राजपथ - जनपथ
कोरोना में पार्टियां जारी !
रायपुर में एकाएक कोरोना संक्रमण तेजी से फैल रहा है। कई ऐसे नौजवान चपेट में आ गए हैं, जो कि कोरोना के खतरे को नजरअंदाज कर पार्टी कर रहे थे। इन्हीं में से एक एक नेता का भतीजा भी है, जो कि कुछ दिन पहले ही बंगलोर से लौटा था। भतीजे का अपना एक ग्रुप है, जो कि अक्सर पार्टी करते रहते हैं। बंगलोर से आने के बाद दोस्तों की पार्टी में शामिल हो गया। फिर क्या था एक-दो दिन बाद कोरोना की आशंका हुई। जांच में भतीजे के कोरोना की पुष्टि हुई, तब तक उनके तीन और पार्टीबाज दोस्त भी कोरोना के चपेट में आ चुके थे।
कुछ इसी तरह का वाक्या एक कांग्रेस नेता के साथ हुआ। कांग्रेस प्रवक्ता एक बर्थडे पार्टी से लौटे थे और कोरोना संक्रमित हो गए। इसके बाद वे टीवी डिबेट में भी गए। जहां भाजपा प्रवक्ता के साथ बैठे थे। अब भाजपा प्रवक्ता को भी कोरोना के लक्षण दिखने लगे हैं और उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया है।
एल्डरमैन के लिए किच-किच
खबर है नगरीय निकायों में एल्डरमैन की नियुक्ति पर सरकार और संगठन में किचकिच चल रही है। चर्चा है कि नगर निगमों-पालिकाओं में एल्डरमैन की नियुक्ति के लिए विधायकों से तो नाम लिए गए, लेकिन जिलाध्यक्षों से पूछा नहीं गया। इससे खफा कुछ जिलाध्यक्षों ने मोहन मरकाम से बात की। मरकाम ने प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया को भी इससे अवगत कराया है। इसका प्रतिफल यह रहा कि स्थानीय संगठन को भी विश्वास में लेने के लिए कहा गया है।
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के पोस्टर पर दर्जनों ने की चोट, सौ से अधिक कमेंट
छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी और आरएसएस के गहरे रिश्तों का आरोप एक डिजाइन बनाकर लगाया है। इस पर उन्होंने जुड़े हुए पैदा बच्चे भी लिखा है। ट्विटर पर पोस्ट इस तस्वीर के जवाब में पवन सेठी नाम के एक व्यक्ति ने एक दूसरी फोटो पोस्ट की जिसमें कांग्रेस के अंग्रेजी हिज्जों के भीतर ही आरएसएस ढूंढकर दिखा दिया, और लिखा कि यह कांग्रेस के भीतर गहरे तक बैठा हुआ है। कांग्रेस ने यह डिजाइन पोस्ट करते हुए आम आदमी पार्टी पर तंज कसा था, और उसे आप की जगह, जनता से छिपाया गया पाप, लिखा था। उस पर कुछ लोगों ने लिखा- मत छेड़ो उसको, वो है सबका पाप। एक ने लिखा- जनता तुम्हारी ही हाथ तुम्हारे गाल पर देगी छाप। एक ने लिखा- आप के झापड़ की छाप दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी-आरएसएस को पड़ चुकी है, अब तो सुधर जाओ। एक ने लिखा- अरे तुम क्यों रहे हो इतना कांप?
आशीष द्विवेदी ने लिखा- जनता बटन कांग्रेस का मत देना तुम दबाए, आज का कांग्रेसी न जाने कल भाजपा में बिक जाए।
बहुत हो गए, कुछ बाकी हैं...
निगम-मंडलों की एक और सूची जल्द जारी हो सकती है। इसमें वजनदार सीएसआईडीसी, ब्रेवरेज कॉर्पोरेशन, वित्त आयोग, पर्यटन बोर्ड और श्रमिक कर्मकार कल्याण मंडल में नियुक्तियां हो सकती हैं,और नगर निगमों में एल्डरमैन की नियुक्ति होनी है। कुल मिलाकर ढाई-तीन सौ नेताओं के लिए अभी और गुंजाइश बाकी है। कांग्रेस विधायक की कुल संख्या 69 है। जिनमें से 49 को पद मिल चुका है। इससे अधिक की संभावना अब नहीं रह गई है। वैसे भी राज्य में इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को पद नहीं मिले थे।
खास बात यह है कि महासमुंद जिले के सभी चार विधायकों को लालबत्ती मिल गई है। विनोद चंद्राकर और द्वारिकाधीश यादव, संसदीय सचिव बनाए गए। जबकि देवेन्द्र बहादुर सिंह को वन विकास निगम का चेयरमैन और किस्मतलाल नंद को प्राधिकरण का उपाध्यक्ष बनाया गया है। पिछली बार भाजपा विधायकों की कुल संख्या ही 49 थी। यानी सरकार अब और मजबूत स्थिति में आ गई है।
सीनियर विधायक धनेन्द्र साहू, सत्यनारायण शर्मा और अमितेश शुक्ल पहले ही पद लेने से मना कर चुके थे। सत्यनारायण के करीबी महेश शर्मा को श्रम कर्मकार मंडल का सदस्य बनाया गया है। इसी तरह अमितेश के करीबी सतीश अग्रवाल को भी इसी मंडल में जगह दी गई है। अलबत्ता, धनेन्द्र के किसी करीबी को ही पद मिलना बाकी है। सुनते हैं कि धनेन्द्र के बेटे प्रवीण को किसी निगम की चेयरमैनशिप दी जा सकती है।
वोरा का खाता खाली
दिग्गज कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा के समर्थकों को निगम-मंडलों में जगह नहीं मिल पाई है। सिर्फ उनके बेटे अरूण वोरा को भंडार गृह निगम का चेयरमैन बनाया गया है। जबकि वोरा के करीबी रमेश वर्ल्यानी, सुभाष शर्मा सहित कई और नेताओं को पद मिलने की संभावना जताई जा रही थी। जिससे वोरा समर्थकों में निराशा है।
दुर्ग के प्रभाव क्षेत्र से खुद सीएम और चार मंत्री आते हैं। यहां के नेताओं को संसदीय सचिव और निगम-मंडल में भी पद मिल चुका है। ऐसे में दुर्ग से वोरा समर्थक नेताओं को पद मिलने की संभावना बेहद कम हो गई है। हालांकि वर्ल्यानी को पद मिलने की संभावना अभी बरकरार है। पेशे से आयकर विक्रय सलाहकार वर्ल्यानी की रूचि वित्त आयोग को लेकर ज्यादा है। वैसे भी सिंधी समाज को प्रतिनिधित्व मिलना बाकी है। इससे परे सिंधी साहित्य अकादमी का गठन हो चुका है। ऐसे में यहां वर्ल्यानी सहित किसी सिंधी नेता को पद मिलने की पूरी संभावना है।
मंत्रियों की टेंशन
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मंगलवार को संसदीय सचिवों को शपथ दिलाते समय आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे। समीक्षकों का मानना है कि यह आत्मविश्वास दरअसल तसल्ली का भाव था कि देर से ही सही विधायकों को संतुष्ट करने का काम तो पूरा हुआ। 12 मंत्री और 15 संसदीय सचिवों को मिला लिया जाए तो 27 विधायक तो सरकार के पास हैं। वे अब सरकार की मर्जी के बिना हिल-डुल भी नहीं सकते। सीएम ने नए संसदीय सचिवों को भरोसा दिलाया कि अभी कामकाज सीख लें, फिर तो उन्हें ही मंत्री बनकर सरकार चलाना है। मुखिया ने उन्हें भविष्य का भी सपना दिखा दिया है। अब तो वे संसदीय सचिव के रूप में बेहतर करने के लिए जुट जाएंगे, ताकि मंत्री बनने का मौका मिल सके, लेकिन इससे मंत्रियों की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि कैबिनेट का आकार तो बढ़ नहीं सकता। नए मंत्रियों के लिए पुरानों को जाना पड़ेगा। ऐसे में वे मंत्री ज्यादा टेंशन में है, जिनके परफार्मेंस से मुखिया खुश नहीं है। उनके सामने तो चुनौती खड़ी हो गई है।
दरअसल कांग्रेस पार्टी कोई भी फैसला लेने में, या किसी लिस्ट को मंजूरी देने में जिस तरह महीनों लगा देती है, उससे पार्टी में असंतोष बढ़ते चलता है। अब मध्यप्रदेश और राजस्थान की गड़बड़ी के बाद बाकी राज्यों में भी कांग्रेस को अपना संगठन, या अपनी सरकार, या दोनों सम्हालने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ में निगम-मंडल में भी कुछ विधायक एडजस्ट होंगे, और कुल मिलाकर 45 ऐसे विधायक हमेशा ही सरकार के काबू में रहेंगे जिनसे विधानसभा में बहुमत साबित होता है। छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार देश में सबसे सुरक्षित कांग्रेस सरकार हैं, लेकिन मोदी-शाह जिस तरह एक-एक प्रदेश को निशाने पर लेकर चल रहे हैं, सबको अपने दरवाजे मजबूत रखने चाहिए।
नेम प्लेट में पद बदलने की खुशी
छत्तीसगढ़ में संसदीय सचिवों ने शपथ ले ली है। इससे उनका सामाजिक और क्षेत्र में ओहदा तो बढ़ गया है, लेकिन सरकार में क्या स्थिति रहने वाली है, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है, क्योंकि लाभ का पद मानते हुए अदालत ने कई तरह की बंदिशें लगा दी थीं। जानकारों की मानें तो संसदीय सचिव के पास न तो फाइल जाएगी और न ही विधानसभा में वे सवालों के जवाब दे सकेंगे। कुल मिलाकर संसदीय सचिव का पद लॉलीपॉप ही है। हालांकि कुछ विधायक तो नेम प्लेट में पद बदलने से ही खुश है। अब देखना है कि उनकी यह खुशी कब तक रहती है।
दिलचस्प बात यह है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पहले संसदीय सचिव बनाने के खिलाफ थे, और सरकार बनने के बाद जल्द ही उनके एक करीबी मंत्री मोहम्मद अकबर ने बयान दिया था कि संसदीय सचिव बनाए जाएंगे, और तुरंत ही भूपेश बघेल ने इसके खिलाफ बयान दिया था कि ऐसा कोई इरादा नहीं है। लेकिन वक्त बढऩे के साथ-साथ ओवरलोड कांग्रेस विधायक दल में बेचैनी बढ़ रही थी, इसलिए अधिक से अधिक लोगों को सत्ता में भागीदारी देना जरूरी हो गया था। राज्य बनने के बाद किसने सोचा था कि एक दिन कांग्रेस विधायक दल का इतना बड़ा आकार रहेगा?
मना करने वाले भी हैं...
खबर है कि सीनियर विधायक रामपुकार सिंह ने निगम-मंडल पद लेने से मना कर दिया। रामपुकार सिंह सबसे ज्यादा आठवीं बार विधायक बने हैं। वे जोगी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। सीधे-सरल इस आदिवासी नेता के मंत्री बनने की उम्मीद जताई जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। वे औरों की तरह जोड़-तोड़ से दूर रहे हैं। मंत्री पद नहीं मिला, तो वे कोप भवन में नहीं गए।
अब पार्टी के प्रमुख नेताओं ने उन्हें निगम-मंडल अथवा संसदीय सचिव का पद का ऑफर दिया। मगर उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। इसी तरह पूर्व सांसद करूणा शुक्ला को भी निगम-मंडल में पद के लिए ऑफर किया गया था। करूणा शुक्ला ने पद लेने से मना कर दिया। चर्चा है कि करूणा की इच्छा राज्यसभा में जाने की है। मगर उनकी इच्छा पूरी होती है अथवा नहीं, देखना है।
राजस्थान जैसा कुछ मुमकिन नहीं
राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ के राजनीतिक माहौल में खदबदाहट पैदा करने की कोशिश हो रही है। वैसे तो कांग्रेस विधायकों की संख्या इतनी ज्यादा है कि मध्यप्रदेश और राजस्थान की तरह की स्थिति पैदा हो पाना असंभव है। इसकी एक वजह यह भी है कि विपक्ष बेहद कमजोर हो चुका है। किसी तरह की कोशिश पर विपक्ष के ही टूटने का ही खतरा ज्यादा है। ईडी-इनकम टैक्स की कुछ कार्रवाई भी हुई थी, लेकिन ये भी ज्यादा मारक साबित नहीं हो पाई।
सुनते हैं कि सरकार में बैठे प्रमुख लोगों को अब कुछ कानूनी झमेलों का सामना करना पड़ सकता है। इन लोगों के खिलाफ चल रहे पुराने प्रकरणों की मॉनिटरिंग राज्य भाजपा के शीर्ष नेता कर रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के नामी वकीलों से संपर्क बनाए हुए हैं। पिछले दिनों इस सिलसिले में मौलश्री विहार के एक बंगले में बैठक भी हुई थी। चर्चा का निचोड़ यह रहा है कि अगले कुछ दिनों में अदालती प्रकरण के चलते सरकार में बैठे लोगों के लिए उलझनें पैदा हो सकती हैं । देखना है कि आगे-आगे होता है क्या?
डिजिटल खाई खुद गयी...
कोरोना की वजह से स्कूल-कॉलेज तो बंद हैं , लेकिन स्कूल शिक्षा विभाग की पहल पर वर्चुअल क्लास चल रही है। स्कूल शिक्षा विभाग ने बकायदा एप भी तैयार किया है, जिससे विद्यार्थी पाठ्यक्रम सामग्री डाउनलोड कर सकते हैं। निजी स्कूलों में तो क्लास ठीक ठाक चल रही है, मगर सरकारी स्कूलों का बुरा हाल है।
शहर के बाहरी इलाके के एक सरकारी स्कूल के क्लास टीचर के पास एक छात्र का फोन आया। उसने गुजारिश की कि क्लास रात में ही लिया करें, क्योंकि दिन में मोबाइल पिताजी लेकर चले जाते हैं। ऐसे में दिन में क्लास में शामिल हो पाना संभव नहीं है। इसी तरह एक अन्य छात्र से टीचर ने वर्चुअल क्लॉस अटेंड नहीं करने का कारण पूछा, तो उसने कह दिया कि मोबाइल में बैलेंस खत्म हो गया है और आप नेट पैक डलवाएंगी, तभी क्लॉस अटेंड कर पाऊंगा। अब शहर के स्कूलों का यह हाल है, तो दूर दराज के इलाकों में वर्चुअल क्लॉस का क्या हाल होगा, यह अंदाजा लगाया जा सकता है।
देश भर के जानकारों का कहना है कि संपन्न और विपन्न बच्चों के बीच यह एक नई डिजिटल खाई खुद गयी है...
कौन किसकी सिफारिश पर...
संसदीय सचिवों की नियुक्ति में विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत और टीएस सिंहदेव की पसंद को भी खास महत्व दिया गया है। महंत कैंप की विधायक रश्मि सिंह, यूडी मिंज, द्वारिकाधीश यादव और शिशुपाल सोरी को संसदीय सचिव बनाया गया, तो टीएस की सिफारिश पर पारस राजवाड़े, अंबिका सिंहदेव, चिंतामणी महाराज को संसदीय सचिव का पद नवाजा गया।
विकास उपाध्याय का नाम सीएम और टीएस, दोनों ही कैंप से था। ताम्रध्वज साहू और रविन्द्र चौबे की सिफारिश से पहली बार विधायक बने गुरूदयाल सिंह बंजारे को संसदीय पद दिया गया। बाकी विनोद सेवनलाल चंद्राकर, इंदरशाह मंडावी, कुंवर सिंह निषाद, रेखचंद जैन, चंद्रदेव राय और शकुंतला साहू सीएम की पसंद थे। कुल मिलाकर इन नियुक्तियों में किसी तरह मतभेद की स्थिति नहीं रही।
हर डाल में उल्लू बैठा है, अंजाम गुलिस्तां क्या होगा?
