राजपथ - जनपथ
जब जोगी ने एक फिल्म में काम किया..
छत्तीसगढ़ के एक सबसे वरिष्ठ अखबारी-फोटोग्राफर गोकुल सोनी फेसबुक पर पुरानी यादगार तस्वीरों के साथ अपने संस्मरण लिखते भी रहते हैं। अभी भूतपूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के गुजरने के बाद उन्होंने एक पुरानी याद ताजा की है, और लिखा है-
साथियों, अजीत जोगीजी को हम किस रूप में देखते हैं-एक इंजीनियर, अच्छा प्रोफेसर, वकील, पुलिस ऑफिसर, कलेक्टर, मुख्यमंत्री, सांसद, लेखक, कुशल प्रवक्ता, प्रखर वक्ता, हाजिर जवाब और जिंदादिल इंसान... क्या आप यह जानते हैं कि वे कुशल अभिनेता भी थे?
जी हां, उन्होंने अपनी तमाम व्यस्तता के बीच एक छत्तीसगढ़ी फिल्म में अभिनय भी किया था। दरअसल रायपुर में कला दर्पण संस्था के बैनर तले मधुकर कदमजी एक छत्तीसगढ़ी फिल्म बना रहे थे। फिल्म का नाम था ‘मोर सपना के राजा’ फिल्म की कहानी के अनुसार मुख्य पात्र मोहन (आकाश कदम) पढऩे शहर जाता है। परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होकर जब वह पूरे प्रदेश में अव्वल आता है तो मुख्यमंत्री उन्हें सम्मानित करते हैं। मधुकर कदमजी इस दृश्य को फिल्माने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश कर रहे थे जो अजीत जोगी जैसा दिखता हो। (उस समय जोगीजी नए छत्तीसगढ़ राज्य के मुख्यमंत्री थे) काफी खोजबीन के बाद ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला। उन्होंने सोचा कि क्यों न जोगीजी को ही फिल्म में रोल करने कहा जाए। जोगीजी फिल्म में अभिनय करने के लिए तैयार भी हो गए लेकिन अपनी व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पा रहे थे। काफी सोच-विचार के बाद 21 दिसम्बर 2000 गुरूवार को सुबह करीब 10.30 बजे मुख्यमंत्री निवास में ही सेट तैयार किया गया। मंच बनाया गया, कैमरे, लाइट सहित पूरी तैयारी हो गई। जोगीजी सेट पर आए। वहां उनका हल्का मेकअप किया गया। मेकअप शिक्षक आनंद वर्माजी ने किया। अपने मजाकिया स्वभाव के लिए विख्यात जोगीजी ने छत्तीसगढ़ी में कहा- करिया आदमी ला अऊ कत्तक गोरिया करबे गुरुजी? खैर उसी समय उन्हें स्क्रिप्ट दिया गया। स्क्रिप्ट देखकर उन्होंने रख दिया। सबको लगा कि स्क्रिप्ट उन्हें पसंद नहीं आई। जोगीजी ने मुधकर कदमजी को अपने पास बुलाकर फिल्म की कहानी पूछी। फिर उन्होंने कैमरा, लाइट ऑन करने कहा और खुद अपने मन से पूरा का पूरा डायलॉग बोल दिए जो स्क्रिप्ट पर लिखा था। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना पढ़े कैसे बोल दिए ? उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने छत्तीसगढ़ी में ही कहा कि ये तो हमर रोज के काम आय। बने पढ़इया लइका के तारीफ करना हे न सार्वजनिक रूप से। मोरो घलो कभू अइसनेच्च तारीफ होय। फिर उन्हें बताया गया कि कैमरे का एंगल बदलकर फिर उसी डायलॉग को बोलना है। जोगीजी ने हू-ब-हू फिर दूसरे एंगल पर खड़े होकर डॉयलाग दोहरा दिया। मैं बताना चाहता हूं कि हर इंसान में ऐसी प्रतिभा नहीं होती कि वह एक ही बात को चार बार कहे तो उसके शब्द न बदलें। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी अजीत जोगी को मैं अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। अंत में बताना चाहूंगा कि इस फिल्म कि स्टिल फोटोग्राफी मैंने की थी।
उम्र की परवाह नहीं
पूर्व सीएम रमन सिंह इन दिनों काफी बेचैन दिख रहे हैं। केन्द्र सरकार ने कोरोना फैलाव को रोकने के लिए नसीहत दी है कि 65 साल से अधिक आयु के लोग घर से न निकले। मगर 67 के हो चुके रमन सिंह केन्द्र सरकार की एडवाइजरी को ध्यान नहीं दे रहे हैं। वे अपने समर्थकों के साथ मजदूरों का हाल देखने राजनांदगांव जिले की सीमा तक हो आए।
यही नहीं, प्रदेश कांग्रेस के सामाजिक और शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए वीडियो कॉफ्रेंस के जरिए पत्रकारवार्ता ले रहे हैं, तो रमन सिंह पार्टी दफ्तर में तमाम सुविधाएं होने के बावजूद प्रेस कॉफ्रेंस लेने प्रदेश अध्यक्ष के साथ एकात्म परिसर पहुंच गए। चूंकि रमन सिंह भाजपा के सबसे बड़े नेता हैं, तो उनके पार्टी दफ्तर में होने पर सामाजिक दूरी का पालन हो पाना संभव नहीं है।
कार्यकर्ताओं-मीडिया की भीड़ तो जुट ही जाती है। आम तौर पर उनकी भाषा शैली संयमित रही है और पिछले 15 साल सीएम रहते लोगों ने उन्हें इसी रूप में पसंद किया था। मगर अब वे तल्ख दिख रहे हैं। मौजूदा सीएम-सरकार के खिलाफ तो उनके तेवर काफी गरम रहते हैं। हालांकि रमन सिंह- परिवार के खिलाफ जांच को देखकर उनकी तल्खी बेवजह भी नहीं लगती है। मगर उनके जैसे अनुशासित माने जाने वाले नेता के केन्द्र की एडवाइजरी को नजरअंदाज करने की चर्चा जरूर है।
एक इस्तीफा
आयुष संचालक जीएस बदेशा ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन दे दिया है। बदेशा नियमित संचालक हैं और वे पिछले पांच साल से इस पद पर हैं। वैसे तो पिछली सरकार में उन्हें हटाने की कोशिशें भी हुई, मगर यह सफल नहीं हो पाया। उनके रिटायरमेंट में सालभर बाकी है। ऐसे में समय से पहले ही पद छोडऩे के उनके फैसले को लेकर कई तरह की चर्चा है।
सुनते हैं कि बदेशा आरएसएस के करीबी माने जाते हैं और चर्चा है कि पद से हटने के बाद उनकी केन्द्र सरकार के आयुष मंत्रालय में सलाहकार अथवा किसी अन्य पद पर नियुक्ति हो सकती है। वैसे भी केन्द्र सरकार ने सीसीआईएम बोर्ड में बदलाव कर पूर्व में निर्वाचित लोगों को हटा दिया है और उनकी जगह संघ के पसंदीदा विशेषज्ञ-चिकित्सकों का मनोनयन किया गया है। ऐसे में बदेशा को कोई महत्वपूर्ण दायित्व मिल जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कांग्रेस प्रभारी के दौरे की खबर से हलचल
छत्तीसगढ़ में कैबिनेट फेरबदल और निगम मंडल में नियुक्तियों की चर्चा जोर पकडऩे लगी है। चर्चा है कि कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी इसी सिलसिले में छत्तीसगढ़ के दौर पर आने वाले हैं। वे संभवत: कैबिनेट फेरबदल और निगम मंडल के संबंध में चर्चा कर सकते है. कोरोना काल में इस तरह के बड़े फैसले होंगे, इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ती है, लेकिन दावेदारी की सक्रियता इन दिनों कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है। जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि इस मसले पर कुछ विचार हो सकता है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि मंत्रिमंडल और निगम-मंडल के दावेदारों की जिस तरह बेचैनी बढ़ती जा रही है, उसके कारण भी कई बार इस तरह की खबरें उड़ती हैं ताकि उनको शांत किया जा सके।
खैर, जो भी बात हो लेकिन मंत्रिमंडल में जगह पाने के लिए हाथ पैर मार रहे विधायकों को थोड़ी बहुत तो उम्मीद जगी है और उन्होंने सक्रियता तेज कर दी है। दूसरी तरफ मंत्रिमंडल फेरबदल की चर्चा के कारण सरगुजा जिला टेंशन में है, क्योंकि इस जिले से तीन मंत्री है और फेरबदल होता है, तो यहां से किसी एक का पत्ता कट भी सकता है। नियमों की बाध्यता के कारण बिना किसी को हटाए फेरबदल संभव नहीं है। इसी तरह एक-दो मंत्रियों की गंभीर शिकायतें भी है। जिसके कारण भी फेरबदल की चर्चा को बल मिल रहा है। प्रदेश प्रभारी भी कह चुके हैं कि परफार्मेंस के आधार पर मंत्रियों को बदला जा सकता है। कैबिनेट में कुछ फेरबदल की संभावना तो एक बार बन भी सकती है, लेकिन निगम मंडल में नियुक्तियों के कोई आसार दिख नहीं रहे हैं। क्योंकि, जिस तरह कर्मचारियों के वेतन वृद्धि, प्रमोशन जैसे फैसले लेकर सरकार खर्च में कटौती कर रही है, तो निगम मंडल में नियुक्ति कर खर्च बढ़ाने का लॉजिक समझ में आता नहीं। कर्मचारियों के वेतन में 30 फीसदी कटौती तक का प्रस्ताव तैयार है। इस स्थिति में राजनीतिक नियुक्तियों करने से सरकार के इमेज पर भी विपरीत असर पडऩे का खतरा है। कुल मिलाकर निगम-मंडल के उम्मीदवारों को एक बार फिर झटका खाने के लिए तैयार रहना चाहिए। कैबिनेट में फेरबदल की अटकलों में सच्चाई है, तो जिनकी कुर्सी जाएगी, उनको जोर का झटका लग सकता है। प्रदेश प्रभारी के दौरे की खबर से हलचल तो बढ़ गई है। देखना यह है कि वे कौन सा फार्मूला लेकर आते हैं और विचार-विमर्श का निष्कर्ष क्या निकलता है।
सिम्स की महिला डॉक्टर का जलवा
छत्तीसगढ़ में कोरोना का विकराल रुप दिखने के साथ ही सरकारी इंतजामों में लापरवाही दिखने लगी है। बिलासपुर के सिम्स अस्पताल में तो कोविड 19 के लिए जारी गाइडलाइंस की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही है। जिससे वहां काम करने वाले मेडिकल स्टॉफ और डॉक्टर्स दहशत में है। पिछले दिनों वहां मुंगेली के क्वारंटाइन सेंटर से एक गर्भवती इलाज के लिए आई, उसे वहां दाखिल तो कर लिया गया। इस दौरान उसे अलग-अलग वार्डों में भेजा गया। उसका इलाज करने वाले मेडिकल स्टाफ ने बिना पीपीई किट और अन्य सुरक्षा उपकरण की जांच की। इसके बाद उसकी कोरोना जांच हुई तो रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई। तब आनन-फानन में उसे एम्स रायपुर भेजा गया। इसी तरह एक और महिला मरीज को भर्ती कराया, जिसकी रिपोर्ट तो अभी नहीं मिली, लेकिन उसके पति की रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। चूंकि वह पत्नी की देखभाल के लिए अस्पताल में था, उसका वहां के स्टाफ से लगातार मिलना जुलना होता था और चाय-पानी के लिए कैंटीन, लिफ्ट का भी लगातार उपयोग कर रहा था। ऐसे में अस्पताल के उस वार्ड में काम करने वाले दहशत में है। गर्भवती के संपर्क में आने वाले डॉक्टर्स और स्टाफ को क्वारंटाइन करने के लिए अस्पताल प्रबंधन ने दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। सभी को अपने-अपने घर जाने के लिए कह दिया गया। जब लोगों ने मना किया तो डॉक्टर्स को होटल भेजा और नर्स-वार्ड ब्वॉय को हॉस्टल में रखा गया। संबंधित लोगों ने जब इसकी शिकायत सिम्स की पीआरओ और कोरोना प्रभारी से की थी, तो उन्होंने अनसुना कर दिया। उन्होंने वहां काम कर रहे मेडिकल स्टाफ से यहां तक कह दिया कि चुपचाप करिए और किसी को कुछ भी बताने की जरुरत नहीं है। इस रवैए से परेशान कई लोग नौकरी छोडऩे और छुट्टी में जाने का मन बना रहे हैं। सिम्स की महिला पीआरओ और डॉक्टर का जलवा इतना है कि विधायक भी बोलने से कतराते हैं। पहले भी उनकी शिकायत की गई थी, तो एक मंत्री ने कह दिया था कि उनसे हाथ जोड़ लीजिए और काम करने दीजिए। इस बार भी एक विधायक को पूरे मामले की जानकारी दी गई तो उन्होंने कहा कि वे कलेक्टर से बात कर सकते हैं, लेकिन कोरोना की प्रभारी से नहीं। हालत यह है कि इस महिला डॉक्टर के जलवे के सामने अच्छे अच्छों की नहीं चलती।
जोगी के बाद क्या?
