की शोहरत छपवाना चाहते हैं, और कतरनों की फाईलें रखते हैं। जब किसी मुजरिम को पकड़ा जाता है, या लूट-डकैती का सामान, तस्करी का सामान बरामद होता है, तो उसके पीछे खड़े होकर पुलिस फोटो खिंचवाती है। अब ऐसे में अखबारों में कई बार दिक्कत यह आती है कि आई हुई तस्वीर में तीन अपराधी और चार पुलिसवाले एक साथ कतार में पीछे खड़े रहते हैं, और ये पुलिसवाले वर्दी में भी नहीं रहते। ऐसे में किसी होशियार सबएडिटर ने मुजरिमों के चेहरों पर गोला बनाना शुरू कर दिया ताकि पुलिस और मुजरिम का फर्क दिख जाए। लेकिन एक बार गलती से चोर का गोला पुलिस के चेहरे के इर्द-गिर्द आ गया। बवाल इतना मचा कि उसके बाद यह होशियारी दिखाना भी बंद हो गया। अब एक कतार में आधा दर्जन लोग खड़े रहते हैं, और अखबारों के पाठक खुद तय कर लें कि उसमें से कौन चोर जैसे दिख रहे हैं, और कौन पुलिस हैं।
मिजाज का असर काम पर भी...
लोगों का मिजाज अलग-अलग होता है। कुछ काम ऐसे रहते हैं जिन्हें एक खास किस्म के मिजाज की जरूरत पड़ती है, और अगर वहां किसी दूसरे मिजाज के लोगों को बिठा दिया गया तो बर्बादी की कोई सीमा नहीं होती। सरकारों में बैठे हुए लोग उसे बेहतर समझ सकेंगे कि सीएनजी के लोगों को अगर योजना मंडल में बिठा दिया गया, तो वे हिसाब-किताब और प्रक्रिया की खामियां निकालने के काम में लग जाएंगे, और आगे की कोई योजना ही नहीं बन पाएंगी। इसी तरह अगर किसी योजनाशास्त्री को सीएजी में बिठा दिया जाए, तो बारीकी से ऑडिट होना खत्म ही हो जाएगा।
सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हुए लोगों का पूरा परिवार अगर सामाजिक आंदोलन से जुड़ा हुआ न हो, तो घर के भीतर भी बवाल होते रहते हैं। एक सोशल एक्टिविस्ट के घर पर किसी ने कुछ जोर देकर कहा कि खाने में नमक कुछ कम डलना चाहिए, तो परिवार के सामाजिक कार्यकर्ता सदस्य ने कहा कि घर का खाना किसी एक की मर्जी से नहीं बन सकता, सबकी बात सुननी चाहिए। गनीमत यही कि एक बैनर बनवाकर बाप के खिलाफ धरने पर नहीं बैठ गए।
कुछ समझदार लोग होते हैं तो वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि ऐसे जागरूक और सक्रिय लोगों को न उलझा जाए जिनका कि काम ही ऐसे मुद्दों पर संघर्ष करना है। नतीजा यह होता है कि कानूनी अधिकार के लिए लड़ाई लडऩे वाली लड़कियों की शादी की बात चलती है, तो लोग तुरंत माफी मांग लेते हैं कि हमारे घर बहू भेजना चाहते हो, या हमारे खिलाफ कोई वकील खड़ी करना चाहते हो?
लोगों के मिजाज में उनकी राजनीतिक विचारधारा भी इतनी हावी हो जाती है कि वामपंथी सोच के लोग दक्षिणपंथी सोच के परिवारों से रिश्ते भी करना नहीं चाहते, और इसका ठीक उल्टा भी लागू होता है कि संघ की सोच वाले परिवार कम्युनिस्टों से बचकर चलते हैं। लोगों को पता नहीं याद है या नहीं कि अपने कॉलेज के दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी जिस लडक़ी से मोहब्बत करते थे, और शादी करना चाहते थे, उसके पिता कम्युनिस्ट थे, और ट्रेड यूनियन वाले थे। उन्होंने संघ की शाखा वाले अटलजी के लिए शुरू से ही मना कर दिया था, और वह शादी कभी हो ही नहीं पाई, यह अलग बात है कि जिंदगी का आखिरी बहुत लंबा हिस्सा अटलजी ने इसी महिला के साथ गुजारा था, जो उस वक्त शादीशुदा हो चुकी थीं।
इसलिए लोगों को मिजाज को भूलकर कोई काम नहीं करना चाहिए। जिस तरह का मिजाज हो उसी किस्म के काम पर लगाना चाहिए। मजदूरों के हक के लिए लडऩे का जिसका इतिहास हो, उसे कोई समझदार कंपनी कर्मचारियों के मामले देखने की ड्यूटी पर नहीं लगाती।
घड़ा फोडऩे एक सिर मिला...
छत्तीसगढ़ में एक पखवाड़े के भीतर आधा दर्जन हाथी अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग वजहों से मारे गए, और एक बीमार का इलाज जारी है। इसमें आखिरी के तीन हाथी तो दो दिनों के भीतर गुजरे और उसके भी पहले से वन विभाग में यह हल्ला शुरू हो गया था कि पीसीसीएफ (वन्यजीवन) अतुल शुक्ला का तबादला कर दिया जाए। यह एक अलग बात है कि उनके तबादले में हाथियों की मौत का एक संयोग या दुर्योग जुड़ गया, उनके तबादले की पूरी तैयारी पहले से कर ली गई थी क्योंकि वे विभाग के कई तौर-तरीकों को निभा नहीं पा रहे थे। जो लोग उन्हें हटाना चाहते थे उनको हाथियों की मौत हथियार के रूप में मिल गई, और आनन-फानन उन्हें सरकारी जुबान की लूपलाईन में भेज दिया गया। जबकि इस कुर्सी पर आने के बाद से अतुल शुक्ला ने जानवर या जानवर के हाथों इंसानों की मौत, सभी मामलों में पूरे प्रदेश में जमकर दौड़-भाग की थी। और अगर बिजली के अवैध तारों की वजह से दो-दो, तीन-तीन हाथी मर रहे हैं, लोग जहर देकर मार रहे हैं, या हाथी रास्ते के दलदल में फंसकर मर रहे हैं, इनमें से किसी भी बात की जिम्मेदारी रायपुर में बैठे किसी वन अधिकारी की नहीं हो सकती, और यह बात सरकार भी अच्छी तरह जानती थी। लेकिन बड़े-बड़े सिरों वाले हाथियों की इतनी मौत का घड़ा किसी बड़े सिर पर ही फूटना था, इसलिए बिना राजनीतिक संबंधों वाले ईमानदार अफसर अतुल शुक्ला को एकदम उपयुक्त सिर माना गया।
अब जानवरों और इंसानों के बीच छत्तीसगढ़ में जो कठिन लड़ाई चल रही है, उसके चलते इस पर काबू पाने के लिए नरसिंह राव नाम के अफसर को लाया गया है जिनके नाम में इंसान भी है, और जानवर भी, और किसी बात का असर हो या न हो, नाम के असर से हो सकता है कि टकराव और मौतें घट जाएं।
कोरोना की दहशत
राजधानी में कोरोना पांव पसार रहा है। राजभवन के आसपास और सीएम हाऊस के बाहर एक सुरक्षाकर्मी भी कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। सरकारी दफ्तरों में भी कोरोना का खौफ देखने को मिल रहा है। स्वास्थ्य विभाग की जिस महिला अफसर को कुछ दिन पहले तक फ्रंटलाइनर कोरोना वारियर्स के रूप में प्रचारित किया जा रहा था, वह अपने दफ्तर के एक कर्मचारी की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आने की सूचना मिलते ही आनन-फानन दफ्तर छोडक़र निकल गयीं।
कुछ इसी तरह की स्थिति दो दिन पहले महानदी भवन मंत्रालय में भी बन गई थी। आरोग्य सेतु एप में मंत्रालय के आसपास कोरोना संक्रमित होने का अलर्ट दिखाया गया। यह देखते ही लंच तक कई अधिकारी-कर्मचारी दफ्तर छोडक़र निकल गए। मंत्रालय में वे लोग ही बच गए थे, जिन्होंने एप नहीं देखा था। या फिर वे जिन्हें इस अलर्ट पर भरोसा नहीं था या खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे। दूसरी तरफ, कोरोना संक्रमण से रोकथाम के लिए कई दफ्तरों में सैनिटाइजर टनल लगाए गए हैं। अरण्य भवन, उद्योग भवन के टनल तो खराब भी हो गए। उद्योग भवन स्थित एक निगम के दफ्तर का हाल यह है कि वहां सभी को सैनिटाइजर उपलब्ध कराने का जिम्मा एक बाबू को दिया गया है। बाबू के पहुंचने के बाद ही सबको हाथ साफ करने के लिए सैनिटाइजर मिल पाता है। तब कहीं जाकर दफ्तर का काम शुरू हो पाता है।
लॉकडाऊन, और संभावनाएं...
देश के अधिकतर संपन्न लोग, उच्च-मध्य वर्ग के लोग, और आपात सेवाओं को छोडक़र बाकी काम करने वाले लोग लॉकडाऊन के दो महीने घर में ही कैद सरीखे रहे। बाहर निकलना भी हुआ, तो भी मजबूरी में। बहुत से लोगों ने इस दौरान चर्बी चढ़ जाने की तकलीफ बताई, अधिकतर संपन्न लोगों ने बोरियत, और खाली बैठे लोगों ने लॉकडाऊन हालत में परिवार के भीतर के गढ़े गए लतीफे आगे बढ़ाए, सोशल मीडिया पर कार्टून पोस्ट किए।
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी निकले जिन्होंने इस वक्त का इस्तेमाल किया। गुजरात के एक-एक परिवार की कहानी छपी, जिसने अपने घर की तमाम दीवारों को टेराकोटा रंग में रंगकर उस पर महाराष्ट्र के मछुआरा लोक कलाकारों की वारली शैली के भित्ती चित्र बनाए, और घर बाहर-बाहर से एक कला संग्रहालय जैसा हो गया। बहुत से लोगों ने इंटरनेट पर कई नए हुनर सीखे, भाषाएं सीखीं, कम्प्यूटर पर काम करना सीखा, कम्प्यूटर पर नई तरकीबें सीखीं। सबके सामने यह मौका था कि कभी न देखा हुआ, न कभी सुना हुआ एक ऐसा दौर आया जिसमें घरों में कैद रहना मजबूरी था, और लोगों ने उसे अपने-अपने हिसाब से या तो पूरे का पूरा बर्बाद कर दिया, या लोगों ने उसे जिंदगी का सबसे उत्पादक दौर भी बना लिया। वक्त वही था, दौर भी उतना ही था, लेकिन कुछ ने उसे आबाद किया, कुछ ने बर्बाद किया।
इस अखबार के पाठकों को याद होगा कि इसके संपादकीय में लोगों को बार-बार यह मशविरा दिया गया था कि वक्त खराब न करें, और अधिक से अधिक इस्तेमाल करें। अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है, अभी घर के बाहर की जिंदगी सीमित रहने वाली है, और लोगों के पास रोजाना कई घंटे सिर्फ घर में रहना ही हिफाजत की बात रहने वाली है। ऐसे में अभी भी कुछ सीखें, अभी भी कुछ नया करें, वरना आगे जाकर अगली पीढिय़ों को क्या मुंह दिखाएंगे कि कोरोना-लॉकडाऊन में क्या किया था?
मौत के लिए भी वीआईपी?
राजधानी की कई पॉश कॉलोनियां कोरोना मरीज मिलने के बाद कंटेंटमेंट जोन में तब्दील हो चुकी हैं। इन्हीं में से एक सिविल लाइन का इलाका भी है। यहां बड़े कारोबारियों के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा के कुछ नेता भी रहते हैं। चूंकि कंटेंटमेंट जोन बन चुका है, ऐसे में यहां के लोगों की बाहर आवाजाही प्रतिबंधित है। मगर कुछ लोगों को बेरोकटोक आने-जाने की अनुमति देने के लिए वहां ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मियों पर दबाव है।
सुनते हैं कि दो दिन पहले सिविल लाइन कंटेंटमेंट जोन में सफाई व्यवस्था का जायजा लेने एक विधायक वहां पहुंचे। जाते-जाते उन्होंने ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मियों को दो कारोबारियों का नाम देकर कहा कि उन्हें बेरोकटोक आने-जाने दिया जाए। विधायक द्वारा पुलिस कर्मियों पर दबाव बनाने की सूचना मिलते ही कुछ भाजपा नेता वहां पहुंच गए। उन्होंने साफ शब्दों में कह दिया कि यदि कुछ विशेष लोगों को ही आने-जाने की अनुमति दी जाती है, तो बाकी लोग कंटेंटमेंट जोन के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं रहेंगे। माहौल बिगड़ता देख पुलिस कर्मियों ने भरोसा दिलाया कि कंटेंटमेंट जोन के नियमों का सख्ती से पालन कराया जाएगा। तब कहीं जाकर मामला शांत हुआ।
इंटरनेट के मेले में ठग...
इन दिनों इंटरनेट पर बहुत सी वेबसाईटों के बीच इस किस्म के जालसाजी के इश्तहार मासूम चेहरा बनाए खड़े रहते हैं कि आपने किसी पर क्लिक किया, तो वे आपको या तो पोर्नोग्राफी बेचने वाली किसी वेबसाईट पर ले जाएंगे, या फिर ठगी-जालसाजी वाली किसी वेबसाईट पर। जो भले लोग भी अपनी वेबसाईटों को विज्ञापनों के लिए गूगल के हवाले कर देते हैं, वहां पर अपने आप इस तरह के सेक्स या जालसाजी के इश्तहार आने लगते हैं। आज सुबह महिला अधिकारों की एक प्रतिष्ठित वेबसाईट पर ऐसा ही एक इश्तहार दिखा जो इस शहर के किसी के एकाएक करोड़पति बन जाने की खबर दिख रहा था। उत्सुकता से उस पर क्लिक किया गया तो ठगी की एक कहानी की तरह दो महीनों में करोड़ों रूपए, दो बंगले, और मर्सिडीज कार जैसी कमाई बताने वाला एक बंदा अपने को बेच रहा था। जिस तरह मेलों में ठग मिलते हैं, उसी तरह इंटरनेट पर अच्छी-भली वेबसाईटों के बीच भी धोखेबाज और जालसाज मिल जाते हैं। उन पर भरोसे के पहले लोगों को अपनी समझ पर भरोसा करना चाहिए।
आईएएस बनने की हड़बड़ी..