उपर लिखी यह लोकोक्ती सरकार के दोबारा राज्य के भी चेकपोस्ट को चालू किए जाने पर बिल्कुल फीट बैठ रहा है। दरअसल राज्य को सर्वाधिक राजस्व देने वाले चेकपोस्ट पाटेकोहरा बेरियर के खुलने से पहले ही राजनेताओं, अफसरों और दूसरे प्रभावी लोग अपने पसंदीदों को चेकपोस्ट मेें काम दिलाने के लिए दिन-रात विभागीय मंत्री समेत परिवहन अफसरों के दहलीज पर चक्कर लगा रहे हैं। बेरियर खुलने के लिए सरकार की घोषणा पर अभी अमल हुआ नहीं कि पाटेकोहरा बेरियर से जुड़े कई तरह के कामों को करने की ख्वाहिश लोग पाल बैठे हैं। सुनते हैं कि विभागीय मंत्री मो. अकबर के राजनांदगांव के प्रभारी मंत्री होने की वजह से भी उनके दफ्तर में आवेदनों का अंबार लग गया है। जबकि वह कई बार कह चुके हैं कि सरकार की ओर से अभी बेरियर खोलने की प्रारंभिक तैयारी मात्र है। यह कह सकते हैं कि बस्ती अभी बसी नहीं है और लोगों ने अपना गुलिस्तां तैयार कर लिया है। प्रशासनिक और राजनीतिक जगत में पाटेकोहरा बेरियर पर सबकी नजरें जमी हुई है। इस बेरियर के इर्द-गिर्द प्रशासनिक अमला अपनी तैनाती की कोशिश में है। राजनेताओं और पुलिस महकमे के अफसरों ने बेरियर में पोस्टिंग के लिए ऐडी-चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया है। यह बेरियर कमाई के मामले में सबकी प्राथमिकता में है।
भाजपा के दिन-बादर खराब
राज्य से सत्ता हाथ से चले जाने के बाद भाजपा के दिन-बादर खराब चल रहे हैं। सबसे ज्यादा झटका सत्ता गंवाने का असर राजनांदगांव के नेताओं को लगा है। पिछले सप्ताह एक भाजपा नेत्री के साथ कथित मारपीट का मामला प्रदेश में सुर्खियों में रहा। भाजपा के जिलाध्यक्ष के साथ विवाद के बाद महिला नेत्री को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब चर्चा है कि आपसी खींचतान में फंसी पार्टी के कुछ नेता उक्त महिला को दोबारा संगठन में वापस लेने के लिए राज्यभर के नेताओं और संगठन प्रमुखों से मिल रहे हैं।
राजनांदगांव की दूसरी पंक्ति के नेताओं ने अघोषित रूप से अभियान छेड़ते हुए जिलाध्यक्ष की कार्रवाई पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। भाजपा से जुड़ा एक वाक्या चिटफंड कंपनी का है। खैरागढ़ पुलिस ने लाखों रुपए की हेराफेरी के मामले में मंडल अध्यक्ष को मुख्य आरोपी बनाकर जेल में भीतरा दिया। वहीं पुलिस की इस कार्रवाई के दो दिन पहले निगम के एक पूर्व नेता ने भाजपा के वाट्सअप ग्रुप में अश्लील वीडियो अपलोड कर दिया। अपलोड किए गए वीडियो को उक्त नेता लाख कोशिश के बावजूद डिलीट नहीं कर पाया, क्योंकि वह तकनीकी रूप से मोबाइल चलाने का जानकार नहीं है। गुजरा पखवाड़ा राजनांदगांव के भाजपा नेताओं के लिए सार्वजनिक रूप से विवादों से भरा रहा।
उस वक्त तो सिंंहदेव ने...
वैसे तो राज्यसभा चुनाव के वक्त ही राजस्थान में सचिन पायलट समर्थक विधायकों के तेवर गरम थे तब उस समय डैमेज कंट्रोल के लिए राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला और टीएस सिंहदेव को लगाया गया था। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव को हाईकमान ने चुनाव पर्यवेक्षक बनाया था। सुनते हैं कि कुछ विधायक तो क्रास वोटिंग कर सीएम अशोक गहलोत को सबक सिखाना चाहते थे।
भाजपा के रणनीतिकार तो कांग्रेस की अंदरूनी लडाई का फायदा उठाने के पहले से ही तैयार बैठे थे। भाजपा से जुड़े थैलीशाह जयपुर में डेरा डाले हुए थे। तब सिंहदेव ने नाराज चल रहे पायलट समर्थक विधायकों से व्यक्तिगत चर्चा की और उन्हें मनाने में कामयाब रहे। विधायकों की नाराजग़ी यह थी कि पायलट खेमे से जुड़े होने के कारण सीएम उन्हें महत्व नहीं देते, उनके क्षेत्रों में काम नहीं हो पा रहे हैं। सुरजेवाला और सिंहदेव ने विधायकों को भविष्य में ऐसा नहीं होने भरोसा दिलाकर पार्टी के खिलाफ जाने से रोक दिया था।
राष्ट्रीय महासचिव के वेणुगोपाल ने, जो कि राज्यसभा प्रत्याशी भी थे उन्होंने सुरजेवाला और सिंहदेव के प्रयासों की सराहना की थी। मगर चुनाव होते ही पायलट समर्थक विधायकों के प्रति सीएम का रूख नहीं बदला और फिर अब जो हो रहा है वह सबके सामने है।
कुछ जिलों का रहस्य..
छत्तीसगढ़ में कोरोना का संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। रायपुर में तो कोरोना की रफ्तार अब बेकाबू हो रही है। मगर आश्चर्यजनक तरीके से कुछ जिले, जहां पहले कोरोना तेजी से फैल रहा था वहां एक-दो ही पाजिटिव केस आ रहे हैं।
अंदर की खबर यह है कि यहां के कलेक्टर और अन्य आला अफसरों की कोशिश रहती है कि टेस्ट कम से कम हों । अब टेस्ट कम होंगे तो पाजिटिव केस भी कम आएंगे। वैसे भी दो तीन महीनों में कोराना की दवा आने की संभावना है। ऐसे में किसी तरह समय काटने से वाहवाही मिल रही है, तो हर्ज क्या है।
नाम चिपकाओ, हिसाब चुकताओ
बिना अपनी किसी गलती के बदनाम हो गए एक मैसेंजर-औजार वॉट्सऐप ने कल फिर अपने तेवर दिखाए और भूतपूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के एक ओएसडी रहे विक्रम सिसोदिया को परेशानी में डालने की कोशिश की। वॉट्सऐप के कुछ ग्रुप पर यह पोस्ट किया गया कि विक्रम ने दिल्ली हाईकोर्ट में राज्य सरकार के खिलाफ एक मुकदमा किया है। पिछली सरकार के सीएम के करीबी लोगों में विक्रम सिसोदिया ही एक ऐसे रहे जो कि मामले-मुकदमे लायक विवाद से परे रहे। अब उन्हें सरकार के सामने एक टकराव की मुद्रा में खड़ा करने का मकसद साफ दिखता है। विक्रम सिसोदिया से समय रहते बात कर ली गई तो पता लगा कि वॉट्सऐप पर फैलाई गई यह खबर पूरी तरह झूठी है।
इसी तरह स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के नाम से हर दो-चार दिनों में कुछ न्यूज पोर्टल और कुछ वॉट्सऐप ग्रुप पर ऐसे बयान फैलते हैं जो कि उनके दिए हुए नहीं रहते। जब तक उनका कोई खंडन हो सके, तब तक वहां पर बयान देखकर कुछ अखबार और कुछ टीवी चैनल भी उसे आगे बढ़ा चुके रहते हैं। अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इतने अधिक मामले दायर हो रहे हैं कि किसी भी मामले के साथ किसी का नाम जोडक़र, उसे फैलाकर अपना हिसाब तो चुकता किया ही जा सकता है।
रमन सिंह के ओएसडी रहे अरूण बिसेन तो फिर भी कई किस्म के मामलों में घिरे हुए हैं, लेकिन विक्रम सिसोदिया पिछली सरकार के आखिरी पांच बरस में पूरी तरह हाशिए पर खिसका दिए गए थे, और वे आज आरोपमुक्त घर बैठे हैं।
पूर्व प्रत्याशी सांसद, लोकसभा
अब जरा सोचिये, ये सांसद पद के लिए कभी उम्मीदवार रहें होंगे, उसी को आज भी अपनी पहचान बनाये फिर रहे हैं. मगर ये अकेले हैं ऐसा भी नहीं है। कइयों ऐसे मंत्री, सांसद, विधायक, न्यायपालिका, कार्यपालिका से जुड़े लोगों के अलावा छुटभइये हैं जो कभी किसी पद पर रहे होंगे उसे ताउम्र वाहनों की नंबर प्लेट पर या फिर उसके ऊपर एक प्लेट लगाकर लिखाये घूमते फिर रहे हैं।
अपनी पहचान के संकट से जूझते लोग अक्सर इस तरह की पहचान पर ही जि़ंदा रहते हैं। बिलासपुर शहर में कइयों ऐसे भी वाहन हैं जिन पर हाईकोर्ट, जिलाकोर्ट, कलेक्टोरेट, क्कह्ररुढ्ढष्टश्व, आबकारी, राजस्व और फलां-फलां पूर्व न्यायाधीश, सेवानिवृत आबकारी निरीक्षक, रिटायर्ड कार्यपालन अभियंता और न जाने क्या-क्या लिखा है। पूर्व छोटा लिखा दिखेगा, विधायक-सांसद, मंत्री बड़ा सा लिखा होगा। विधायक प्रतिनिधि, सरपंच पति, पार्षद पति, पूर्व एल्डरमैन। ऐसे लोगों के वाहन की नंबर प्लेट के ऊपर चमकती तख्ती ही शायद इनकी असल पहचान होती है।
इस पहचान का संक्रमण एक वक्त गाडिय़ों पर ‘प्रेस’ के वायरस से ग्रसित था, अब भी है। इस दौर में असंख्य छोटे-बड़े वाहनों, यहां तक कि मालवाहक वाहनों के शीशों पर क्कह्ररुढ्ढष्टश्व लिखा दिखाई पड़ जाएगा। कई सरकारी अफसरों के निजी वाहनों पर भी पदनाम की तख्तियां उनकी हौसलाआफजाई और इज्जतदारी के लिए लगी होती है। नंबर प्लेटों के ऊपर लगी तख्तियों से दिखाया जा रहा पेशा, पद और पहचान का रसूख, नियम कहता है ये गलत है मगर देखेगा कौन ?
फोटो और टिप्पणी-सत्यप्रकाश पांडेय।
कोरोना के सामने ताकत का घमंड
बहुत से लोगों की राजनीतिक या सरकारी ताकत होती है, या ताकतवर लोगों के जान-पहचान होती है, और वे लोग कई किस्म के नियम-कायदों से बच निकलते हैं। अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ताकत दिखाने का सबसे बड़ा यही जरिया हो गया है कि किस तरह कोरोना के नियमों को धता बताया जाए। लोग अपने परिवार में किसी के कोरोना पॉजिटिव निकलने पर उसे कंटेनमेंट या आइसोलेशन से बचाने को अपनी ताकत मानकर चल रहे हैं। बहुत से मामले ऐसे आए हैं जिनमें लोगों ने कोरोना पॉजिटिव होने पर भी अपनी इमारत सील नहीं करने दी। नतीजा यह निकला कि वहां काम करने वाले घरेलू नौकरों को भी उन घरों में आना-जाना पड़ा, और सब खतरे में पड़ते रहे। अब रोजाना इतने अधिक लोग पॉजिटिव निकल रहे हैं कि एक-एक के लिए एक-एक इलाके को एक पखवाड़े क्वारंटीन करें, तो बांस-बल्ली गाडऩे वाले लोग कम पडऩे लगेंगे।
लेकिन यह समझने की जरूरत है कि लोग सरकारी नियमों को धता बता सकते हैं, लेकिन जब कोरोना भैंसे पर बैठकर गदा लेकर आएगा, तो वह यमराज की और अपनी खुद की, दोनों की ताकत से मारेगा, और फिर उस वक्त राजनीतिक ताकत किसी काम नहीं आएगी।
और तो और प्रदेश के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज अस्पताल में डॉक्टर भी ऐसा दुस्साहस दिखा रहे हैं कि कोरोना वार्ड से लौटकर पूरे अस्पताल में घूम रहे हैं, या कोरोना पॉजिटिव निकलने के बाद भी अस्पताल में सबसे मिलते-जुलते घूम रहे हैं। अफसरों में भी जो बड़े-बड़े लोग हैं वे अपनी मनमानी कर रहे हैं, और खुद के साथ-साथ वे दूसरों पर भी बहुत बुरा खतरा खड़ा कर रहे हैं।
बहुत सींच चुके फल के इंतजार में...
गांवों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए बड़ी योजना पर काम चल रहा है। इसके लिए केन्द्र से भरपूर मदद मिलने वाली है। योजना में हाथ बंटाने के लिए विभाग के छोटे-बड़े ठेकेदार बड़े बेचैन हैं। स्वाभाविक है कि योजना का क्रियान्वयन ठेकेदारों के बिना नहीं हो सकता है। लिहाजा, ज्यादा से ज्यादा काम पाने के लिए ठेकेदार विभाग के जिम्मेदार लोगों के आगे-पीछे हो रहे हैं। सुनते हैं कि कुछ तो काम मिलने की प्रत्याशा में इतना कुछ खर्च कर चुके हैं कि काम थोड़ा बहुत मिला, तो वे गंभीर आर्थिक संकट में फंस सकते हैं। विभाग में पदस्थ एक पुरानी जानकार अफसर पर भी ठेकदार बहुत भरोसा कर चुके हैं।
ठेकेदार विभाग प्रमुखों की बेगारी से काफी त्रस्त हो गए हैं। यदि काम नहीं मिला, तो गुस्सा फूट भी सकता है। फिलहाल तो योजना शुरू होने का बेसब्री से हो रहा है। बस्तर के एक जिले के सप्लायरों का किस्सा भी इससे मिलता-जुलता है। इस जिले में एक करोड़ से अधिक के फर्नीचर और अन्य सामग्रियों की सप्लाई होनी है। यहां एक विधायक ने सप्लायर को काम दिलाने की पेशकश की, तो सप्लायर ने एक झटके में हाथ जोड़ लिए। विधायक महोदय की अपनी डिमांड तो थी ही इलाके के जनप्रतिनिधि ही कुछ इतने जागरूक हैं कि उनकी डिमांड को पूरा कर पाना मुश्किल हो रहा था। चर्चा है कि इस जिले में कोई भी सप्लायर, फर्नीचर-अन्य सामग्रियों की सप्लाई करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं।
कितने बरस लगेंगे राष्ट्रपति के पास?
आखिरकार कुलपतियों की नियुक्तियों का अधिकार वापस लेने से खफा राज्यपाल ने विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को मंजूरी देने से मना कर दिया है और विधेयक को राष्ट्रपति को भेजने का फैसला ले लिया है। राज्यपाल के पास ऐसा करने का अधिकार भी है। मगर इससे सरकार के लिए मुश्किलें पैदा हो गई है। राष्ट्रपति को भेजे जाने वाले विधेयकों की मंजूरी में लंबा वक्त लगता है और पिछले अनुभवों को देखते हुए कुछ लोगों का अंदाजा है कि शायद ही कांग्रेस सरकार अपने कार्यकाल में नए प्रावधानों के मुताबिक कुलपतियों की नियुक्ति कर पाए।
पिछली सरकार के पहले कार्यकाल में सहकारिता संशोधन विधेयक पारित हुआ था। राज्यपाल कुछ प्रावधानों से असहमत थे और फिर विधेयक मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेजा गया। विधेयक केन्द्रीय गृहमंत्रालय के माध्यम से राष्ट्रपति को भेजा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सहकारिता विधेयक की फाइल दो बार बेहद संवेदनशील समझे जाने वाले केन्द्रीय गृहमंत्रालय में गुम हो गई। इसके बाद यहां से दोबारा फाइल भेजी गई। सहकारिता विभाग के एक अफसर की इसमें ड्यूटी लगाई गई थी।
ज्यादा कुछ न होने के बावजूद विधेयक को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने में पूरे दो साल लगे। इस बार का मामला थोड़ा ज्यादा पेचीदा है। भाजपा के लोग भी राज्यपाल के रूख से सहमत हैं। केन्द्र में भाजपा गठबंधन की सरकार है। ऐसे में इस विधेयक को मंजूरी मिलने में लंबा वक्त लग सकता है। क्योंकि इसके लिए समय-सीमा तो तय होती नहीं है। ऐसे में कुछ लोग सोच रहे हैं कि नए प्रावधानों के मुताबिक सरकार कुलपतियों की नियुक्ति नहीं कर पाएगी, तो वे पूरी तरह गलत भी नहीं है।
दरअसल यह विवाद कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर एक ऐसे पुराने पत्रकार को राज्यपाल द्वारा मनोनीत करने से शुरू हुआ जिनका कुल तजुर्बा संघ-परिवार के अख़बारों का है. संघ-विरोधी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के रहते राजभवन से ऐसा हो गया इस पर सभी हक्का-बक्का हैं।
सब कुछ एक कारोबारी के हाथ!
हिन्दुस्तान में चीनी मोबाइल एप्लीकेशन प्रतिबंधित करने के बाद जियो-मीट नाम का एक ऐसा वीडियो कांफ्रेंस एप्लीकेशन भी सरकारी इस्तेमाल से बाहर होते गया है जिस पर लोगों की गोपनीयता चुराने का आरोप है। अभी इसकी जांच चल ही रही है कि केन्द्र और राज्य सरकारों ने इसकी जगह दूसरे एप्लीकेशन शुरू कर दिए हैं। अब मुकेश अंबानी की कंपनी जियो ने ऐसी कांफ्रेंस के लिए एक एप्लीकेशन बाजार में उतार दिया है और कम से कम केन्द्र सरकार उसे बढ़ावा दे रही है। राज्य सरकारों के मन में अंबानी के मोदी से घरोबे को लेकर यह संदेह हो सकता है कि उनकी बातें गोपनीय न रहें। लेकिन जियो जितने आक्रामक तरीके से काम बढ़ा रहा है, उसने वॉट्सऐप के मुकाबले उसी शक्ल का, उसी चेहरे-मोहरे का एक नया एप्लीकेशन जियो-चैट भी उतार दिया है। देश में सबसे सस्ता डेटा देने की वजह से जियो के पास सबसे अधिक ग्राहक वैसे भी हैं, और अधिकतर लोग डेटा की स्पीड की वजह से, कवरेज और सस्ते पैकेज की वजह से जियो पर जा चुके हैं। कुल मिलाकर एक कारोबारी के अलग-अलग औजार पर सारे लोग चले जा रहे हैं, और हर किसी की निजी और कारोबारी, सरकारी और गैरसरकारी जानकारी इसी कंपनी के कम्प्यूटरों पर रहेगी, आगे की बात लोग अपने मन से समझें। हाल ही में दुनिया भर में यह हल्ला हुआ है कि चीन की मोबाइल कंपनियां वहां की सरकार को सारी जानकारी देती हैं।
हमलावर उपासने का नाजुक मामला...