अजीत जोगी के गुजर जाने के बाद आगे क्या? यह सवाल राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। फिलहाल तो जनता कांग्रेस की कमान उनके पुत्र अमित जोगी संभाल रहे हैं। मगर विधानसभा चुनाव के बाद से पार्टी का ग्राफ लगातार गिरा है। जोगी के ज्यादातर करीबी समर्थक कांग्रेस में चले गए हैं। कुछेक समर्थक भाजपा में शामिल हुए हैं। ऐसे में अब पूर्व सीएम के जाने के बाद पार्टी के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही है।
सुनते हैं कि पिछले दिनों मंत्रियों की अनौपचारिक बैठक में पूर्व सीएम के गिरते स्वास्थ्य पर चर्चा हुई थी। पूर्व सीएम की हालत में थोड़ा सुधार होते ही परिजनों की सहमति से बेहतर इलाज के लिए दिल्ली ले जाने की संभावनाओं पर भी बात हुई थी। साथ ही जनता कांग्रेस के नेताओं को कांग्रेस में शामिल करने पर भी विचार विमर्श किया गया। चर्चा है कि डॉ. रेणु जोगी और देवव्रत सिंह को कांग्रेस में शामिल करने के लिए पार्टी नेता एक पैर पर तैयार हैं। दिक्कत अमित जोगी को लेकर है, इसके लिए फिलहाल कोई सहमत नहीं है। वजह यह है कि अमित ने पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं के खिलाफ कड़ी टिप्पणी की थी। इससे परे विधायक धर्मजीत सिंह और प्रमोद शर्मा, कांग्रेस में जाने के उत्सुक नहीं हैं।
धर्मजीत और प्रमोद शर्मा, भाजपा के ज्यादा करीब हो गए हैं। धर्मजीत सिंह की पिछले दिनों पूर्व सीएम रमन सिंह से बंद कमरे में गहरी मंत्रणा भी हुई थी। धर्मजीत के करीबी लोगों का मानना है कि पूर्व सीएम के नहीं रहने से पार्टी को एकजुट करना कठिन होगा।
भ्रष्ट्राचार से लडऩा दुधारी तलवार
गुजरे जमाने की सुपरहिट फिल्म जाने भी दो यारों में यह दिखाया गया है कि भ्रष्टाचार का खुलासा करना किस तरह दो फोटोग्राफरों को महंगा पड़ गया। भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों ने आपस में मिलकर फोटोग्राफरों को जेल भिजवा दिया। कुछ इसी तरह की स्थिति मौजूदा सरकार में भी बन रही है। प्रदेश में सरकार बदलते ही एक जोशीले कांग्रेस नेता ने मलाईदार निगम के मुखिया के भ्रष्टाचार की शिकायतों कीे झड़ी लगा दी। सरकार भी नई-नई थी। इसलिए पिछली सरकार में प्रभावशाली लोगों के खिलाफ शिकायत पर तुरंत जांच आदेश भी हो गए। अब किसी संस्थान में भ्रष्टाचार होता है, तो उसके लिए अकेले मुखिया ही जिम्मेदार नहीं होता बल्कि उनके निर्देशों पर अमल करने वाले भी बराबरी के दोषी होते हैं।
जांच के आदेश हुए, तो बचाने की कोशिशें भी शुरू हो गई। जिन लोगों ने शिकायतों को हवा दी थी, वे अब उन्हें बचाने में जुट गए। क्योंकि इसमें निगम अध्यक्ष के साथ-साथ प्रभावशाली अफसर के फंसने का भी अंदेशा था, जो नई सरकार में भी अच्छी खासी पैठ बना चुका है। सत्ता और विपक्ष के लोगों के बीच आपसी संबंध भी मधुर होते हैं। मुसीबत में एक-दूसरे का साथ भी निभाते हैं। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। निगम अध्यक्ष ने पद से हटने के बाद भ्रष्टाचार को लेकर किसी तरह की मुश्किलें न आए, इसके लिए सरकार में प्रभावशाली लोगों से संपर्क भी बनाए। इसका प्रतिफल यह रहा कि निगम के दो एमडी बदल चुके हैं। जांच रिपोर्ट हवा में हैं। कुछ दिन पहले कांग्रेस नेता ने हल्ला मचाया, तो जांच प्रतिवेदन सरकार को भेजी गई। मुख्य शिकायत विलोपित कर एक तरह से निगम के पदाधिकारी-अफसर को क्लीन चिट मिल गई है। अब कांग्रेस नेता को पलटवार का डर भी सता रहा है, जो जांच रिपोर्ट के सार्वजनिक होने पर हो सकता है।
कारोबार की बेइज्जती बुरी बात...
किसी देश-प्रदेश की सरकार कारोबारियों से मिले हुए टैक्स से भी चलती है। आमतौर पर अधिकतर सरकारें अपने को उद्योग-व्यापार की हिमायती साबित करती हैं, देश के दूसरे प्रदेशों में जाकर वहां से राज्य में पूंजीनिवेश लाने की कोशिश करती है, और इस पर खासा खर्च भी करती है। लेकिन लॉकडाऊन के चलते जिस तरह से उद्योग धंधों को बंद करवाया गया, उसने देश में एक ऐसा माहौल बनाया है जैसा पहले कभी देखने में नहीं मिला था। आज हालत यह हो गई है कि व्यापारी अपनी ही दुकान को खोलते हुए ऐसा महसूस कर रहा है कि मानो वह किसी दूसरे की दुकान चोरी करने के लिए खोल रहा है।
अभी छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ से व्यापारियों की एसडीएम और एसडीओपी को लिखी हुई चि_ी इस अखबार को मिली है। जाहिर है कि वह दुकान खोलने के बारे में है, लेकिन उसकी भाषा, उसके शब्द अगर देखें, तो लगता है कि व्यापारी अपने ही घर-शहर में चोर सा महसूस कर रहा है। इस चि_ी में इन अधिकारियों को माननीय, महोदयजी, हर पैरा में लिखा गया है। इसके बाद निवेदन है, आपसे करबद्ध निवेदन है, अनुमति प्रदान करें, निवेदन को स्वीकार करते हुए दुकान खोलने की अनुमति प्रदान करें, आपके कार्यालय से निकलने वाली हर गाईड लाईन का पालन करने के लिए बाध्य रहेंगे, विश्वास है कि , इस निवेदन पर विचार कर, अनुमति प्रदान करेंगे, निवेदक... !
सरकार और कारोबार के बीच इस तरह का फासला खतरनाक है। प्रवासी मजदूरों का देश की सरकारों पर से विश्वास वैसे भी उठा हुआ है। इसके बाद अब अगर कारोबारियों का विश्वास भी देश और प्रदेश की सरकारों पर से खत्म हो जाएगा, तो क्या इस देश के धंधों को सिर्फ विदेशी कंपनियां चलाएंगी? इसी कॉलम में हमने कई बार पहले भी लिखा कि अफसरों को प्रतिबंध का तरीका ही आता है, और इसलिए उन्होंने बाजार पर अंधाधुंध प्रतिबंध लगाए। छत्तीसगढ़ में तो जब लॉकडाऊन में ढील दी गई तो पंक्चर बनाने वाले को सुबह 11 से दोपहर 1, महज दो घंटों की छूट दी गई थी, मानो उसकी दुकान पर कतार लगती हो, धक्का-मुक्की होती हो। सरकार को बाजार को बिना जरूरत हिकारत की नजर से नहीं देखना चाहिए, और एक सबडिविजन मुख्यालय के चेंबर को अफसरों से ऐसी भाषा में गिड़गिड़ाना पड़े, यह नौबत बहुत खराब है।
नए मियां सुभान अल्लाह
वो दिन बीत गए, जब ईमानदार-मेहनती अफसरों को जिले की कमान सौंपी जाती थी। देश की शीर्ष प्रशासनिक सेवा से आए ये अफसर इतने जमीनी भी होते थे कि ट्रांसफर होने पर जनता विरोध स्वरूप सडक़ों पर भी उतर आती थी। मगर प्रशासन में ऐसे अफसर नहीं के बराबर रह गए हैं। अब दागी-बागी टाइप के अफसरों की भरमार हो गई है। हाल यह है कि कई अफसरों के तबादले पर जनता-जनप्रतिनिधि धन्यवाद देने लगी है। हुआ यूं कि दो दिन पहले डेढ़ दर्जन से अधिक कलेक्टरों के तबादले हुए। कुछ के हटने पर स्थानीय लोगों में काफी खुशी देखी गई।
ऐसे ही एक जिले के कलेक्टर के तबादले पर कुछ स्थानीय नेता, प्रभारी मंत्री के घर पहुंचे और उन्हें कलेक्टर को हटवाने के लिए धन्यवाद दिया। इन नेताओं ने कहा कि जो भी नए आए हैं, वे कम से कम पुराने से तो बेहतर ही रहेंगे। नेताओं के जाने के बाद वहां कुछ लोगों ने मंत्रीजी को बता दिया कि स्थानीय नेताओं की खुशी ज्यादा दिन नहीं रहने वाली है। क्योंकि नए कलेक्टर, पुराने से ज्यादा अव्यावहारिक है। नए आए कलेक्टर, इससे पहले जिस जिले में भी रहे हैं, वहां के नेता और तो और सहयोगी अधिकारी-कर्मचारी परेशान रहते थे। एक बार तो विदाई समारोह में ही उनकी जमकर खिंचाई हुई थी। अब सरकार के सामने दिक्कत यह है कि कलेक्टरों के तबादले तो जल्दी-जल्दी नहीं किए जा सकते।
मुंगेली नया हॉटस्पॉट
छत्तीसगढ़ में प्रवासी मजदूरों के आने से कोरोना का कहर बरपा है। छोटे जिलों में से एक मुंगेली हॉट स्पॉट बन गया है। यहां अब तक 75 से अधिक कोरोना पॉजिटिव मिले हैं। इनमें से तकरीबन सभी क्वॉरंटीन सेंटरों में थे। मगर इतनी बड़ी संख्या में कोरोना पॉजिटिव प्रकरणों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी जिम्मेदार माना जा रहा है।
सुनते हैं कि मुंगेली के बाहरी हिस्से में एक स्थान पर कई प्रवासी लोग क्वॉरंटीन पर थे। मगर कुछ नेताओं ने स्थानीय प्रशासनिक अफसरों से मिलकर 14 दिन पूरा होने से पहले ही उन्हें घर भिजवा दिया। इसके बाद कुछ लोग कोरोना पॉजिटिव निकले। इसके चलते एकाएक कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ गई। कुल मिलाकर क्वॉरंटीन सेंटरों में अव्यवस्था को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। चूंकि किसी की जिम्मेदारी तय नहीं हो रही है, इसलिए व्यवस्था में सुधार भी नहीं हो रहा है।
बेचैनी कहें तो कैसे, किससे ?