राप्रसे से आईएएस अवॉर्ड के लिए जल्द ही डीपीसी हो सकती है। सरकार ने आईएएस के सात रिक्त पद के लिए 21 राप्रसे अफसरों के नाम भेज दिए हैं। इसमें वर्ष-2003 बैच के डिप्टी कलेक्टर संवर्ग के अफसरों के नाम भी हैं। इस बैच के अफसरों की चयन प्रक्रिया में काफी गड़बड़ी हुई है, और यह प्रकरण अभी अदालत में भी हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इस बैच के अफसरों की नाम आईएएस अवॉर्ड के लिए नहीं भेजने का आग्रह भी किया गया था। इस बैच में चयन प्रक्रिया भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनी लड़ाई लडऩे वाली वर्षा डोंगरे ने राज्य शासन से पत्र व्यवहार भी किया है, लेकिन जब तक उनका पत्र मंत्रालय तक पहुंच पाता, डीपीसी की फाइल डीओपीटी को भेजी जा चुकी थी।
चर्चा है कि डीपीसी को लेकर किसी तरह की कानूनी अड़चनें न आए, इसके लिए इस बैच के अफसर लामबंद हो गए हैं। वे डीओपीटी के अफसरों से संपर्क की कोशिश में भी जुट गए हैं। ताकि हाईकोर्ट के फैसले के चलते पदोन्नति में किसी तरह की समस्या न आए। यही नहीं, वे कानूनी परामर्श भी कर रहे हैं। चूंकि तकरीबन सभी मलाईदार पदों पर हैं। इसलिए कोई आर्थिक समस्या भी नहीं है। ऐसे में वे सभी पदोन्नति को लेकर उम्मीद से हैं। हालांकि अभी डीपीसी की तिथि तय नहीं हुई है। लिहाजा, पदोन्नति खटाई में पडऩे की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा रहा है।
हलके और भारी विधायक...
विकास योजनाओं और ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर कई जगहों पर कांग्रेस के विधायकों में आपसी मनमुटाव चल रहा है। प्रदेश के एक जिले के तीन कांग्रेस विधायकों में से दो एक राय के हैं, तो एक विधायक की एकला चलो की रणनीति रही है। इससे अकेले विधायक को नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। जिले के शीर्ष अधिकारियों की पोस्टिंग की बात आई, तो अकेले विधायक की सुनवाई नहीं हो पाई। दोनों विधायक एक राय होकर पहले कलेक्टर को बदलवाने में सफल रहे, और अब डीएफओ के लिए अपनी तरफ से नाम प्रस्तावित कर दिए हैं। लोकतंत्र में वैसे भी भीड़ का महत्व होता है। लिहाजा, योजनाओं की स्वीकृति हो या फिर ट्रांसफर-पोस्टिंग, दोनों विधायक हर जगह भारी पड़ रहे हैं।
बुरे वक्त में एक अच्छा बाजार
बुरे वक्त में भी कई अच्छे धंधे पनप सकते हैं। जिस शहर में मच्छर अधिक हैं वहां मच्छर मारने के कई तरह के सामान खूब बिकते हैं। किसी धर्म के लोगों को हिंसा लग सकते हैं, लेकिन सभी धर्मों के कारोबारी ऐसे सामानों का छोटा या बड़ा धंधा करने लगते हैं। अभी कोरोना का हमला हुआ तो तरह-तरह के मास्क बिकने लगे। मुम्बई में सुशांत राजपूत नाम का अभिनेता गुजरा, तो उसकी शोहरत को आनन-फानन भुनाते हुए विशेष श्रद्धांजलि देते हुए मास्क बन गए, और सडक़ों पर बिकने लगे। जब कभी कोई अगला मैच होगा, तो हो सकता है कि कोकाकोला, या पेप्सी जैसी कोई कंपनी अपने इश्तहार के मास्क मुफ्त बांटने लगे, या आज भी दुकानों पर कई सामानों के साथ उनके इश्तहार वाले मास्क आ भी गए हों, तो भी पता नहीं।
कारोबार का उसूल यही है, कि जरूरत न हो तो जरूरत खड़ी की जाए, लोगों को खरीदने के लिए उकसाया जाए, नई-नई फैशन, नए रंग, और नए डिजाइन, इन सबसे लोगों को खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। अब मास्क, सेनेटाइजर के अलावा बाजार में ऐसे दूसरे सामान तेजी से घुस गए हैं जो किसी दरवाजे को बिना छुए खींचकर या धकेलकर खोलने-बंद करने के काम आते हैं, और किसी हैंडिल को बिना छुए वे काम किए जा सकते हैं। यह तो आज चीन के साथ तनातनी बहुत अधिक चल रही है, वरना वहां पर वुहान की लैब से, या वुहान के पक्षी बाजार से कोरोना निकलने के पहले ही उससे निपटने के सामान बनना शुरू हो चुके होंगे। आज भारत में बहिष्कार का खतरा न हो, तो ऐसे दर्जनों सामान गली-गली बिकने लगेंगे जो कि चीन से आए हुए होंगे।
वैसे भी कोरोना कोई जल्दी जाने वाला नहीं है, और ऐसे में कागजों को वायरसमुक्त करने के सामान आ चुके हैं, मोबाइल फोन को वायरसमुक्त करने के उपकरणों के इश्तहार धड़ल्ले से चल रहे हैं, और कोरोना हैरान हो रहा है कि उसकी वजह से मंदा धंधा अब फिर किस तरह नए-नए सामान लेकर खड़ा हो रहा है। यह देश की विज्ञापन एजेंसियों के लिए सही समय है कि वे मास्क एडवरटाइजिंग के काम पर फोकस करें, बिहार का चुनाव इसमें सबसे पहला बाजार बन सकता है। कुल मिलाकर लोगों को मास्क मुफ्त में मिलें, इतना तो हो ही जाना चाहिए। फिलहाल दूल्हा और दुल्हन के लिए तरह-तरह के खूबसूरत मास्क भी बाजार में आ रहे हैं, ऐसे एक ताजा मास्क के जोड़े पर एक पर मिस्टर लिखा है, और एक पर मिसेज।
चीनी सामानों को जलाने का मौसम
हर साल एक-दो बार चीनी सामानों के बहिष्कार का दौर हिन्दुस्तान में आते ही रहता है। लोग चीन के खिलाफ अपनी भावनाओं को दिखाने के लिए उसके बहिष्कार को एक अच्छा जरिया मानते हैं, वहां के राष्ट्रपति की चार तस्वीरें, वहां के चार झंडे, और चीन के बने कुछ खराब हो चुके सामान सडक़ों पर आग लगाकर चीनी कैमरों से ही नजारे की तस्वीर खींचकर चारों तरफ फैलाई जाती है।
अब क्या सचमुच ही दुनिया में ऐसे किसी एक बड़े देश का बहिष्कार हो सकता है जो कि सबसे बड़ा मैन्युफेक्चरिंग-हब हो? हिन्दुस्तान के बिजलीघरों में से बहुत से चीन के बने हुए हैं, और उनकी बनी बिजली नेशनल ग्रिड में जाती है। इस तरह चीनी बिजलीघरों की बिजली देश के हर घर-दफ्तर में पहुंच रही है। तो क्या हिन्दुस्तान बिजली का इस्तेमाल बंद कर सकता है? इसी तरह मोबाइल फोन के अधिकतर हैंडसेट चीन के बने हुए हैं, अधिकतर कम्प्यूटर या उनके हिस्से चीन के बने हुए हैं, फोटोकॉपी की मशीनें चीन की बनी हुई हैं, दूरदर्शन से लेकर दूसरे निजी चैनलों तक कैमरे और माईक, प्रसारण के उपकरण, स्टूडियो की लाईट, ये सब चीन के बने हुए हैं। भारत में बनने वाली बहुत सारी दवाईयों के रसायन चीन से आते हैं। घरेलू मशीनों से लेकर गाडिय़ों तक में चीन के बने हुए हिस्से लगते हैं। क्या सचमुच ही इन सबका बहिष्कार हो सकता है, या फिर सिर्फ प्रतीक के लिए, प्रचार के लिए लोग बहिष्कार का ऐसा फतवा देते हैं? और दूसरी बात यह कि अगर भारत चीन के सामान बुलाना बंद करता है, तो मेक इन इंडिया का पूरा अभियान ठप्प पड़ जाएगा, क्योंकि चीनी पुर्जों के बिना अधिकतर सामान भारत में भी पूरे नहीं बन पाएंगे, और सारा काम-धंधा ही ठप्प हो जाएगा। आज भारत चीन के पुर्जों, चीन के कच्चे माल, और चीन की टेक्नालॉजी के बिना ठप्प हो जाने की हालत में है। इसलिए बहिष्कार के फतवों की तस्वीरें कुछ दिन खींचकर अगर यह भड़ास कम होती है, और अपना खराब हो चुका चीनी मोबाइल जलाने वाले लोगों को खुद के लिए शहीद का दर्जा पाने का हक मिलता है, तो वैसा ही हो जाए।
कंधों पर हल्के बोझ का फायदा...
गांवों में किसान नए बैल को हल में जोतने के पहले लकड़ी का एक ढांचा बनाकर उसके गले में पहना देते हैं ताकि उसे गर्दन पर बोझ ढोने की आदत हो जाए। यह बात जिंदगी में हर दायरे में लागू होती है, और किसी भी किस्म का असल बोझ आने के पहले लोगों पर उसके एक हिस्से का बोझ डालकर उसे ढोने की आदत डाल देनी चाहिए।
सरकार में प्रशासन की बुनियादी बातों को देखें तो अच्छा प्रशासन यह कोशिश करता है कि किसी अफसर के कलेक्टर बनने के पहले उसे कम से कम एक म्युनिसिपल का कमिश्नर बनने का मौका मिल जाए जिससे वह शहरी कामकाज समझ सके। इसके अलावा कम से कम एक जिला पंचायत का सीईओ बनने मिल जाए ताकि वह पंचायत और ग्रामीण विकास का काम समझ ले। यह भी एक किस्म से जिले के हल में जोतने के पहले गर्दन पर बोझ डालने जैसा रहता है ताकि गर्दन उसकी आदी हो जाए। यह बात पुलिस की अलग-अलग कुर्सियों पर लागू होती है, और एक अच्छा शासन अफसरों के एसपी रहते हुए उन्हें अलग-अलग किस्म के दो-तीन जिलों में काम करने का मौका देता है ताकि वे शहरी और ग्रामीण, औद्योगिक और आदिवासी, सभी किस्म के जिलों के काम को समझ लें, ताकि आईजी बनने के बाद उन्हें अपनी रेंज के हर तरह के जिले का तजुर्बा रहे। लेकिन ये पुरानी परंपराएं अब खत्म हो चुकी हैं, और अब अफसर अपनी कोशिश से अधिक कमाऊ या अधिक महत्वपूर्ण जिलों से परे कोई और ट्रेनिंग नहीं चाहते। एक वक्त ऐसा था कि जब अजीत जोगी कलेक्टर रहते हुए सिर्फ कलेक्टर ही रहे, और उन्होंने कभी सचिवालय या संचालनालय में कोई काम नहीं किया। इसी तरह राज्य पुलिस सेवा से आगे बढ़े हुए एक वक्त के रायपुर के सीएसपी रूस्तम सिंह आईजी बनने तक कभी फील्ड से बाहर तैनात नहीं रहे, कभी पुलिस मुख्यालय या किसी दफ्तर में काम नहीं किया। जोगी कलेक्टर रहते हुए ही राज्यसभा चले गए थे, और रूस्तम सिंह आईजी रहते हुए ही राजनीति में चले गए, और भाजपा के विधायक बनकर मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री बन गए थे।
सांसद निधि बिन सब सून...
कोरोना संकट की वजह से सांसद निधि टालने के फैसले से ज्यादातर सांसद नाखुश हैं। कांग्रेस के सांसद तो खुले तौर पर ऐतराज जता चुके हैं, अब भाजपा सांसद भी दबी जुबान से इसका विरोध कर रहे हैं। कुछ भाजपा सांसदों ने पार्टी फोरम में इस बात को रखा भी है। भाजपा सांसद इस बात से दुखी हैं कि एक साल तक वेतन में 30 फीसदी की कटौती होगी, इसके अतिरिक्त भी पीएम केयर्स में एक माह का वेतन दे चुके हैं। इन सबके चलते अपने कार्यालय का खर्चा निकालने में भी मुश्किलें आ रही है।
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेशों के भाजपा सांसद ज्यादा दुखी हैं, जहां भाजपा की सरकार भी नहीं है। सांसद, सांसद निधि से हर साल 5 करोड़ तक का काम अपने संसदीय क्षेत्र में करा पा रहे थे, वे अब नहीं करा पाएंगे। सांसद निधि का पैसा तुरंत जारी हो जाता है। इसलिए विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सांसद निधि से काम कराने की होड़ मची रहती थी। कमीशन भी अच्छा खासा बन जाता था।
एक पुराने सांसद के नजदीकी रिश्तेदार, जो उनका कार्यालय संभालते थे। वे कार्यालय के खर्चे के नाम से कमीशन लेने में किसी तरह का संकोच नहीं करते थे। इन सबके बावजूद सांसदों की ग्रामीण इलाकों में पकड़ भी बनी रहती थी। अब जब निधि को ही स्थगित कर दिया गया है, तो सांसदों की पूछ परख कम हो गई है। सुनते हैं कि आगामी संसद सत्र के दौरान कुछ भाजपा सांसद, इस बात को केन्द्रीय मंत्रियों के सामने में रखने की सोच रहे हैं। देखना है कि केन्द्र सरकार-पार्टी उनकी दिक्कतों पर क्या कुछ कदम उठाती है।
अजब नामों की गजब दास्तां
हिन्दुस्तान में मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक के नाम पर रखे गए सडक़-चौराहों और शहरों के नाम बदलना हाल के बरसों में एक बड़ा शगल बन चुका है। जाति, धर्म, और देश के मुद्दे चलन पर हावी हो गए हैं। ऐसे में रायपुर के एक संस्कृति-कर्मी राहुल सिंह ने लिखा है कि महापुरूषों की आत्माएं नामकरण के लिए उनके समर्थकों के माध्यम से भटकती रहती होंगी। उन्होंने लिखा है- क्या आप जानते हैं कि नवापारा-राजिम में एक मैडम चौक है, और यह नाम बोर्ड पर लिखाता भी है। रायपुर में टिल्लू चौक है, बिलासपुर में मन्नू चौक है, और करोना चौक भी है।
हर शहर में कुछ न कुछ जगहों के नाम ऐसे रहते हैं, जो कि लोगों की नजरों में खटकते हैं, और मौका पड़ते ही उन नामों को खिसकाकर अपनी पसंद के महापुरूष (महामहिला तो शायद हो ही नहीं सकती) का नाम टांग दिया जाता है।
इतना कुछ करने के बाद भी..
खबर है कि एक बड़े राजनीतिक दल के दो दिग्गज नेताओं के बीच चंदे की रकम के हिसाब-किताब को लेकर मनमुटाव चल रहा है। एक पर चंदा एकत्र करने में सहयोग करने की जिम्मेदारी थी, तो दूसरे के पास संभालकर रखने और खर्च करने की जिम्मेदारी रही है। चंदा इक_ा करने वाले नेताजी इस बात से परेशान हैं कि उन्हें कोई हिसाब-किताब नहीं बताया जा रहा है। सुनते हैं कि कुछ समय पहले उन्होंने अपने विश्वस्त सहयोगी को पार्टी दफ्तर के कोष अधिकारी के पास हिसाब-किताब जानने भेजा था। मगर कोष अधिकारी ने नेताजी के सहयोगी को खरी-खोटी सुनाकर उल्टे पांव लौटा दिया।
नेताजी का चंदा इक_ा करने में भरपूर सहयोग रहा है, तो हिसाब-किताब जानने की इच्छा भी स्वाभाविक है। चंदा जुटाने वाले और रखने वाले, दोनों नेता आमने-सामने बैठते भी हैं, लेकिन हिसाब-किताब को लेकर ज्यादा कुछ नहीं कह पाते हैं। चंदे को लेकर पार्टी की अपनी गोपनीयता भी है। हिसाब-किताब देखने के लिए हाईकमान एक-दो लोगों को ही अधिकृत कर रखते हैं। इससे परे कोई भी हिसाब-किताब की जानकारी नहीं ले सकता। पार्टी अध्यक्ष तक को भी इसका पावर नहीं होता। मगर चंदा जुटाने वाले नेताजी इस बात से ज्यादा निराश है कि इतना सबकुछ करने के बाद भी कोई उन्हें बताने के लिए तैयार नहीं है।
जब सैंय्या भए कोतवाल...