निगम-मंडल में नियुक्ति आज-कल में हो सकती है। कुछ नामों को लेकर अंदाज भी लगाए जा रहे हैं। मगर इस बात की प्रबल संभावना है कि कांग्रेस के मीडिया विभाग से सबसे ज्यादा लोगों को निगम-मंडल में पद मिल सकता है। इनमें शैलेष नितिन त्रिवेदी, किरणमयी नायक, रमेश वल्र्यानी, सुशील आनंद शुक्ला के अलावा आरपी सिंह का नाम चर्चा में है। सुनते हैं कि पहली सूची में सभी नाम भले ही न आए, लेकिन देर सवेर इन्हें पद मिलने की पूरी संभावना है। दूसरी तरफ, भाजपा नेता सच्चिदानंद उपासने ने यह कहकर हलचल मचा दी है कि सूची में वही नाम दिखाई देंगे जिन्होंने धनबल खर्च किया है। उन्होंने एसएनटी, आरजीए, एसए और वीएस नाम वालों की तरफ इशारा भी किया है।
उपासने ने भले ही पूरा नाम लिखने की हिम्मत नहीं दिखाई है, लेकिन उनके इशारों ने कांग्रेस नेताओं को कुपित कर दिया है। अब बारी कांग्रेस नेताओं के जवाब देने की है, जो कि उपासने के दबदबे वाली लोकमान्य गृह निर्माण सोसायटी में गड़बड़ झाले और उनके ब्रेवरेज कॉर्पोरेशन के अध्यक्ष पद पर रहते अपने घर के एक हिस्से को शराब दूकान को किराए पर देने के मामले को उठा सकते हैं। भले ही धनबल से पद लेने का आरोप उपासने पर साबित न हो पाए, लेकिन लोकमान्य गृह निर्माण समिति में गड़बड़ी की फाइल आज भी जिंदा है। ऐसे में सक्रियता दिखाने के चक्कर में उपासने मुश्किल में घिर सकते हैं।
आरटीआई कार्यकर्ता से परहेज?
खबर है कि निगम-मंडलों के लिए नाम तो तय हो गए हंै, लेकिन कुछ दिग्गज अपने करीबियों को मलाईदार पद दिलाने के लिए काफी मशक्कत कर रहे हैं। चर्चा है कि सभी मंत्रियों नेे एक-एक नाम दिए हैं। जिन पर सहमति बन चुकी है। हालांकि यह एक और बात है कि पहली किस्त में हर मंत्री की पसंद को शायद जगह न मिल पाए।
कुछ नामों को लेकर जरूर विवाद की स्थिति है। ये लोग पार्टी के प्राथमिक सदस्य नहीं हैं, लेकिन सामाजिक या फिर आरटीआई कार्यकर्ता के रूप में पिछली सरकार के प्रभावशाली लोगों के खिलाफ मोर्चा खोला था। इससे कांग्रेस को काफी फायदा पहुंचा। अब ऐसे एक-दो लोगों को पद देने की बात आई है, तो पार्टी के कुछ अन्य दिग्गज नेता इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार के कुछ लोगों का मानना है कि सूचना का अधिकार दोहरी तलवार होता है...
संसदीय सचिवों को लेकर जो फार्मूला बना है, उसमें क्षेत्रीय और जातीय संतुलन को ध्यान में रखा गया है। यह भी सोचा गया है कि चूंकि कांग्रेस 9 संसदीय सीटों पर लोकसभा चुनाव हारी हुई है, और उन जगहों पर भाजपा के सांसद हैं, इसलिए वहां पार्टी का असर बनाने के लिए उन संसदीय सीटों से एक-एक विधायक को संसदीय सचिव बनाया जाए। इसमें शायद दुर्ग से कोई संसदीय सचिव न बनाया जाए क्योंकि वहां से मंत्री बहुत हैं।
पिछली सरकार में रायपुर से बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत मंत्री थे। इस सरकार में रायपुर की सीटों के विधायकों का मंत्री बनना तो मुश्किल है। अलबत्ता कुलदीप जुनेजा और विकास उपाध्याय को संसदीय सचिव बनने का मौका मिल सकता है। एक चर्चा यह भी है कि पूर्व मंत्री धनेन्द्र साहू को अपैक्स बैंक का चेयरमैन बनाया जा सकता है। पहले धनेन्द्र पद लेने के लिए तैयार नहीं थे। कुछ सूत्रों के मुताबिक वे अब पद के लिए तैयार हो गए हैं।
मरवाही में सबकी साख दांव पर
बिना शोरगुल के भाजपा मरवाही उपचुनाव की तैयारी कर रही है। पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल को चुनाव की कमान सौंपी गई है। खास बात यह है कि अमर को रमन सरकार के पहले कार्यकाल में मंत्री पद पर रहते कोटा उपचुनाव की कमान सौंपी गई थी। इसमें कांग्रेस प्रत्याशी रेणु जोगी के हाथों भाजपा प्रत्याशी को बुरी हार का सामना करना पड़ा। कोटा में हार के बाद अमर पर आरोप लगा था कि उन्होंने चुनाव संचालन सही ढंग से नहीं किया। ऐसा माना जा रहा था कि बिलासपुर शहर में जोगी की नाराजगी न झेलने के लिए अमर अग्रवाल ने रेणु जोगी के खिलाफ चुनाव ढीलाढाला लड़ा था। इस बात ने जोर इतना पकड़ लिया था कि बाद में एक उपचुनाव की तैयारी बैठक मुख्यमंत्री निवास में चल रही थी। वहां अमर अग्रवाल को उपचुनाव का जिम्मा देने की बात उठी तो वे भड़क उठे। उन्होंने कहा कि उन पर रेणु जोगी की मदद का आरोप लग रहा है, और ऐसे में वे किसी उपचुनाव का काम नहीं देखेंगे। इस पर आमतौर पर शांत रहने वाले रमन सिंह ने कहा कि मंत्री हैं तो पार्टी का दिया हुआ काम तो करना ही पड़ेगा। इस पर अमर अग्रवाल ने तैश में आकर कहा कि अगर ऐसी बात है तो वे मंत्री पद छोड़ देंगे। वे गुस्से में उठकर सीएम हाऊस से चले गए, घर जाकर इस्तीफा लिखा, मुख्यमंत्री को भेजा, और मोबाइल फोन बंद करके कार से बिलासपुर निकल गए। इस्तीफा मंजूर हो गया, और फिर उन्हें कैबिनेट में लौटने में लंबी मेहनत और लंबा वक्त लगा।
खैर, अब खुद चुनाव हार चुके अमर अग्रवाल मरवाही में पार्टी उम्मीदवार को जिताने के लिए अभी से रणनीति बना रहे हैं। अमर का चुनाव का प्रबंधन काफी बेहतर माना जाता है। अमर के मार्गदर्शन में मरवाही से टिकट के दावेदार रामदयाल उइके, अर्चना पोर्ते और समीरा पैंकरा मेहनत करते दिख रहे हैं। मरवाही उपचुनाव में पार्टी के साथ-साथ अमर की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा भी दांव पर है। अब दांव पर तो जोगी परिवार की साख भी लगी है क्योंकि वहां से विधायक अजीत जोगी ही थे। और कांग्रेस की भी साख दांव पर लगी है क्योंकि जोगी परिवार से यह सीट जीतना उसके लिए भी जरूरी है।
इस बीच अफवाहों के बाजार को देखें तो अजीत जोगी के जीते जी ही जोगी परिवार की कांग्रेस में वापिसी की कोशिशों की चर्चा हवा में रहती थी, और अब भी अगर ऐसी चर्चाएं छिड़ेंगी, तो कोई हैरानी नहीं होगी।
दिल्ली से लौटकर होम-आइसोलेशन
राज्य के दो आईएएस अफसर डॉ. आलोक शुक्ला और अनिल टुटेजा होम आइसोलेशन में हैं। नान प्रकरण में दोनों ही अफसरों से पिछले दिनों ईडी ने अपने दिल्ली ऑफिस में पूछताछ की है। चूंकि दिल्ली रेड जोन में है। ऐसे में डॉ. शुक्ला ने कोरोना संक्रमण को देखते हुए रायपुर में ही पूछताछ के लिए हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी, मगर उन्हें राहत नहीं मिल पाई। खास बात यह है कि दिल्ली के ईडी ऑफिस के लोग भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। दो बार तो दफ्तर बंद भी करना पड़ा। बावजूद इसके दोनों अफसरों से दो दिन तक पूछताछ की गई। अब जब वे लौटे हैं, तो स्वाभाविक तौर पर उन्हें सतर्कता बरतते हुए आइसोलेशन में रहना ही था।
डिप्रेशन की वजह
एक बड़ा अफसर अपनी मानसिक परेशानियों को लेकर एक मनोचिकित्सक के पास पहुंचा। बड़े सब्र से घंटे भर उसकी उलझनों को सुनने के बाद मनोचिकित्सक को जब यह पता लगा कि कुछ महीने पहले ही इस अफसर को बड़ी ताकत की कुर्सी से हटाकर किनारे किया गया है, और गाडिय़ां घर में बस दो रह गई हैं, नौकर-चाकर बस आधा दर्जन रह गए हैं, तो उसने डिप्रेशन (मानसिक अवसाद) की वजह पकड़ ली।
अफसरों के साथ दिक्कत यह है कि उनमें से अधिकतर को सरकारी अमले और सरकारी काफिले का मीनिया हो जाता है, और जब कभी किसी कुर्सी के साथ ये सहूलियतें एक सीमा से अधिक नहीं मिल पातीं, तो वे डिप्रेशन में चले जाते हैं।
अभी-अभी भारत सरकार की एक रिपोर्ट आई है कि राज्यों से वहां जाने वाले आईएएस-आईपीएस अफसर उस वक्त तक केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाना नहीं चाहते जब तक राज्यों में उनके कलेक्टर और एसपी बने रहने का वक्त रहता है। इस वक्त तक इन कुर्सियों में दिलचस्पी इतनी रहती है कि केन्द्र सरकार की रूखी-सूखी नौकरी उन्हें बेकार लगती है। नतीजा यह है कि केन्द्र सरकार उस वरिष्ठता की खाली कुर्सियों को लेकर बहुत परेशानी में है।
किसी बंगले के भीतर काम करने वाले लोगों की गिनती कई बार तो बाहर से हो जाती है कि वहां कितनी मोटरसाइकिलें खड़ी हैं। एक-एक अफसर के बंगले के बाहर आधा दर्जन से लेकर एक दर्जन मोटरसाइकिलें एक वक्त में दिखती हैं, जिससे उस शिफ्ट में मौजूद कर्मचारियों की कम से कम गिनती दिख जाती है। अब सरकारी अमला अजय देवगन तो है नहीं कि दो मोटरसाइकिलों पर सवार होकर पहुंचे।
आज जब समझदार लोग कोरोना के खतरे के बीच अपने घर के कामकाज बिना नौकर-चाकर खुद कर रहे हैं, तब भी अफसरी मिजाज घर पर जमघट लगाकर चल रहे हैं। यह बात समझ में नहीं आ रही कि वे खुद उतने ही महफूज हैं जितने उनके घर काम करने बाहर से आने वाले लोग।
नामी-बेनामी जमीनें, केन्द्रीय जांच एजेंसी
केन्द्र सरकार की एजेंसियां राज्य के कई बड़े अफसरों, और कई रिटायर्ड अफसरों की जमीन-जायदाद तलाश रही हैं, जिनमें नामी भी हैं, और बेनामी भी। कुछ ऐसे भूतपूर्व अफसर जांच के घेरे में हैं जिनके नाम खबरों में नहीं हैं। राज्य प्रशासनिक सेवा से आईएएस बने हुए, और प्रदेश के सबसे ताकतवर अफसरों में से एक रहे हुए अफसर ने रायपुर-दुर्ग के बीच बहुत सी जमीनें विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक के भाई के नाम से खरीदी थीं, और अब पटवारी को खबर किए बिना इन जमीनों की जानकारी जुटाई जा रही है। खारून नदी के दोनों तरफ की जगह कई अफसरों की एकदम पसंदीदा रही है, और कुछ जमीनें तो ऐसी भी हैं जिन पर किले जैसी ऊंचे अहाते बन गए हैं।
केन्द्र सरकार देश भर में जमीन के मालिक के नाम के साथ आधार कार्ड अनिवार्य करने जा रही है, और इसे लेकर भी बेनामी जमीनों को परेशानी आने वाली है। जमीन के एक कारोबारी ने बताया कि अब तो बयाना-चि_ी को लेकर भी नियम यह बन गया है कि दोनों पक्षों को रजिस्ट्री ऑफिस में मौजूद रहकर, फोटो खिंचवाकर, आंखों की पहचान देकर ही बयाना करना है। ऐसे में दूसरों के नाम से जमीन खरीदे हुए लोग जो मुख्तयारनामा अपने नाम का करवाकर अपनी मिल्कियत सुरक्षित मानते थे वे भी परेशान हैं।
लेकिन किस इलाके में नेताओं और अफसरों की अधिक जमीनें हैं, किन इलाकों में उनकी औलादें जमीन की प्लाटिंग कर रही हैं, इसका अंदाज लगाना हो तो वहां बिना जरूरत के बनने वाली चौड़ी-चमचमाती सड़कों को देखना चाहिए, और उस इलाके में आने वाले दूसरे सरकारी प्रोजेक्ट देखना चाहिए।
दो तरह के रोका-छेका चल रहे हैं
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बिना मास्क लगाए घूमने वाले लोगों को सड़कों पर ठीक उसी तरह रोका-छेका जा रहा है, जिस तरह सड़कों से जानवरों को घेरकर पकड़ा जा रहा है। आबादी का एक बड़ा इस हद तक बदमाश है कि मास्क, गमछा, या कोई और कपड़ा, मुंह पर बांधने को तैयार ही नहीं है क्योंकि कोरोनाग्रस्त होने पर जरूरत पड़ेगी तो वेंटिलेटर का मास्क मुंह पर लगाने के लिए सरकार तो है न। नतीजा यह है कि एक के देखादेखी दूसरे, अनगिनत लोग बिना मास्क के घूम रहे हैं, और अपने से परे दूसरों के लिए भी खतरा बन रहे हैं, खतरा हैं। ऐसे लोगों पर महज सौ रूपए जुर्माना लगाना उनकी बेइज्जती है। केरल सरकार ने सार्वजनिक जगहों पर बिना मास्क निकलने वालों पर 10 हजार रूपए जुर्माना रखा है। छत्तीसगढ़ में कम से कम एक हजार रूपए तो जुर्माना रखना ही चाहिए क्योंकि बाकी जनता की जिंदगी की भी कुछ तो कीमत मानी जाए, और डॉक्टर-नर्स, दूसरे स्वास्थ्य कर्मचारी, और पुलिसवाले जो जनता में से ऐसे बदमाश लोगों को भी बचाकर रखने के लिए अपनी जान दे रहे हैं, उनकी भी तो कुछ कीमत मानी जाए। लोगों पर मास्क न लगाने पर हजार-हजार रूपए जुर्माना किया जाए, तो शायद थोड़ा सा असर भी होगा। सौ रूपए का जुर्माना तो वैसा ही है जैसा लोग किसी भजन गायक या कव्वाल पर लुटाकर चले जाते हैं। छत्तीसगढ़ के जानवरों पर रोका-छेका का असर शायद अधिक हो रहा है, बिना मास्क लोगों को रोकने-छेकने में पुलिस जान पर खेल रही है, और ऐसी जनता पर उसका असर शायद जानवरों से कम ही हैं।
फाईल पर भ्रष्ट लिखा, और बचाने पहुंचे
सरकारों में पहले भ्रष्टाचार होता है, फिर उसके कोई जानकार उसकी शिकायत करते हैं, अगर भ्रष्ट के ऊपर के लोग शामिल नहीं होते तो एक जांच का आदेश हो जाता है। जिस अफसर को जांच का जिम्मा दिया जाता है, उसे छांटने का काम पहले ही इस पैमाने पर तय होता है कि जांच में फंसाना है या बचाना है। इस नीयत से तय किए गए जांच अफसर की अपनी फरमाईश पूरी होती है तो जांच रिपोर्ट उस हिसाब से अधिक से अधिक गोलमोल बन जाती है, और भ्रष्ट के बच निकलने का पूरा रास्ता निकाल दिया जाता है। बुनियाद ही ऐसी बनाई जाती है कि सरकार में बैठे लोग इस रिपोर्ट के आधार पर जांच को खारिज कर सकें, भ्रष्टाचार के आरोपों को फाईल कर सकें। इन सबके बावजूद हजार में से एक मामला ऐसा रहता है जो सारी सेटिंग से परे जाकर अफसर को या नेता को कुछ मुसीबत में डाल देता है, तो फिर इसके बाद न्यायपालिका में ऐसा ही सिलसिला शुरू होता है।
सरकार के एक सबसे बड़े कमाऊ विभाग में पिछली सरकार के वक्त का एक बड़ा खुला भ्रष्टाचार सामने आया जो कि दस करोड़ रूपए से अधिक का था। भाजपा सरकार के वक्त के इस भ्रष्टाचार की जांच जिस अफसर ने की, उसने फाईल पर भ्रष्टाचार को सही माना कि ऐसा हुआ है। बाद में साथी अफसरों के साथ वह भी मंत्री के पास गया, और इस जांच को खत्म करने, इस पर कोई कार्रवाई न करने की मांग करने लगा। अफसरों को यह आशंका थी कि जिस तरह कुछ बरस पहले धमतरी के आरा मिल कांड में बड़े-बड़े अफसर बरसों तक फंसे थे, उस तरह की नौबत इस मामले में भी आ जाएगी। फिर विभागीय अफसरों से ऊपर एक बड़े आईएएस अफसर की मंजूरी भी इस भ्रष्टाचार की फाईल पर भ्रष्टाचार करने के लिए किसी तरह दर्ज थी। मंत्री ने जब फाईल देखी तो सामने बैठे बड़े अफसर को भी देखा, और कहा कि फाईल की रिपोर्ट में भ्रष्टाचार हुआ लिखते हो, और यहां सामने आकर मुझसे केस खत्म करने के लिए कहते हो? फाईल पर खुद भले बने रहना चाहते हो, और यह चाहते हो कि कोर्ट जाने की नौबत आए तो मैं कटघरे में पहुंचूं?