वित्त विभाग के सरकारी खर्च में कटौती के आदेश से हडक़ंप मचा हुआ है। यह आदेश निगम-मंडलों में भी समान रूप से लागू होगा। कोरोना फैलाव के चलते खर्च में कटौती के आदेश के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि निगम-मंडलों में पदाधिकारियों की नियुक्ति कुछ समय के लिए टल सकती है। जबकि लालबत्ती के लिए अब तक प्रदेशभर से करीब 2 हजार से अधिक बॉयोडाटा सीएम-मंत्रियों और पार्टी संगठन तक पहुंच चुके हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को डेढ़ साल हो चुके हैं, और ऐसे में निगम-मंडलों में नियुक्ति नहीं होने से पद की चाह रखने वाले नेताओं-कार्यकर्ताओं में बेचैनी साफ देखी जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि दाऊजी को कार्यकर्ताओं की बेचैनी का अंदाज नहीं है। यही वजह है कि लॉकडाउन के बीच रोजाना पार्टी नेताओं से अलग-अलग मिल रहे हैं। मेल-मुलाकात कराने की जिम्मेदारी गिरीश देवांगन पर है। कुछ लोग तो दाऊजी को व्यक्तिगत काम बताकर निकल जा रहे हैं। कई ऐसे भी हैं, जिन्हें उम्मीद है कि जल्द ही निगम-मंडलों में नियुक्ति होगी। ये व्यक्तिगत काम कराने के बजाय पार्टी संगठन और क्षेत्र की समस्याओं पर चर्चा कर निकल जा रहे हैं।
पिछले दिनों रायपुर के चार-पांच पुराने नेताओं को बुलावा आया। इनमें से एक-दो तो रोजाना टीवी डिबेट में नजर आते हैं। अचानक बुलावे का वे कारण नहीं समझ पाए और चूंकि सभी एक साथ बैठे थे इसलिए दिल की बात दाऊजी को नहीं बता पाए। दाऊजी मोबाइल पर गेम खेलते रहे और हालचाल पूछते रहे। इन सभी की अकेले में चर्चा करने की इच्छा थी, लेकिन वे दाऊजी के सामने व्यक्त नहीं कर पाए। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें हुई। और जब दाऊजी को लगा कि सब कुछ ठीक-ठाक है, तो सिर हिलाकर इशारा कर दिया। सभी निकल आए। अब कोई कुछ बोलेगा नहीं, तो दाऊजी को पता चलेगा भी तो कैसे? ऐसे में पद न मिले तो बुरा नहीं मानना चाहिए।
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत...
कल रायपुर कलेक्ट्रेट में मंदिरों के पुजारी पहुंचे थे कि उनके भूखों मरने की नौबत आ गई है, सरकार उनकी मदद करे। अब भला सरकारी अमले की क्या हस्ती हो सकती है कि वह ईश्वर की नुमाइंदों की मदद करे? लेकिन ईश्वर को छोडक़र पुजारी सरकार की शरण में हैं। मौका ईश्वर के बारे में भी सोचने का है, और उसके भक्तों के बारे में भी जो कि मंदिर-मस्जिद, चर्च-गुरूद्वारे लगातार जाते ही रहे हैं, और ईश्वर के ऐसे नुमाइंदों को जानते-पहचानते भी हैं। मंदिर-मस्जिद में भीड़ की मनाही है, लेकिन भक्तों को किसी ने रोका तो नहीं है कि आते-जाते वहां रूककर इन लोगों की कुछ मदद ही कर दें?
फिर यह भी सोचने का मौका है कि ईश्वर यह कर क्या रहा है? जिसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, जिसकी मर्जी के बिना किसी को एक सांस भी कम या ज्यादा नहीं मिलती, जो कण-कण में मौजूद है, जो सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ है, जो मन की बातों को पढ़ लेता है, जो भविष्य तय कर लेता है, वह आज कहां हैं, और उसके भक्तों का यह हाल क्यों है? एक अकेला अनदेखा कोरोना किस तरह पूरी दुनिया पर राज कर रहा है, यह भी सोचने की बात है। आज तो तीनों लोकों में कोरोना ही विराजमान दिख रहा है, और वही दुनिया को चलाते दिख रहा है।
आस्थावानों के लिए आज पहेलियां ही पहेलियां हैं, सवाल ही सवाल हैं, दूसरी तरफ नास्तिकों के लिए कल तक विज्ञान था, और आज भी विज्ञान है। बदलते वक्त के साथ नास्तिकों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि विज्ञान हर सवाल का आखिरी जवाब है, और हर आस्थावान को बचने के लिए आखिर में विज्ञान के पास ही जाना पड़ रहा है। और तो और पिछले दो-तीन महीनों से गोमूत्र और गोबर की महिमा का गान भी गायब हो गया है, और लोग डॉक्टर-नर्स की आरती उतार रहे हैं। कोरोना चाहे जितनों को मारे, विज्ञान जितनों को बचा लेगा, वे कम से कम यह तो समझ ही जाएंगे कि ईश्वर की धारणा कुछ वैसी ही है, जैसी कि मियां गालिब ने लिखी थी- हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल के खुश रखने को गा़लिब ये खय़ाल अच्छा है...।
प्रशासनिक फेरबदल-1
कोरोना महामारी के बीच थोक में कलेक्टरों के तबादले किए गए। राज्य बनने के बाद पहला मौका है, जब एक साथ 22 कलेक्टरों को बदला गया। वैसे तो, पहले जिलों की संख्या भी कम थी। मगर इतने बड़े पैमाने पर फेरबदल कभी नहीं हुआ। कुछ को अच्छे काम की वजह से बड़ा जिला मिला, तो दिग्गज नेताओं की सिफारिशों को भी महत्व दिया गया।
दंतेवाड़ा कलेक्टर टोपेश्वर वर्मा को राजनांदगांव भेजा गया। टोपेश्वर ने दंतेवाड़ा में बेहतर काम किया था। दंतेवाड़ा विधानसभा चुनाव में विपरीत परिस्थितियों में कांग्रेस को जीत मिली थी, तो इसका ईनाम मिलना ही था। सूरजपुर कलेक्टर दीपक सोनी को दंतेवाड़ा भेजा गया हैं। दंतेवाड़ा में 62 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। सरकार ने लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाने के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए हैं। दीपक का काम बेहतर रहा है, और उन पर इन कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी है।
लंबे समय से लूप लाइन में रहे सत्यनारायण राठौर को आखिरकार कलेक्टरी का मौका मिल गया। उनके खिलाफ पूर्व में विभागीय जांच चल रही थी। वे जांजगीर-चांपा जिले के रहवासी हैं और चर्चा है कि विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत की पसंद पर उन्हें कोरिया कलेक्टर बनाया गया है। वैसे भी कोरिया, डॉ. महंत की पत्नी सांसद ज्योत्सना महंत के संसदीय क्षेत्र का हिस्सा भी है। इसी तरह संचालक भू अभिलेख रमेश कुमार शर्मा को कवर्धा कलेक्टर का दायित्व सौंपा गया है।
रमेश मूलत: राजनांदगांव जिले के रहवासी हैं। उन्हें राजस्व अभिलेखों के कम्प्यूटराईजेशन का श्रेय दिया जाता है। मगर पिछली सरकार में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं मिली थी। उन्हें कवर्धा कलेक्टरी का मौका मिला है और चर्चा है कि उनकी पोस्टिंग में परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर की भी भूमिका रही है। कवर्धा अकबर का विधानसभा क्षेत्र है। कुछ लोगों के खिलाफ पहले शिकायतें रही हैं, लेकिन मौजूदा सरकार ने उन्हें कलेक्टर बनाकर खुद को साबित करने का मौका भी दिया है। इनमें गरियाबंद के नए कलेक्टर छत्तर सिंह डेहरे और सूरजपुर कलेक्टर रणवीर शर्मा शामिल हैं।
महासमुंद और बलौदाबाजार-भाटापारा के कलेक्टरों की अदला-बदली की गई है। अब सुनील कुमार जैन औद्योगिक जिले बलौदाबाजार-भाटापारा पहुुंच गए हैं, तो कार्तिकेश गोयल के लिए संतोषजनक बात यह है कि वे पुराने जिले महासमुंद में काम करेंगे। एक चौंकाने वाली पोस्टिंग भूरे सर्वेश्वर नरेंद्र की रही है। उन्हें साल भर के भीतर मुंगेली से दुर्ग में पदस्थ किया गया। दुर्ग मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। यह राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से अहम जिला रहा है और इसकी पोस्टिंग को बहुत बेहतर माना जाता है। कोई बड़ी उपलब्धि न होने के बावजूद नरेंद्र ने लंबी छलांग लगाई है।
भीम सिंह, रजत बंसल और जयप्रकाश मौर्य, ऐसे अफसर हैं, जिनके खिलाफ स्थानीय स्तर पर शिकायतें भले ही हो, लेकिन सरकार के रणनीतिकारों के पसंदीदा रहे हैं। यही वजह है कि भीम सिंह को रायगढ़, बंसल को बस्तर और मौर्य को नांदगांव से धमतरी भेजा गया है। धमतरी अपेक्षाकृत छोटा जिला है, लेकिन कलेक्टरी का अपना अलग ही रूतबा है। मौर्य की पत्नी रानू साहू को बालोद कलेक्टर से हटाकर जीएसटी कमिश्नर बनाया गया है। खास बात यह है कि रानू साहू को हटाने के लिए कांग्रेस के आदिवासी विधायकों का एक प्रतिनिधि मंडल सीएम से मिला था। इसके बाद से उनका हटना तय माना जा रहा था। इससे परे पुष्पेंद्र कुमार मीणा को पहली बार कलेक्टरी का मौका मिला है। उन्हें नारायणपुर कलेक्टर बनाया गया है। मीणा के साथ-साथ रितेश कुमार अग्रवाल और जन्मेजय महोबे को पहली बार कलेक्टर बनने का मौका मिला है।
वैसे तो सारांश मित्तर, संजीव कुमार झा को अपेक्षाकृत बड़े जिले क्रमश: बिलासपुर और सरगुजा की कमान सांैपी गई है। दोनों को अहम दायित्व सौंपा गया है। शिखा राजपूत तिवारी को गौरेला-पेंड्रा-मरवाही नए जिले से हटाकर नियंत्रक नापतौल की जिम्मेदारी दी गई है। शिखा से स्थानीय प्रशासनिक अमला नाराज था। एसपी से भी उनकी नहीं बन रही थी। ऐसे में उनका हटना तय माना जा रहा था। राजेश सिंह राणा पिछली सरकार में मलाईदार पद पर रहे हैं। उनके खिलाफ गंभीर शिकायतों को हमेशा अनदेखा किया गया। मगर सरकार बदलते ही उनकी शिकायतों पर गौर किया जाने लगा। उन्हें राज्य योजना आयोग का सदस्य सचिव बनाया गया।
फेरबदल-2
एसीएस अमिताभ जैन को वित्त के साथ-साथ जल संसाधन का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया है। उनके पास पीडब्ल्यूडी का प्रभार था। सिद्धार्थ कोमल परदेशी के पास स्वतंत्र रूप से पीडब्ल्यूडी का प्रभार रहेगा। एसीएस रेणु पिल्ले को चिकित्सा शिक्षा का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया है। चूंकि स्वास्थ्य सचिव निहारिक बारिक सिंह वर्तमान में कोरोना के खिलाफ लड़ाई की अगुवाई कर रही है। ऐसे मेें उनसे चिकित्सा शिक्षा का दायित्व इसलिए लिया गया है कि नए मेडिकल कॉलेज खोले जाने हैं और चिकित्सा शिक्षा में ध्यान देने की जरूरत है। एक तरह से निहारिका बारिक के बोझ को हल्का किया गया है।
डॉ. आलोक शुक्ला को स्कूल शिक्षा के साथ-साथ कौशल उन्नयन और व्यापम का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया है। डॉ. शुक्ला अगले कुछ दिनों में रिटायर होने वाले हैं। ऐसे में उन्हें अतिरिक्त दायित्व देकर यह संकेत दिया गया है कि उन्हें एक्सटेंशन दिया जाएगा। भुवनेश यादव को दवा निगम के एमडी पद से हटाकर ग्रामोद्योग विभाग का विशेष सचिव बनाया गया है। चर्चा है कि स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव, यादव को निगम से हटाने के लिए काफी समय से प्रयासरत थे।
कुछ फेरबदल चौंकाने वाले रहे हैं। मसलन, उद्यानिकी संचालक का दायित्व भारतीय वन सेवा के अफसर वी माथेश्वरन को दिया गया है। यह संचानालय भ्रष्टाचार को लेकर कुख्यात रहा है और यहां के अफसरों की कार्यप्रणाली को लेकर विभागीय मंत्री रविंद्र चौबे नाराज रहे हैं। इसी तरह एस आलोक को दुर्ग जिला पंचायत का सीईओ बनाया गया है। आलोक पंचायत सेवा के हैं और उन्होंने दंतेवाड़ा में अच्छा काम किया था। इसके प्रतिफल अब तक जिस पद पर आईएएस अफसरों की पोस्टिंग होती रही है, वहां आलोक को जिम्मेदारी दी गई।
राज करेगा खालसा
भूपेश सरकार के 18 महीने के कार्यकाल में तीसरी बार इंटेलीजेंस चीफ बदले गए हैं। पहले संजय पिल्ले, फिर हिमांशु गुप्ता और अब रायपुर आईजी आनंद छाबड़ा को इंटेलीजेंस चीफ का अतिरिक्त दायित्व सौंपा गया है। मगर इस फेरबदल से अशोक जुनेजा पावरफुल हुए हैं। जुनेजा पिछली सरकार में इंटेलीजेंस चीफ थे। वर्तमान में नक्सल इंटेलीजेंस का प्रभार भी उनके पास है। यानी जुनेजा, छाबड़ा और जीपी सिंह की तिकड़ी पीएचक्यू और बाहर भी पावरफुल हुई है। महकमे के भीतर हंसी मजाक में लोग कह रहे हैं, राज करेगा खालसा।
हवाई के लिए खास रियायतें !