छत्तीसगढ़ में शराब मिलना तो शुरू हो गया है, लेकिन पीने की दिक्कत कम नहीं हुई है। शराबघर खुल तो गए हैं, लेकिन वहां दूर-दूर बैठाकर पिलाने के नियम की वजह से लोगों को पीना अटपटा लग रहा है। ऐसे में जाहिर है कि लोग कारों में बैठकर, या सडक़ किनारे किसी अंधेरे कोने में रूककर पीने लगे हैं। जो लोग रात में घूमने निकलते हैं, उन्हें अपने इलाके में पीने के ऐसे अड्डे दिखते हैं, लेकिन कौन शराबियों से झगड़ा मोल ले? इसलिए लोग अनदेखा करके आगे बढ़ जाते हैं। जो लोग सुबह घूमने निकलते हैं, उन्हें ऐसी तय जगहों पर किनारे शराब की बोतलें और नमकीन के खाली पैकेट पड़े दिखते हैं, जो कि जाहिर तौर पर सफाई कर्मचारियों को भी दिखते होंगे। अगर सफाई कर्मचारी ऐसे ठिकाने पुलिस को बताने लगें, तो ऐसा पीना तुरंत पकड़ में आ जाएगा, लेकिन खाली बोतलें भी कुछ दाम दे जाती हैं, और कचरा गाडिय़ां ऐसी जगहों पर रोजाना रूककर बोतलें उठाने की आदी हो जाती हैं, वे भला पुलिस को क्यों बताएं? और फिर पुलिस के पास भी शराबियों को ही पकडऩे का काम बचा है क्या? अब आखिर में बचता है शराब नियंत्रित करने वाला आबकारी विभाग। तो यह विभाग खुद ही आज एक नंबर और दो नंबर दोनों किस्म की दारू बाजार में खपाकर लाल हो गया है, यह भला पीने वालों को क्यों पकड़े? जानकारों का तो यह भी कहना है कि पुलिस को कह दिया गया है कि शराब पीने वालों को न पकड़ा जाए, शायद यही वजह है कि इस जुर्म में कोई नहीं धरे जा रहे, जबकि कानून काफी कड़ा है। आबकारी विभाग ही दारू कारोबारी भी हो गया है, तो अब कार्रवाई कौन करे?
भूपेश की गंगा में डुबकी
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पिता नंदकुमार बघेल ने आज एक पुराना वाक्या लिखा है. उन्होंने फेसबुक पर लिखा- भूपेश 13 साल का हुआ तो तब हम लोग परिवार सहित, मेरी पत्नी बिंदेष्वरी देवी और झुमरलाल टावरी सर्वोदय सम्मेलन गये हुए थे। लौटते समय हमने बनारस में गंगा नदी में नौका विहार किया तथा बीच गंगा में चॉदी का सिक्का भूपेश को दिखाया और बोला कि गंगा नदी से इस सिक्के को निकालना है. मैंने सिक्के को गंगा नदी में फेंका और भूपेश ने उस सिक्के को गंगा में कूदकर निकाल लिया। नाविक उस समय बहुत ही ज्यादा गर्म हो गया और उसने कहा यदि यह बच्चा नदी में डृब जाता तो उसका जिम्मेदार कौन होता ? पुलिस मुझे ही पकड़ लेती। आज उसी का ही परिणाम है कि विषम परिस्थिति में भी भूपेश भयभीत नहीं होता है, जब भी संकट का समय होता है तब वह और उसकी सरकार मुकाबला कर लेते हैं ।
संगमरमर में से बस मर मर बचा !
जब तक लोग सत्ता पर रहते हैं तब तक उनका पसीना भी गुलाब होता है। लेकिन सत्ता से उतरने के बाद हाल बुरा हो जाता है। खासकर तब जब किसी दूसरी पार्टी की सरकार आ जाती है, या अपनी ही पार्टी के किसी विरोधी खेमे की सरकार आ जाती है। अब बिलासपुर के तिफरा के हाईटेक बस स्टैंड को 7 करोड़ से अधिक की लागत से बनाया गया था। और यहां पर एक-एक पौधा लगाने के लिए एक-एक नेता के नाम संगमरमर में कुरेदकर उन्हें जड़ा गया था। पौधे तो खैर कुछ महीनों में खत्म हो जाने थे, जो कि हो चुके, लेकिन इन पत्थरों के सामने जिस दर्जे का घूरा इक_ा है, वैसा घूरा तो मुहल्लों में भी नहीं दिखता है। अब जिन चार लोगों के नाम संगमरमर में लिखाए थे, उनमें से दो तो रायपुर में बसे हैं, लेकिन दो तो बिलासपुर में ही रहते हैं। उस वक्त के विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक, और उस वक्त के ताकतवर मंत्री अमर अग्रवाल ये तो बिलासपुर के ही बाशिंदे हैं। उन्हें जाकर एक बार यह देखना चाहिए कि इनके लगाए पौधों का क्या हाल है, और इनके लिए लगाए गए संगमरमर का क्या हाल है। उसमें से महज संग बच गया है, बाकी सब मर मर गया है। तस्वीरें खींचकर इस तरफ ध्यान खींचा बिलासपुर के सत्यप्रकाश पांडेय ने। इस तरह के चबूतरे और ऐसे संगमरमर की तस्वीरें देखकर कुछ लोगों ने सत्यप्रकाश पांडेय से कहा कि ऐसा लग रहा है कि किसी की समाधि की ऐसी दुर्गति हो रही है।
जानवर और इंसान में फर्क !
सरगुजा में हाथी इंसानों को मार रहे हैं, और शायद कुछ इंसान जहर देकर हाथियों को भी। और इनके बीच में वन विभाग के अधिकारी-कर्मचारी निलंबित हो गए हैं, जो कि जिम्मेदार हैं, या नहीं, इसका कोई सुबूत अभी नहीं मिला है। यह भी सुबूत नहीं मिला है कि इनकी लापरवाही से तीन हथिनियां मरी हैं। अगर गांव के लोगों ने उन्हें जहर देकर मारा है, तो भी सजा ऐसे लोगों को मिलनी चाहिए थी, न कि वन विभाग के लोगों को। लेकिन सरकार तो सरकार होती है, जब उसे लगता है कि कुछ करते हुए दिखना है, तो बिना सुबूत सारे अमले को सस्पेंड कर दिया।
अभी दस दिन पहले राजधानी रायपुर में इस बात के वीडियो सुबूत सामने आए थे कि एक जगह कंटेनमेंट इलाका बनाने के बाद भी वहां से लोग निकल रहे थे, और वहां का थाना इंचार्ज भयानक बुरी तरह लाठी से उनका बदन तोड़ रहा था। उसके खिलाफ तो वीडियो सुबूत भी थे, लेकिन न तो वह सस्पेंड हुआ, न उसकी बर्खास्तगी हुई, उसे महज लाईन अटैच करके विभागीय जांच शुरू करवा दी गई जो कि पुलिस का ही एक अफसर कर रहा है। अब लोगों का कहना है कि इंसानों की हड्डियां तोडऩे सरीखी लाठी मारो तो लाईन अटैच, और जानवरों को मारने में कोई जिम्मेदारी न भी दिख रही हो, तो भी निलंबित। अब वन मंत्री मो. अकबर को तो ऐसी कार्रवाई करने से पहले सोचना था कि उन्हीं के शहर में उन्हीं की समझी जाने वाली पुलिस की भयानक मार के वीडियो सुबूत मौजूद थे, फिर भी मारने वाले अफसर का निलंबन नहीं हुआ। जानवर और इंसान के बीच इतना बड़ा सरकारी फर्क !
क्रॉस वोटिंग का सौदा और जांच
रायपुर नगर निगम के जोन अध्यक्ष के चुनाव में क्रास वोटिंग के प्रकरण की जांच के लिए कांग्रेस ने टीम बनाई है। क्रास वोटिंग की वजह से जोन क्रमांक-3 में कांग्रेस के अनिमेष भारद्वाज अध्यक्ष बनने से रह गए। सुनते हैं कि भाजपा के कुछ नेताओं ने दो और जोन में अपना अध्यक्ष बिठाने तैयारी कर ली थी। दो निर्दलीय पार्षद अमर बंसल और गोपेश साहू को भाजपा में शामिल कराकर उन्हें अध्यक्ष बनाने की योजना बनाई थी। मगर भाजपा के एक पूर्व मंत्री के कड़े विरोध के चलते उन्हें अध्यक्ष पद का प्रत्याशी नहीं बनाया गया। बाद में दोनों निर्दलीय उम्मीदवारों ने कांग्रेस का साथ देकर उनके उम्मीदवारों के जोन अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ कर दिया।
जिस जोन क्रमांक-3 में कांग्रेस का बहुमत था वहां भाजपा के प्रत्याशी को सफलता मिली। कांग्रेस की जांच समिति इस पूरे मामले की पड़ताल कर रही है और यह भी स्पष्ट हुआ है कि क्रास वोटिंग के एवज में लेन-देन भी हुआ है। क्रास वोटिंग करने वाला पार्षद भी चिन्हित हो गया है। अब दिक्कत कार्रवाई को लेकर है। कांग्रेस का एक खेमा चाहता है कि नोटिस देकर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए। क्योंकि कांग्रेस को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है। जबकि दूसरा खेमा इस मामले पर कड़ी कार्रवाई के पक्ष में है।
चर्चा है कि भाजपा के एक कारोबारी नेता के घर में क्रास वोटिंग के लिए डील हुई थी। इसमें दो युवक कांग्रेस नेताओं ने अहम भूमिका निभाई थी। वैसे तो दो कांग्रेस पार्षदों को क्रास वोटिंग के लिए तैयार किया गया था, लेकिन एक ने डील पक्की होने के बावजूद अंतिम समय में क्रास वोटिंग करने से मना कर दिया। कहा जा रहा है कि कांग्रेस संगठन न सिर्फ पार्षद बल्कि दोनों युवा कांग्रेस नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर सकती है।
हाईटेक, हाईहेडेक भी...
धीरे-धीरे करके जिंदगी में इस्तेमाल होने वाली अधिकतर चीजें हाईटेक होने लगी हैं। अब पांच-दस लाख रूपए की कार में भी ऐसे फीचर आने लगे हैं कि कार एक सीमा से ज्यादा रफ्तार पर पहुंचे, तो पहले से तय किए गए एक मोबाइल नंबर पर मैसेज चले जाए। यह भी आसानी से सेट किया जा सकता है कि अगर कार एक निश्चित दूरी के बाहर निकले, तो भी तुरंत मैसेज चले जाए। कार शुरू हो या बंद हो, उसका भी मैसेज चला जाए। और तो और दूर से अपनी कार को बंद भी किया जा सकता है, और लुटेरे अगर कार लूटकर भाग गए, तो उसे अपने मोबाइल फोन से ही बंद किया जा सकता है। इसी तरह आपका मोबाइल फोन चोरी हो गया हो तो उसे भी दूर से बंद किया जा सकता है, उसकी सारी जानकारी मिटाई जा सकती है, और अंग्रेजी जुबान के मुताबिक उसे ब्रिक बनाया जा सकता है, यानी ईंट की तरह मुर्दा। लेकिन ऐसे तमाम हाईटेक सामानों के साथ कई खतरे भी रहते हैं। घर पर लगा स्मार्ट टीवी अपने कैमरे से आपकी जासूसी भी कर सकता है, क्योंकि उसे इंटरनेट के रास्ते हैक किया जा सकता है। लोग दूर बैठे कार के स्क्रीन पर दिखते हुए नक्शे में भी छेडख़ानी कर सकते हैं, और ड्राइवर को किसी गलत दिशा में मोड़ सकते हैं। ऐसे में एक पुरानी कार की यह घोषणा बड़ी दिलचस्प है कि उसमें कोई भी तकनीक नहीं है, और इस तरह वह किसी भी समस्या से दूर है। वरना इन दिनों के नए उपकरणों में आए दिन कोई न कोई फीचर खराब होता है, और मरम्मत और खर्च मांगता है।
बेटे पर असर छोड़ गए जोगी?
मरवाही के पूर्व विधायक अमित जोगी अपने पिता अमित जोगी को याद कर भावुक हो गए और उन्होंने फेसबुक पर लिखा कि पापा मुझे बहुत कुछ दे गए और मेरा कुछ ले भी गए...।
अमित ने लिखा - ‘‘पापा हमेशा कहते थे कि जो अपने क्रोध को पीता है वही दूसरों के दिल में जीता है। देखना जब मैं ईश्वर के पास जाऊंगा तो अपने साथ तुम्हारे क्रोध को भी संग ले जाऊंगा। मुझे, अपने अंदर के इस अवगुण को सार्वजनिक स्वीकारने और त्यागने में गर्व है। मैं उन सभी लोगों से ह्दय से, हाथ जोडक़र क्षमा याचना करता हूं, जिन्हें मैंने क्रोध से जाने-अनजाने में दुखी किया हो। चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियां मेरे जीवन में आए, मैं पापा की तरह क्रोध को अपने ऊपर हावी नहीं होने दूंगा।’’
अमित के इस पोस्ट की राजनीतिक हल्कों में जमकर चर्चा है। विधानसभा चुनाव के पहले और बाद में अजीत जोगी के ज्यादातर करीबी लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया था। इसके लिए कई लोगों ने अमित को कोसा था। और तो और पूर्व सीएम के दशगात्र कार्यक्रम के बाद उनके बेहद करीबी और विधायक प्रतिनिधि ज्ञानेन्द्र उपाध्याय ने भी जोगी परिवार का साथ छोड़ा तो उन्होंने भी कह दिया कि वे अमित के साथ काम नहीं कर सकते।
दूसरी तरफ, अजीत जोगी के अस्पताल में रहने के दौरान भी जोगी परिवार के कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें लगाई जाती रही हैं। कांग्रेस के नेताओं को ज्यादा शिकायत अमित से ही रही है। यही वजह है कि जोगी पार्टी के कांग्रेस में विलय की चर्चा आई-गई वाली बात होकर रह गई। अब जब अमित ने सार्वजनिक रूप से खेद प्रकट कर दिया है, तो कांग्रेस में मौजूद जोगी के पुराने समर्थक भावुक दिख रहे हैं और निजी चर्चाओं में उन्हें कांग्रेस में लेने के पक्षधर हैं। ऐसे कांग्रेस नेताओं का मानना है कि जोगी परिवार को साथ लेने से कांग्रेस के जनाधार में वृद्धि होगी।
कुछ आलोचक दिवंगत पूर्व छात्रनेता और जोगी परिवार के करीबी रहे बालकृष्ण अग्रवाल को भी याद कर रहे हैं। बालकृष्ण के खिलाफ कई अपराधिक प्रकरण दर्ज थे। बाद में उन्होंने अखबारों में विज्ञापन छपवाकर पुराने कृत्यों के लिए माफी मांगी थी और यह भी कहा था कि वे अब सुधर चुके हैं। मगर बालकृष्ण के कारनामों का सिलसिला जारी रहा। उनके खिलाफ कई और आपराधिक प्रकरण दर्ज हुए। हालांकि अमित ने अपने पोस्ट में भावी राजनीतिक कदम को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन उनकी टिप्पणी को पार्टी छोड़ चुके पुराने नेताओं को साथ लाने की कोशिशों के रूप में भी देखा जा रहा है। अमित के फेसबुक पोस्ट का मतलब चाहे कुछ भी हो, क्या अमित का नया रूप देखने को मिल सकता है ?