यह तो बात हुई बातचीत की, लेकिन आखिर में हुआ यही है कि दस करोड़ से ऊपर के राजधानी के इस भ्रष्टाचार की खुली किताब धरी हुई है, और उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। पता नहीं ऐसे मामलों को देखकर ऐसे ही विभागों के 10-20 हजार रूपए रिश्वत लेकर जेल जाने वाले लोगों को क्या लगता होगा? भ्रष्टाचार जितना बड़ा हो, उसे दबाने और बचाने में उतने ही बड़े लोग जुट जाते हैं, यही वजह है कि आज बड़े-बड़े लोग सारे खुले भ्रष्टाचार के बावजूद विभागों के बाप बने बैठे हैं।
सरकार कोई भी हो, जागीरदार यही
कुछ बड़े भ्रष्ट लोग इतने अधिक उत्पादक और उपयोगी होते हैं, कि एक सरकार जाने के बाद दूसरी सरकार आने पर भी वे सत्ता के इतने ही चहेते बने रहते हैं। राज्य के एक कमाऊ विभाग में अखिल भारतीय सेवा से छांटकर भेजे गए एक बड़े अफसर का हाल यह है कि वे भाजपा सरकार के लंबे बरसों में अपने बड़े से इलाके का ठेका लेते थे। वहां के तमाम कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों तक की ट्रांसफर पोस्टिंग वे अकेले तय करते थे, और जागीरदारी किस्म के इस अधिकार के लिए वे अंग्रेज बहादुर को एकमुश्त मोटी रकम देते थे। पूरा कमाऊ विभाग जानता था कि उनके ऊपर कोई भी अफसर रहें, कोई भी मंत्री रहें, अपनी जागीर पर वे एकाधिकार रखते थे, और रंगदारी की वसूली का एक हिस्सा मंत्री तक पहुंचाते थे। कोई भी, छत्तीसगढ़ी भी, इस व्यवस्था को हिला नहीं पाया। अब इस सरकार में भी यह अफसर इसी तरह का एकाधिकार चला रहा है, और दो अलग-अलग पार्टियों के राज में ऐसा कैसे किया जा सकता है, इसकी ट्रेनिंग अभी यहां प्रोबेशन पर चल रहे नए लोगों को जरूर दिलानी चाहिए। आज राज्य में इस विभाग का हर काम इसी अफसर से होकर गुजर रहा है, और पिछली सरकार के वक्त का पहाड़ जैसा भ्रष्टाचार तो पकड़ में आने के बाद भी उसी वक्त निपटा दिया गया था, और सौ फीसदी भ्रष्ट रहने के बावजूद कागज पर पाक-साफ होकर आज फिर उससे बड़ा पहाड़ खड़ा करने में लग गए हैं, और सत्ता ने भी इन्हें जागीरदारी दे दी है। यह देखकर विभाग के गिने-चुने ईमानदार लोग चुप बैठ गए हैं कि जिन्हें आज जेल में होना था, वे आज कमाई की रेलमपेल में हैं। इतना संगठित भ्रष्टाचार करने की क्षमता रखने वाले लोग किसी सत्ता को बुरे नहीं लगते।
गुरु गुड़ और चेला शक्कर
कहावतें यूं ही न शुरू होती हैं न दोहरायी जाती हैं।
1990 के दशक में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम धूमधाम चलाया गया था। छत्तीसगढ़ के एक जिले के कलेक्टर प्रगति देखने एक दिन एक क्लास में पंहुच गये। गुरु जी को एक तरफ किया और स्वयं चॉक ले कर बोर्ड में लिखना भी शुरू किया और साथ साथ जोर से उच्चारण भी।
‘च में बड़ी ऊ की मात्रा चू,
ह में बड़े आ की मात्रा हा ,
क्या हुआ? ’
पूछते हुए उन्होंने बारी बारी से सबकी ओर देखना शुरू किया पर सारे के सारे ‘विद्यार्थी’ निर्विकार, अविचल, भावशून्य बैठे दिखे।
गुरु जी ने जब आंकलन किया कि कलेक्टर की नजर उन पर पडऩे में अब देर नहीं है तो उन्होंने किताब खोली, चूहे का बड़ा चित्र वाला पृष्ठ खोला, एक हाथ से किताब को कलेक्टर के सिर के पीछे से ऊपर कर ‘विद्यार्थियों’ को चित्र दिखाया और दूसरे हाथ से उत्तर देने के लिए प्रोत्साहित किया।
चित्र ने माहौल बदल दिया। चेहरों पर मुस्कान आ गयी। अचानक उत्तर देने के लिए उत्सुक हाथ उठे दिखायी दिये। कलेक्टर ने एक को मौका दिया। विद्यार्थी ने भी पूरे आत्मविश्वास के साथ खड़े हो कर उत्तर दे दिया:
‘मुसुआ’।
दामाद बाबू की नियुक्ति पर सवाल
निगम-मंडलों में नियुक्ति के लिए कांग्रेस नेता चप्पलें घिस रहे हैं। इन सबके बीच राज्य उपभोक्ता प्रतितोषण आयोग में भाजपा के ताकतवर नेता के दामाद की सदस्य के रूप में नियुक्ति हो गई। दामाद बाबू पहले भी आयोग के सदस्य थे। तब उनका हक बनता भी था क्योंकि उस समय भाजपा की सरकार थी। मगर सरकार बदलने के बाद भी उनकी हैसियत में कमी नहीं आई। ससुरजी की धमक के चलते पुनर्नियुक्ति मिल गई। अब कांग्रेस में इस नियुक्ति पर सवाल खड़े हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के प्रवक्ता रहे देवेन्द्र गुप्ता ने फेसबुक पर लिखा कि मंडल-आयोग में पद पाने के लिए कांग्रेस कार्यकर्ता जहां जूते-चप्पल घिस रहे हंै वही पिछले दरवाजे से विपक्ष के नेता सेटिंग में लगकर अपने रिश्तेदारों को मलाई खिला रहे है।
कोरोना कैसा टीचर?
राजधानी रायपुर के पुराने पुलिस मुख्यालय में पौन दर्जन कोरोना पॉजिटिव मिलने के बाद नया रायपुर के पुलिस मुख्यालय में भी एक कोरोना पॉजिटिव मिल गया, और अब वहां के दर्जनों लोगों का टेस्ट करवाया गया है कि कल से वहां काम शुरू हो, या न हो। आज शाम-रात तक इनकी रिपोर्ट आ जानी चाहिए। दूसरी तरफ इंटेलीजेंस में आईजी आनंद छाबड़ा के कमरे में काम करने वाले एक व्यक्ति के पॉजिटिव निकल जाने के बाद वे भी अब क्वारंटीन में चले गए हैं, और उनके दफ्तर के भी कुछ दूसरे लोग क्वारंटीन में होंगे। एक किस्म से हर दिन कुछ पॉजिटिव निकलने से कई दर्जन लोग क्वारंटीन में जा रहे हैं। हिन्दुस्तान की सरकार में लोगों को सचमुच ही पेपरलेस और ऑनलाईन काम करने का एक मौका मिल रहा है। लोगों को घर से भी काम करना पड़ रहा है, और फोन, इंटरनेट, कम्प्यूटर से भी। अब एक कागज भी किसी के पास आता है, तो वे शक की नजरों से देखते हैं।
लॉकडाऊन के बाद कोरोना-क्वारंटीन का यह दौर सरकारी कामकाज को ऑनलाईन और पेपरलेस बनाने का वह काम कर रहा है जो कि दस बरस के कागज बचाव अभियान से भी नहीं हो पाया था। इस मौके का फायदा उठाकर लोगों को बिना डीजल-पेट्रोल जलाए, बिना कागज बर्बाद किए, बिना मिले हुए काम करने की एक नई संस्कृति में ढल जाना चाहिए। देखें कोरोना कितना कामयाब टीचर साबित होता है।
बैठकों पर कोरोना का साया
खबर है कि पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय के शंकर नगर स्थित निवास पर होने वाली नियमित बैठकों का सिलसिला बंद हो गया है। पाण्डेय के निवास पर बृजमोहन अग्रवाल, अजय चंद्राकर, शिवरतन शर्मा, रामविचार नेताम, नारायण चंदेल समेत कई नेता रोज रात में जुटते थे। और भोर होने तक गपशप चलते रहती थी। इसी बीच कोरोना संक्रमित विधायक दलेश्वर साहू के चक्कर में अजय चंद्राकर और शिवरतन शर्मा के क्वॉरंटीन रहना पड़ा था।
मगर दो दिन बाद ही दोनों की रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद बैठक में रौनक आ गई। यहां देर रात तक मजमा लगा रहता था, लेकिन फिर एक नई समस्या आ गई। दो-तीन दिन पहले सुनील सोनी भी वहां गए थे। इसी बीच खबर आई कि सुनील सोनी का पीएसओ भी कोरोना पॉजिटिव हो गया है। पीएसओ भी पाण्डेयजी के बंगले में मौजूद था। सुनील सोनी को तो क्वॉरंटीन होना पड़ा, इससे पहले कोरोना संक्रमण का खतरा बढ़े, पाण्डेयजी ने बैठक बंद कर दी और भिलाई घर चले गए।
पीएचक्यू में हडक़म्प
राजधानी रायपुर में पुराने पीएचक्यू की एक इमारत में तीन आला अफसर बैठते हैं। डीजीपी डी.एम. अवस्थी का तो नया रायपुर में पुलिस मुख्यालय है ही, लेकिन वे शहर के लोगों से मिलने की सहूलियत में पुराने पीएचक्यू में एक दफ्तर रखे हुए हैं। इसी इमारत में नक्सल-ऑपरेशन और नक्सल-इंटेलीजेंस के एडीजी अशोक जुनेजा भी बैठते हैं, और उनका खासा बड़ा स्टाफ है। इसी बिल्डिंग में तीसरा दफ्तर पुलिस हाऊसिंग कॉर्पोरेशन का है जिसके प्रभारी एक और एडीजी पवन देव हैं। अब इस इमारत में एक साथ 9 कोरोना पॉजिटिव मिलने से इन तीनों में तो हड़बड़ी हो ही गई, कुछ दूसरे आला अफसरों में भी हड़बड़ी हो गई। एक और स्पेशल डीजी आर.के.विज भी बैठकों में नक्सल शाखा के लोगों के साथ उठते-बैठते आए हैं, और कल वे भी कोरोना जांच कराने के लिए गए। दोनों पीएचक्यू के बीच लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है। इसी इमारत के ठीक सामने एक दूसरे इमारत इंटेलीजेंस की है जिसमें रायपुर आईजी आनंद छाबड़ा बैठते हैं। इन दोनों इमारतों में लोगों का आना-जाना लगे रहता है। अब काफी बड़ी संख्या में लोग अभी कोरोना पॉजिटिव मिले लोगों के संपर्क में आए हैं। खासकर चाय-काफी पीने-पिलाने और पानी पीने-पिलाने वाले लोग जब पॉजिटिव निकलते हैं, तो इन पीने वाले लोगों में कौन सुरक्षित हो सकते हैं?
ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि किन लोगों की शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम या अधिक होती है? सिगरेट या शराब से, या अधिक वजन और किसी बीमारी से खतरा बढ़ भी जाता है, और सब तो अपने आपको तौलने की जरूरत भी रहती है। खैर, पुराने पीएचक्यू में पौन दर्जन कोरोना पॉजिटिव मिलने के बाद नए पीएचक्यू में भी कल हडक़म्प रहा, और पूरी इमारत को सेनेटाइज करने का काम चलता रहा।
अब पुलिस अफसरों का काम बिना मिलेजुले तो चल नहीं सकता है, ऐसे में खतरे को एक सीमा तक ही टाला जा सकता है। जो लोग चाय-पानी के चक्कर में नहीं रहते, वे खतरे से थोड़ा सा बच भी सकते हैं। और यह बात सिर्फ पुलिस पर लागू नहीं होती है, सभी पर लागू होती है। शिष्टाचार न निभाएं तो बेहतर।
जिम बंद होने से...
प्रदेश में बहुत से अफसर और बहुत से डॉक्टर कसरत करने के बड़े शौकीन हैं। कुछ डॉक्टर तो 25-50 किलोमीटर साइकिल चलाते हैं, और कई बड़े पुलिस अफसर सोशल मीडिया पर अपनी असंभव किस्म की कसरत के वीडियो पोस्ट करके दूसरों को चुनौती देते रहते हैं। इनमें से जिम में जाकर कसरत करने के शौकीन लोगों के सामने अभी थोड़ी सी दिक्कत आ गई है क्योंकि पूरे प्रदेश में जिम बंद कर दिए गए हैं। अब अगर ये अघोषित रूप से किसी जिम में जा भी रहे हों, तो कम से कम वहां के वीडियो तो पोस्ट नहीं कर सकते। ऐसे में बगीचे में घास पर की गई कसरत, या सडक़ों पर चलाई गई साइकिल की तस्वीरों से ही लोगों को सब्र करना पड़ रहा है।
कुछ बनने के पहले विरोध...
सरकार में निगम-मंडल में नियुक्तियां जल्द होने वाली है। इस पर मंथन हो चुका है। इसी बीच यह खबर उड़ी कि राजनांदगांव के एक पूर्व मेयर को निगम-मंडल में जगह दी जा सकती है। फिर क्या था पूर्व मेयर के विरोधियों के साथ-साथ पुराने नेता सक्रिय हो गए। शिकायतों का पुलिंदा हाईकमान के साथ-साथ पार्टी के रणनीतिकारों को भेजा जाने लगा। पूर्व मेयर को पद दिए जाने की चर्चाओं के पीछे की वजह भी सामने आने लगी।
सुनते हैं कि पूर्व मेयर ने दूसरे राज्य में हुए चुनाव में एक दिग्गज नेता के कहने पर काफी साधन-संसाधन झोंके थे। यहीं से पार्टी के दिग्गज नेता के साथ पूर्व मेयर का राजनीतिक रिश्ता गहरा हो गया। चूंकि निगम-मंडलों में पद बंटने हैं, ऐसे में अफवाहों के साथ-साथ शिकवा-शिकायतों का दौर चल रहा है। पार्टी 15 साल सत्ता से बाहर रही है, इस दौरान बस्तर से लेकर सरगुजा तक कई आर्थिक रूप से मजबूत नेताओं ने पार्टी के काफी कुछ किया है। मगर सिर्फ आर्थिक मजबूती को देखकर तो पद नहीं दिया जा सकता। फिलहाल सूची जारी होने से पहले ही पार्टी नेता आपस में ही टकरा रहे हैं।
आखिरकार हटाना पड़ेगा...
आखिरकार स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव ने चिकित्सा शिक्षा संचालक डॉ. एसएल आदिले के खिलाफ ईओडब्ल्यू-एसीबी को अभियोजन स्वीकृति दे दी है। इसके बाद ईओडब्ल्यू-एसीबी जल्द ही डॉ. आदिले के खिलाफ मेडिकल कॉलेज में भर्ती घोटाला मामले में चालान पेश कर सकती है। डॉ. आदिले पर गिरफ्तारी की तलवार अटक रही है। खास बात यह है कि कुछ माह पहले ही डॉ. आदिले को संविदा नियुक्ति दी गई थी। इसकी काफी आलोचना भी हुई। कांग्रेस के चिकित्सा प्रकोष्ठ के अध्यक्ष डॉ. राकेश गुप्ता ने तो इसकी शिकायत राज्यपाल और सीएम से भी की थी। तब स्वास्थ्य अफसरों ने दबी जुबान में यह कहा कि कोरोना फैलाव को रोकने के लिए शीर्ष अधिकारियों की कमी को देखते हुए संविदा नियुक्ति दी गई है। खैर, अब केस चलाने की अनुमति देकर गलतियों को सुधारने की कोशिश हुई है। क्योंकि चालान पेश होते ही आदिले का हटना तय माना जा रहा है।
मिठास लौटने का राज?