सुप्रीम कोर्ट ने हवाई यात्रियों के बीच दूरी को दी गई छूट पर आपत्ति जाहिर की है और केन्द्र सरकार से सवाल किया है कि क्या कोरोना को यह मालूम है कि उसे हवाई यात्रियों को नहीं छूना है? अदालत ने एयर इंडिया को दस दिनों का समय दिया है कि तीन सीटों की कतार में बीच की सीट खाली रखने का इंतजाम कर ले। दूसरी तरफ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कहा है कि दो मुसाफिरों के बीच एक मीटर की दूरी बनाए रखना जरूरी है। इन दोनों बातों से परे आज सुबह की खबर यह है कि कल दिल्ली से पंजाब की एक उड़ान ने एक मुसाफिर कोरोना पॉजिटिव निकला तो बाकी सभी 36 मुसाफिर और 4 कर्मचारी, 40 लोग क्वारंटीन में भेज दिए गए।
इधर कुछ लोग यह दिक्कत बता रहे हैं कि अगर किसी बच्चे या बूढ़े को लेने के लिए जाना पड़े, तो जिस शहर गए, 14 दिन वहां क्वारंटीन करना पड़ेगा, और फिर लोगों को लेकर वापिस आने पर अपने शहर में फिर 14 दिन क्वारंटीन, मतलब यह कि कुछ घंटे का सफर और एक महीना क्वारंटीन।
ऐसी तमाम दिक्कतों को देखते हुए अब लोगों को लग रहा है कि हवाई सफर किया भी जाए, या उसका इरादा छोड़ दिया जाए? जिस तरह की रियायत केन्द्र सरकार ने कोरोना प्रतिबंधों में हवाई मुसाफिरों के लिए दी है वह अपने आपमें खतरनाक है क्योंकि ट्रेन में जितनी दूरी पर दो मुसाफिरों को बिठाया जा रहा है, उतनी दूरी तो प्लेन में बीच की सीट खाली छोडऩे पर भी नहीं बन सकेगी। फिलहाल दिलचस्प बात यह है कि जो मीडिया कल तक रेलगाडिय़ों पर फोकस किए हुए था, अब ट्रेन से पहुंचते 10 हजार मुसाफिरों के बजाय उसकी दिलचस्पी और उसका फोकस सौ-दो सौ हवाई मुसाफिरों पर आ गया है।
कानून के रखवाले ही सवालों के घेरे में
लोकतंत्र में न्याय के लिए अदालतों से आखरी उम्मीद रहती है, लेकिन पिछले कुछ समय से यह उम्मीद भी धीरे-धीरे टूटती नजर आ रही है। इस आखरी उम्मीद को तोडऩे में ही कानून के उन रखवालों का बड़ा हाथ है, जो वकालत के पेशे से जुड़े हैं। ऐसा एक आडियो वायरल हो रहा है, जिसमें दो वकील किसी केस के सिलसिले में बात कर रहे हैं। कोरबा जिले के एक जूनियर वकील ने अपने किसी क्लाइंट की जमानत के लिए बिलासपुर हाईकोर्ट के वकील से संपर्क किया और उन्हें केस दिलाया। सीनियर-जूनियर की बातचीत में फीस का विवाद तो है ही, साथ वकालत के पेशे के गलत इस्तेमाल का भी जिक्र आता है। जूनियर वकील का आरोप है कि सीनियर ने मामले को रफा-दफा करने के लिए पुलिस के अफसरों को रिश्वत देने के लिए मुवक्विल प्रेरित किया। जब जूनियर वकील ने इस पर सवाल उठाया तो सीनियर का कहना था कि वे कुछ भी कर सकते हैं। बातचीत के दौरान भद्दी-भद्दी गालियों का भी इस्तेमाल किया गया है। इस पूरे मामले की आडियो रिकार्डिंग के साथ कोरबा के एसपी से शिकायत भी की गई है। कार्रवाई के नतीजे के लिए फिलहाल इंतजार करना होगा, लेकिन एक जूनियर वकील ने साहस दिखाते हुए मामले को उजागर किया है। वरना इस तरह के कई किस्से सुनने और देखने को मिलते हैं और लगभग हर पेशे में इस तरह की गंदगी रहती है, लेकिन यह मामला कानून के रखवाले कहे जाने वाले वकीलों का है, इसलिए इस पर चर्चा तो होनी चाहिए। इसके साथ सीनियर वकील सत्ताधारी दल के पदाधिकारी रहे हैं। इसके अलावा भी कई महत्वपूर्ण जगहों पर रहे हैं। इसलिए यह मामला सामान्य नहीं है, बल्कि हाईकोर्ट के नामी-गिरामी वकीलों के अंदरुनी लड़ाई का भी बड़ा उदाहरण है। चर्चा तो यह भी है कि सीनियर वकील संवैधानिक पद पाने की कतार में है। इस वजह से भी वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके माहौल बना रहे हैं। हालांकि इस बार उनका दांव उलटा पड़ गया और रिकार्डिंग बाहर आ गई है। जो भी हो, लेकिन कानून के रखवाले ही न्याय के तराजू से अन्याय करेंगे तो आखिरी उम्मीद भी खतरे में पड़ जाएगी।
सोशल मीडिया पर किसी जगह की फोटो को किसी और जगह की बताकर साबित करना अधिक मुश्किल नहीं रहता। इसी तरह किसी वक्त की फोटो को किसी और वक्त की बताना भी मुश्किल नहीं रहता क्योंकि हर फोटो या वीडियो पर तारीख तो दर्ज होती नहीं। अब इस शराब दुकान की तस्वीर तो सही लग रही है, लेकिन यह छत्तीसगढ़ के नाम से इसलिए नहीं खप पाएगी कि इसमें दुकानदार या ठेकेदार का नाम लिखा है जो कि इस राज्य में बंद है, और दुकानें सरकारी हैं। इस तस्वीर में ऊपर के कोने में शाहजी इंदौर लिखा हुआ है जो कि कम्प्यूटर से निकाले गए अक्षर दिख रहे हैं, पेंट किए हुए नहीं। फिर एक छेडख़ानी इसमें लिखे गए साल में दिख रही है जो कि तस्वीर में बाद में जोड़ा गया है। इसके बाद जो एक मजेदार चेतावनी एक पूरे शटर पर लिखी हुई दिख रही है, वैसी चेतावनी कोई दुकान अपने धंधे को खत्म करने के लिए लिखती नहीं है, फिर चाहे वह दारू का धंधा ही क्यों न हो। खैर, तस्वीर किसी भी प्रदेश की हो, इस पर लिखी गई टिप्पणी तो सभी प्रदेशों पर लागू होती है। अगली बार सोशल मीडिया पर ऐसी कोई तस्वीर देखें, तो बारीक नजरों से उसमें छेड़छाड़ या उसके झूठ को जरूर पकड़ लें।
सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
अब कोरोना के साथ ही जीने के आसार जब दिख रहे हैं तो लोग सेनेटाइजर के बढ़े हुए खर्च से निपटने के रास्ते निकाल रहे हैं। सबसे आसान रास्ता तो यही है कि थोड़ा सा सेनेटाइजर खरीदकर उसमें पानी मिला दिया जाए, और चाहे वह कितना ही बेअसर हो, वह कम से कम दिमागी राहत तो देगा ही। दूसरा तरीका यह है कि सेनेटाइजर का जरा भी इस्तेमाल न हो, और हरे-नीले रंग का कोई पानी ही अल्कोहल जैसी गंध के साथ रख दिया जाए। कुछ ऐसा ही मास्क को लेकर भी हो रहा है कि तीन लेयर वाले मास्क की जगह अब एक लेयर वाले मास्क ही बाजार में दिखते हैं, और उनकी सफाई-धुलाई का भी कोई इंतजाम है या नहीं इसका ठिकाना नहीं है।
धीरे-धीरे लोगों में साफ-सफाई को लेकर, सावधानी को लेकर लापरवाही आने ही लगती है, और 20 सेकंड का हाथ धोना 15 से होते हुए 10 सेकंड पर पहुंचने लगा है। पान ठेले खुलने के बाद अब दांतों के बीच की खाई में फंसने वाले रेशों और सुपारी को निकालने के लिए नाखून से लेकर नोट तक, और टूथ पिक से लेकर प्लॉस तक हाथ से होते हुए मुंह तक जाने लगे हैं, और सावधानी खत्म हो रही है। इसे दुनिया के कई देशों में भुगता गया है जब लोग सफाई और सावधानी से थकने लगते हैं, हाइजीन-फटीक। लेकिन याद रखना चाहिए कि सडक़ों के किनारे कौन सी चेतावनी लिखी रहती है- सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
दांव उलटा पड़ गया
छत्तीसगढ़ सरकार ने विमान से आने वाले यात्रियों के लिए भी 14 दिन का क्वॉरंटीन अनिवार्य रखा है। हालांकि वे अपनी च्वॉइस से पब्लिक या पेड क्वॉरंटीन में रह सकते हैं, लेकिन कई मुसाफिरों की समस्या है कि वे एक राज्य से दूसरे राज्य परिवार के किसी सदस्य के फंसे होने के कारण उन्हें लाने के लिए आ जा रहे हैं। कुल मिलाकर इसमें एक दिन से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा, लेकिन नियमानुसार उन्हें दो बार 14-14 दिन का क्वॉरंटीन पीरियड बीतना पड़ेगा। ऐसे ही एक मुसाफिर ने अपनी परेशानी छत्तीसगढ़ के एक सांसद महोदय को बताई। यात्री ने इस नियम से छूट दिलाने का आग्रह करते हुए कहा कि केवल अपनी पत्नी को लेकर अपने राज्य लौट जाएंगे। एयरपोर्ट में तमाम जांच-पड़ताल तो हो ही रही है और स्क्रीनिंग के बाद ही यात्रा करने की अनुमति दी जा रही है। सांसद महोदय को बात जच गई तो उन्होंने मीडिया के जरिए राज्य सरकार से छूट देने की मांग कर डाली। इसके बाद सत्ताधारी दल के नेताओं ने सांसद महोदय की जमकर खिंचाई की। क्योंकि नियम तो केन्द्र सरकार ने तय किए हैं और राज्य सरकार केवल उसका पालन कर रही है। कांग्रेस ने तो यह आरोप लगाया कि उन्हें केवल हवाई यात्री की चिंता हो रही है। रेल, बस और पैदल आने वाले लोगों के बारे में तो उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। बाद में सांसद महोदय को भी समझ आ गया कि उनका दांव उलटा पड़ गया, इसलिए चुप रहना ही बेहतर है।
वन अफसरों के प्रभार बदलेंगे
वन विभाग में जल्द ही सीनियर आईएफएस अफसरों के प्रमोशन के लिए डीपीसी होगी। मौजूदा हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स मुदित कुमार सिंह सीजी कॉस्ट का डीजी बनाने के बाद वन विभाग से बाहर हो गए हैं। उनकी जगह पीसीसीएफ (प्रशासन) राकेश चतुर्वेदी को हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स बनाया जा सकता है। केन्द्र सरकार ने हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स की डीपीसी की इजाजत दे दी है। साथ ही साथ पीसीसीएफ के एक और पद को भी मंजूरी दी गई है।
वन अनुसंधान संस्थान के डायरेक्टर पद को पीसीसीएफ स्तर का पद घोषित किया गया है। पीसीसीएफ के इस अतिरिक्त पद के लिए सीनियर एपीसीसीएफ पीसी पाण्डेय को पदोन्नत करने का रास्ता साफ हो गया है। इसके अलावा चार एपीसीसीएफ की भी पदोन्नति होने की संभावना है। इसमें सीसीएफ स्तर के अफसर सुनील मिश्रा, प्रेमकुमार, विश्वास और ओपी यादव को एपीसीसीएफ के पद पर पदोन्नति दी जा सकती है।