जोगी और अमन सिंह
दूसरी तरफ आज के इंडियन एक्सप्रेस में रमन सिंह के प्रमुख सचिव रहे अमन सिंह का एक लेख अजित जोगी पर छपा है जिसमें और बातों के अलावा उन्होंने लिखा है- मेरे उनके साथ अनोखे सम्बन्ध रहे. वे मेरे पिता को अच्छी तरह जानते थे, और हम दोनों भोपाल के एक ही कॉलेज से पढ़े थे. जब वे कोई काम करवाना चाहते थे, तो मुझे तीन वज़हें गिनाते थे कि वह काम मुझे क्यों करवाना ही है. वे कहते थे- तुम मेरे भतीजे हो, मैं तुम्हारा सीनियर हूँ, और जब जोगी सीएम बनेगा, अमन सिंह उसका सेक्रेटरी रहेगा।
कभी खाया है यह फल?
एक भूतपूर्व पत्रकार, और वर्तमान सामाजिक कार्यकर्ता पुरूषोत्तम सिंह ठाकुर सक्रिय पत्रकारिता से बाहर चले गए हैं, लेकिन पत्रकार उनके भीतर से बाहर नहीं जा पाया है। इसलिए वे लगातार फोटोग्राफी के साथ-साथ लिखने का काम भी करते हैं। अभी उन्होंने कुछ जंगली फलों की तस्वीरों को पोस्ट किया, तो शहरों में बसे लोगों को याद आया कि ये फल तो शहरों में मिलते नहीं, और गांव-जंगल में जाना अब होता नहीं है। एक फल, कुसुम की फोटो उन्होंने पोस्ट की और साथ में उसे पकाकर मसाले के साथ किस तरह खाया जाता है उसकी फोटो भी। एक जानकार ने उस पर लिखा कि इस फल में प्रोटीन, फैट, मिनरल, फाईबर, कार्बोहाइड्रेट, कैलोरी, कैल्शियम, फास्फोरस, कितना-कितना होता है। अब जंगली फलों के ये आंकड़े भी पाना आसान नहीं है, लेकिन जाहिर तौर पर आदिवासी ज्ञान और समझ परंपरागत रूप से इन फलों के फायदों को जानते थे, और उनका इस्तेमाल करते थे। किसी ने इस पर पोस्ट किया कि कांकेर के आसपास ये फल अभी भी मिलते हैं। कुछ शहरियों को याद है कि ये खट्टा-मीठा होता है, और देखकर मुंह में पानी आ जाता है। जिन लोगों ने अब तक यह फल न चखा हो, वे अपना तजुर्बा और ज्ञान दोनों बढ़ा सकते हैं।
रिटायर्ड के बारी?
सरकार में फिर रिटायर्ड अफसरों का पुनर्वास हो सकता है। सूचना आयुक्त के एक खाली पद के लिए आवेदन तो ले लिए गए हैं, लेकिन नियुक्ति नहीं हो पाई है। इस पद के लिए कई रिटायर्ड अफसर होड़ में हैं। इनमें पूर्व एसीएस केडीपी राव भी शामिल हैं। इसी तरह पूर्व आईएएस आरपी जैन का कार्यकाल खत्म होने के बाद से विभागीय जांच आयुक्त का पद खाली है। जैन की नियुक्ति दो साल के लिए हुई थी, लेकिन कार्यकाल खत्म होने के बाद उन्हें एक्सटेंशन मिलते रहा। कुछ माह पहले उनका कार्यकाल खत्म हुआ, तो फिर एक्सटेंशन के लिए फाइल चली। मगर सरकार ने इसमें रूचि नहीं दिखाई। विभागीय जांच आयुक्त पर के लिए दिलीप वासनिकर, निर्मल खाखा, नरेन्द्र शुक्ला सहित कई अन्य रिटायर्ड अफसरों के नामों की चर्चा है। सरकार फिलहाल कोरोना रोकथाम में लगी हुई है। इस वजह से इन रिक्त पदों को भरने में रूचि नहीं ले रही है। हालांकि इन पदों को भरने के लिए सिफारिशें काफी आ रही है। ऐसे में कुछ जानकारों का अंदाजा है कि कम से कम विभागीय जांच आयुक्त पद पर नियुक्ति हो सकती है।
20 के बाद कुछ हो सकता है...
अजीत जोगी के निधन के बाद जोगी पार्टी में हलचल है। पार्टी के कुछ नेता साथ छोडक़र कांग्रेस में चले गए हैं। इस राजनीतिक घटनाक्रम के बाद भी जोगी पार्टी ने चुप्पी साध रखी है। लॉकडाउन के बीच दिवंगत पूर्व सीएम के अंतिम संस्कार के बाद की सारी रस्म अदायगी हो चुकी है। कंवर आदिवासी समाज की रीति-रिवाज के अनुसार अमित जोगी को पागा (पगड़ी) पहनाई गई और सामाजिक रूप से यह मान्यता दी गई कि अमित जोगी अब परिवार के मुखिया हैं।
दिलचस्प बात यह है कि दिवंगत पूर्व सीएम अजीत जोगी के परिवार के सदस्यों बल्कि उनके समर्थकों ने भी दशगात्र के मौके पर मुंडन कराया। तमाम रस्म अदायगी के बाद जोगी परिवार के रूख की तरफ लोगों की नजरें हैं। फिलहाल जोगी परिवार के सदस्य किसी तरह की राजनीतिक टीका-टिप्पणी से बच रहे हैं।
सुनते हैं कि संभवत: 20 तारीख को रायपुर में पूर्व सीएम की आत्मा की शांति के लिए सर्वधर्म प्रार्थना सभा रखी गई है। इसके बाद जोगी परिवार का रूख साफ हो सकता है। मगर जोगी के निधन के बाद खाली मरवाही विधानसभा सीट में उपचुनाव को लेकर अभी से हलचल शुरू हो गई है। पूर्व सीएम के विधायक प्रतिनिधि रहे ज्ञानेन्द्र उपाध्याय, अमित जोगी के पगड़ी रस्म कार्यक्रम के अगले दिन ही कांग्रेस में शामिल हो गए। हालांकि ज्ञानेन्द्र का काफी विरोध हो रहा है। भाजपा के लोग भी सक्रिय हो गए हैं। लॉकडाउन के बावजूद मरवाही इलाके में सरगर्मी है। अमित जोगी का रूख साफ होने के बाद यहां राजनीतिक उठा-पटक तेज हो सकती है।
काम की जिम्मेदारी, और समझदारी?
छत्तीसगढ़ में महिलाओं की बहादुरी के किस्से गिनाने वाले लोग बाकी तमाम फिक्र परे रख देते हैं, और केवल बहादुरी का बखान करते हैं। अभी आज सुबह ही पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर ताम्रध्वज साहू ने बस्तर के कोंडागांव की अपने विभाग की एसडीओ श्रीमती पूर्णिमा चंद्रा की कई तस्वीरों के साथ उनकी तारीफ अपने फेसबुक पेज पर की है। उन्होंने लिखा है कि वे अपने डेढ़ बरस के बच्चे के साथ अतिसंवेदनशील पहुंचविहीन नवनिर्माणाधीन सडक़ का भीषण गर्मी में निरीक्षण कर रही हैं। उनका यह काम कर्तव्यनिष्ठा और दायित्व के प्रति उनके समर्पण को बताता है और वह अन्य अधिकारियों के लिए भी एक मिसाल है।
अफसर का मौके पर जाकर मुआयना करना अच्छी बात है, लेकिन जिस मौके पर भीषण गर्मी हों, और खुद मंत्री के मुताबिक यह अतिसंवेदनशील मार्ग हो, वहां पर दर्जन भर लोगों के बीच खुद भी बिना मास्क लगाए और कर्मचारियों-मजदूरों के भी बिना मास्क लगाए हुए, ऐसी गर्मी में बच्चे को लेकर जाना कर्तव्य से परे दूसरी जवाबदेही की बात भी है। अभी-अभी बस्तर के हथियारबंद मोर्चे पर एक कमांडो महिला की तारीफ का बखान सरकार ने किया था कि वह छह महीने की गर्भवती होने के बाद भी जंगल-जंगल नक्सल मोर्चे पर बंदूक लिए दौड़-भाग कर रही थी। अब इस महिला अधिकारी की तारीफ हो रही है। महिला और बाल विकास मंत्री को दखल देकर बच्चों की फिक्र करनी चाहिए क्योंकि तारीफ करने वाले पुरूष नेता-अफसर तो इस बारीकी को समझ नहीं पाएंगे।
शिवरतन पर बवाल
शिवरतन शर्मा एक टीवी डिबेट में कांग्रेस नेता के साथ आमने-सामने क्या हुए, पार्टी के भीतर विवाद खड़ा हो गया। दरअसल, कांग्रेस ने दो साल पहले सोनिया गांधी और भूपेश बघेल के खिलाफ अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करने पर शिवरतन शर्मा का बायकाट कर रखा है। बावजूद इसके उनके साथ डिबेट में कुछ नेता बैठे, जिस पर कुछ नेताओं को आपत्ति है।
वैसे तो शिवरतन शर्मा, कांग्रेस की सरकार बनते ही कई बार सीएम से मिल चुके हैं, और चर्चा है कि वे अपनी गलतियों के लिए खेद भी प्रकट कर चुके हैं। शिवरतन के एक भतीजे को राशन घोटाले के चलते तीन माह जेल में भी रहना पड़ा था। इन सब वजहों से वे आक्रामक बयानबाजी से बचते हैं। उन्होंने भाजपा के मीडिया विभाग को उनके नाम से आपत्तिजनक बयानबाजी न करने की सख्त हिदायत भी दे रखी है। इतना सब कुछ होने के बाद भी कांग्रेस नेता भूलने के लिए तैयार नहीं है।
एक कांग्रेस नेता ने इस मामले को लेकर पार्टी संगठन के कुछ प्रमुख नेताओं के समक्ष अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। उनका तर्क है कि शिवरतन ने सार्वजनिक तौर पर माफी नहीं मांगी है, तो उनका बायकाट वापस क्यों लिया गया। आपत्ति करने वाले नेता को कौन समझाए, कि बंद कमरे में सबकुछ हो चुका है। इसलिए खुले तौर पर हर बात कहना जरूरी नहीं है। वैसे भी पार्टी सत्ता में है, ऐसे में थोड़ा उदार रूख अपनाना चाहिए।
भाजपा टीम में कौन?
भाजपाध्यक्ष विष्णुदेव साय जल्द से जल्द अपनी टीम बनाने की कोशिशों में जुट गए हैं। उन्होंने पार्टी के सीनियर नेता रामप्रताप सिंह से बंद कमरे में करीब एक घंटे तक चर्चा की। सुनते हैं कि रामप्रताप सिंह अपने करीबी पूर्व विधायक निर्मल सिन्हा को महामंत्री के पद पर देखना चाहते हैं। जबकि कई नेता इससे सहमत नहीं हैं। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह और अन्य प्रमुख नेता, राजेश मूणत को महामंत्री बनाना चाहते हैं। मूणत की छवि तेज तर्रार नेता की है, और चूंकि साय सीधे-साधे नेता हैं। इसलिए महामंत्री का दायित्व तेज तर्रार नेता को सौंपने की कोशिश हो रही है।
दूसरी तरफ, दिल्ली में भी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा भी जल्द अपनी कार्यकारिणी घोषित कर सकते हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रमन सिंह और सरोज पाण्डेय को अहम जिम्मेदारी मिलना तय माना जा रहा है। राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम को भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह मिलने की चर्चा है। नड्डा प्रदेश के प्रभारी रह चुके हैं। वे यहां के सभी नेताओं और उनकी कार्यशैली से परिचित हैं। पार्टी हल्कों में चर्चा है कि अजय चंद्राकर को राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह मिल सकती है। इससे परे बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय, नारायण चंदेल सहित कई और नामों की चर्चा है। जानकारों का अंदाजा है कि गुटीय संतुलन बनाए रखने के लिए रमन सिंह विरोधी खेमे के कुछ नेताओं को भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह मिल सकती है।
इशारे-इशारे में नसीहत
इन दिनों इंटरनेट और सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोग संकेतों में अधिक बात करने लगे हैं। कुछ चीजों पर पहले भी ऐसा होता था, जब एक गधे की फोटो बनाकर लिख दिया जाता था- पेशाब कर रहा है।
अब अभी रायपुर शहर की दीवार पर उसी अंदाज की एक नई वॉल राइटिंग सामने आई है जो बता रही है कि इंसानों के लिए शौचालय क्यों जरूरी है।
कारतूस बाकी हैं?
नक्सलियों को कारतूस सप्लाई के प्रकरण में कुछ और खुलासे होना बाकी है। इस पूरे मामले में दो पुलिस कर्मियों को हिरासत में लेकर पूछताछ चल रही है। कांकेर में जो नक्सलियों को कारतूस की खेप पहुंचाई जानी थी, वह सुकमा पुलिस के शस्त्रागार से निकली थी। सुनते हैं कि पुलिस की टीम ने 11 सौ से अधिक कारतूस जब्त किए, मगर 695 कारतूस की ही बरामदगी दिखाई है। ये कारतूस सुकमा के शस्त्रागार के निकले थे। चर्चा है कि कुछ और लोगों की धरपकड़ होना बाकी है, इसके बाद बाकी बचे कारतूस की बरामदगी दिखाई जाएगी। कुल मिलाकर नक्सलियों को कारतूस सप्लाई के मामले को लेकर पुलिस महकमा काफी गंभीर है, और इससे जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ प्रकरण कमजोर न हो, इसका पुख्ता बंदोबस्त किया जा रहा है। देखना है कि कितने और लोगों के खिलाफ कार्रवाई होती है। आखिर सवाल पुलिस की अपनी जिंदगी का है जो कि इन्हीं कारतूसों से जा सकती थी.
पुराना सुलझा केस, अब जुर्म दर्ज..