खबर है कि टीएस सिंहदेव की बयानबाजी से कांग्रेस हाईकमान खफा है। उन्होंने पहले सीएम हाऊस के पास बेरोजगार युवक की आत्महत्या की कोशिश पर अलग ही अंदाज में शर्मिंदगी दिखाई। फिर टीवी डिबेट में यह कह गए कि यदि अगली फसल से पहले धान के अंतर की पूरी राशि नहीं मिली, तो वे इस्तीफा दे देंगे। फिर क्या था, भाजपा को बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया। और सरकार पर हमले तेज कर दिए। पूर्व सीएम रमन सिंह ने तो सिंहदेव की तारीफों के पुल बांध दिए। इसके बाद कांग्रेस-सरकार के भीतर सिंहदेव के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया।
चर्चा है कि प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया ने इस पूरे मामले की जानकारी ली और फिर बात दस जनपथ तक पहुंचाई। शाम होते-होते सिंहदेव के सुर बदलने लगे। पहले उन्होंने विपक्ष को कोसा फिर पूर्व सीएम रमन सिंह से अपनी घनिष्ठता को नकारा। और फिर एक कदम आगे जाकर पूरे मामले को ठंडा करने की नीयत से सीएम के साथ अपने संबंधों को मधुर बताते हुए जय-वीरू की जोड़़ी बताया। शालीन स्वभाव के सिंहदेव के भूपेश बघेल के लिए शब्दों में इतनी मिठास सरकार बनने के बाद पहली बार सुनने को मिली। इससे पहले जब कांग्रेस विपक्ष में थी, तब सिंहदेव-भूपेश की जोड़ी को जय-वीरू की संज्ञा दी जाती थी। अब 18 महीने बाद सिंहदेव को पुरानी जोड़ी याद आई है, तो कुछ तो बात होगी।
रमन सिंह से लंबा कार्यकाल
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मीडिया विभाग को 20 साल पूरे हो गए हैं। पार्टी संगठन के भीतर मीडिया विभाग का रोल अहम रहता है और वरिष्ठ नेताओं के बीच इसका प्रभार पाने की होड़ मची रहती है। अब तक राजेन्द्र तिवारी, रमेश वल्र्यानी, राजेश बिस्सा और ज्ञानेश शर्मा व शैलेष नितिन त्रिवेदी ही यहां का प्रभार संभालते रहे हैं। मगर सबसे ज्यादा समय मीडिया विभाग में शैलेष नितिन त्रिवेदी का गुजरा है। वे 15 साल से अधिक समय से मीडिया की ही जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।
कभी वे राजेन्द्र तिवारी और रमेश वल्र्यानी जैसे वरिष्ठ नेताओं के मातहत काम करते थे। मगर अब दोनों शैलेष के अधीन काम कर रहे हैं। 80 के दशक में इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे शैलेष पूर्व सीएम अजीत जोगी के बेहद करीबी रहे। बाद में उनके राजनीतिक सलाहकार रहे। नंदकुमार पटेल जब प्रदेश अध्यक्ष बने, तो अन्य दिग्गज नेताओं की दावेदारी को नजर अंदाज कर शैलेष को ही मीडिया विभाग का अध्यक्ष बनाया। शैलेष ने भी उन्हें निराश नहीं किया।
और जब भूपेश बघेल ने पार्टी अध्यक्ष की कमान संभाली तो उन्होंने भी शैलेष पर भरोसा किया। शैलेष के पूर्ववर्ती, पत्रकारों की भूख को रबड़ी और मिक्चर से शांत करने की कोशिश में लगे रहते थे, तो शैलेष खबरों के जरिए पेट भरने की कोशिश करते थे। यही वजह है कि वे बाकियों की तुलना में ज्यादा सफल रहे। ये अलग बात है कि पार्टी के भीतर उन्हें उलाहना देने वालों की कमी नहीं है। फिर भी वे मजबूती से डटे हैं। शैलेश नितिन त्रिवेदी की एक और खूबी है कि वे पार्टी की रीति नीति को बहुत बारीकी से समझते हैं।
पीएचक्यू के बाद आंखें खुली
मंत्रालय में कामकाज शुरू होने के कुछ दिन तक तो कोरोना को लेकर अफसर-कर्मी जागरूक और सतर्क रहे। मगर बाद में बेपरवाह हो गए। अब पुराने पीएचक्यू में एक साथ 9 लोगों के कोरोना पॉजिटिव आने के बाद हड़कंप मचा है और एक बार फिर अफसर-कर्मी सतर्क दिख रहे हैं। सचिव स्तर के अफसर आर प्रसन्ना और सीआर प्रसन्ना के चपरासी भी मास्क लगाए और दस्ताना पहने दिखते हैं। दोनों के यहां के चपरासी बिना दस्ताना पहने फाइल नहीं छू सकते। अब अरण्य भवन में भी कोरोना के चलते अतिरिक्त सतर्कता बरती गई है। हर दो-तीन हफ्ते में ऑफिस टाइम में पूरी बिल्डिंग को सैनिटाइज किया जा रहा है। फिर भी प्रसन्ना जैसी सतर्कता का मंत्रालय और पीएचक्यू में देखने को नहीं मिल रहा है। अब जब पीएचक्यू में कोरोना पॉजिटिव मिले हैं, तो अब जाकर कड़ाई बरती जा रही है।
शुक्ला-टुटेजा का ईडी में बयान जारी..
नान मामले में ईडी राज्य के दो आईएएस अफसर डॉ. आलोक शुक्ला और अनिल टुटेजा के खिलाफ जांच कर रही है। दिल्ली में दोनों के बयान लिए जा रहे हैं। ईडी की जांच कम दिलचस्प नहीं है। नान प्रकरण की ईओडब्ल्यू-एसीबी जांच कर रही है और चालान भी पेश हो गया। ऐसे में मूल एफआईआर दर्ज होने के पांच साल बाद अचानक ईडी भी सक्रिय हो गई और नान की एफआईआर के आधार पर प्रकरण दर्ज कर लिया।
बात यही खत्म नहीं हुई। नान प्रकरण की ईडी की रायपुर ऑफिस जांच कर रही थी और कई लोगों के बयान भी लिए जा चुके थे। तभी अचानक प्रकरण को रायपुर के बजाए दिल्ली ऑफिस ट्रांसफर कर दिया गया। कोरोना के खतरे के बीच दोनों अफसरों को दिल्ली तलब किया गया। दूसरी तरफ, हाईकोर्ट ने आलोक शुक्ला की याचिका पर केन्द्र और ईडी को जवाब तलब किया है।
शुक्ला ने कोर्ट में यह तर्क रखा कि उनके खिलाफ अनुपातहीन संपत्ति का एक भी प्रकरण दर्ज नहीं किया है। सरकार से आज तक कोई नोटिस नहीं मिला है। ऐसे में उन्हें दिल्ली आकर बयान देने के लिए बाध्य किया जा रहा है। जबकि बाकियों की तरह उनका भी रायपुर में ही बयान लिया जा सकता था। आलोक शुक्ला ने पूरी जांच को अधिकारिताविहीन और राजनीतिक विद्वेष से की गई कार्रवाई निरूपित किया है। इस पर कोर्ट का फैसला चाहे जो भी हो, मगर यह मामला राजनीतिक रंग ले चुका है। भाजपा ने पहले ही आलोक शुक्ला की संविदा नियुक्ति को हाईकोर्ट में चुनौती दे रखी है।
सुनते हैं कि भाजपा के लोगों को समस्या यह है कि सरकार नान डायरी की एसआईटी जांच करा रही है। अब डायरी में उल्लेखित लेनदेन की जांच होगी, तो पिछले सरकार के पावरफुल लोगों पर आंच आना तय है। ऐसे में मौजूदा सरकार में पावरफुल अफसरों के खिलाफ ईडी की सक्रियता को राजनीतिक नजरिए से देखा जा रहा है। आज राजनितिक अविश्वास इतना अधिक है, कि केंद्र और राज्य की किसी भी जांच एजेंसी की कार्रवाई को बिना शक देखा ही नहीं जाता।
संवेदनशील अर्जी
छत्तीसगढ़ सरकार के गोबर खरीदने के फैसले से गरीब लोगों में खुशी है कि गोबर इक_ा करके वे कुछ कमाई कर सकेंगे। गाय पालने वाले लोग भी खुश हैं, और आरएसएस के लोग भी कि कोई तो सरकार है जो गाय को महत्व दे रही है।
लेकिन जानवरों और गोबर की जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि गाय और भैंस के गोबर में कोई फर्क नहीं किया जा सकता, और जब सरकार खरीदेगी तो भैंस का गोबर भी साथ-साथ जाएगा ही। यह अलग बात है कि इस नाम को सम्मान देने के लिए भाषा में उसे गाय के साथ जोड़कर गोबर कहा जाता है।
लेकिन बोलचाल से लेकर धार्मिक भावनाओं तक गोवंश के लिए अलग जगह है, और भैंसवंश के लिए बिल्कुल अलग। देश के कुछ प्रदेशों में तो देवी के मंदिरों में भैंसों की बलि भी चढ़ती है, दूसरी तरफ गाय को लेकर भावनाएं बिल्कुल अलग रहती हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश के रीवां की एक पुलिस बटालियन से एक दिलचस्प चि_ी सामने आई है। एक पुलिस ड्राइवर ने 6 दिन की सीएल की अर्जी दी है कि उसकी मां की तबियत ठीक नहीं है, और घर पर एक भैंस है जिसने हाल ही में बच्चा दिया है, और उसकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है। उसने लिखा है कि आवेदक इस भैंस से बहुत प्यार करता है, और उसी भैंस का दूध पीकर भर्ती की दौड़ की तैयारी करता था, जीवन में उस भैंस का महत्वपूर्ण स्थान है, उस भैंस के कारण ही आज पुलिस में भर्ती है, एवं उस भैंस ने प्रार्थी के अच्छे-बुरे समय में साथ दिया है। अत: प्रार्थी का भी फर्ज बनता है कि ऐसे समय में उसकी देखभाल करे।
गाय के प्रति, और सिर्फ गाय के प्रति भावनाओं से भरे हुए इस देश में भैंस के प्रति ऐसी भावना देखने लायक है। और ऐसी भावनाओं को देखते हुए उसे छुट्टी जरूर मिल गई होगी। और इस अर्जी को पढ़कर बाकी लोगों को भी यह नसीहत मिल सकती है कि जिन जानवरों से इंसानों को मदद मिलती है, उनकी कैसी सेवा करनी चाहिए।
आज जन्मतिथि वालों को बधाई
आज पहली जुलाई को बहुत से प्रदेशों में स्कूलें शुरू हुआ करती थीं। बाद में पता नहीं 15 जून से खुलने लगीं, और सारा कैलेंडर गड़बड़ा गया। एक वक्त था जब घरों में बहुत बच्चे होते थे, परिवार संयुक्त रहते थे, और बहुत से बच्चों का स्कूलों में दाखिला करवाना रहता था। दाखिले के वक्त बच्चों के हाथ सिर के ऊपर से घुमाकर देखा जाता था कि वे कान छू पा रहे हैं या नहीं, उसे स्कूल में दाखिले की उम्र मान लिया जाता था। इसके बाद तारीख लिखानी पड़ती थी, तो बहुत से मां-बाप 30 जून या 1 जुलाई लिखा देते थे ताकि दाखिले के वक्त जरूरी उम्र पूरी हो चुकी दिखे। इस तरह बहुत से परिवार ऐसे थे जहां के हर बच्चे की दर्ज जन्मतिथि 30 जून या 1 जुलाई ही है। आज सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों ने एक-दूसरे को बधाई लिखी है कि जिनके मां-बाप ने उनकी जन्मतिथि आज की लिखाई हो, उन सबको बधाई। बहुत पहले जन्म प्रमाणपत्र जैसा तो कुछ होता नहीं था, और स्कूल में जो कहा जाए उसे सिर के ऊपर से हाथ मुड़वाकर देखकर मान लिया जाता था।
फीस ही फीस...
निजी सलाहकार कंपनी अर्न्स्ट एण्ड यंग को भारी भरकम भुगतान पर सवाल उठ रहे हैं। पिछली सरकार ने टेंडर बुलाकर अर्न्स्ट एण्ड यंग को सरकारी योजनाओं पर सलाह देने के लिए नियुक्त किया था। कंपनी पर राज्य में निवेश लाने का दायित्व भी है। मगर जब से कंपनी ने काम शुरू किया है, प्रदेश से बाहर की एक भी कंपनी ने निवेश नहीं किया है। अलबत्ता, कंपनी को हर माह करीब 55 लाख रूपए का भुगतान हो रहा है। सालभर पहले अर्न्स्ट एण्ड यंग का अनुबंध खत्म करने की पहल भी हुई थी। कई सलाहकारों की छुट्टी भी की गई मगर इस कंपनी पर आंच नहीं आई। अब जब कौड़ी का काम रह गया है, तो भारी भरकम भुगतान पर सवाल उठना लाजमी है।
शादी सादगी से करने की मजबूरी
लॉकडाउन के सख्त नियमों के चलते नामी लोगों के यहां की शादियां बिना बाजे-गाजे के सादगी से निपट रही हैं। ये चाहकर भी ज्यादा लोगों को नहीं बुला पा रहे हैं। पिछले दिनों केन्द्रीय मंत्री रेणुका सिंह की बेटी की शादी भी चुनिंदा लोगों के बीच संपन्न हो गई। रेणुका सिंह की बेटी, सहकारिता अफसर पूर्णिमा सिंह, का रिश्ता बिलासपुर के जसवीर सिंह के साथ तीन-चार महीने पहले तय हुआ था। जसवीर भी एकाउंट अफसर हैं।
रेणुका के परिवार की यह पहली शादी थी। लिहाजा, शादी तय करते वक्त दोनों परिवारों को उम्मीद थी कि कोरोना का दौर जल्द ही खत्म हो जाएगा। तब से धूमधाम से शादी की योजना थी और इसकी तैयारी भी चल रही थी। चूंकि रेणुका प्रदेश से केन्द्र में अकेली मंत्री हैं, और उनका संपर्क भी अच्छा खासा है। ऐसे में स्वाभाविक था कि प्रदेशभर से भाजपा-कांग्रेस के नेताओं के अलावा समर्थक शादी में पहुंचते।
मगर देश-प्रदेश में कोरोना का प्रकोप थम नहीं रहा है। इससे बचने के लिए सामाजिक दूरी जरूरी है। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकार ने शादी और अन्य समारोहों के लिए गाईडलाइन जारी की हैं। इसमें यह साफ है कि शादी में दोनों परिवारों को मिलाकर सौ से अधिक लोग शामिल नहीं हो सकते हैं। ऐसे में रेणुका को अपनी लाडली की शादी परिवार के सदस्यों और कुछ करीबी लोगों की मौजूदगी में ही करनी पड़ी। बिलासपुर के एक होटल में आयोजित इस समारोह में पार्टी के नेताओं में सिर्फ तीन प्रमुख नेता, धरमलाल कौशिक, अमर अग्रवाल और पुन्नूलाल मोहिले, ही मौजूद थे।
चर्चाएं कोरोना की तरह...
पिछली सरकार के जो खास अफसर इस सरकार के निशाने पर हैं, उन्हें लेकर अफवाहें कभी कम नहीं होतीं। कब राज्य के कौन से अफसर इन अफसरों से दिल्ली में मिले, यह सुगबुगाहट चलती ही रहती है, इसके अलावा हर कुछ हफ्तों में यह अफवाह भी सामने आती है कि दिल्ली में बसे इन चर्चित अफसरों में से कौन-कौन छत्तीसगढ़ आकर किस-किस अफसर से मिलकर गए। लोग दिन और तारीख, समय और फॉर्महाऊस सभी के साथ जमकर दावा करते हैं, लेकिन कोई भी बात कभी साबित नहीं हो पाई है। इस बीच इतना जरूर हुआ है कि छत्तीसगढ़ में बड़े अफसर, बड़े नेता, और मीडिया में जो लोग अपने को बड़ा या महत्वपूर्ण मानते हैं, वे सब सिमकार्ड वाले फोन पर कॉल करना कम कर चुके हैं, या बंद कर चुके हैं। कुछ समय पहले तक लोग वॉट्सऐप पर बात कर लेते थे, लेकिन अब उससे परे के सिग्नल और टेलीग्राम जैसे मैसेंजर पर कॉल करते हैं। राज्य सरकार और केन्द्र सरकार, दोनों की एजेंसियों पर लोगों का शक रहता है, और जब सरकार पर बैठे हुए बड़े-बड़े ताकतवर लोग वॉट्सऐप पर भी बात करना नहीं चाहते, और जोर देकर किसी एक कंपनी के मोबाइल फोन के एक एप्लीकेशन पर जोर देते हैं, तो लोगों को लगता है कि सचमुच ही खतरा बड़ा है। लेकिन यह खतरा और लोगों की आवाजाही की अफवाहें कोरोना की तरह अदृश्य हैं, जिनकी दहशत बहुत है, लेकिन कन्फर्म कुछ भी नहीं है।
दिल के बहलाने को खयाल...