अगले कुछ महीनों में सीनियर अफसर रिटायर हो रहे हैं। जुलाई में एपीसीसीएफ अनूप श्रीवास्तव रिटायर होंगे और अगस्त में वन विकास निगम के एमडी राजेश गोवर्धन का रिटायरमेंट है। गोवर्धन के रिटायर होने के बाद पीसीसीएफ के पद पर देवाशीष दास को पदोन्नत किया जा सकता है।
मंत्री की रिकॉर्डिंग-एक
वक्त ऐसा आ गया है कि जिससे बात करें वह रिकॉर्डिंग कर रहे हैं मानकर चलना चाहिए। कल शाम से एक ऐसा टेलीफोन कॉल हवा में तैर रहा है कि चेन्नई से एक मजदूर छत्तीसगढ़ के एक मंत्री से बात कर रहा है। वह बता रहा है कि 40-45 मजदूर वहां फंस गए हैं। यह सुनकर मंत्रीजी मोटी-मोटी गालियां देते सुनाई देते हैं कि वहां गए ही क्यों गए थे काम करने के लिए? क्या छत्तीसगढ़ में काम नहीं मिलता? इस पर वह मजदूर पूरे दमखम के तर्क से, लेकिन गिड़गिड़ाते हुए बताता है कि छत्तीसगढ़ में तो साल भर काम मिलता नहीं, बाहर तो जाना ही पड़ता है। और चेन्नई में साढ़े 3 सौ रुपये रोजी मिलती है।
अब एक मजदूर से बातचीत की इस कॉल को मंत्री तो रिकॉर्ड करेगा नहीं, जिसमें वह खुद गालियां दे रहा है, रिकॉर्ड तो मजदूर की तरफ से ही हुआ होगा। लोकतंत्र परिपक्व होते दिख रहा है कि एक मजदूर का इतना हौसला बढ़ गया है। अब सवाल यह है कि बातचीत में जिन लोगों को गालियां देने की आदत है, वे लोग अपनी आदत सुधार लें, वरना ऐसी कई रिकॉर्डिंग सामने आती रहेगी।
मंत्री की रिकॉर्डिंग-दो
एक दूसरे मंत्री की कई किस्म की रिकॉर्डिंग राजधानी तक पहुंची हैं जिनमें वे एक बड़े नेता के खिलाफ हिकारत भरी आवाज में अपमानजनक बातें कर रहे हैं। ऐसी बातें बोलना तो आसान होता है, लेकिन ऐसी बातों का जो नतीजा होता है, उन्हेें झेलना मुश्किल होता है। आज मंत्री के आसपास के बहुत से लोग सरकार से बचकर भागे-भागे फिर रहे हैं, और उनकी मुसीबतें बढ़ती चली जा रही हैं।
सिंहदेव फंसे, और निकले
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के उस बयान पर पार्टी में गदर मच गया जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रदेश में 30 लाख लोग कोरोना संक्रमित हो सकते हैं। टीवी चैनलों में स्वास्थ्य मंत्री के हवाले से 6 हजार लोगों की मौत की आशंका जताई गई। स्वास्थ्य मंत्री के बयान की तीखी प्रतिक्रिया हुई। उन पर सोशल मीडिया प्लेटफार्म में उन पर भय का वातावरण पैदा करने का आरोप भी लगे। पूर्व मंत्री राजेश मूणत ने तो फेसबुक पर मैसेज पोस्ट कर इस पूरे मामले पर सरकार से सफाई भी मांगी। सिंहदेव के बयान से खफा कांग्रेस के कुछ नेताओं ने फोन कर प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया तक को इसकी जानकारी दी।
सिंहदेव के बयान की वीडियो क्लिप भी कांग्रेस हाईकमान को भेजी गई। फिर क्या था, पार्टी के सिंहदेव कैंप की तरफ से डैमेज कंट्रोल की कोशिश शुरू हुई। सिंहदेव ने पहले तो मीडिया रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज किया। और कह दिया कि उन्होंने कभी इस तरह की बातें नहीं की। उन्हें भाजपा के लोगों का आश्चर्यजनक साथ मिला। पूर्व मंत्री राजेश मूणत ने अपना फेसबुक मैसेज डिलीट कर दिया।
रात तक मीडिया से सिंहदेव की कोरोना-आशंका पूरी तरह गायब हो गई। सिंहदेव का मीडिया प्रबंधन काबिले तारीफ था, तो भाजपा के रमन सिंह कैंप का सिंहदेव के लिए सहयोगात्मक रवैया भी चर्चा का विषय रहा। राजनीतिक गलियारों में रमन सिंह विरोधी समझे जाने वाले भाजपा विधायकों को सीएम भूपेश बघेल के सहयोगी के रूप में प्रचारित किया जाता है, तो रमन सिंह समर्थक सिंहदेव के लिए कोई परेशानी खड़ा नहीं करना चाहते हैं। कम से कम इस पूरे घटनाक्रम से यह बात साबित भी हुई है। भाजपा की अंदरूनी खींचतान का बड़ा फायदा यह रहा कि कांग्रेस सरकार एक बड़ी आलोचना झेलने से बच गई।
एक नशे से दूसरे को खतरा..
छत्तीसगढ़ के लोगों में तम्बाकू से बने हुए गुड़ाखू का चलन खूब है। किसी भी जगह मजदूरों को देखें तो काम के बीच वे किनारे होकर छोटी सी डिब्बी निकालकर मंजन की तरह दांतों पर गुड़ाखू घीसते दिखते हैं, और जैसा तम्बाकू का असर होता है वैसा हल्का नशा इससे आता है और लोग इसके आदी होते चलते हैं। अभी लगातार इसकी कमी चलती रही, और रायपुर में एक गुड़ाखू कारोबारी की दुकान से मुफ्त गुड़ाखू बंटने की अफवाह पर लोग वहां डेरा डाले दिखते थे। कई जिलों में लॉकडाऊन के बाद अभी किसी दुकान में गुड़ाखू बिकना शुरू हुआ, तो सौ-पचास लोगों की कतार लग गई। शराब के कुछ बड़े कारोबारियों को उसमें अपना नुकसान दिखता है। दरअसल कोई भी नशा दूसरे नशे के बाजार को कमजोर करता है, इसलिए किसी प्रदेश में अगर चरस या अफीम, या दूसरे किस्म के विदेशी नशे पैर नहीं जमा पाते, तो उसका श्रेय वहां के अफसरों को नहीं, शराब कारोबारियों को जाता है जो कि शराब के अलावा बाकी किस्म के नशों पर नजर रखते हैं, और उन्हें पकड़वाते हैं। इन दिनों शराब कारोबारियों की नजर गुड़ाखू पर है, और वे इसके खिलाफ तस्वीरें और वीडियो फैलाने में भी लगे हैं।
सियासत की मैली गंगा
राजनीति में विपरीत विचारधारा के प्रवक्ताओं की नोंकझोंक और आरोप-प्रत्यारोप सामान्य बात है, लेकिन छत्तीसगढ़ में बीजेपी-कांग्रेस के प्रवक्ता एक दूसरे के खिलाफ ऐसे भिड़ते हैं, जैसे जानी-दुश्मन हों। दोनों एक दूसरे के खिलाफ हमला बोलने का एक भी मौका नहीं छोड़ते। अखबारों से लेकर सोशल मीडिया में एक दूसरे के खिलाफ टिप्पणियां करने से नहीं चूकते। हाल ही में बीजेपी प्रवक्ता ने अपने फेसबुक पर लिखा कि शहर के बड़े अस्पताल में कांग्रेस के बड़बोला प्रवक्ता ने ब्लैकमेलिंग की कोशिश की। इस पोस्ट में पहले अस्पताल का नाम भी लिखा गया था। जिसे बाद में हटा दिया गया। चर्चा है कि अस्पताल प्रबंधन की ओर से कड़ी आपत्ति के बाद नाम हटा लिया गया। कहा जा रहा है कि अस्पताल प्रबंधन ने कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी थी। ब्लैकमेलिंग की कोशिश वाले इस पोस्ट में कांग्रेस प्रवक्ता का नाम तो नहीं लिखा गया है, लेकिन तमाम लोग समझ रहे हैं कि यह किसके लिए लिखा गया है। लेकिन फिर भी सत्ताधारी दल के किसी प्रवक्ता पर ऐसे आरोप लगे हैं, तो वो गंभीर मामला है। हालांकि जिसके खिलाफ आरोप की संभावना जताई जा रही है, उसने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और सरकार में बैठे लोगों को मामले से अवगत कराया है और मांग की है कि पार्टी को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। बीजेपी प्रवक्ता पहले भी ऐसे सनसनीखेज पोस्ट के जरिए सुर्खियां बटोर चुके हैं। राजधानी के एक अपहरणकांड पर भी उन्होंने पोस्ट किया था, जिसमें उनके खिलाफ आईटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया था, फिर बाद में उन्होंने माफी मांगते हुए पोस्ट को हटा लिया था। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि सियासत में आरोप-प्रत्यारोप केवल जुबानीखर्च या छवि धूमिल करने का हथियार बन गया है। आरोप-प्रत्यारोप व्यक्तिगत लड़ाई और दुर्भावना तक पहुंच गए हैं, जिसके कारण उसकी गंभीरता भी कम हुई है। बीजेपी या कांग्रेस प्रवक्ता के पास कोई तथ्य हैं, तो उसे उजागर करना चाहिए, ताकि सियासत में अच्छे और साफ सुथरी छवि वाले लोग आएं, लेकिन यह सब बीते दिनों की बात हो गई। विपक्ष के साथ अपने भी आरोपों की बहती गंगा में हाथ धोने में लग जाते हैं। यहां भी कांग्रेस के ही कुछ लोग मामले को तूल देकर गंगा को मैली कर रहे हैं।
न्याय के खुलासे में अन्याय
भाजपा के नेता राजीव गांधी न्याय योजना को लेकर नुक्ताचीनी कर रहे थे कि कांग्रेस के लोगों ने एक सूची जारी कर दी। जिसमें खुलासा हुआ कि न्याय योजना के जरिए पूर्व सीएम रमन सिंह और उनके पुत्र अभिषेक सिंह के खाते में करीब 50 हजार रूपए जमा हुए। नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक के खाते में 25 हजार जमा किए गए। कुछ इसी तरह अन्य भाजपाई पूर्व मंत्री ननकीराम कंवर, पुन्नूलाल मोहिले, पूर्व सांसद दिनेश कश्यप, लच्छूराम कश्यप, बैदूराम कश्यप, लता उसेंडी, दयालदास बघेल और श्याम बिहारी जायसवाल के भी खाते में धान खरीद की अंतर राशि जमा हुई है।
चूंकि इन नेताओं का नाम किसान के रूप में प्राथमिक सोसायटियों में दर्ज है और सोसायटी के जरिए अपना धान बेचा है, तो न्याय योजना का फायदा मिलना ही था, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। कांग्रेस के किसान नेताओं को भी योजना का फायदा हुआ है और उनके खाते में भी राशि जमा हुई है। मगर सूची को लेकर भाजपा में हलचल ज्यादा है। वजह यह है कि रमन सिंह-संगठन में हावी खेमे के हितग्राही नेताओं की सूची जारी हुई है। सिर्फ ननकीराम कंवर और बस्तर के एक-दो नेताओं के नाम अपवाद स्वरूप सूची में जरूर हैं, लेकिन रमन विरोधी खेमे के नेताओं को न्याय योजना के जरिए कितनी राशि मिली है, इसका खुलासा नहीं किया गया। जबकि नारायण चंदेल, अजय चंद्राकर और शिवरतन शर्मा जैसे बड़े किसान हैं। कुल मिलाकर सूची के साथ न्याय नहीं किया गया।
किसानों को बेनिफिट- एक तीर से दो निशाना