दुर्ग-भिलाई इलाके में एक बुजुर्ग के करीब पौन करोड़ के शेयरों की जालसाजी हुई, और उन्हें जयपुर-मुम्बई के दलालों ने उनकी जानकारी के बिना बेचने की कोशिश की। यह मामला सालभर के और पहले दुर्ग पुलिस की जानकारी में आया, और उस वक्त वहां एडिशन एसपी चिटफंड के पद पर ऋचा मिश्रा के सामने पहुंचा। सीनियर अफसरों की जुबानी हुक्म के बाद उन्होंने जयपुर, अहमदाबाद, और मुम्बई चारों तरफ जांच की, टेलीफोन पर, और उन प्रदेशों में अपने परिचित अफसरों की मदद से। पूरा केस सुलझा लिया, लेकिन उस वक्त पुलिस ने उसे थाने में दर्ज करने से मना कर दिया था, और सुलझा हुआ केस तमाम सुबूतों के साथ पड़े रह गया। अब अफसरों ने इस केस पर एफआईआर करवाई है, और जो लोग साल भर पहले गिरफ्तार हो सकते थे, हो सकता है कि उनके जेल जाने की बारी अब आए।
अंग्रेजी तो अंग्रेजी, हिन्दी का हाल...
अंग्रेजी भाषा की गलतियां होने पर लोग मजाक उड़ाते हैं कि अंग्रेज चले गए अंग्रेजी छोड़ गए। अब छोड़ी गई चीज तो टूटी-फूटी होगी ही। लेकिन जो अंग्रेज न लाए थे, और न छोड़ गए, उस पर क्या कहा जाए? खासकर हिन्दी इलाके में हिन्दी की गलतियों पर?
रायपुर के एक पत्रकार अनिरुद्ध दुबे को अभी एक दफ्तर में हिन्दी में बना हुआ एक नोटिस मिला, जिसकी हिन्दी पढऩे के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसे राष्ट्रभाषा बताते हुए लोग एक वक्त अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चलाते थे। और तो और शहर में जो बड़े-बड़े सरकारी बोर्ड लगे हैं, उन पर देशभक्ति के बड़े विख्यात शेर लिखे हैं, या कविताओं के कुछ शब्द लिखे हैं, और वे भी गलत है। बाग-बगीचों में लगे हुए नोटिस की हिन्दी भी चौपट है। अब म्युनिसिपल और सरकार की स्कूलों में इस शहर में हजार-पांच सौ टीचर होंगे, हिन्दी के सैकड़ों टीचर में से भी किसी को यह नहीं लगता कि इसे सुधरवाया जाए।
बीजेपी का नौजवान नेता कौन?
विष्णुदेव साय की भाजपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी के बाद युवा मोर्चा के अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर हलचल तेज हो गई है। भाजपा संगठन में युवा मोर्चा का अध्यक्ष पद, दूसरा सबसे बड़ा पद है और इसमें नियुक्ति को लेकर पार्टी के कर्ता-धर्ता काफी मंथन कर रहे हैं। आम तौर पर 35 से कम उम्र के युवा नेता को अध्यक्ष की कमान सौंपी जाती रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह परम्परा टूट गईं। पार्टी अधेड़ को भी युवा मोर्चा की कमान सौंपने परहेज नहीं करने लगी। मौजूदा युवा मोर्चा के मुखिया विजय शर्मा तो 50 वर्ष के हो चले हैं।
खैर, युवा मोर्चा के अध्यक्ष पद के लिए जिन नामों की चर्चा है उनमें पूर्व आईएएस ओपी चौधरी का नाम सबसे ऊपर है। चौधरी को पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह का समर्थन हासिल है। पार्टी हाईकमान ने अब तक की नियुक्तियों में सौदान सिंह और रमन सिंह की पसंद को तरजीह दी है। ऐसे में माना जा रहा है कि दोनों की पसंद पर ही युवा मोर्चा के अध्यक्ष की भी नियुक्ति होगी। चौधरी के साथ-साथ दिवंगत पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिलीप सिंह जूदेव के छोटे पुत्र प्रबल प्रताप सिंह का नाम भी चर्चा में है।
प्रबल काफी सक्रिय भी हैं। चूंकि विष्णुदेव साय भी जशपुर के रहने वाले हैं। ऐसे में एक ही इलाके के होने के कारण प्रबल की दावेदारी थोड़ी कमजोर दिख रही है। हालांकि प्रबल भी सौदान-रमन के पसंदीदा माने जाते हैं। इससे परे मौजूदा महामंत्री संजूनारायण सिंह ठाकुर का नाम भी चर्चा में है। उनके पास युवा मोर्चा कार्यकताओं की अच्छी खासी फौज भी है। मगर उनके साथ दिक्कत यह है कि उन पर पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के करीबी होने का लेबल है। इस वजह से भी उनकी दावेदारी स्वाभाविक रूप से कमजोर दिख रही है। पार्टी के भीतर कुछ लोग हंसी मजाक में कहते भी हैं कि बृजमोहन समर्थक होना पद न मिलने की गारंटी भी है। संजूनारायण के अलावा राज्य भण्डार गृह निगम के पूर्व अध्यक्ष नीलू शर्मा और मौजूदा जिला पंचायत उपाध्यक्ष विक्रांत सिंह का नाम भी चर्चा में है।
कुछ लोग आरंग के पूर्व विधायक नवीन मारकंडेय का नाम भी सुझा रहे हैं। नवीन युवा मोर्चा में काम कर चुके हैं और अनुसूचित जाति वर्ग से भी हैं। वे भी संगठन में हावी नेताओं के करीबी माने जाते हैं। इसके अलावा सौरभ कोठारी और भावेश बैद का नाम भी चर्चा में है। ये दोनों पूर्व सांसद अभिषेक सिंह के करीबी माने जाते हैं। देखना है कि सौदान-रमन की जोड़ी किस युवा-अधेड़ पर हाथ धरते हैं।
ऐसे में कैसे करें दोस्ती?
सोशल मीडिया पर लोग इन दिनों बहुत सावधान होकर चलने लगे हैं क्योंकि किसी के फेसबुक अकाऊंट से तस्वीर लेकर लोग उस नाम का दूसरा अकाऊंट भी बना लेते हैं और लोगों को धोखा भी देने लगते हैं, लोगों के दोस्तों को संदेश भेजकर उनसे कर्ज भी मांगने लगते हैं। कई बार कोई अश्लील वीडियो भेजने लगते हैं। इसलिए लोग तरह-तरह से सावधानी बरतने लगे हैं।
लेकिन इसमें एक दिक्कत भी आ रही है। लोग दूसरों को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजते हैं, और जब लोग देखना चाहते हैं कि वे किस किस्म के हैं, उनकी विचारधारा क्या है, उनका मिजाज कैसा है, तो उनका फेसबुक खाता दोस्तों के लिए ही खुला रहता है, बाकी लोग उस पर कुछ भी नहीं देख सकते। यानी लोग खुद तो दूसरों के दोस्त बनना चाहते हैं, लेकिन वे अपने खाते को लॉक करके रखते हैं ताकि कोई झांक न सके, वे लोग भी न झांक सकें जिनको उन्होंने दोस्ती का अनुरोध भेजा है। अब ऐसे में कोई दोस्ती करे तो भी कैसे करे?
पीएससी से जारी लड़ाई अब यूपीएससी तक...
पीएससी-2003 भर्ती घोटाले का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकलने के फेर में है। वजह यह है कि इस बैच के डिप्टी कलेक्टर संवर्ग के अफसरों को आईएएस अवॉर्ड के लिए फाइल चल रही है। बिलासपुर हाईकोर्ट ने भर्ती में घोटाले को माना था और मानव विज्ञान के पेपर की फिर से जांच कर नए सिरे से चयन सूची तैयार करने के आदेश दिए थे। यद्यपि हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है। इस पर सुनवाई होनी है।
यह घोटाला इस दर्जे का है कि पीएससी-प्री में असफल कई अभ्यार्थी तो मेंस और फिर इंटरव्यू निकालकर आज अच्छी खासी नौकरी कर रहे हैं। नए सिरे से चयन सूची तैयार होने की दशा में कुछ डिप्टी कलेक्टर डिमोट हो सकते हैं। कई की नौकरी भी जा सकती है। घोटाले को लेकर वर्षा डोंगरे, रविन्द्र सिंह और चमन सिन्हा ने हाईकोर्ट मेें याचिका दायर की थी। बाद में हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, तो वहां सिर्फ वर्षा डोंगरे और उनके पति संतोष कुंजाम ही लड़ाई लड़ रहे हैं। वर्षा अभी सरगुजा में जेलर हैं और चर्चा है कि उन्हें हाईकोर्ट में प्रकरण वापस लेने के एवज में डीएसपी का पद ऑफर किया गया था। मगर उन्होंने ठुकरा दिया। कानूनी लड़ाई में भागीदार रहे संतोष के साथ बिलासपुर हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद परिणय सूत्र में बंध गई। अब पति-पत्नी बन चुके वर्षा और संतोष की लड़ाई अब भी जारी है।
वर्ष-2003 बैच के डिप्टी कलेक्टर संवर्ग के अफसरों में से वर्तमान में कई अलग-अलग विभागों में ऊंचे पदों पर हैं। इन सभी ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। उनकी पैरवी देश के एक सबसे महंगे वकील हरीश साल्वे ने की थी और उन्हें फिलहाल राहत भी मिली हुई है। याचिकाकर्ता वर्षा डोंगरे और संतोष कुंजाम के पक्ष में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण पैरवी कर रहे हैं।
ताकतवर हो चुके लोगों के खिलाफ लड़ाई लडऩा आसान नहीं होता है। कदम-कदम पर मुश्किलें आती हैं। इस का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि सभी को व्यक्तिगत रूप से नोटिस तामिल होनी थी, लेकिन सामान्य प्रशासन विभाग ने संतोष कुंजाम का एड्रेस उपलब्ध कराने से मना कर दिया। बाद में कोर्ट के आदेश पर अखबारों में सूचना प्रकाशित कराकर तामिल कराई गई। अब जब डिप्टी कलेक्टर संवर्ग के अफसरों को आईएएस अवॉर्ड प्रमोशन होना है, तो घोटाले के खिलाफ लड़ाई तेज हो सकती है। क्योंकि इस बार पदोन्नति की प्रक्रिया में न सिर्फ राज्य सरकार बल्कि यूपीएससी और डीओपीटी भी भागीदार रहेंगे, ऐसे में उनके समक्ष यह प्रकरण आता है, तो उनका रूख क्या होगा यह भी देखना है। मगर बरसों से लड़ाई लड़ रहे संतोष कुंजाम इस प्रकरण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाने की तैयारी कर रहे हैं।
पीएससी से जारी लड़ाई अब यूपीएससी तक पहुंच गयी है, जो कि इस सिलेक्शन में शामिल रहेगा।
अब असली मोर्चा खुला
छत्तीसगढ़ में कोरोना का विस्फोटक रुप दिखने लगा है। रोजाना रिकॉर्ड टूट रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से सौ के आसपास कोरोना पॉजिटिव मरीजों की पहचान हो रही है। अब कुल पॉजिटिव मरीजों की संख्या हजार के पार हो गई है। राजधानी रायपुर में एक दिन 35 पॉजिटिव केसेस ने सभी की नींद उड़ा दी है। कहा जा रहा है कि प्रवासी कामगारों के दूसरे राज्यों से लौटने के कारण राज्य में नए केसेस बढ़ रहे हैं। जो नए मामले आ रहे हैं, वो ज्यादातर उन्हीं के हैं या फिर उन कामगारों को उनके ठिकानों तक पहुंचाने वाले अमले के लोग संक्रमित हुए हैं। ऐसी स्थिति में सामुदायिक संक्रमण का खतरा बढ़ गया है। दूसरी तरफ डॉक्टर्स और मेडिकल स्टॉफ के संक्रमित होने की खबरें भी लगातार मिल रही है। जाहिर है कि अब स्वास्थ्य सुविधाओं पर भी असर पड़ेगा। ऐसे में लोगों को ज्यादा चौकस रहने की जरुरत है। क्योंकि हमारे कोरोना वॉरियर्स भी संक्रमण से अछूते नहीं है। जबकि मार्च-अप्रैल का वो समय भी था, जब राज्य में कोरोना पॉजिटिव की संख्या दहाई के अंक के आसपास थी। इस दौरान कहा जा रहा था कि राज्य ने कोरोना से निपटने के लिए माकूल उपाय किए हैं और खासतौर पर हमारे 13 कोरोना योद्धा दिन-रात इस जंग में फ्रंटफुट पर तैनात हैं। इतना ही नहीं इसे पूरे देश के सामने नजीर के रुप में पेश करने की कोशिश की गई, हालांकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन अब जब मामले बढ़ रहे हैं तो ये कोरोना योद्धा गायब हैं। सोशल मीडिया में इन योद्धाओं की तलाश भी शुरू हो गई है।
सप्रे मैदान के लिए जिद
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सबसे पुराने सप्रे स्कूल मैदान को छोटा करने का विरोध हो रहा है। इसके बावजूद शहर के मेयर एजाज ढेबर इसको पूरा करने में खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं, इससे कई तरह के सवाल भी खड़े हो रहे हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि वे इस मुद्दे पर किसी को विश्वास में लेने के पक्ष में भी दिखाई नहीं देते। इस मसले पर एक टीवी चैनल को दिया गया इंटरव्यू तो यही साबित कर रहा है। उनके इंटरव्यू का एक हिस्सा सोशल मीडिया में जमकर वायरल हो रहा है, जिसमें वे यह कहते हुए दिखाई दे रहे हैं कि वे इस वार्ड के पार्षद हैं और उन्हें नहीं लगता कि इस विषय में किसी से कुछ भी पूछने की जरुरत है। लेकिन वे शायद भूल रहे हैं कि उन्हें पार्षद तो जनता ने ही बनाया है और वार्ड की जनता को विश्वास में लेना उनका पहला दायित्व है। खैर, यह तो सियासत की रीति है कि चुनाव के समय जनता ही जनार्दन होती है लेकिन चुनाव जीतने के बाद पांच साल के लिए जनार्दन का अता-पता नहीं होता। लगता है कि रायपुर के मेयर भी जनता जनार्दन को भूल गए हैं, तभी तो वे कह रहे हैं कि उन्हें किसी से पूछने की जरुरत नहीं। यह उनका अभिमत हो सकता है, लेकिन दानी स्कूल, डिग्री कॉलेज और सप्रे स्कूल राजधानी रायपुर की पहचान है। इसमें कोई शक नहीं कि शहर के बीचों-बीच स्थित इस मैदान पर हर किसी की नजर है। जब भी कोई सत्ता में काबिज होता है, तो सबसे पहला प्रोजेक्ट यही होता है। इस बार भी लोगों को आशंका है कि इसके व्यवसायिक उपयोग के लिए मैदान को छोटा किया जा रहा है। सिविल सोसायटी और खेल संगठन इसका विरोध कर रहे हैं, लेकिन मेयर का रुख देखकर तो लगता नहीं कि वे समझौता करने के मूड में है। कुछ लोग इसके ऐतिहासिक महत्व के आधार पर मैदान को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना है कि यहां देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की सभा हुई थी। यहीं पर आपातकाल के बाद विजयलक्ष्मी पंडित की ऐतिहासिक सभा हुए थी. यहीं से अटल बिहारी वाजपेयी ने अलग छत्तीसगढ़ राज्य की घोषणा की थी। ऐसे तमाम कारण गिनवाए जा रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही दूसरे कारण भी है, जिसके कारण खेल मैदान को बचाना जरुरी है। अब देखना यह है कि प्रशासन ऐतिहासिक और व्यवहारिक बातों को महत्व देता है या फिर व्यवसायिक कारणों को। लेकिन कई सियासतदारों का अनुभव है कि ये पब्लिक है, जो सब जानती है और पांच साल बाद पूरा हिसाब चुकता जरुर करती है। ऐसे में जनता जनार्दन को भूलना भारी भी पड़ सकता है।
कितने पास कितने दूर
कोरोना के खौफ के बीच विष्णुदेव साय ने शनिवार को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दायित्व संभाल लिया। मगर उनके पास सभी को साथ लेकर चलने की चुनौती है। इसका नजारा उस वक्त देखने को भी मिला, जब अध्यक्ष पद के दावेदार रहे रामविचार नेताम, अजय चंद्राकर और नारायण चंद्राकर, साय के शपथ ग्रहण समारोह से दूर रहे। हालांकि साय खुद अध्यक्ष बनने के इच्छुक नहीं थे। पार्टी का एक बड़ा खेमा इस बात से भी खफा है कि साय की अनिच्छा के बावजूद उन्हें मुखिया बना दिया गया।
सुनते हैं कि पार्टी के असंतुष्ट नेताओं ने अब खुद को अलग-थलग करने की रणनीति बनाई है। रायपुर-दुर्ग सहित कई जिलों के अध्यक्षों के साथ-साथ प्रदेश पदाधिकारियों की नियुक्ति होनी है। असंतुष्ट नेताओं ने तय किया है कि पदाधिकारियों की नियुक्ति को लेकर अपनी तरफ से कोई राय नहीं देंगे। पार्टी जिसे चाहे, नियुक्त करें। रायपुर और दुर्ग जिले में अध्यक्ष की नियुक्ति असंतुष्ट नेताओं के अडऩे के कारण अटक गई थी।
अब तय हो गया है कि नियुक्तियों में संगठन में हावी धड़ा जो चाहेगा वह होगा। देखना यह है कि सरकार के खिलाफ सडक़ की लड़ाई में असंतुष्ट नेता पूरी क्षमता से साथ देते हैं अथवा नहीं। मगर यह साफ है कि विष्णुदेव साय के लिए वर्ष-2008 के मुकाबले काफी कठिन है। उस समय भाजपा की सरकार थी, तब सबका साथ मिल रहा है। लेकिन इस बार विपक्ष में होने के बावजूद अपने दूर होते जा रहे हैं।
केंद्र ने छत्तीसगढ़ से मांगा न्याय !