भारत सरकार ने चीनी कंपनियों के बनाए हुए 59 मोबाइल एप बंद कर दिए, तो चीन के खिलाफ फतवे देने वाले लोगों को बड़ी खुशी हुई, और लोगों ने एक-दूसरे को बधाई देना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया पर कुछ इस तरह का माहौल बन गया है कि मानो 59 सिरों वाले रावण को मार डाला गया है। बहुत से लोगों ने नेहरू को भी याद किया कि नेहरू ने कभी ऐसा हौसला नहीं दिखाया। ऐसा लिखने वाले लोग इस बात को भूल गए कि नेहरू 1964 में गुजर चुके थे, और उस वक्त चीन के साथ कोई कारोबारी रिश्ते भी नहीं थे, और कम से कम उस वक्त का हिन्दुस्तानी बाजार और कारोबार चीन के उस किस्म के चंगुल में नहीं था, जैसा कि आज है। आज भारत की दवा कंपनियों ने केन्द्र सरकार से गुहार लगाई है कि अगर उनका कच्चा माल चीन से आने में इसी तरह का अड़ंगा लगते रहा, तो वे दुनिया के दूसरे देशों से उन्हें मिले दवा के ऑर्डर समय पर पूरे नहीं कर सकेंगे। हिन्दुस्तान का जो असली कारोबार है, वह चीन के कच्चे माल, और चीन के पुर्जों पर टिका हुआ है। वहां से खरीदते कम हैं, उसमें जोडक़र उसे कई गुना अधिक दाम का सामान बनाया जाता है। एक चीनी को भूखा मारने के पहले चार हिन्दुस्तानी भूखे मरेंगे, तो जाकर चीन का बहिष्कार हो पाएगा। मोबाइल एप के बहिष्कार से चीन का तो कुछ नहीं जा रहा, हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों को यह मानसिक संतुष्टि मिल रही है कि उन्होंने दुश्मन को निपटा दिया। अब मानसिक संतुष्टि तो और भी कई किस्म के नशे से मिल सकती है। अपनी-अपनी पसंद की बात है। चीन के प्रतीक के रूप में ड्रैगन नाम के एक आग उगलते अजगर किस्म के प्राणी को दिखाया जाता है? हिन्दुस्तानी बहिष्कार अब तक लपटें उगलते इस ड्रैगन पर पानी की एक बूंद भी नहीं है कि जिससे ड्रैगन की मुंह की लपटें ठंडी हो जाएं।
हर चीज ताले में रखने जरूरत
स्टेट बैंक ने अपने एटीएम में सेनेटाइजर की शीशी को एक ताले वाले बक्से में रखा है, और बाहर सिर्फ उसकी टोंटी है जिससे सेनेटाइजर निकाला जा सकता है। बिलासपुर के आईजी दीपांशु काबरा ने इस तस्वीर को पोस्ट करते हुए लिखा कि क्या अपने ही नागरिकों से 50 रूपए की बोतल की हिफाजत नहीं हो सकती? तो ऐसे में प्रगति कैसे होगी? उन्होंने सवाल उठाया कि क्या हमें हमारी हिफाजत के नियम मानने के लिए भी लगातार किसी की चौकीदारी की जरूरत है? क्यों यह अनुशासन खुद होकर नहीं आता? इस पर लोगों ने उनसे असहमति भी जताई और एक ने तो नमूने के रूप में एक एटीएम के भीतर छत पर लगे सुरक्षा कैमरे की रिकॉर्डिंग भी पोस्ट की है जिसमें एक व्यक्ति भीतर आता है, सेनेटाइजर की बोतल से हाथ पर निकालकर हाथ साफ करता है, फिर दाएं-बाएं देखकर बोतल को जेब में रखता है, एटीएम का कोई इस्तेमाल नहीं करता, कचरे की टोकरी में थूकता है, और निकल जाता है।
जब लोगों का हाल जरा-जरा सी बात पर इतना खराब है, तो सार्वजनिक सुविधाओं को सुरक्षित कैसे रखा जा सकता है? लोग ट्रेन के पखाने से 25-50 रूपए दाम वाला स्टील का मग्गा चुराने के लिए चेन तक तोडक़र उसे ले जाते हैं। सीट के गद्दे पर से कवर को काटकर ले जाते हैं, और उससे झोले सिलवा लेते हैं। जब लोग की नीयत इतनी खराब हो तो एटीएम में बिना ताले के सेनेटाइजर कैसे रखा जाए?
लेकिन यह बात सिर्फ गरीबों तक सीमित नहीं है। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और लोगों को टीवी, वीसीआर, या कम्प्यूटर जैसे कई सामान विदेश से लौटते हुए बिना कस्टम ड्यूटी लाने की छूट दी गई थी, तब भारत के बहुत से कारोबारियों ने इसे धंधा बना लिया था कि वे हर कुछ हफ्तों में सिंगापुर चले जाते थे, और लौटते में ये सामान ले आते थे। लेकिन यही लोग प्लेन के बाथरूम में रखा गया लिक्विड सोप, यूडी कोलोन, जैसी बोतलों को जेब में भरने के लिए प्लेन में चढ़ते ही बाथरूम की दौड़ लगाते थे। यह हाल देखकर एयरलाईंस ने बोतलों के ढक्कन हटाकर उन्हें रखना शुरू किया। लेकिन हिन्दुस्तानी दिमाग ने आवश्यकता से तुरंत ही आविष्कार को जन्म दे दिया, पिछली बार लाई हुई बोतलों के ढक्कन लेकर लोग जाने लगे, और बाथरूम में घुसते ही बोतलों पर ढक्कन लगाकर उन्हें जेब में रखकर निकलने लगे।
अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में जब मुफ्त की शराब बंटती है, तो महंगे मुसाफिरों के बीच भी उसकी छोटी-छोटी बोतलों के लिए जो छीनाझपटी होती है, उसके सामने छत्तीसगढ़ की शराब दुकानों पर होने वाली धक्का-मुक्की भी फीकी पड़ जाती है। अभी कुछ ही महीने हुए हैं जब सोशल मीडिया पर सिंगापुर या मलेशिया जैसे किसी देश का एक वीडियो आया जिसमें एक हिन्दुस्तानी परिवार ने होटल छोडऩे के पहले उस होटल के कमरे से हर सामान को अपने सूटकेस-बैग में भर लिया था, और होटल वालों ने शक होने पर जब उनका सामान गाड़ी से उतरवाकर तलाशी ली, जो जमीन इन सामानों से पट गई थी, परिवार की शर्मिंदगी देखने लायक थी।
आज एटीएम से सेनेटाइजर को उठाकर ले आना कोई बड़ी बात नहीं रहेगी, लोग किसी कॉफीशॉप या किसी रेस्त्रां में लाकर रखे गए शक्कर के पैकेट, या शुगरफ्री के सैशे बेधडक़ जेब में रखकर ले आते हैं। ऐसे देश में सेहत की हिफाजत के लिए रखे गए सामानों के बस ईश्वर ही मालिक हो सकते हैं।
पीए को लेकर दुविधा
सरकार के एक मंत्री की पैंतरेबाजी से उनके पीए परेशान हैं। मंत्रीजी के पीए को सरकारी नौकरी में आए महज तीन-चार साल ही हुए हैं, लेकिन मंत्री के स्टॉफ में आते ही जिस तेज रफ्तार से बैटिंग कर रहे हैं, उससे कई बार मंत्रीजी भी असहज हो जाते हैं। मंत्रीजी ने तीन-चार बार अपने निजी स्टॉफ में नए पीए की पोस्टिंग के लिए नोटशीट भी चलाई थी, लेकिन तकनीकी कारणों से बात आगे नहीं बढ़ पाई।
जीएडी ने मंत्रीजी के प्रस्ताव के अनुरूप पुराने पीए को मूल विभाग में भेजकर नए पीए की पोस्टिंग के लिए फाइल चलाई, तो मंत्रीजी का अलग ही रूख सामने आ गया। मंत्रीजी ने प्रस्ताव रखा कि पुराने को हटाया न जाए, बल्कि स्टॉफ में एक और की पदस्थापना कर दी जाए। निजी स्टॉफ के लिए नियम तय है, उससे अधिक की पदस्थापना नहीं हो सकती है। ऐसे में नए अफसर की पोस्टिंग नहीं हो पा रही है, लेकिन मंत्रीजी की नोटशीट की भनक मिलने के बाद पीए परेशान हैं। उसे अपने साम्राज्य पर खतरा महसूस हो रहा है, और मंत्रीजी हैं कि दुधारू गाय को छोडऩा भी नहीं चाहते।
आरएसएस भूपेश से खुश !
वैसे तो सीएम भूपेश बघेल आरएसएस-परिवार के घोर आलोचक हैं, मगर जिस तरह भूपेश सरकार ने गांवों और गौवंश के संवर्धन के लिए योजनाएं चलाई हैं , उसकी आरएसएस ने जमकर तारीफ की है। ऐसी तारीफ आरएसएस ने शायद ही कभी रमन सरकार की हो।अजय चंद्राकर और भाजपा के प्रवक्ता सरकार की गोबर योजना पर कटाक्ष कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ आरएसएस के बड़े पदाधिकारी बिरसाराम यादव ने न सिर्फ खुले तौर पर योजना को सराहा बल्कि इसे ऐतिहासिक करार दिया।
आरएसएस पदाधिकारियों का मानना है कि इस योजना से गौ-पालकों को रोजगार मिलेगा। आरएसएस की भूपेश सरकार की तारीफ से भाजपा में हलचल मच गई है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरएसएस के ज्यादातर पदाधिकारी पिछली भाजपा सरकार के कामकाज से नाखुश रहे हैं। कुछ समय पहले भोपाल के एक कार्यक्रम में तो मोहन भागवत ने भाजपा सरकार के रहते बस्तर में बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण पर हैरानी भी जताई थी। अब जब आरएसएस के लोग कांग्रेस सरकार की तारीफ कर रहे हैं, तो भाजपा में खलबली मचना स्वाभाविक है।
भ्रष्ट की पकड़ और पहुंच
जो अफसर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बावजूद ऊंचे पद पर बैठे होते हैं, वे चालाक और बेहद सतर्क भी रहते हैं। ये अफसर न सिर्फ अपने मंत्री बल्कि उनके निजी स्टॉफ को भी खुश कर चलते हैं। ऐसे अफसरों के खिलाफ कार्रवाई तो दूर, शिकायत करना भी आसान नहीं रहता है।
चालाक अफसर तकरीबन हर डिपार्टमेंट में हैं। ऐसा ही एक प्रकरण हेल्थ डिपार्टमेंट का है। यहां एक बड़े अफसर के खिलाफ कई तरह की जांच चल रही है। अफसर पर गिरफ्तारी की भी तलवार अटक रही है। मगर चर्चा है कि मंत्री के स्टॉफ के वरदहस्त के चलते अफसर का कुछ बिगड़ नहीं पा रहा है। यद्यपि हेल्थ मिनिस्टर टीएस सिंहदेव की पहचान एक भले नेता की है, लेकिन कई बार वे भी चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। उन तक कई बार कोई गंभीर बात पहुंच नहीं पाती है।
पिछले दिनों अफसर के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा लेकर कुछ कर्मचारी नेता हेल्थ मिनिस्टर के पास पहुंचे, वे शिकायतों का पुलिंदा सौंपने वाले थे कि इससे पहले ही अफसर का फोन कर्मचारी नेताओं के पास आ गया। मगर अफसर से परेशान हो चुके कर्मचारी नेताओं ने हेल्थ मिनिस्टर को शिकायत कर ही दी और साथ ही उनके स्टॉफ का हाल भी बता दिया कि किस तरह उनके शिकायत करने के पहले ही अफसर को इसकी जानकारी हो गई। सिंहदेव ने इन शिकायतों को गंभीरता से लिया है। देखना है अब आगे क्या होता है।
इस फेहरिस्त में जल्द ही
खबर है कि कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ईडी के निशाने पर हैं। नेताजी सक्रिय राजनीति में आने से पहले नौकरशाह थे। तब के एक बड़े घोटाले में उनकी संलिप्तता की चर्चा रही है। वैसे तो प्रकरण की सीबीआई जांच कर रही है, लेकिन हाई प्रोफाइल प्रकरण होने के साथ-साथ जांच आहिस्ता-आहिस्ता चलते रही। यद्यपि जांच अभी तक किसी किनारे नहीं पहुंच पाई है।
नेताजी के मोदी सरकार के खिलाफ तीखे तेवर रहे हैं। अब उन्हें आक्रामक तेवर का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। चर्चा है कि घोटाले के पुराने प्रकरण की जांच में अब ईडी भी कूद सकती है। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता पी चिदम्बरम, अहमद पटेल पहले ही ईडी की जांच झेल रही हैं। इस फेहरिस्त में जल्द ही प्रदेश संगठन जुड़े इस दिग्गज का नाम भी आ जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
पुलिस में गुमनाम चिट्ठी
कई बार कोई गुमनाम चिट्ठी सर्कुेलेशन में आती है उसके बाद लोग अटकलें लगाते हैं कि लिखने वाले कौन होंगे। छत्तीसगढ़ के पुलिस महकमे के सबसे बड़े अफसरों में से एक के बारे में ऐसी चिट्ठी घूम रही है, लेकिन जहां चिट्ठी नहीं पहुंची है, वहां भी उसकी चर्चा पहले पहुंच गई है। जिनके पास चि है उनके मुताबिक इसे ठीक-ठाक अंग्रेजी में लिखा गया है, और इसमें एक बड़े अफसर पर बुरी तोहमतें लगाई गई हैं।
गुमनाम चिट्ठी की तोहमत को अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बेहतर इंग्लिश से शक का दायरा बड़ा छोटा हो गया है कि इसेे किसने लिखा होगा। गिने-चुने नाम सामने आ रहे हैं, और बड़ी अटकल इस बात पर लग रही है कि यह अकेले लिखा गया है या मिलकर लिखा गया है? मिलकर लिखा गया है तो इसमें कौन-कौन शामिल होंगे? वक्त ऐसा आ गया है कि तोहमतों की चर्चा नहीं, उन्हें लगाने वाले गुमनाम चेहरों की ही अधिक चर्चा है। ([email protected])
रमेश बैस की सिफारिश
खबर है कि भाजपा हाईकमान ने प्रदेश में पदाधिकारियों की संख्या बढ़ाने के प्रस्ताव पर सहमति दे दी है। वैसे तो राष्ट्रीय परिषद में अनुमोदन के बाद ही पदों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। मगर हाईकमान तदर्थ रूप से इसकी अनुमति दे सकता है। सभी धड़ों के नेताओं को एडजस्ट करने की योजना बनाई गई है। अगले दो-तीन दिनों में जिलाध्यक्षों की भी नियुक्ति होनी है। विवादों के कारण 11 जिलाध्यक्षों की नियुक्ति रोक दी गई थी।
विष्णुदेव साय के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद यह तकरीबन साफ हो गया है कि दुर्ग जिले में सरोज पाण्डेय की पसंद पर मुहर लग सकती है। रायपुर शहर में चाहे जो भी अध्यक्ष बने, लेकिन रायपुर ग्रामीण में पूर्व केन्द्रीय मंत्री रमेश बैस की सिफारिश को ही महत्व मिलने की उम्मीद ज्यादा है। बैस प्रदेश के अकेले भाजपा नेता हैं, जो कि संवैधानिक पद पर हैं। ऐसे में उनकी सिफारिश को अनदेखा करना पार्टी के रणनीतिकारों को ही मुश्किल हो रहा है।
कितना बहिष्कार होगा चीनी का?
कोरोना संक्रमण के बीच चीनी वस्तुओं की बिक्री के खिलाफ अभियान चल रहा है। भाजपा और स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े लोग चीनी वस्तुओं को छोडक़र स्वदेशी अपनाने पर जोर दे रहे हैं। सरहद पर तनाव से पहले चीनी वस्तुओं के खिलाफ इतना माहौल नहीं था। और तो और प्रदेश भाजपा दफ्तर कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में भी फर्नीचर चीन की लगी है।
चर्चा है कि फर्नीचर पसंद करने पार्टी के दो नेता चीन भी गए थे। वैसे भी कुशाभाऊ ठाकरे परिसर के निर्माण में कितना खर्चा आया है, यह कभी खुले तौर पर सामने नहीं आई। यहां का हिसाब-किताब कुछ प्रमुख लोगों तक ही सीमित रहा है। ऐसे में चीनी वस्तुओं के खिलाफ अभियान चल रहा है, तो पार्टी के भीतर दबी जुबान में चीनी फर्नीचर को लेकर चर्चा भी हो रही है।
लेन-देन का झगड़ा
कांग्रेस के एक नए नवेले विधायक से उनके पुराने मित्र काफी खफा हैं। विधायक चिकित्सा पेशे से जुड़े हुए हैं। उन्होंने अपने साथी चिकित्सकों के साथ मिलकर एक बड़ा अस्पताल भी बनवाया। अस्पताल भी ठीक ठाक चल रहा था कि कांग्रेस की टिकट भी मिल गई। माहौल अनुकूल था इसलिए विधायक भी बन गए। चूंकि चुनाव में काफी खर्च हुआ था। इसका हिसाब-किताब भी अब जाकर हुआ है। साथियों ने मिलकर करीब डेढ़ सीआर खर्च किए थे, इसको लौटाने के लिए साथियों ने दबाव बनाया है, लेकिन विधायक महोदय ने इस पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसे में साथियों की नाराजगी स्वाभाविक है। कुछ नजदीकी लोग मानते हैं कि जल्द विवाद नहीं सुलझा, तो देर सवेर लेन-देन का झगड़ा सार्वजनिक हो सकता है।
कौन बनेगा आईएएस?