राज्य सरकार ने कोरोना के संकट में किसानों के लिए न्याय योजना शुरु की है। किसानों के खातों में सीधे पैसे ट्रांसफर किए गए। योजना की लांचिंग के लिए कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत तमाम आला नेता जुड़े थे। तमाम नेताओं ने योजना की खूब तारीफ की। राहुल गांधी ने कहा कि कोरोना के संकट में छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों के साथ न्याय किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री से भी आग्रह किया था कि किसानों और मजदूरों के खातों में सीधे पैसे ट्रांसफर किया जाएगा तो उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी रहेगी। उन्होंने यह भी कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार की यह योजना पूरे देश के लिए रोल मॉडल है और देशभर में इसे लागू किया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि योजना से किसानों का भला होगा और उनको बड़ी राहत मिली है, लेकिन कन्फ्यूजन यह है कि जब यह राशि कोरोना संकट के कारण दी जा रही है, जैसा कि राहुल गांधी ने कहा है, तो फिर धान के समर्थन मूल्य की बकाया राशि कब मिलेगी। हालांकि सरकार ने किसानों को समर्थन मूल्य की बकाया राशि देने के लिए 57 सौ करोड़ का प्रावधान बजट में कर दिया था और अभी जो पैसा दिया गया है, वो बकाया राशि का ही पैसा है। इस बीच कोरोना का संकट आ गया तो मुश्किल घड़ी में सरकारी मदद का नया एंगल आ गया। अब ऐसे में किसान इसे कोरोना रिलीफ मानें या 25 सौ रुपए समर्थन मूल्य की बकाया राशि, यह उनकी समस्या है, लेकिन सरकार ने तो एक तीर से दो निशाना साध दिया है।
पीएम के फोन का फायदा
पीएम ने पिछले दिनों जनसंघ के जमाने के दो पुराने नेता रजनीताई उपासने और देवेश्वर सिंह से फोन पर बातचीत की। रजनीताई वर्ष-77 में रायपुर शहर से विधायक रही हैं। जबकि देवेश्वर सिंह वर्ष-67 में सरगुजा जिले की लखनपुर सीट से जनसंघ के विधायक रहे। दोनों की उम्र अब 90 के आसपास हो चली है। पीएम का फोन आते ही दोनों के परिवारों में खुशी का ठिकाना नहीं रहा। पहले तो खुद दोनों नेताओं को एकाएक पीएम से बातचीत का भरोसा नहीं हुआ।
खैर, पीएम का फोन आने के बाद भाजपा में दोनों परिवार के लोगों की पूछपरख बढ़ गई है। पीएम से फोन पर बातचीत की सूचना पाते ही केन्द्रीय मंत्री रेणुका सिंह तो अगले दिन लॉकडाउन तोडक़र देवेश्वर सिंह से मिलने पहुंच गईं। देवेश्वर सिंह बरसों से सरगुजा में रेल सुविधाओं के लिए लड़ते रहे हैं। पीएम से पांच मिनट की बातचीत में भी उन्होंने अंबिकापुर से दिल्ली तक नई ट्रेन शुरू करने की गुजारिश की। देवेश्वर के पुत्र मनीष सिंह भाजपा के पार्षद हैं और अब उन्हें काफी महत्व मिल रहा है।
कुछ इसी तरह का हाल रजनीताई के पुत्र सच्चिदानंद उपासने का भी है। हालांकि राज्य में भाजपा की सरकार रहते उन्हें सबकुछ दिया गया जिसकी चाह पार्टी कार्यकर्ताओं को रहती है। सच्चिदानंद को पार्षद, महापौर और विधायक की टिकट मिली, लेकिन वे कोई चुनाव नहीं जीत पाए। बावजूद इसके उन्हें मलाईदार दारू निगम का दायित्व सौंपा गया। इसके बाद भी उपासने की शिकायत रही है कि उन्हें टीबी डिबेट में मौका नहीं दिया जाता है, न ही उनके नाम से कोई बयान जारी होता है। इसको लेकर वे कई बार मीडिया विभाग के प्रमुख नलिनेश ठोकने से भिड़ चुके हैं। वरिष्ठ नेताओं से ठोकने की शिकायत भी कर चुके हैं। मगर पीएम के फोन के बाद अब उनकी स्थिति बदल गई है। वे प्रमुख टीवी चैनलों में अलग-अलग मुद्दों पर पार्टी का पक्ष रखते नजर आते हैं, तो अब नियमित रूप से उपासने के नाम से बयान भी जारी होने लगा है। पीएम के फोन का बड़ा फायदा हुआ है।
पत्रकारिता विवि, पत्रकारिता नहीं, राजनीति
मध्य प्रदेश में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में संजय द्विवेदी की कुलपति के रुप में ताजपोशी हो गई है। ताजपोशी, इसलिए क्योंकि मध्यप्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने के ठीक दो महीने के भीतर संजय द्विवेदी की नियुक्ति हो गई है। इन दो महीनों में उन्हें दो बार प्रमोशन की सौगात मिली है। पहले उन्हें रजिस्ट्रार बनाया गया फिर अब कुलपति। पत्रकारिता विवि में इस त्वरित नियुक्ति का महत्व इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि मध्यप्रदेश में कोरोना ने कोहराम मचाकर रखा है और सरकार का भी गठन नहीं हो पाया है। इसके बावजूद वहां धड़ाधड़ नियुक्तियां और विवादित फैसले से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता में पत्रकारिता विवि कितना ऊपर है, जबकि इसके उलट छत्तीसगढ़ में पूर्ण बहुमत वाली कांग्रेस सरकार में पत्रकारिता विवि में कुलपति की नियुक्ति भी सरकार की पसंद के खिलाफ हुई, पूरे एक साल तक तो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति ही तय नहीं हो पाए, जबकि सर्कार में कई भूतपूर्व पत्रकार बैठे हुए थे, और हैं. ।
मध्यप्रदेश में पत्रकारिता विवि को प्राथमिकता दिए जाने के पीछे कई तरह की कहानियां सामने आती हैं । कहा जाता है कि साल 2018 के विधानसभा चुनाव में विवि का अमला बीजेपी के पक्ष में काम करता रहा। विवि के प्रोफेसर्स से लेकर स्टॉफ के कर्मचारी-अधिकारियों ने मीडिया, सोशल मीडिया से लेकर प्रचार-प्रसार में खूब बढ़-चढक़र हिस्सा लिया था। जिसका इनाम लगातार संजय द्विवेदी को मिल रहा है। संजय द्विवेदी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को कड़वा खुला पत्र लिखकर भी चर्चा में आए थे। खैर, जो भी बात हो सभी सरकारों की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती हैं, जिसके मुताबिक वे काम करती हैं। लेकिन कई बार प्राथमिकताओं को नजर अंदाज करने से विरोधी हावी भी हो सकते हैं। यही स्थिति छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विवि की है, जहां सरकार विरोधी हावी होते दिखाई दे रहे हैं। विवि से जुड़े लोगों का मानना है कि पत्रकारिता विवि पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले दिनों में वहां कट्टर हिन्दूवादी सोच वालों का ही राज चलेगा। उधर, कुछ लोगों को उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ सरकार एक्शन में आएगी और यहां के पत्रकारिता विवि का चिठ्ठी खुलेगा। इसी भरोसे में एक छत्तीसगढिय़ा और चंडीगढ़ के चितकारा विवि के प्राध्यापक आशुतोष मिश्रा ने राष्ट्रपति, यूजीसी, सीएम और राज्यपाल को ई-मेल के जरिए पत्र लिखा है, जिसमें संजय द्विवेदी की नियुक्ति रद्द करने की मांग की गई है। उन्होंने कहा है कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों के पत्रकारिता विवि में ही उनकी नियुक्ति के खिलाफ हाईकोर्ट में मामले चल रहे हैं। छत्तीसगढ़ में संजय द्विवेदी की नियुक्ति की जांच की गई तो दोनों राज्यों के विवि पर असर पड़ेगा। हालांकि भोपाल के विवि में किसी भी नियुक्ति का सीधा कनेक्शन छत्तीसगढ़ से नहीं है, लेकिन संजय द्विवेदी दोनों राज्यों में काम कर चुके हैं, इस लिहाज से यहां असर दिखाई पड़ता है। यही कराण है कि वहां के किसी भी धमाके का असर यहां भी होता है। लोग तो इस बात से घबराए हुए हैं कि भोपाल में धमाके से रायपुर में विस्फोट न हो जाए।
एक चिठ्ठी से गड़बड़ हुआ मामला
सरकारी पत्र व्यवहार में कभी-कभी जरूरत से ज्यादा शालीनता भी भारी पड़ जाता है। कई अफसर बुरा मान जाते हैं और काम रूक भी जाता है। ऐसा ही एक प्रकरण आईएएस सुश्री रीना बाबा साहेब कंगाले से भी जुड़ा है। सचिव स्तर की रीना बाबा साहेब कंगाले वर्तमान में राज्य चुनाव आयोग में पदस्थ हैं। उनके पास आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर का प्रभार था।
सरकार ने जब आयोग में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुब्रत साहू की जगह रीना बाबा साहेब की पोस्टिंग के लिए अनुशंसा की गई, तो साथ ही साथ केन्द्रीय चुनाव आयोग से आग्रह किया गया था कि रीना को आयोग के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर के पद पर काम करने की अनुमति दे दें। वैसे भी चुनाव के समय को छोड़ दें, तो बाकी समय में आयोग में कुछ ज्यादा काम नहीं होता है, ऐसे में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को अतिरिक्त जिम्मेदारी संभालने की अनुमति मिल जाती है। सुब्रत साहू भी लोकसभा चुनाव निपटने के बाद आयोग की अनुमति से मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के साथ-साथ पंचायत विभाग का दायित्व संभाल रहे थे।
सुनते हैं कि केन्द्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र में एक शब्द ऐसा था, जो कि मुख्य चुनाव आयुक्त को पसंद नहीं आया। चर्चा है कि पत्र में मुख्य चुनाव आयुक्त को रिस्पेक्टेड सर की जगह डियर सर संबोधित किया गया था। जिसको लेकर वे काफी खफा हो गए और उन्होंने सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। हालांकि सरकार की तरफ से अफसरों की कमी को देखते हुए एक सीनियर अफसर ने व्यक्तिगत तौर पर चर्चा की, मगर वे नहीं माने। आखिरकार रीना बाबा साहेब की जगह जीएसटी कमिश्नर के पद पर रमेश शर्मा की पोस्टिंग करनी पड़ी। चर्चा है कि मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त के रिटायर होने के बाद ही रीना को अतिरिक्त पद पर काम करने की अनुमति मिल सकती है।
शुरुआती हड़बड़ी के बाद अब...