भाजपा भले ही सरकार की राजीव गांधी न्याय योजना की आलोचना कर रही है, और यह बताने की कोशिश में लगी है कि किसानों को कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। मगर केन्द्र की भाजपा की नेतृत्व वाली सरकार की सोच ठीक इसके उलट है। तभी तो केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने राज्य सरकार से योजना का पूरा ड्राफ्ट मांगा है। राज्य ने योजना से जुड़ी सारी जानकारियां भेज भी दी है।
कोरोना संक्रमण के बीच आर्थिक संकट झेल रही प्रदेश की सरकार ने राजीव गांधी न्याय योजना के जरिए किसानों को आर्थिक मदद पहुंचाई है। इसका व्यापक असर हुआ है। इस योजना के शुरू होने से किसान आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं। इससे प्रदेश में व्यापार को फायदे की उम्मीद है। जानकारों का मानना है कि जिस तरह केन्द्र सरकार न्याय योजना में दिलचस्पी दिखा रही है, उससे ऐसा लग रहा है कि केन्द्र भी आने वाले समय में किसानों को राहत पहुंचाने के लिए कोई नई योजना शुरू कर सकता है। फिलहाल तो जिस तरह न्याय योजना प्रदेश के बाहर भी सराहा जा रहा है, उससे राज्य सरकार के लोग खुश हैं।
मीडिया अब बद्दुआ का सामान
दिल्ली में कल विख्यात और वरिष्ठ पत्रकार, विनोद दुआ के खिलाफ भाजपा के लोगों की शिकायत पर एफआईआर दर्ज किया गया है। उनके अलावा आकार पटेल नामक सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुई है जो कि मानव अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था एम्नेस्टी इंटरनेशनल के अध्यक्ष रह चुके हैं। विनोद दुआ पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने को सार्वजनिक रूप से गड़बड़ी फैलाना बताते हुए शिकायत की गई थी, और एफआईआर में कहा गया है कि दुआ ने गलत मंशा से झूठी खबर फैलाकर देश में शांति भंग करने की कोशिश की है। उसके पहले एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ उत्तरप्रदेश पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज की थी, और उन्हें पेश होने का समन भेजा था।
आज की ही एक दूसरी खबर बताती है कि देश में किस-किस अखबार और मीडिया संस्थान ने कितने लोगों को नौकरी से निकाला है, और कितनों ने तनख्वाह घटा दी है।
इन दोनों बातों को देखें तो समझ आता है कि आने वाले वक्त में अगर किसी पेशे में जाने की सबसे कम मांग रहेगी, तो वह अखबारनवीसी और बाकी मीडिया में। जिस धंधे में झूठी शिकायतों पर कोर्ट-कचहरी का खतरा हो, और नौकरी का कोई ठिकाना न हो, तनख्वाह का कोई ठिकाना न हो, उस धंधे में कोई जाना क्यों चाहेंगे? अब तो ऐसा लगता है कि जब कोई किसी को बद्दुआ देना चाहेंगे, तो कहेंगे कि जा तेरी औलाद मीडिया में जाकर भूखी मरे, और जेल जाए!
मीडिया से पोर्टल की ओर
कोरोना संक्रमण के चलते भारी आर्थिक मंदी के चलते मीडिया घरानों ने बड़े पैमाने पर रिपोर्टरों की छंटनी करना शुरू कर दिया है। हालांकि सरकारी स्तर पर ऐसा नहीं करने के लिए राज्य सरकार की तरफ से पहल भी की गई थी। अब चूंकि छंटनी का क्रम शुरू हो चुका है, तो वेब पोर्टल की बाढ़ आ गई है। कई रिपोर्टर वेब पोर्टल से जुड़ गए हैं।
सुनते हैं कि तकरीबन तीन सौ से अधिक नए न्यूज पोर्टल ने विज्ञापन देने के लिए जनसंपर्क विभाग में आवेदन किया है। हालांकि न्यूज पोर्टल को विज्ञापन देने के लिए सरकार की नीति बहुत ही स्पष्ट है। मगर नए पोर्टल को विज्ञापन देने के लिए काफी दबाव भी है। सत्ता पक्ष के ज्यादातर विधायक और सरकार के प्रभावशाली मंत्रियों ने नीति में संशोधन कर नए न्यूज पोर्टल को विज्ञापन देने के लिए सिफारिश भी की है। देखना है कि विभाग नीति में कोई परिवर्तन करता है अथवा नहीं।
औरत तो पौराणिक कथाओं से ही शक में...
जब कोई महिला किसी आदमी के खिलाफ देह शोषण की रिपोर्ट लिखाती है, तो लोगों की प्रतिक्रिया देखने-सुनने लायक रहती है। अगर वह आदमी किसी ऊंचे ओहदे पर है, पैसे वाला है, मशहूर है, तो पहली आम प्रतिक्रिया होती है कि औरत ने ब्लैकमेल करने के लिए ऐसा किया होगा। दूसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि अगर उसका चाल-चलन अच्छा था, तो वह किसी आदमी के कमरे में मरने के लिए गई क्यों थी? एक प्रतिक्रिया यह रहती है कि सब कुछ मर्जी और सहमति से होता है, लेकिन बाद में सौदा नहीं जमता, तो सहमति रेप में बदल दी जाती है, और पुलिस में रिपोर्ट कर दी जाती है। एक प्रतिक्रिया यह होती है कि रेप के बाद इतने समय इंतजार क्यों कर रही थी, मांग पूरी नहीं हुई होगी इसलिए मामला पुलिस तक ले गई।
हिन्दुस्तान में एक ताकतवर मर्द के मुकाबले एक कमजोर औरत न तो बलात्कार के पहले इंसाफ पा सकती, और न ही बलात्कार के बाद ही। हिन्दुस्तान की पौराणिक कथाओं में सीता जैसी महिला के चरित्र पर भी लांछन लगाने की शर्मनाक परंपरा है, और लोकतंत्र आने के बाद, संविधान बन जाने के बाद भी महिला के चाल-चलन को लेकर हिन्दुस्तान में बहुत ही कम फर्क आया है, और जो सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक लोग हैं, वे आबादी के किसी फीसदी में नहीं आते, वे उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग हैं जो कि महिला की नीयत पर शक न करें। और तो और अधिकतर महिलाओं का भी ऐसी महिलाओं के बारे में खराब नजरिया रहता है जो किसी ताकतवर पुरूष के खिलाफ देह शोषण की शिकायत लेकर पुलिस तक जाती हैं। लोगों को याद होगा कि जब पंजाब में एक आईएएस महिला ने उस वक्त के देश के सबसे ताकतवर पुलिस अफसर केपीएस गिल के खिलाफ शिकायत की थी, तो देश की एक चर्चित पत्रकार तवलीन सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में इस महिला की आलोचना करते हुए लिखा था कि जिस अफसर ने पंजाब और देश को आतंक से मुक्ति दिलाई, उसकी जरा सी हरकत इस महिला को बर्दाश्त कर लेनी थी, और उसके खिलाफ शिकायत नहीं करनी थी। आखिर लंबी अदालती लड़ाई के बाद केपीएस गिल को अदालत उठने तक की सजा हुई थी।
छत्तीसगढ़ में अभी एक कलेक्टर ने देश में एक नया रिकॉर्ड कायम किया, कलेक्ट्रेट में अपने दफ्तर में ही एक महिला को धमकाकर, और काम देने का लालच देकर उससे बलात्कार किया। यह एक अलग बात है कि खुद छत्तीसगढ़ में पहले भी ऐसे बलात्कार या देह संबंध सरकारी दफ्तरों में होते आए हैं, और जानकारों को कुछ और जिलों के कलेक्टरों की ऐसी खबर है, लेकिन शिकायत न होने से बात आई-गई हो गई। अभी भी छत्तीसगढ़ के एक जिले में जिला छोड़ चुके कलेक्टर का एक महिला से मोह खत्म नहीं हो रहा है, और वे तबादले के दो दिनों के भीतर ही फिर पिछले जिले में उसी घर पहुंचे जिसके सामने उनकी गाड़ी स्थाई रूप से दिखते आई है।
सभी बेवफा हो गए कोरोना युग में
कोरोना काल में सब कुछ इतना बदल गया है कि शायद ही किसी ने ऐसी स्थिति की कल्पना की होगी। अब देखिए ना नकद या चेक लेते-देते समय लोग ऐसी सावधानी रखते हैं, जैसे वो पैसा नहीं बल्कि कोई वायरस मोल ले रहे हैं। हालांकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है। इस समय में सावधानी ही सुरक्षा है। लेकिन एक दौर वो भी था, जब लोग पैसों के साथ-साथ देने वाले को भी हाथों-हाथ लेते थे, पर अब कोरोना ने सब कुछ उलटा-पुलटा कर दिया है। हालांकि पीक समय में कारोबार और लेन-देन बंद होने के कारण उतनी समस्या नहीं हुई और आज के तकनीकी युग में ऑनलाइन ट्रांसफर की भी सुविधा है। जिसके कारण कारोबारियों के धंधे पर असर पड़ा पर लेन-देन में उतना फर्क नहीं पड़ा। इस दौर में कारोबारियों से ज्यादा पब्लिक फिगर और नेता ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। दरअसल, उन्हें कोरोना संक्रमण से निपटने सरकारी खजाने के लिए दान की राशि भी जुटानी पड़ रही है। जाहिर है कि जब सामाजिक संगठन दान पुण्य करते हैं, उनका पूरा कुनबा इसमें शरीक होता है और बकायदा फोटोग्राफी करवाई जाती है। ऐसे समय में न तो सोशल डिस्टेंसिंग का पालन हो पाता और न ही पैसे या चेक की ट्रैवल हिस्ट्री की जानकारी होती है। फोटोग्राफी करना भी जरुरी होता है, ताकि एक दूसरे को देखकर लोग दान के लिए आगे आएं। ऐसे में चेक या नकद लेन-देन की तस्वीर काफी रोचक होती है। पिछले कई दिनों से हम ऐसी कई सरकारी तस्वीरें देख रहे हैं जिसमें लेने वाले चेक को बड़े बेमन से पकड़ते हैं, जो भले ही स्वाभाविक और सावधानी के लिए जरुरी है, लेकिन देखने में अटपटा लगता है। कुल मिलाकर कोरोना युग में सब कुछ बेवफा जैसे हो गए हैं। जिसको देखकर बीते दिनों का रफी साहब का गाया गीत... क्या से क्या हो गया... बेवफा...तेरे प्यार में...चाहा क्या... क्या मिला...बेवफ़ा...तेरे प्यार में... चलो सुहाना भरम तो टूटा... जाना के हुस्न क्या है...फिट बैठता है।
पुलिस तबादलों पर चर्चा
छत्तीसगढ़ में कलेक्टरों के तबादले के बाद अब एसपी के ट्रांसफर का इंतजार है। सोशल मीडिया में संभावित तबादले की सूची भी तैर रही है। हालांकि उसकी पुष्टि नहीं पाई है, लेकिन फिर भी अफसर अपने-अपने तरीके से उसकी समीक्षा कर रहे हैं। तैरती चर्चा के मुताबिक इस फेरबदल में रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जैसे बड़े जिलों के एसपी भी प्रभावित हो रहे हैं। सोशल मीडिया में वायरल हो रही इस सूची की एक खास बात भी है, क्योंकि इस लिस्ट के साथ बकायदा डिस्क्लेमर भी है, जिसमें लिखा गया है कि अंतिम समय में सूची के कुछ नाम इधर से उधर हो सकते हैं। इस डिस्क्लेमर से वे अफसर तो राहत की सांस ले सकते हैं, जिनका नाम सोशल मीडिया वाली लिस्ट में नहीं है। और जिनका नाम है वे भी उम्मीद रख सकते हैं कि आखिरी समय में उनका नाम कट सकता है। खैर सोशल मीडिया के इस दौर में खबरें भी मिनटों में वायरल हो जाती है, लेकिन उसकी सत्यता पर ज्यादातर संदेह रहता है। ऐसे में इस तरह के डिस्क्लेमर से उसकी विश्वसनीयता तो और खतरे में पड़ सकती है। दूसरी तरफ एसपी के ट्रांसफर तो संभावित है। अब देखना है कि यह सूची सही होती है या नहीं। क्योंकि एक दो नाम ऐसे हैं, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि फिलहाल उनके ट्रांसफर की संभावना कम है, क्योंकि वे फिलहाल सरकार के गुड बुक में है। इसके उलट पुलिस मुख्यालय में इस बात से खलबली है कि फिलहाल कुछ भी कयास नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि पुलिस में अप्रत्याशित तबादले हुए हैं। कई दिग्गज अफसरों की बेरुखी से विदाई हुई है। जबकि उनके बारे में भी कहा जा रहा था कि उनकी कुर्सी पर कोई खतरा नहीं है। पीएचक्यू के बड़े अफसर भी इस वक्त भारी और अप्रत्याशित बदलाव की अटकलों पर हामी भर रहे हैं।
कलेक्टर की ताकत, और कमरे