सरकार ने गैर प्रशासनिक सेवा (अन्य सेवा) से आईएएस अवॉर्ड के लिए आवेदन की तिथि बढ़ा दी है। अब 30 तारीख तक अलग-अलग विभागों के डिप्टी कलेक्टर के समकक्ष वेतनमान वाले अफसर आवेदन कर सकेंगे। वैसे तो अन्य सेवा से सिर्फ एक ही अफसर को आईएएस बनने का मौका मिल पाएगा। मगर ज्यादातर विभागों के ताकतवर अफसर आईएएस अवॉर्ड के लिए जोड़-तोड़ कर रहे हैं।
अन्य सेवा से आईएएस अवॉर्ड का अब तक का इतिहास बताता है कि अफसर में अन्य योग्यताओं के साथ-साथ राजनीतिक संपर्क भी जरूरी है। अविभाजित मप्र में अन्य सेवा से उद्योग या फिर जनसंपर्क विभाग के अफसर को ही आईएएस बनने का मौका मिला था। तब अन्य सेवा से आईएएस बनने वालों में एमए खान, एसके मिश्रा, वसीम अहमद और राकेश श्रीवास्तव थे। इनमें वसीम अहमद को छोडक़र बाकी सभी अफसर उद्योग विभाग के थे। छत्तीसगढ़ बनने के बाद आलोक अवस्थी जनसंपर्क, शारदा वर्मा आदिमजाति कल्याण विभाग और उद्योग विभाग के अनुराग पांडे को आईएएस अवॉर्ड हुआ।
आलोक अवस्थी के रिटायर होने के बाद अन्य सेवा से आईएएस अवॉर्ड के लिए पद खाली हुआ है। सुनते हैं कि अब तक उद्योग, वाणिज्यिक कर(जीएसटी) सहित अन्य विभागों से दर्जनभर अफसरों के नाम जीएडी पहुंच चुके हैं। पहले एक पद के लिए पांच नाम तय किए जाते थे और फिर यूपीएससी चेयरमैन अथवा सदस्य की अध्यक्षता वाली कमेटी चयनित अभ्यार्थियों का इंटरव्यू लेकर एक नाम पर मुहर लगाती थी। अब चयन प्रक्रिया थोड़ी बदल गई है।
चयन समिति एक रिक्त पद के लिए सिर्फ दो का ही इंटरव्यू लेगी। सीएस की अध्यक्षता में गठित कमेटी अन्य विभागों से आए नामों में से अंतिम रूप से दो नाम छांटने के लिए जुलाई के पहले हफ्ते में बैठक कर सकती है। प्रशासनिक हल्कों में जिन दो अफसरों को आईएएस अवॉर्ड के लिए मजबूत दावेदार माना जा रहा है, उनमें संयुक्त कमिश्नर (जीएसटी) गोपाल वर्मा और उद्योग विभाग के एडिशनल डायरेक्टर प्रवीण शुक्ला चर्चा में है।
गोपाल और प्रवीण शुक्ला, दोनों का नाम अपने-अपने विभाग की तरफ से जीएडी को भेजा जा चुका है। गोपाल वर्मा, राजनांदगांव कलेक्टर टोपेश्वर वर्मा के नजदीकी रिश्तेदार हैं, और राजनीतिक पकड़ भी है। सारे समीकरण गोपाल के पक्ष में दिख रहे हैं। प्रवीण भी किसी से कम नहीं हैं, वे सीएम भूपेश बघेल के ओएसडी रह चुके हैं। मगर बाद में सीएम ने उन्हें हटा दिया था। यही एक वजह है,जो उनकी स्थिति को कमजोर बनाती है। इसके अलावा कृषि और अन्य विभाग से आर्थिक रूप से ताकतवर अफसर भी जोर आजमाइश कर रहे हैं। देखना है कि इंटरव्यू बोर्ड तक पहुंचने में किन दो अफसरों को सफलता मिल पाती है।
कोरोना के चलते आत्महत्याएं
पाकिस्तान की खबर है कि कुछ हफ्ते पहले वहां के मुसाफिर विमान क्रैश हुआ था, और दर्जनों लोग मारे गए थे, उसमें तकनीकी खामी नहीं थी बल्कि दोनों पायलट पूरे वक्त कोरोना की दहशत की बातें कर रहे थे, और उनके दिमाग पर उसी का तनाव हावी था। अब कोरोना की दहशत का लोगों को अंदाज नहीं लग रहा है। देश में दर्जनों आत्महत्याएं हो चुकी हैं जो सीधे-सीधे कोरोना से जुड़ी हुई हैं। कहीं क्वारंटीन सेंटर में रहते हुए, तो कहीं आइसोलेशन में रहते हुए लोग खुदकुशी कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में ऐसी आत्महत्याएं हुई हैं।
अभी कुछ दिन पहले हरिद्वार के शांतिकुंज में गायत्री परिवार के एक बहुत पुराने अनुयायी और वहां नियमित काम करने वाले एक शादीशुदा आदमी ने खुदकुशी कर ली। यहां पर यह बात खबर इसलिए बनी कि मृतक छत्तीसगढ़ का रहने वाला था। खुदकुशी की खबर में वजन नहीं आएगी, लेकिन गायत्री परिवार को एक वरिष्ठ सदस्य ने बताया कि वहां रात-दिन लोगों का रेला लगे रहता था, और गायत्री परिवार के ये सदस्य रोज बहुत से लोगों के संपर्क में आते थे, अब लोगों की आवाजाही बंद होने से वे मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) की स्थिति में आ गए थे, और उसी के चलते उन्होंने आत्महत्या की। आत्महत्या रोकने में लगे जानकार लोग बताते हैं कि आसपास लोगों को देखते रहना चाहिए, और कोई बहुत निराशा में, बहुत दहशत में दिखें, तो उनका हौसला बढ़ाना चाहिए, उनका साथ देना चाहिए।
श्रवण कुमार-श्रवण कुमारी
जिन लोगों को सरकारी नौकरी, स्कूल-कॉलेज, या निजी दफ्तर के काम से घर से वीडियो कांफ्रेंस करनी पड़ रही है, उन लोगों के बच्चों का जीना हराम है। कम्प्यूटर, इंटरनेट, जूम, स्काईप, या वेबेक्स जैसी चीजों को नई पीढ़ी ज्यादा आसानी से समझती है, और मां-बाप या घर के बुजुर्ग बच्चों को इस काम में जोत देते हैं। एक वक्त था जब वीडियो कैसेट प्लेयर का जमाना था, और वीसीपी या वीसीआर चलाना भी सीखना बड़ों को मुश्किल पड़ता था, बच्चे आसानी से सीख लेते थे। आज भी बहुत से परिवारों में बड़ों के स्मार्टफोन बच्चे ही सेट करते हैं, उसके एप्लीकेशन अपडेट करते हैं। हर वक्त कोई न कोई एक पीढ़ी टेक्नालॉजी में कमजोर रहती है, और उसकी अगली नौजवान पीढ़ी उसके काम आती है। बुढ़ापे में औलाद कांवर में लेकर चारधाम करवाए या न करवाए, अभी कोरोना-लॉकडाऊन के चलते औलाद जगह-जगह श्रवण कुमार या श्रवण कुमारी साबित हो रही है।
यह वक्त न शादी का, न मरने का
कोरोना के चलते हुए आज देश भर में इतने तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं कि कोई समझदार इंसान न इस बीच मरेंगे, और न ही शादी करेंगे। मरने पर कंधा देने वाले इतने कम लोग रहेंगे कि घर के लोगों को छोडक़र बाकी लोग कोसते हुए लौटेंगे क्योंकि जरूरत से अधिक कंधा देना पड़ेगा। दूसरी तरफ शादी का खर्च तो न्यूनतम खर्च तो होगा ही, पचास मेहमानों में से लिफाफे आ भी जाएंगे, तो कितने आएंगे? ऐसे माहौल में हिफाजत से घर में रहना, जिंदगी को बचाकर रखना, और शादी को आगे किसी बेहतर मौके के लिए बचाकर रखना ही बेहतर होगा। लेकिन राजनीति और सार्वजनिक जीवन में ऐसा हो नहीं पा रहा है। कचरे के निपटारे के प्रोजेक्ट की शुरूआत हुई, तो उसी में भीड़ ऐसी लगी कि तस्वीरों में धक्का-मुक्की दिख रही थी। अब कौन समझाए कि इस धक्का-मुक्की में कोई एक भी कोरोना पॉजिटिव निकल गया, तो तमाम लोग एक पखवाड़े के लिए घर कैद कर दिए जाएंगे। दूसरी जो बात लोगों को समझ नहीं आ रही है, वह यह कि महज खुद मास्क लगाना काफी नहीं है, सामने के लोगों को भी मास्क लगाना जरूरी है, वरना उनके बोलते हुए उनके थूक के छींटे आप पर पड़ सकते हैं। और सबसे अधिक खतरनाक तो है एक मेज पर बैठकर लोगों का खाना जिसमें खाते हुए थूक के छींटे सामने या अगल-बगल वालों के खाने पर गिरना तय सा रहता है। अब खाते हुए तो मास्क भी नहीं लगाया जा सकता, और चबाते हुए बोलने का मतलब छींटे उड़ाना ही रहता है। आगे लोग अपनी जिंदगी की खुद ही परवाह करें क्योंकि यमराज किनारे बैठकर आराम कर रहे हैं, और कोरोना से चार तरकीबें सीख भी रहे हैं।
उइके फिर खबरों में, उम्मीद से, पर...
पूर्व विधायक रामदयाल उइके एक बार फिर सुर्खियों में हैं। वे विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस छोडक़र भाजपा में चले गए थे। मगर उन्हें पाली-तानाखार सीट से करारी हार का सामना करना पड़ा। वे दिवंगत पूर्व सीएम अजीत जोगी के निधन के बाद से मरवाही में सक्रिय हैं। उइके पहली बार भाजपा की टिकट से मरवाही से विधायक बने थे, लेकिन अजीत जोगी के सीएम बनने के बाद अपनी सीट जोगी के लिए छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे।
उइके जोगी परिवार के करीबी रहे हैं। वे अब मरवाही में भागदौड़ कर रहे हैं। मरवाही से सात किमी दूर उनका अपना मकान है जहां हाल ही में मरम्मत कराने के बाद से रह रहे हैं। कुछ लोगों का अंदाजा है कि उइके मरवाही से भाजपा प्रत्याशी हो सकते हैं। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि यदि जाति प्रमाण पत्र के उलझनों के चलते अमित जोगी उपचुनाव नहीं लड़ते हैं, तो जोगी पार्टी, उइके का समर्थन कर सकती है। हल्ला तो यह भी है कि उइके देर सवेर कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। वैसे भी कई जोगी के कई करीबी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। चुनाव को लेकर अमित जोगी ने अभी पत्ते नहीं खोले हैं। चाहे कुछ भी हो, रामदयाल उइके की सक्रियता चर्चा का विषय बना हुआ है।
जन्मदिन हो, और विवाद नहीं, ऐसा कैसे?
पिछले दिनों सरकार के मंत्री अमरजीत भगत के जन्मदिन के मौके पर बधाई देने अंबिकापुर में समर्थकों की भीड़ उमड़ी, तो सामाजिक दूरी धरी की धरी रह गई। लॉकडाउन के बीच भगत के जन्मदिन कार्यक्रम को लेकर काफी आलोचना हो रही है। हालांकि भगत ने सफाई दी कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए मास्क बांटने का कार्यक्रम रखा गया था, लेकिन यह जन्मदिन के उपलक्ष्य में नहीं था। उम्मीद नहीं थी कि मास्क लेने के लिए इतनी भीड़ आ जाएगी।
मंत्रीजी को कौन समझाए। कोई चीज मुफ्त में बंट रही हो और उसे लेने के लिए लोग न आए, ऐसा कैसे हो सकता है। खैर, सोशल मीडिया में मंत्रीजी के जन्मदिन समारोह को लेकर काफी कुछ लिखा गया। यह भी कहा गया कि मंत्रीजी से जन्मदिन कार्यक्रम को लेकर स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है। कुछ मंत्रियों के हवाले से यह बात कही गई कि भगत के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। मगर ऐसा कुछ नहीं था। किसी ने स्पष्टीकरण नहीं मांगा बल्कि सीएम और अन्य मंत्रियों ने फोन कर भगत को जन्मदिन की बधाई दी।
विशिष्ट व्यक्तियों के जन्मदिन समारोह में सामाजिक दूरी का पालन हो, यह बेहद कठिन है। बृजमोहन अग्रवाल के पिछले महीने जन्मदिन के मौके पर लॉकडाउन की खुले तौर पर धज्जियां उड़ी। यद्यपि बृजमोहन ने समर्थकों से अपील की थी कि वे जन्मदिन की बधाई देने निवास न आएं । मगर समर्थक कहां मानने वाले थे। बड़ी संख्या में उनके निवास पर जमा हो गए। अब भगत तो सरकार में हैं , और कोई चीज मुफ्त में बांट रहे हैं तो भीड़ आना स्वाभाविक था।
सीनियर और जूनियर अब साथ-साथ
आखिरकार निलंबन और बहाली के छह महीने बाद काबिल आईएफएस अफसर एसएस बजाज की लघुवनोपज संघ में पोस्टिंग हो गई। उन्हें एडिशनल एमडी बनाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि संघ के एमडी संजय शुक्ला हैं, जो कि कॉलेज के दिनों से ही एक दूसरे से परिचित हैं। आईएफएस के 87 बैच के अफसर संजय शुक्ला वैसे तो कॉलेज में बजाज से एक साल जूनियर हैं। जबकि आईएफएस कैडर में एक साल सीनियर हैं। बजाज 88 बैच के हैं। कॉलेज के जूनियर, संघ में अब बजाज के सीनियर हैं।
कहां मलाई बाकी है, कहां खुरचन भी नहीं..
निगम-मंडलों की सूची जल्द जारी हो सकती है। कुछ दावेदार तो पसंदीदा निगम-मंडल छांट रहे हैं। एक दावेदार ने निगम-मंडलों का अध्ययन कर पाया कि ज्यादातर निगमों की माली हालत बेहद खराब है। कुछ तो अपने कर्मचारियों को वेतन तक नहीं दे पा रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि पूर्व में काबिज लोगों ने इतने गुलछर्रे उड़ाए कि कुछ निगम-मंडल तो दिवालिया होने के कगार पर है।
आरडीए, हाऊसिंग बोर्ड और पर्यटन बोर्ड को ही लीजिए, यहां बैठे लोगों ने इतने पैसे बनाए कि एक-दो तो खुद की कॉलोनियां बनवा रहे हैं। आरडीए का हाल अब यह है कि पुरानी प्रापर्टी बेचकर किसी तरह कर्ज अदा कर पा रही है। आरडीए की खराब माली हालत को देखते हुए विभाग ने हाऊसिंग बोर्ड में विलय का प्रस्ताव दे दिया है। हाऊसिंग बोर्ड के चेयरमैन का पद काफी मलाईदार रहा है। पर मौजूदा हाल यह है कि बोर्ड के पास अपने कर्मचारियों को किसी तरह वेतन दे पा रहा है।
पर्यटन बोर्ड का हाल भी कुछ ऐसा ही है। प्रदेश के तकरीबन सभी पर्यटन पूछताछ केन्द्रों को बंद कर दिया गया है। संविदा-दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को निकाल दिया गया है, जो काम कर रहे हैं, उन्हें भी समय पर वेतन नहीं मिल पा रहा है। ब्रेवरेज कॉर्पोरेशन को लेकर अब धारणा बदल गई है। पहले मलाईदार माने जाने वाले इस कॉर्पोरेशन में नियुक्ति के लिए काफी हसरत रहती थी।
पिछली सरकार में तो एक मीसाबंदी ने कॉर्पोरेशन के चेयरमैन का पद पाने के लिए नागपुर से जुगाड़ लगवाया था। पद पाने के थोड़े दिन बाद ही मीसाबंदी पुरानी मोटरसाइकिल से महंगी गाड़ी में घूमते देखे जाने लगे। मगर अब कॉर्पोरेशन के लिए वैसा आकर्षण नहीं रह गया है। सरकार ने शराब खरीदी के लिए अलग से मार्केटिंग कारपोरेशन का गठन कर दिया है। इससे कॉर्पोरेशन का काम सिमटकर रह गया है। यानी सारी मलाई अब मार्केटिंग कंपनी में है।
कुछ तो मानते हैं कि ऐसे निगम-मंडलों में तो उपाध्यक्ष-सदस्य के पद से बेहतर तो एल्डरमैन के पद हैं। एल्डरमैन का कम से कम मानदेय तो तय है। अलबत्ता, नागरिक आपूर्ति निगम, छत्तीसगढ़ भवन एवं अन्य संनिर्माण कर्मकार कल्याण मंडल को लेकर क्रेज अभी भी बाकी है। निगम भले ही घपले-घोटालों के लिए कुख्यात रहा है, मगर सालाना टर्नओवर 5 हजार करोड़ से अधिक का है। कुछ इसी तरह कर्मकार कल्याण मंडल में अभी भी पांच सौ करोड़ योजनाओं के मद में रखे हैं। ऐसे में इन्हीं दोनों पद के लिए ज्यादा खींचतान देखने को मिल रही है।
जोगी की मोदी की यादें...