एक जिले के कलेक्टर रहे अफसर को उसी जिले में बलात्कार के आरोप का सामना करना पड़े, यह एक भयानक नौबत है। कलेक्टर महज एक अफसर नहीं होते हैं, वे सरकारी ढांचे के भीतर एक संस्था कहे जाते हैं। बहुत सारे लोग यह बात कहते और लिखते हैं कि सरकारी ढांचे में तीन एम काम के होते हैं, बाकी केवल उनका साथ देने के लिए रहते हैं, पीएम, सीएम, और डीएम। उत्तर भारत के कुछ प्रदेशों में कलेक्टर शब्द का इस्तेमाल कम होता है, और वहां डीएम शब्द ही चलता है, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। ऐसे में इस कुर्सी के साथ इतनी अधिक ताकत जुड़ जाती है कि उस पर बैठकर दिमाग को काबू में रखना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। कई लोगों को यह गलतफहमी हो जाती है कि कलेक्टर रहते हुए वे ईश्वर के सीधे प्रतिनिधि हो गए हैं, और ईश्वर की सारी ताकत का मनचाहा इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके बाद जिला खनिज निधि आ जाने से छोटे से छोटे जिलों के कलेक्टर भी करोड़ों रूपए मनमानी खर्च करने की ताकत रखने लगे हैं, और ऐसे में जाहिर है कि इनके आसपास तरह-तरह के एनजीओ के लोग मंडराने लगें। भोपाल में पिछले बरस जो भयानक हनी ट्रैप सामने आया था, उसमें ढेर सारे आईएएस और आईपीएस अधिकारी थे जो कि एनजीओ को करोड़ों रूपए देने के एवज में महिलाओं की देह पाते थे। मानो उसी अविभाजित मध्यप्रदेश से प्रेरणा पाकर जगत प्रकाश पाठक ने जांजगीर जिले में कलेक्टर रहते हुए जिस तरह एक महिला पर डोरे डाले, और महिला की लिखाई रिपोर्ट के मुताबिक जिस तरह उसके सरकारी कर्मचारी पति पर कार्रवाई की धमकी दी, वह सब कुछ कलेक्टर की कुर्सी पर बैठकर आई बददिमागी थी। अलग-अलग लोग इस ताकत से जमीनें, दौलत, राजनीतिक जोड़तोड़, और बदन, जैसी हसरत हो वैसा पाने की कोशिश करते हैं। इस अफसर ने जितने बेहूदे और अश्लील तरीके से इस महिला को पाने के लिए फोन पर खुले संदेश भेजे, वह इस कुर्सी पर बैठाए जाने वाले अफसरों के स्तर पर बड़े सवाल खड़े करता है।
गनीमत यह है कि यह शिकायत आने के बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कुछ दिनों की ही जांच के बाद जुर्म दर्ज करने और निलंबित करने के आदेश दे दिए। वरना पिछली सरकार में मातहत कर्मचारी के सेक्स-शोषण के आरोपों के बाद बड़े अफसर न सिर्फ प्रमोशन पाते रहे, बल्कि सरकार अपनी पूरी ताकत से राष्ट्रीय महिला आयोग, अदालत, सभी को झांसा देने की कोशिश करती रही, और उस वक्त के मामले को आज की सरकार ने भी छुआ नहीं है। लेकिन इस मामले में हुई कार्रवाई से हो सकता है कि बाकी पीडि़त महिलाओं को भी इंसाफ मिलने की सच्ची या झूठी उम्मीद बंध जाए। उनके वकील एक बार फिर कोशिश कर सकते हैं।
दूसरी बात यह कि सरकारी दफ्तरों में दरवाजों को भीतर से बंद करने का इंतजाम खत्म ही कर देना चाहिए। सिर्फ शौचालय का दरवाजा भीतर से बंद हो, बाकी को बंद किया भी क्यों जाना चाहिए? अगर कमरों के भीतर की सिटकनी की व्यवस्था खत्म हो जाए, तो कम से कम दफ्तरों में तो इस दर्जे के बलात्कार नहीं हो पाएंगे? राष्ट्रीय महिला आयोग को चाहिए कि देश भर के सभी सरकारी दफ्तरों में शौचालय छोड़ बाकी तमाम कमरों और हॉल के भीतर की सिटकनी हटवाने का काम करे।
छत्तीसगढ़ में कम से कम एक अफसर ऐसे हैं जो अपने कमरे में अपने टेबिल पर फोकस कैमरा लगवाकर रखते हैं, और उससे कमरे का नजारा बाहर टीवी स्क्रीन पर सबको दिखता है। प्रधानमंत्री ग्राम सडक़ योजना के सीईओ आलोक कटियार पहले भी ऐसा करते आए हैं, और आज भी उनका कमरा दो कमरे बाहर से टीवी स्क्रीन पर दिखते रहता है।
इस ताजा नया जांजगीर सेक्सकांड ने अफसरशाही को करीब से जानने वाले लोगों के बीच में एक बार फिर सनसनीखेज चर्चाओं को शुरू कर दिया है कि इसके पहले किस-किस सरकारी दफ्तर में ऐसे कांड हुए थे, और सरकारी दफ्तरों के बाहर भी इन जगहों पर कौन-कौन से अफसर कैसे सेक्सकांड में फंसे थे। यह सब कुछ देखें, और मध्यप्रदेश के हनी ट्रैप को भी देखें तो लगता है कि जिन अफसरों को केन्द्र और राज्य सरकारें बहुत काबिल और माहिर मानकर उन्हें लाखों-करोड़ों जनता का जिम्मा दे देती हैं, उनमें से कुछ किस परले दर्जे के मूर्ख रहते हैं।
जानकार पुलिस अफसरों के मुताबिक पाठक नाम के इस अफसर ने जैसे घटिया संदेश इस महिला को भेजे, उसके बदन की तस्वीरें मंगवाईं, और अपने बदन की तस्वीरें भेजीं, वे सब निलंबन नहीं, बर्खास्तगी के लायक है क्योंकि नौकरी की सेवा शर्तों में एक बड़ी विस्तृत असर वाली शर्त भी रहती है जिसके तहत किसी को भी बर्खास्त किया जा सकता है, और वह शर्त है अनबिकमिंग ऑफ एन ऑफिसर।
सब दुखी हैं...
प्रदेश भाजपा पद से हटाए जाने से विक्रम उसेंडी आहत हैं। उन्होंने पार्टी द्वारा दी गई इनोवा कार लौटा दी। हालांकि सौदान सिंह और पवन साय, उनसे कहते रहे कि अभी गाड़ी को लौटाने की जरूरत नहीं है। मगर उसेंडी नहीं माने। उसेंडी का दर्द यह था कि उन्हें ठीक से काम करने का मौका ही नहीं दिया गया। उसेंडी की मन:स्थिति भांपते हुए सौदान सिंह और पवन साय ने उन्हें समझाने की कोशिश कि उन्हें कोई अहम जिम्मेदारी दी जाएगी। थोड़ी देर दोनों नेताओं को सुनने के बाद उसेंडी चले गए। न सिर्फ उसेंडी बल्कि अध्यक्ष पद के बाकी दावेदार रामविचार नेताम, नारायण चंदेल और अन्य नेता भी दुखी हैं। और तो और खुद नए अध्यक्ष विष्णुदेव साय भी दुखी हैं। वे राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनना चाहते थे। अनौपचारिक चर्चाओं में अध्यक्ष पद के दावेदार रहे नेताओं के समर्थक रमन और सौदान सिंह की जोड़ी को कोस रहे हैं। ऐसे में नए अध्यक्ष विष्णुदेव साय के लिए सबको साथ लेकर चलना कठिन चुनौती हो गई है।
ऐसा रूख पहली बार...
छत्तीसगढ़ के पुलिस मुख्यालय में जिस तरह से एक-एक करके कई अफसर इक_ा हो गए हैं, और इनमें से कई के पास कोई काम भी नहीं है, तो पुलिस मुख्यालय की बातचीत में यह राय सामने आई कि वहां एक कैरम क्लब, एक बिलियर्ड्स रूम, और एक टी-क्लब शुरू कर दिया जाए जिसमें लोग बैठ सकें। एक अफसर ने कहा कि अब इतने आईपीएस पीएचक्यू से बाहर हो चुके हैं कि वहां काम करने वाले कम पडऩे लगेंगे, तो दूसरे ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कई बरस पहले की तत्कालीन सीएम रमन सिंह को दी गई सलाह याद दिलाई कि बड़े अफसर जितने कम हों, काम उतना ही अच्छा होता है। डीजीपी डी.एम. अवस्थी को भी ऐसा नहीं लग रहा है कि काम करने वाले अफसर कम हैं। अब जिस तरह से तीन एडीजी एकमुश्त खाली हैं, उससे बाकी प्रदेश में भी अफसरों को यह समझ आ गया है कि वे तभी तक अपनी जगह सुरक्षित हैं जब तक सरकार चाहती है। इससे एक बात तो यह हुई है कि जिस तरह कई अफसर अपने आपको भगवान समझते थे, उनका वह दंभ खत्म हो गया है। इस सरकार ने आते ही जिस तरह मुख्य सचिव के लिए निर्धारित बंगले को खाली कराकर उसे बाकी अफसरों की तरह का एक अफसर, और किसी भी मंत्री से कम महत्वपूर्ण अफसर बता दिया था, तभी से अफसरों को सरकार के रूख का फर्क दिख गया था। अब बड़े-बड़े अफसर भी यह समझ गए हैं कि उनमें और छोटे कर्मचारियों की सुरक्षा में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। जिस तरह वर्दीधारी बड़े अफसर किसी छोटे सिपाही से नाराज होने पर उसे राजधानी से उठाकर सीधे बस्तर फेंकते थे, वैसा सुलूक बड़े अफसरों के साथ भी हो सकता है यह पहली बार दिख रहा है।
आखिरकार जीत रमन की...
आखिरकार काफी खींचतान के बाद पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय को प्रदेश भाजपा की कमान सौंप दी गई है। चर्चा तो यह है कि विष्णुदेव खुद अध्यक्ष बनना नहीं चाहते थे। उनकी इच्छा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के चेयरमैन बनने की थी। चेयरमैन का पद अभी भी खाली है। लॉकडाउन के पहले से अध्यक्ष पद के लिए काफी उठा-पटक चल रही थी। अजय चंद्राकर की अगुवाई में चार सीनियर विधायक राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा से मिल आए थे। प्रदेश के सांसदों ने भी अपनी भावनाओं से राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) बीएल संतोष को अवगत करा दिया था। इन सभी को उम्मीद थी कि किसी नए चेहरे अथवा तेज तर्रार नेता को प्रदेश की कमान सौंपी जाएगी।
बृजमोहन अग्रवाल खेमे से राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम और शिवरतन शर्मा का नाम चर्चा में था। पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर भी दौड़ में थे। लॉकडाउन के बाद पिछले कुछ दिनों से पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय के बंगले में रोजाना दर्जनभर नेताओं की बैठक हो रही थी। पार्टी की इन गतिविधियों पर संगठन में हावी खेमे की पूरी नजर थी। अंत में सौदान सिंह और रमन सिंह खेमा रामविचार-शिवरतन को झटका देकर विष्णुदेव साय की नियुक्ति कराने में सफल रहा।
पिछले कुछ समय से पार्टी हल्कों में चर्चा थी कि रमन सिंह की पार्टी संगठन में पकड़ कमजोर हो रही है। जिस तरीके से रमन सिंह, नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति में विधायक दल की राय को नजरअंदाज कर धरमलाल कौशिक की नियुक्ति कराने में सफल हुए थे, वैसा शायद अब न हो पाए। मगर विष्णुदेव साय की नियुक्ति से सारे अटकलों पर विराम लग गया। विष्णुदेव की नियुक्ति पर सौदान सिंह और रमन सिंह के विरोधी काफी खफा हैं। बृजमोहन अग्रवाल के लंबे समय तक प्रवक्ता रहे देवेन्द्र गुप्ता ने फेसबुक पर बृजमोहन खेमे के नेताओं की बैठकों पर तीखा तंज कसा और लिखा कि ये चर्चा करते रहे उधर... बनवा लिया अपना प्रदेश अध्यक्ष। ऐसे में असंतुष्ट नेताओं को साधना विष्णुदेव साय के लिए चुनौती रहेगी।
लम्बे समय तक बृजमोहन अग्रवाल के प्रवक्ता रहे देवेंद्र गुप्ता ने भूपेश बघेल को बधाई देते हुए साय-रमन की फोटो पोस्ट की है-भूपेश जी आपको और आपकी सरकार को बधाई हो...आपकी राह आसान कर रहे हैं रमन सिंह जी...
पत्रकारिता विवि को भारी पड़ा वेबीनार
छत्तीसगढ़ का एकमात्र पत्रकारिता विवि लगातार विवादों के कारण सुर्खियों में रहता है। नया विवाद एक कार्यक्रम को लेकर है। राज्य के पहले सीएम अजीत जोगी के निधन के बाद राज्य सरकार ने तीन दिनों का राजकीय शोक घोषित किया था। राजकीय शोक में शासकीय कार्यक्रमों, सेमीनार पर रोक होती है, लेकिन इन सब से बेखबर विवि प्रबंधन ने राजकीय शोक के दौरान वेबीनार का आयोजन किया। कार्यक्रम की खबर छात्र कांग्रेसियों को लग गई, तो बैठे-बिठाए उनको मुद्दा मिल गया। विवि में संघ की पृष्ठभूमि वाले कुलपति की नियुक्ति के कारण कांग्रेसी पहले से खार खाए बैठे हैं। ऐसे में इस मुद्दे को हवा देने के लिए एक छात्र नेता ऑनलाइन वेबीनार में शामिल हो गए और हंगामा शुरु कर दिया। जैसे ही आयोजकों और विवि रजिस्ट्रार को माजरा समझ आया उन्होंने तुरंत तकनीकी कारण बताकर वेबीनार को स्थगित कर दिया। विवि का प्रबंधन इस बात से राहत महसूस कर रहा है कि वेबीनार में कुलपति नहीं जुड़े पाए थे, वरना फजीहत और ज्यादा होती। हालांकि कुलपति लगातार ऐसे कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं। वे फिलहाल दिल्ली से लौटने के बाद 14 दिन का क्वारंटाइन पीरियड काट रहे हैं। दूसरी तरफ छात्र कांग्रेसियों ने इस पूरे मामले की शिकायत सरकार में बैठे प्रमुख लोगों से की है। इसके पहले कुलपति के एबीवीपी के फेसबुक पर लाइव करने की भी शिकायत हुई थी, लेकिन छात्र कांग्रेसियों की दिक्कत यह है कि उनकी कोई सुनवाई हो नहीं रही है। वे लगातार नेतागिरी का धर्म तो निभा रहे हैं, लेकिन सरकार में बैठे लोग दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। छात्र कांग्रेसियों को उम्मीद है कि एक ना एक दिन तो उनकी सुनवाई होगी। चलिए उम्मीद पालने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि सरकार में आने से पहले छोटी-छोटी गड़बडिय़ों पर हल्ला बोलने वाले अचानक कहां गायब हो गए हैं, जिन्हें अपने ही कार्यकर्ताओं की शिकायत सुनाई नहीं दे रही है।
सोचना जरा आराम से ?
मान लीजिए कि मैंने पीएम/सीएम राहत कोष में 2000 रुपये दान किए। दूसरी ओर, मेरे एक भाई ने 2000 रुपये की व्हिस्की खरीदी।
अब सवाल यह है कि किसने अधिक योगदान दिया?
1. मेरे द्वारा दान किए गए 2000 रुपये पर मुझे 30 प्रतिशत कर छूट मिली। इसलिए, मंैने वास्तव में 600 रुपये वापस कमाए। दूसरे शब्दों में 2000 रुपये का दान करके मैंने सिर्फ 1400 रुपये का शुद्ध योगदान दिया।
2. शराब पर, कुल करों (उत्पाद शुल्क और जीएसटी) ने लगभग 72 प्रतिशत एमआरपी तक जोड़ा। इसलिए जब मेरे भाई ने 2000 रुपये का भुगतान किया, तो 1440 रुपये सरकारी खजाने में गए। और 750 एमएल व्हिस्की की बोतल से 12 पेग का सुख उसे मिला। इसलिए, न केवल उसने अधिक योगदान दिया, उसने डिस्टिलरी में नौकरियों का निर्माण किया, उनके आपूर्तिकर्ताओं के लेबल, बोतलें, ढक्कन, मशीनरी आदि, मार्केटिंग कंपनी में नौकरियां, वाइन शॉप पर नौकरियां और इसके अलावा वह उच्च आत्माओं में था, जबकि मुझे यह भी पता नहीं है कि मेरा दान का पैसा कहां गया?
-सतवीर सिंह मालवी (सोशल मीडिया पर)
क्या से क्या हो गया...
छत्तीसगढ़ में थोक में आईएएस अफसरों के तबादलों के बाद आईपीएस का भी छोटा फेरबदल हुआ था। यह बदलाव अपेक्षाकृत छोटा था, लेकिन इसकी भी बड़ी चर्चा हो रही है। सबसे पहले खुफिया चीफ हटाए गए। हालांकि उनकी नियुक्ति पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। वे पिछले सरकार में बस्तर के आईजी थे, उस समय दुर्भाग्य से सबसे बड़ा नक्सल अटैक झीरम हुआ था। इस हमले में कांग्रेस के बड़े नेताओं की जान गई थी। तब कांग्रेस ने इस हमले के लिए पुलिस और खुफिया तंत्र की विफलता को जिम्मेदार माना था। उसके बाद भी गुप्ता बस्तर से दुर्ग रेंज के आईजी के रुप में पदस्थ किए गए। यह रेंज इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण थी कि यह सीएम और एचएम का गृह जिला है। उसके बाद गुप्ता खुफिया विभाग के प्रमुख बनाए गए। खुफिया विभाग सीधे मुख्यमंत्री से जुड़ा रहता है और इंटेलीजेंस प्रमुख ही एकमात्र ऐसा अफसर होता है, जो बिना रोक-टोक के सीएम से कभी भी मिल सकता है। कुल मिलाकर उनकी नियुक्ति को देखें तो लगता है कि सरकार की खास पसंद रहे होंगे। ऐसे में रातों-रात क्या हो गया जिसकी वजह से उन्हें खुफिया चीफ के पद से छोटे से कार्यकाल के बाद विदा कर दिया गया? इसी तरह ईओडब्ल्यू और एसीबी चीफ जीपी सिंह के तबादले के भी मायने निकाले जा रहे हैं। हाल ही में लॉकडाउन के दौरान उन्होंने कई बड़े मामलों में जांच शुरु की थी। माना जा रहा था कि सरकार से उन्हें फ्री हैंड दिया गया था।
इस फेरबदल से एक और खास संयोग सामने आया है। हिमांशु गुप्ता और जीपी सिंह को बिना किसी दायित्व के पीएचक्यू भेजा गया है। इसके पहले एसआरपी कल्लूरी भी बिना कामकाज पीएचक्यू में है। कल्लूरी 94 बैच के आईपीएस हैं। हिमांशु गुप्ता और जीपी सिंह भी 94 बैच के ही हैं। इस तरह 94 बैच के तीन अफसर पीएचक्यू में बिना प्रभार के पदस्थ किए गए हैं। इस संयोग को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि 94 बैच के अफसरों की ग्रह दशा ठीक नहीं चल रही है।
दुआओं का असर...
कोरोना को कोसने वाले तो अरबों हैं, लेकिन डॉक्टरों की खूब मेहनत के बावजूद कोरोना मर क्यों नहीं रहा है? वह रात-दिन लोगों को मार रहा है, हर मिनट एक मौत हो रही है, फिर भी वह जिंदा है, मस्ती से घूम रहा है, और लोगों को यमराज के मुकाबले अधिक रफ्तार से मार रहा है। वैज्ञानिक दुनिया भर में लगे हुए हैं, लेकिन उससे बचाव का टीका नहीं बन पा रहा है। तो दुनिया की कौन सी ऐसी ताकत है जो कोरोना को ताकत दे रही है?
इस बारे में इस अखबारनवीस ने खासी जांच-पड़ताल की तो पता लगा कि कोरोना के शुरू होने के बाद से लगातार लोग शाकाहारी हुए चल रहे हैं। बहुत से देश-प्रदेश में तो सरकारों ने ही मांस-मछली-मुर्गी की बिक्री रोक दी थी, और बाकी जगहों पर भी लोग अपनी दहशत में हाथ खींच चुके थे। बाहर की मुर्गी के बजाय लोगों को घर की दाल ज्यादा अच्छी लगने लगी थी। अब इन दो-तीन महीनों में दुनिया में कई अरब प्राणियों की जान बच गई है। जिन मुर्गों ने जिंदगी का तीसवां दिन नहीं देखा था, वे अब कई महीनों के होकर घूम रहे हैं। बकरों का हाल यह है कि कल ही हमने तस्वीर छापी थी कि बिलासपुर में पीने के पानी के एक टैंकर की धार से बकरे का मालिक उसे साबुन-शैम्पू के झाग से नहला रहा था। इन तमाम प्राणियों की दुआएं इंसानों के बजाय कोरोना के साथ है। और फिर इंसानों का जंगलों में घुसना कम हुआ है, खुद शहरों में इंसान कम निकले हैं, इसलिए जंगली जानवरों को भी घूमने के लिए जंगल भी खूब मिले, और शहर की सडक़ों पर भी वे दुनिया में जगह-जगह देखे गए। इन सबकी दुआ कोरोना को मिली है। फिर आसमान में एक बड़ा सा छेद ओजोनलेयर में बन गया था जिससे पूरी धरती खतरे में आ रही थी, और पिछले महीनों में प्रदूषण जमीन पर औंधेमुंह आ गिरा है, उसका भी नतीजा है कि धरती की दुआ भी कोरोना को मिल रही है। कुछ लोगों से बातचीत में धरती ने कहा भी है कि उसके लिए तो इंसानों से बेहतर कोरोना है, जो कि धरती का कुछ भी नहीं बिगाड़ रहा है। इन्हीं सब दुआओं का नतीजा है कि कोरोना को मारना आसान नहीं हो रहा है, बल्कि तमाम धर्मों के ईश्वर भी उसे कोई चेतावनी दिए बिना अपने-अपने कपाट बंद करके बैठे हुए हैं।
विधानसभा कैसे चलेगी?
कोरोना संक्रमण के बीच विधानसभा की कार्रवाई किस तरह संचालित की जाए, इसको लेकर मंथन चल रहा है। विधानसभा का मानसून सत्र जुलाई में प्रस्तावित है, लेकिन अब यह अगस्त में हो सकता है। सुनते हैं कि प्रस्तावित सत्र के संचालन की रूपरेखा तैयार की जा रही है। पहले यह चर्चा थी कि वेबीनार से सदन की कार्रवाई चलाई जा सकती है, मगर यह संभव होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि इसमें कई तरह की व्यावहारिक दिक्कतें हैं।
दूसरी तरफ, संसद के सत्र को लेकर भी दिल्ली में विचार मंथन का दौर चल रहा है। चूंकि दिल्ली हॉटस्पॉट बन गया है। ऐसे में संसद की कार्रवाई मुश्किल दिख रही है। पिछले दिनों दिल्ली में एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी जिसमें संसद की कार्रवाई को लेकर फार्मूला तैयार किया गया था। इस पर छत्तीसगढ़ विधानसभा की निगाहें हैं। फार्मूले के मुताबिक सामाजिक और शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए सीमित संख्या में सदस्यों को सदन में प्रवेश की अनुमति देने पर विचार किया गया। अर्थात जिस सांसद का सवाल होगा, वे ही सदन में मौजूद रहेंगे। मंत्रियों और अफसरों की संख्या भी सीमित रहेगी। दर्शकदीर्घा पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगी।
कुछ इसी तरह का फैसला छत्तीसगढ़ विधानसभा के संचालन को लेकर भी लिया जा सकता है। विभागवार सवाल-जवाब के दिन तय रहते हैं। जिस दिन जिस विभाग का सवाल होगा, उस दिन संबंधित विभाग के मंत्री और सवाल पूछने वाले विधायक सदन में आएंगे। इससे सामाजिक दूरी बनी रहेगी। माना जा रहा है कि विधानसभा के कार्य संचालन को लेकर अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत जल्द ही बैठक ले सकते हैं। इसमें सदन की कार्रवाई को लेकर कोई रूपरेखा तैयार की जा सकती है।
कोरोना, लॉकडाऊन, और कुछ बातें
मजदूरों को लेकर देश के लोगों के बीच मिलीजुली प्रतिक्रिया है। शहरी लोगों को यह भी लग रहा है कि आज केन्द्र सरकार की बदइंतजामी की वजह से लॉकडाऊन में बेरोजगार हुए करोड़ों मजदूर बेघर हुए, बुरी तरह से तकलीफ पा रहे हैं, लेकिन दुबारा चुनाव में वोट देने का मौका आएगा तो ये लोग कुछ सौ रूपए लेकर फिर इसी सरकार को चुन लेंगे। उनका मानना है कि मजदूरों की बहुतायत ही किसी सरकार को चुनने के लिए जिम्मेदार होती है, और यह बहुतायत चुनाव के वक्त बिकने को तैयार रहती है। दारू और नगदी, बस इसके बाद वे देश को डुबाने के लिए तैयार हो जाते हैं।
मजदूरों से परे दिल्ली का एक बुरा तजुर्बा सुनने मिला। देश की राजधानी कोरोना पॉजिटिव और मौतों के बोझ से दबी हुई है। ऐसे में वहां एक रिहायशी इमारत में जब पड़ोस की एक महिला को अस्पताल ले जाया गया, तो बगल के फ्लैट के लोगों ने घर में रह गए एक किशोर और एक बच्चे से उनके खाने-पीने के इंतजाम के बारे में पूछा। पड़ोस की जिम्मेदारी मानकर उन्होंने हर दिन इन बच्चों से पूछना जारी रखा कि कोई जरूरत तो नहीं है। एक दिन इन बच्चों ने जवाब दिया कि उन्होंने अपनी मां को बताया है कि पड़ोस के लोग रोज पूछ रहे हैं कि कोई जरूरत तो नहीं है, तो उनकी मां ने फोन पर कहा है कि तुरंत पुलिस में रिपोर्ट करो कि ये लोग हमें परेशान कर रहे हैं!
कोरोना-लॉकडाऊन का एक और तजुर्बा यह है कि जो लोग कोरोना से बचाव के लिए सरकार ओहदों पर जिम्मेदार लोग हैं, उनमें से बहुत से लोग इस खतरे और समस्या के बारे में तो कुछ नहीं कह रहे, वे लगातार अपनी खुद की अलग-अलग तस्वीरें सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं, इसे अंग्रेजी में कहते हैं बिजिनेस एज युजुअल।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मजदूरों के मोर्चे पर रात-दिन सडक़ चौराहों पर काम करने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता मंजीत कौर बल ने उनके साथ काम कर रही उनकी टीम को लेकर एक दिलचस्प बात फेसबुक पर पोस्ट की है। उन्होंने लिखा है कि आपदा के दौरान दो माह से बिना आराम किए काम करने वाले वालंटियर्स को आपदाओं में काम करने की इतनी आदत हो गई है कि अब बोल रहे हैं- टिड्डी दल पर काम करने चलें क्या?
इस पर कुछ लोगों ने मजा लेते हुए लिखा कि आपके साथियों को फूड पैकेट बांटने की इतनी आदत हो गई है कि टिड्डियों को भी खाना देने लगेंगे।
पहेलियां सुलझ नहीं पा रहीं...
छत्तीसगढ़ में हफ्ते भर में जितने बड़े-बड़े तबादले हुए हैं, उसने लोगों को हक्का-बक्का कर दिया है, खासकर सरकार में ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए आला अफसरों को। कई लोगों के लिए ये तबादले ऐसी पहेली हैं जिसे वे सुलझा नहीं पा रहे हैं। बड़े अफसरों के टेलीफोन अब सिमकार्ड से वॉट्सऐप पर चले गए हैं, और वॉट्सऐप से सिग्नल या टेलीग्राम पर। जिस तरह लोगों को यह भरोसा नहीं है कि सामने वाले को कोरोना है या नहीं है, उसी तरह यह भरोसा भी नहीं है कि उसके टेलीफोन कॉल कोई सुन रहे हैं या नहीं। नतीजा यह है कि तबादलों की पहेली सुलझाने के लिए भी लोगों को बातचीत करनी है तो लोग सिमकार्ड को भूल ही गए हैं। कुछ अधिक संपन्न और सावधान लोग ऐसे हैं जो एप्पल के आईफोन की किसी मैसेंजर सर्विस पर ही भरोसा कर रहे हैं, जो कि दूसरे किसी फोन पर चलती नहीं है, और खुद एप्पल ने जिसका तोड़ नहीं निकाला है। बहुत से लोगों को राज्य सरकार के विभागों पर शक है कि वहां से उनके फोन टैप हो रहे हैं, और बहुत से लोगों को केन्द्र सरकार की एजेंसियों पर शक है कि वे उनके फोन टैप करवा सकती हैं। कुल मिलाकर चारों तरफ से खतरा ऐसा है कि कोरोना और इंटरसेप्शन के बीच कड़ा मुकाबला है, दोनों ही अदृश्य हैं, और दोनों खतरनाक हैं।
जानवरों जैसी मेहनत का फल...
इस बीच बहुत मेहनत करने वाले एक ईमानदार, और काबिल आला अफसर का नाम कतार में है कि आज शायद उसका भी तबादला हो जाए। यह अफसर जानवरों की तरह मेहनत करने वाला और सरकारी चारे को न छूने वाले इस अफसर का तबादला कुछ दिनों से जानकारों की जानकारी में था, और अब मामला एकदम कगार पर पहुंच गया है। इस एक तबादले से विभाग के बाकी लोगों में भी यह संदेश चले जाएगा कि चारे की चौकीदारी करने के बजाय नांद में खाने और खिलाने के लिए तैयार रहना चाहिए। देखें तबादला आदेश आज आता है, या कल।