पूर्व सीएम अजीत जोगी के निधन के बाद जोगी पार्टी के प्रमुख नेताओं की भाजपा से नजदीकियां चर्चा में हैं । पूर्व सीएम के निधन के बाद मरवाही में उपचुनाव होना है। इन सबके बीच दिवंगत पूर्व सीएम के पुत्र अमित जोगी ने श्री जोगी के निधन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के डॉ. रेणु जोगी को लिखे पत्र को फेसबुक पर साझा किया है।
अमित ने लिखा कि आदरणीय मोदीजी के प्रति मेरे पिताजी की क्या भावनाएं थीं, उसकी अभिव्यक्ति पापा की कोरोनाकाल में लिखी और जल्द ही प्रकाशित होने वाली आत्मकथा से मैं उन्हीं के ही शब्दों में कर रहा हूं:
मैं इसे भी अपना सौभाग्य मानता हूं कि जब मैं कांग्रेस का मुख्य प्रवक्ता था तो मेरे साथ ही भाजपा के दो अत्यन्त वरिष्ठ नेता, वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज, भाजपा के मेरे समकालीन प्रवक्ता थे। उन दिनों टेलीविजन के चारों चैनलों में हमारी जोरदार बहस हुआ करती थी पर कई बार एक साथ टेलीविजन स्टूडियो द्वारा भेजी गई कार में हम लोगों को एक साथ आना पड़ता था और डिबेट के पहले और बाद हम लोगों में बड़े अंतरंग पारिवारिक संबंध बन गये थे। मैं इसे श्री नरेन्द्र मोदीजी का बड़प्पन मानता हूं कि उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कभी मुझसे यह प्रेम संबंध नहीं तोड़े। वे बड़े सफल और विश्वस्तरीय नेता बन गये हैं और एक ही उदाहरण उनकी उदारता को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त होगा।
जब 2014 में वो प्रधानमंत्री बने तो उसके पहले कांग्रेस पार्टी के बहुत से नेताओं को शासकीय आवास किसी न किसी बहाने से आवंटित किये गए थे। स्वाभाविक कारणों से वे सभी शासकीय आवास के आवंटन निरस्त किये गये और सभी को अपनी अलग से व्यवस्था करनी पड़ी। कांग्रेस संगठन की जवाबदारियों के कारण मुझे दिल्ली में रहना अनिवार्य था और स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं दिल्ली में महंगे किराये के मकान में रह सकूं।
मेरे सौभाग्य और संयोग से उन्हीं दिनों संसद भवन की आउटर गैलरी में मैं अपनी व्हील चेयर चलाता हुआ जा रहा था कि दूसरी ओर से तमाम सुरक्षा कवच से भरे हुये प्रधानमंत्री जी आ रहे थे। दूर से उन्हें देखकर सम्मान देने की दृष्टि से मैंने अपनी व्हील चेयर अत्यन्त किनारे कर ली और उनके निकलने का इंतजार करने लगा। उनकी पैनी नजर दूर से ही मेरे पर पड़ गई और सीधे सुरक्षा कवच को चीरते हुये मेरे पास तक आये और मेरी व्हील चेयर पर अपने हाथों से पकड़कर भरे प्रेम से मेरा और मेरे परिवार का हालचाल पूछा। हम दोनों प्रवक्ताकाल में एक-दूसरे को भाई साहब कहा करते थे। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि उन्होंने मुझे भाई साहब कहकर मुझसे बातचीत की।
न जाने क्यों मुझे लगा कि मैं आवास के बारे में अपनी कठिनाई उन्हें बताऊं और मेरे मुंह से निकल पड़ा कि भाई साहब, आप प्रधानमंत्री बन गये हैं और मेरे जैसा व्यक्ति आवास के लिये आपके रहते हुये भी दर-दर भटक रहा है। उनके बड़प्पन की पराकाष्ठा थी कि उन्होंने इस संबंध में मुझे कोई आश्वासन नहीं दिया। मुझे लगा कि वे टालकर चले गये। देर शाम मुझे उनके प्रमुख सचिव और सीनियर आईएएस नृपेन्द्र मिश्रा का फोन आया और मुझसे कहा कि प्रधानमंत्रीजी ने उन्हें आदेशित किया है कि तत्काल नार्थ या साऊथ ऐवेन्यू में मेरी सुविधानुसार आवास आवंटित किया जाय। स्वाभाविक रूप से दूसरे ही दिन मनचाहा आवास मिल गया और उसे खाली करने के लिये कोई नोटिस नहीं मिला। ([email protected])
दिल्ली जाकर अब पछता रहे हैं...
सरकार बदलने के बाद ख़ासकर पिछली सरकार के करीबी आईएएस अफसरों के केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने की होड़ मच गई थी। पहले रिचा शर्मा, फिर सुबोध सिंह, मुकेश बंसल प्रतिनियुक्ति पर चले गए। एक आईपीएस-आईएफएस, पति-पत्नी भी दिल्ली जाने के इच्छुक थे। मगर कोरोना के फैलाव के बाद अफसर तो बैठकों के सिलसिले में भी दिल्ली जाने से परहेज करने लगे हैं। कोरोना के बाद दिल्ली का जीवन डराने लग गया है। सुनते हैं कि जो भी दिल्ली में हैं, वे अब पछताने लग गए हैं। कोरोना के चलते अफसरों के परिवार एक तरह से घर में कैद होकर रह गए हैं। अफसर किसी तरह नौकरी कर पा रहे हैं। एक आईएएस ने बताया की दफ्तर पहुंचकर 30 मिनट तो कंप्यूटर, के बोर्ड, और टेबल खुद साफ करने में लग जाते हैं, उतना ही वक्त घर लौटने के बाद खुद को साफ करने में लग जाता है।
दिल्ली की हालत पर छत्तीसगढ़ में बरसों तक ऊंचे पद पर काम कर चुके एक पूर्व आईएएस अफसर का कहना है कि दिल्ली में भले ही कोरोना पीडि़तों की संख्या 65 हजार के आसपास बताई जा रही है, मगर 10 लाख लोग इससे संक्रमित हैं। बिना लक्षण वाले कोरोना मरीजों को तो डॉक्टर भी नहीं देख रहे हैं। उन्हें घर में ही रहने की सलाह दी जा रही है। उन्होंने बताया कि केवल गंभीर मरीजों का ही इलाज हो पा रहा है। कोरोना पीडि़तों के लिए अस्पतालों में बेड नहीं है। आप चाहे कितने भी बड़े अफसर हैं, दिल्ली में मौजूदा हालत में कोई पूछपरख नहीं रह गई है। दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ में कोरोना का फैलाव तो है, लेकिन जनजीवन सामान्य है। यहां कोरोना पीडि़तों में 85 फीसदी प्रवासी मजदूर हैं। कोरोना संक्रमित भी जल्द ठीक हो जा रहे हैं। ऐसे में जो बाहर हैं उन्हें भी अब छत्तीसगढ़ लुभाने लगा है।
हर मोड़ पर हिना फूड कॉर्नर!
देश भर में चाइनीज खाना खिलाने वाले रेस्त्रां से लेकर खेलों तक की हालत खराब है। अपने बोर्ड से लेकर मेन्यु कार्ड तक चाइनीज नाम का क्या करें? गुजरात में तो लोगों ने कुछ गुजराती सा लगने वाला शब्द चाइनीज की जगह लिख दिया है और लोग उसी से चाइनीज ढांक रहे हैं। लोगों को याद होगा कि साल दो साल पहले जब पाकिस्तान से तनाव हुआ था तो कहीं करांची बेकरी पर हमला हो रहा था, तो कहीं किसी और पाकिस्तानी नाम पर। अब चीनी नामों पर हमला होने के करीब आ गए हैं। ऐसे में एक कल्पनाशील ठेले वाले ने अंग्रेजी के चाइना से च हटा दिया, और हिना रह गया। थोड़े दिन में हिना नाम की लड़की और महिला को अजीब सा लगेगा कि हर मोड़ पर उसके नाम के ठेले या रेस्त्रां हैं।
सेवा के बदले में मेवा?
सरकार के निगम मंडलों में नियुक्ति के लिए कई नाम सोशल मीडिया में तैर रहे हैं। इनमें से एक युवा नेता के नाम पर तो कुछ लोग शर्त लगाने के लिए भी तैयार हैं। सुनते हैं कि युवा नेता को एक बड़े पदाधिकारी के सत्कार की जिम्मेदारी दी गई थी। युवा नेता ने पदाधिकारी के सेवा सत्कार में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
पार्टी जब संसाधनों की कमी से जूझ रही थी ऐसे समय में भी युवा नेता, पदाधिकारी के लिए रैंज रोवर या फिर फॉर्चूनर गाड़ी लेकर हाजिर रहते थे। बताते हैं कि पदाधिकारी युवा नेता के सेवा से काफी खुश हैं, और वे उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते हैं। अब जब लालबत्ती बंटने वाली है, तो युवा नेता का नाम चर्चा में है। कुछ लोगों का अंदाजा है कि युवा नेता की लालबत्ती के लिए पदाधिकारी वीटो भी लगा सकते हैं। सेवा के बदले में मेवा मिलता है या नहीं, यह देखना है।
कोचिंग, अभी ठंडी, आगे क्या?
छत्तीसगढ़ के 10वीं और 12वीं के नतीजे निकल गए। अब ऐसा लगता है कि इस बरस तो इन क्लासों के बच्चे राजस्थान के कोटा जाने से रहे जहां पर कोचिंग-उद्योग अभी-अभी कोरोना की वजह से बहुत बुरा हाल देख चुका है। अभी जो नतीजे निकले हैं, ये तो कोटा गए हुए बच्चों के नहीं हैं, और अभी जो 10वीं पास कर रहे हैं उनमें से संपन्न परिवारों के चुनिंदा बच्चे जरूर कोटा जाते हैं, लेकिन इस बार स्थानीय कोचिंग का कारोबार बढऩे की उम्मीद है, जब कभी भी सरकार इसकी छूट देगी। सिर्फ प्रवासी मजदूरों का बाहर जाना कम नहीं होगा, पढऩे के लिए बाहर जाने वाले बच्चे भी यहीं रहकर पढऩे की कोशिश करेंगे। अभी फिलहाल 15 अगस्त तक न स्कूल-कॉलेज खुलते दिख रहे, और न ही कोई कोचिंग क्लास। इसके बाद हो सकता है कि पढ़ाई के नुकसान की भरपाई के लिए अधिक लोग कोचिंग क्लास की ओर देखने लगें। ([email protected])
आपस की गंदगी, फुटपाथ तक बदबू
अभी दो दिन पहले ही हमने इसी जगह अलग-अलग किस्म के काम से बनने वाले अलग-अलग मिजाज की बात कही थी। सबसे बुरा हाल तब होता था जब एक अखबार वाला दूसरे अखबार वाले के पीछे पड़ता था। नतीजा चारों तरफ गंदगी बिखरने पर जाकर खत्म होता था, और चौराहे पर दोनों के कपड़े उतर जाते थे। इसीलिए यह कहा जाता था कि अखबार वालों को अखबार वालों के खिलाफ नहीं लिखना चाहिए, और इसके लिए एक अवैज्ञानिक मिसाल भी ढूंढ ली जाती थी कि कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता। ऐसा कहीं नहीं लिखा हुआ है कि कुत्ता कुत्ते को नहीं काटता।
अब अखबारों से आगे बढ़कर यह बात एक ताजा तबके पर आ गई है, जिसे आरटीआई एक्टिविस्ट कहते हैं। अब होता यह है कि अच्छे दिनों में आरटीआई एक्टिविस्ट मिलकर काम करते हैं, लेकिन जब उनमें खटपट हो जाती है, तो अच्छे दिनों तमाम बुरी बातों की यादों को लेकर वे एक-दूसरे पर टूट पड़ते हैं। इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कुछ ऐसा ही चल रहा है, आपस की गंदगी को सड़कों पर इतना ज्यादा धोया जा रहा है कि फुटपाथ तक बदबू फैल चुकी है। अब दोनों ही तरफ के लोग पुलिस, कोर्ट-कचहरी सबके इतने जानकार हैं कि हमारे जैसी मामूली समझ के लोगों के पास उनके लिए कोई नसीहत भी नहीं है। लेकिन इससे बाकी लोगों को एक समझ मिलेगी कि अच्छे दिनों में भी अपने राज चना-मुर्रा की तरह न बांटें, किसी दिन आप ही के खिलाफ बेकाबू होकर इस्तेमाल होंगे।
दौरे का राज कुछ और?
पीएल पुनिया अचानक रायपुर पहुंचे, तो कांग्रेस में हलचल मच गई। वैसे तो यह प्रचारित किया गया कि वे निगम मंडलों में नियुक्ति के मसले पर चर्चा के लिए आए थे। मगर अंदर की खबर कुछ और है। सुनते हैं कि प्रदेश के एक दिग्गज नेता ने राजस्थान में राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी के राष्ट्रीय प्रभारी महामंत्री केसी वेणुगोपाल को काफी कुछ कहा था।
वेणुगोपाल कांग्रेस के राज्यसभा प्रत्याशी थे। नेताजी को पार्टी की तरफ से चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वेणुगोपाल चुनाव जीत गए, तो नेताजी की बात पर गौर किया और उन्होंने हाईकमान को इससे अवगत कराया। फिर क्या था पुनिया को रायपुर जाकर वस्तुस्थिति की जानकारी लेने और सबकुछ ठीक करने के लिए कहा गया। पुनिया रात में चुपचाप पहुंचे और फिर अलग-अलग नेताओं के साथ बैठक की। कुछ दिग्गजों के बीच खींचतान चल रही थी, जिसे दूर करने की कोशिश हुई। अब आ गए, तो लगे हाथ निगम मंडलों की नियुक्ति को लेकर भी चर्चा हो गई। मगर पुनिया के दौरे से क्या फर्क पड़ता है, यह देखना है।
ऐसा फिलहाल दिखता नहीं
कांग्रेस के रायपुर संभाग के एक सीनियर विधायक को वित्त आयोग का अध्यक्ष बनाने पर सहमति बनी है। वैसे तो विधायक महोदय मंत्री बनना चाह रहे थे। मंत्रिमंडल में फेरबदल की अटकलें भी थीं। जिस मंत्री को बाहर करने की चर्चा थी, वे दो दिन पहले ही बेटे के साथ दाऊजी से मिल आए थे। मंत्रीजी ने अपनी तरफ से गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की। आखिरकार फेरबदल की अटकलों पर विराम लग गया।
अब 18 महीने बिना लालबत्ती के गुजार चुके हैं। ऐसे में और इंतजार करना विधायक महोदय को भारी पड़ रहा था। लिहाजा जो मिला उसमें संतोष करना उचित समझा और आयोग का अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो गए। ये अलग बात है कि विधायक महोदय, अविभाजित मध्यप्रदेश और फिर जोगी सरकार में मंत्री रह चुके हैं और मौजूदा मंत्रिमंडल में कई तो उस समय विधायक भी नहीं थे। दूसरी तरफ, पूर्व मंत्री अमितेष शुक्ला के तेवर अभी भी नरम नहीं दिख रहे हैं। चर्चा है कि उन्हें निगम मंडल का ऑफर दिया गया था, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया है। शुक्ल बंधुओं के इकलौते राजनीतिक वारिस अमितेष को उम्मीद है कि देर सवेर उन्हें मंत्री बनाया जाएगा। अब अमितेष की उम्मीद तो सरकार इस कार्यकाल में पूरी होगी, ऐसा फिलहाल दिखता नहीं है।
पार्टनरशिप ऑफर
पिछले 15 साल भाजपा के लोगों का ट्रांसपोर्ट व्यावसाय में एकतरफा राज रहा है। रेत से लेकर कोयला परिवहन में उन्हीं की ट्रकें लगती थीं। धमतरी और कांकेर जिले की रेत खदानों में तो भाजपा के पूर्व मंत्री के इशारे के बिना पत्ता तक नहीं हिलता था। अब तस्वीर बदल गई है। रेत और मायनिंग में अब कांग्रेस के लोग कूद पड़े हैं और एक-एक कर भाजपा के लोगों को बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं।
इसमें दुर्ग संभाग के युवा विधायक और युवक कांग्रेस के ऊंचे ओहदे पर बैठे पदाधिकारी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। जिन अफसरों पर भाजपा नेताओं को पूरा भरोसा था और उनके सहारे मलाई छान रहे थे, वे अब कांग्रेस नेताओं के मार्गदर्शक बन गए हैं। भाजपा के लोग अब कांग्रेस के बड़े नेताओं के आगे पीछे हो रहे हैं और अपनी तरफ से पार्टनरशिप ऑफर भी भिजवा रहे हैं ताकि उनका धंधा जारी रहने दिया जाए। मगर उनकी दिक्कत यह है कि कांग्रेस के लोग उनके ऑफर पर गौर तक नहीं कर रहे हैं।
रमन ने कह दिया
प्रदेश भाजपा की नई टीम का गठन होना है। नई टीम में राजेश मूणत और भूपेन्द्र सवन्नी को महामंत्री के रूप में जगह मिलना तकरीबन तय माना जा रहा है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में पूर्व सीएम रमन सिंह ने भूपेन्द्र सवन्नी को महामंत्री कह दिया। अब रमन सिंह ने कुछ कह दिया, तो उसे सच मान लेना चाहिए। वैसे भी उन्होंने नेता प्रतिपक्ष और फिर प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपनी पसंद पर मुहर लगवाकर अपनी ताकत दिखा चुके हैं। ([email protected])