अलग-अलग प्रदेशों से मजदूरों की आवाजाही उम्मीद से अधिक बढऩे वाली नहीं है, उम्मीद से अधिक घटने वाली है। कई अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरें बताती हैं कि जहां-जहां काम शुरू हो गए हैं, मजदूर वहां से अपने गृह प्रदेश लौटने का इरादा छोड़ रहे हैं। एक तो उन्हें मालिक या ठेकेदार से बकाया वसूलना है, और दूसरी बात यह कि आगे काम भी तो करना है। अपने प्रदेश लौटकर, गांव पहुंचकर किसी काम के मिलने की गारंटी तो है नहीं। इसलिए कई प्रदेशों की ट्रेनें पर्याप्त मुसाफिर नहीं पा रही हैं। उन प्रदेशों को छोडक़र लोग जरूर जा रहे हैं जहां पर कोरोना का प्रकोप बहुत अधिक है। यह जाना बीमारी के डर से अधिक है, भूख और बेरोजगारी से कम। इसलिए तमिलनाडू या महाराष्ट्र जैसे भारी कोरोनाग्रस्त इलाकों से तो मजदूर लौटते रहेंगे, लेकिन बाकी इलाकों में वे काम जारी रख सकते हैं। छत्तीसगढ़ से ही देहरादून लौटने के लिए तय की गई ट्रेन रायपुर स्टेशन पर खाली खड़ी रही, रजिस्ट्रेशन कराने वाले उत्तराखंडी भी नहीं पहुंचे, और ट्रेन रद्द करनी पड़ी।
किसी भी बड़ी बात का ऐसा ही असर होता है। शुरू में भयानक माहौल बनता है, और बाद में वह ठंडा पड़ जाता है। छत्तीसगढ़ में शराब दुकानें खुलीं, तो लाठीचार्ज की नौबत आ गई, अब हाल यह है कि वैसी भीड़ खत्म हो चुकी है, और अधिकतर शराब दुकानों पर लोग धक्का-मुक्की नहीं झेल रहे। राजधानी रायपुर के एक सबसे व्यस्त इलाके, पंडरी की शराब दुकान दोपहर को एक वक्त में बस एक-दो ग्राहक पा रही थी। शुरुआती हड़बड़ी के बाद ऐसा लगता है कि जो मजदूर अब तक लौट नहीं चुके हैं, वे एक बार और सोचेंगे कि अभी लौटें, या काम के इन महीनों में काम में लगें।
मुसीबत में मजे भी कम नहीं है..
मुसीबत का कोई भी दौर सरकार में काम करने वालों के लिए मजे का भी होता है। खतरे और परेशानी के माहौल में किस रेट पर क्या काम करवाया जा रहा है, किस रेट पर कितनी खरीदी हो रही है इसका पता नहीं चलता। कितने फूड पैकेट बांटे गए, कितने जूते-चप्पल बंटे, इसका भी पता नहीं चल रहा है। ओडिशा चूंकि हिन्दुस्तान में समुद्री तूफान झेलने वाला हमेशा ही पहला राज्य रहता है, इसलिए वहां सरकारी मशीनरी को बचाव और राहत के काम में अतिरिक्त खर्च करने का लंबा तजुर्बा। लेकिन सिर्फ इतना नहीं होता, जो अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन ऐसी प्राकृतिक विपदा में काम करते हैं वे भी एयरपोर्ट से तबाही के रास्ते पर सबसे पहले दिखना चाहते हैं ताकि वहां आने वाले मीडिया को भी वे सबसे पहले दिखे, और उन्हें चंदा भी मिले। आज पूरे देश में मजदूरों को राहत में जो अनाज दिया जा रहा है, वह बहुत सी जगहों पर इतना सड़ा हुआ है कि उसको जानवर को भी नहीं खिलाया जा सकता। कर्नाटक में तो मजदूरों को मिले चावल में इल्लियां घूम रही थीं, और उनकी बदबू बर्दाश्त करना भी मुश्किल था। आज यूपी की एक तस्वीर आई है जिसमें राहत में मिले अनाज के चनों पर फफूंद लगी हुई है, और उन्हें जानवरों को भी नहीं खिलाया जा सकता।
बच्चों की पढ़ाई बंद, डॉक्टरों की शुरू
पिछले कुछ दिनों इस अखबार में कई बार यह छपा कि लॉकडाऊन के इस दौर में कैसे लोग अपने आपको बेहतर बना सकते हैं, और कैसे कोई नया हुनर भी सीख सकते हैं। अभी पता लगा कि छत्तीसगढ़ के शिशु रोग विशेषज्ञों की एक संस्था ने ऐसा ही किया। उन्होंने इंटरनेट पर एक एप्लीकेशन के माध्यम से ऐसी वीडियो कांफ्रेंस कराई जिसमें देश के सबसे उम्दा शिशु रोग विशेषज्ञों, और सर्जनों के व्याख्यान करवाए, उनसे सवाल-जवाब का मौका भी शायद मिला ही होगा। इसमें देश-विदेश से कई जगह संपर्क हुआ, और बिना मरीजों के या कम मरीजों के साथ बैठे हुए डॉक्टरों को नया सीखने का मौका मिला, उनका ज्ञान बढ़ा।
एक तो लोग कुछ दहशत में हैं कि वे बिना बहुत जरूरी हुए डॉक्टरों के पास जाना नहीं चाहते, और कुछ तो लोगों के लगातार घर में रहने से उनका किसी भी किस्म का संक्रमण का शिकार होना भी घट गया है। लोग मोटेतौर पर डॉक्टरों की नौबत तक पहुंचना न चाह रहे हैं न पहुंच रहे हैं। ऐसे में खाली बैठे हुए डॉक्टरों ने अपना मेडिकल ज्ञान बढ़ाना तय किया, तो टेक्नालॉजी ने उसके लिए रास्ता खोल दिया। जहां चाह, वहां राह। अभी कल-परसों में ही हमने इस अखबार के संपादकीय में सुझाया था कि जिनकी नौकरी जाने का खतरा हो, या जिनकी नौकरी लगी न हो, उन्हें अपने काम को बेहतर बनाना चाहिए, या कोई नया हुनर सीखना चाहिए। एक बुरा वक्त एक अच्छा अवसर बनकर भी आता है।
ये हैं चलते-फिरते मानव बम
राजधानी रायपुर के जीई रोड पर विवेकानंद आश्रम के सामने सडक़ किनारे सब्जी बाजार लगने लगा है। आज सुबह कपड़ों के ऊपर हल्का भूरा कोट पहनी हुई कुछ महिलाएं घूम रही थीं। उन्होंने पास से निकलते हुए एक साइकिल चालक को भी रोकने की कोशिश की। फिर दिखा कि वे मास्क न लगाए हुए लोगों को रोककर समझा रही हैं, और सब्जीवालियों में भी जिन्होंने मास्क नहीं लगाए हैं, उन्हें भी समझा रही हैं।
जाहिर तौर पर ये स्वास्थ्य कर्मचारी या सरकार के किसी दूसरी अमले की महिलाएं थीं जो कि अपनी सेहत को जोखिम में डालकर उन्हीं लोगों से बात कर रही थीं, जिन्होंने मास्क नहीं लगाए थे। ऐसे लापरवाह लोगों की मदद करते हुए जब सरकारी अमले को अपने आपको एक निहायत गैरजरूरी खतरे में डालना पड़ता है तो अफसोस होता है। सरकारी नौकरी की अपनी मजबूरी तो है लेकिन उन्हें अगर कोई इंसान भी न माने, और अपनी जिद, अपनी लापरवाही से ऐसे जिये कि उन्हें बचाने के लिए सरकारी अमला खतरे में पड़े, तो ऐसे लोगों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। जो लोग बिना मास्क लगाए दिख रहे हैं, उन्हें सडक़ों पर ही किनारे कम से कम घंटे भर बिठा देना चाहिए। आज इंटरनेट और सोशल मीडिया पर ऐसे अनगिनत वीडियो मौजूद हैं जिनमें किसी पुराने टी-शर्ट या पुराने अंडरवियर से मास्क बनाना दिखाया गया है। अब शहरों में जो पेट्रोल से चलने वाले दुपहिया पर चल रहे हैं, उनके पास घर पर फटा-पुराना कपड़ा न हो ऐसा तो हो नहीं सकता। इसके बावजूद लोग अगर अपनी जिद पर अड़े हुए हैं तो सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए। जाति और धर्म के आधार पर जिस देश में कुछ लोगों को चलता-फिरता मानव बम कहा जाता है, उस देश में बिना जाति-धर्म के ऐसे चलते मानव बम पर जरूर कार्रवाई करनी चाहिए।
समाज के जिम्मेदार लोग भी इस नौबत को सुधार सकते हैं, अगर वे ऐसे फेरीवालों या दुकानदारों से सामान लेना बंद कर दें जिन्होंने मुंह ढका हुआ नहीं है।
गरीब की गाय शिक्षक
सरकार ने शिक्षकों को भी कोरोना मरीज ढूंढने के काम में लगाया है। चूंकि स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या तो अपेक्षाकृत कम है। ऐसे में दूसरे विभाग के कर्मचारियों की स्वास्थ्य सेवाओं में उपयोग करना गलत भी नहीं है। अमूमन आपातकालीन स्थिति में ऐसा किया जाता है। मगर शिक्षकों में इसको लेकर बेचैनी साफ दिख रही है। दो दिन पहले रायपुर के रेडक्रास सोसायटी भवन में शिक्षकों और दूसरे विभाग के कर्मचारियों की ट्रेनिंग भी हुई।
उन्हें बताया गया कि गांवों में जाकर सर्दी-खांसी पीडि़त लोगों की जानकारी जुटाना है। साथ ही साथ ग्रामीणों को मास्क पहनने और सैनिटाइजर का उपयोग करने के लिए जागरूक करना भी है। यह भी कहा गया कि ब्लडप्रेशर और शुगर के मरीजों का भी ब्यौरा इक_ा करना होगा। क्योंकि सबसे ज्यादा कोरोना का संक्रमण का खतरा ब्लडप्रेशर-शुगर पीडि़त लोगों को है। ऐसे लोगों को आपातकालीन स्थिति को छोडक़र किसी भी दशा में घर से बाहर नहीं निकलने की सीख भी देनी है।
यह सुनकर कई शिक्षक खड़े हो गए, और उनमें से कई ने खुद को ब्लडप्रेशर और कुछ ने शुगर पीडि़त बताया। इन शिक्षकों ने खुद पर कोरोना का खतरा बताते हुए ड्यूटी से अलग करने की गुजारिश की, लेकिन ट्रेनरों ने हाथ जोड़ असमर्थता जता दी। दिलचस्प बात यह है कि कोरोना बचाव की इस ट्रेनिंग में न तो सामाजिक दूरी और शारीरिक दूरी का पालन किया गया और न ही वहां सैनिटाइजर की व्यवस्था थी।
मुखियाओं का नो रिस्क चैलेंज
छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक, पुलिस और जंगल विभाग के मुखिया प्राय: सभी कार्यक्रमों में एक साथ दिखाई देते हैं। राज्य शासन की प्रमुख बैठकों में भी इस तिकड़ी को खास तवज्जो मिलती है, लेकिन कोरोना काल में इन अधिकारियों ने अपने आपको सीमित कर लिया है। संकट के इस दौर में जब पूरा अमला कोरोना से निपटने में लगा है तो प्रशासनिक मुखिया राम वनगमन पथ, खारुन रिवर फ्रंट या बूढ़ातालाब की सफाई जैसे प्रोजेक्ट्स में ज्यादा सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। हालांकि ये तमाम सरकार की महत्वाकांक्षी योजनायें हैं। प्रशासनिक मुखिया के बारे में कहा भी जाता है कि वे टारगेट ओरिएटेंड काम में काफी निपुण हैं, लिहाजा उन्हें इन योजनाओं की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी दी गई होगी, लेकिन संकट के इस समय में उनका बहुआयामी उपयोग किया जा सकता है। इसी तरह पुलिस प्रमुख भी फास्ट एक्शन टेकिंग अफसर के रुप में जाने जाते हैं। पुलिस में सुधार की बात हो या फिर अपराध पर नियंत्रण का मामला हो। आम लोगों की समस्याओं का तुरंत समाधान करना भी उनकी प्राथमिकता में होता है। वे भी पुराने पुलिस मुख्यालय में टेंट लगाकर अपने तरीके से काम कर रहे हैं। इसी तरह वन प्रमुख की छवि फील्ड में बेहतर रिजल्ट देने वाले अफसर के रुप में है। इसके बाद भी इन काबिल अफसरों की सीमित भूमिका पर लगातार चर्चा होती है। इनके कामकाज को करीब से जानने वाले इस बात से वाकिफ हैं कि अगर इन्हें फ्री हैंड दिया जाए, तो और बेहतर काम कर सकते हैं। दरअसल, प्रशासनिक मुखिया के पास समय कम है वे इस साल सितंबर में रिटायर हो जाएंगे, जबकि पुलिस और वन मुखिया के रिटायरमेंट में समय है। पुलिस मुखिया साल 2023 में और वन प्रमुख साल 2022 में सेवानिवृत्त होंगे। सभी रिटायरमेंट तक पद पर बने रहना चाहते हैं, लिहाजा वे भी ऐसा कोई काम नहीं करना चाहते, जिसकी वजह से उनकी कुर्सी पर किसी प्रकार का खतरा हो। लगता है कि तीनों अफसर नो रिस्क नो चैलेंज के मोड पर चल रहे हैं।
फटाफट अंदाज में शुक्ला
छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आलोक शुक्ला का रिटायरमेंट नजदीक है, लेकिन वे तेजी से काम कर रहे हैं। साफ है कि वे रिटायरमेंट के बाद भी काम करते रहेंगे। लॉकडाउन पीरियड में ही उन्होंने ऑनलाइन पढ़ाई के लिए वेब पोर्टल डेवलप किया। इसी तरह 40 उत्कृष्ट स्कूल शुरू करने का प्रोजेक्ट भी उन्हीं का है। वे आईटी के एक्सपर्ट माने जाते हैं। उन्हें स्कूल शिक्षा विभाग में कसावट लाने की जिम्मेदारी दी गई है। वे सीएस आरपी मंडल से एक साल सीनियर हैं, लेकिन नान मामले के कारण वे प्रमुख सचिव तक ही पहुंच पाए हैं। नई सरकार में पोस्टिंग के वक्त विभाग के लोगों को लगा था कि उन्हें काम करने के लिए ज्यादा वक्त नहीं मिलेगा, तो उनकी योजनाएं लटक जाएंगी। लेकिन ऐसा होगा, इसकी संभावना नहीं दिखती, क्योंकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के साथ ही उनकी वापसी इसी भरोसे के साथ हुई थी कि इस सरकार में रिटायर नहीं होंगे। यही वजह है कि काम संभालते ही उन्होंने फटाफट क्रिकेट की तरह अपनी पारी शुरु की और टारगेट को पूरा करने बड़े शॉट्स भी लगा रहे हैं।
नांदगाव में महंत का दबदबा
राजनांदगांव के कांग्रेस संगठन में विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के समर्थकों का दबदबा बढ़ा है। जिले के कांग्रेस विधायक दलेश्वर साहू को डॉ. महंत का करीबी माना जाता है। महंत की सिफारिश पर शाहिद भाई और डॉ. थानेश्वर पाटिला की महासचिव पद पर नियुक्ति की गई। शाहिद भाई को कोरबा का प्रभारी महासचिव बनाया गया है। कोरबा संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व डॉ. महंत की पत्नी ज्योत्सना महंत करती हैं। यही नहीं, कुलबीर छाबड़ा को राजनांदगांव शहर का दोबारा अध्यक्ष बनवाने में डॉ. महंत की भूमिका रही है।
पार्टी हल्कों में चर्चा है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा का संसदीय जीवन खत्म होने के बाद से राजनांदगांव की राजनीति में महंत खेमे का दखल बढ़ा है। इससे पहले तक राजनांदगांव में जिलाध्यक्षों की नियुक्ति में वोरा की सिफारिशों को ही महत्व मिलता था। वोराजी राजनांदगांव से एक बार सांसद रहे हैं। राजनांदगांव जिले की सीटों से तेजकुंवर नेताम और भोलाराम साहू विधायक रहे, ये दोनों वोरा के समर्थक रहे। तेजकुंवर को विधानसभा में टिकट नहीं मिली, दूसरी तरफ भोलाराम साहू लोकसभा चुनाव हार गए। इसके बाद से वोरा के समर्थक महंत से जुड़ गए, ऐसे में महंत का दबदबा बढऩा स्वाभाविक है।
कांग्रेस प्रदेश कार्यालय
प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस में बड़ा फर्क आया है। सत्ता के लिए संघर्ष करती कांग्रेस में पुराने नेताओं की जगह लेने के लिए एक नई पौध तैयार हो गई। जबकि भाजपा में अभी भी नए चेहरों को आगे लाने की कोशिश ही हो रही है। कांग्रेस संगठन में कुछ समय पहले जिम्मेदारी बदली गई है, जिसका बेहतर नतीजा देखने को मिल रहा है। कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष के बाद प्रभारी महामंत्री का पद पॉवरफुल है। पहले बरसों तक इस पद पर मोतीलाल वोरा के करीबी सुभाष शर्मा रहे और बाद में गिरीश देवांगन ने महामंत्री की कमान संभाली।
गिरीश ने पिछले पांच सालों में महामंत्री के दायित्व को बेहतर ढंग से निभाया और अब उनकी जगह अब चंद्रशेखर शुक्ला व रवि घोष संगठन व प्रशासन की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। लॉकडाउन के बाद भी कांग्रेस संगठन की गतिविधियां कम नहीं हुई है। आम कार्यकर्ताओं के लिए दफ्तर भले ही बंद है, लेकिन यहां प्रवासी मजदूरों को लाने और दूसरे जगह भेजने के काम चंद्रशेखर और अन्य के देखरेख में बेहतर ढंग से हो रहे हैं। खास बात यह है कि प्रदेश में सरकार होने के बावजूद सरकारी तंत्र का बेजा इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, बल्कि कांग्रेस संगठन, स्थानीय नेताओं के सहयोग से मजदूरों के आने-जाने का खर्च उठा रहा है।
झारखंड के 50 से अधिक मजदूर फंसे हुए थे, जिसे कांग्रेस संगठन ने अपने खर्च से झारखंड की सीमा तक पहुंचाने का बंदोबस्त किया। इसी तरह बस्तर और अन्य जगहों में भी फंसे मजदूरों को भेजने का काम बेहतर ढंग से किया गया। जिसमें पार्टी के विधायक विक्रम मंडावी ने भी सहयोग किया। यह सब हल्ला-गुल्ला और प्रचार से दूर रहकर किया जा रहा है। ऐसे समय में जब कई जगहों पर प्रशासनिक अफसरों से मदद नहीं मिल रही है, उत्साही कांग्रेस नेता लोगों की भरपूर मदद कर रहे हैं। ऐसे में जहां बाकी राज्यों में प्रवासी मजदूर, शासन-प्रशासन के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं, तो यहां अपेक्षाकृत बेहतर काम हो रहा है।
कांग्रेस प्रदेश कार्यालय के अधिकतर कर्मचारियों को दफ्तर आने मना कर दिया गया है, और सबको दो-दो महीने की तनख्वाह देकर घर पर सुरक्षित रहने कह दिया गया है।
न सांसद निधि, न सांसद की पूछ
प्रदेश के भाजपा सांसद इन दिनों परेशान हैं। उनकी पूछपरख काफी कम हो गई है। पार्टी के नेता भी अब पहले जितना महत्व नहीं दे रहे हैं। वजह यह है कि सांसदों ने केन्द्र सरकार को अपने तीन साल की सांसद निधि की राशि कोरोना रोकथाम के लिए खर्च करने की अनुमति दे दी है। हर साल सांसद निधि के मद में मिलने वाली 5 करोड़ राशि का उपयोग मनमर्जी विकास कार्यों में खर्च कर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के कार्यकर्ताओं-आम लोगों को संतुष्ट कर सकते थे, पर अब वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। भाजपा के जांजगीर-चांपा के सांसद गुहाराम अजगल्ले को छोड़ दें, तो बाकी सभी पहली बार सांसद बने हैं।
अब सांसद निधि नहीं है, तो नए कार्यकर्ता भी उनसे जुड़ नहीं पा रहे हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। यहां भाजपा सांसदों की सिफारिशों को महत्व मिलेगा, इसकी उम्मीद पालना भी गलत है। हाल यह है कि शासन-प्रशासन तो दूर, बड़े कारोबारी भी नए नवेले भाजपा सांसदों को महत्व नहीं दे रहे हैं। सुनते हैं कि पिछले दिनों एक उद्योगपति ने सद्भावनावश प्रदेश के एक भाजपा सांसद के घर सैनिटाइजर से भरा बक्सा भिजवाया ताकि वे अपने क्षेत्र के लोगों को बांट सके। सांसद महोदय ने पार्टी कार्यकर्ताओं को बंटवाया भी। उनकी इच्छा थी कि विधानसभा क्षेत्र के सभी कार्यकर्ताओं को सैनिटाइजर और मास्क दिया जाए, इसके लिए उन्होंने उद्योगपति को फोन लगाया। मगर इस बार उद्योगपति ने फोन तक नहीं उठाया। क्षेत्र के कार्यकर्ता सैनिटाइजर-मास्क मांग रहे हैं, लेकिन सांसद महोदय ने खामोशी ओढ़ ली है।
कोरोना के हिसाब से ड्रेस डिजाईन
कोरोना के खतरे के बीच ही अगर लंबा जीना पड़े, तो लोगों को अपने तौर-तरीकों से लेकर फैशन तक सबमें तब्दीली की जरूरत है। अब चूंकि काम से लौटकर हर दिन कपड़े धोने की डॉक्टरी सिफारिश है, तो लोगों को मोटी जींस के बजाय पतले कपड़े पहनना चाहिए जिन्हें धोना आसान हो, साबुन और पानी भी कम लगे। इसके अलावा ड्रेस डिजायनरों के लिए भी एक चुनौती है कि लोगों के कपड़ों में लिक्विड सोप और सेनेटाइजर की छोटी बोतलों के लिए जगह निकाले। और यह जगह ऐसी जटिल भी नहीं होनी चाहिए कि डंडे या संक्रमित हाथ वहां तक आसानी से न पहुंच पाएं। वैसे भी बहुत से लोगों के पास अब एक से अधिक मोबाइल भी रहने लगे हैं, और ऐसे में जेबों का पुराना रिवाज कम पड़ रहा है। अब तो यह भी हो सकता है कि अधिक चौकन्ने लोग एक एक्स्ट्रा मास्क भी लेकर चलें कि कहीं मास्क गिर जाए, या उसका इलास्टिक टूट जाए, या डोरी टूट जाए, तो तुरंत दूसरा मास्क मौजूद रहे।
लोगों को घर से निकलते हुए सारी चीजों को ठीक से जांच लेने के लिए दस मिनट का समय अलग से रखना चाहिए, इसी तरह लौटने के बाद अपने को साफ करने के लिए कपड़े धोने डालने के लिए, मास्क धोने के लिए भी दस मिनट अलग से रखना चाहिए। हड़बड़ी हुई और चूक से खतरा बढ़ा। लोगों को अपने मोबाइल फोन हर बार लौटने पर ठीक से सेनेटाईज करने की भी आदत डालनी चाहिए, और बच्चों को मोबाइल फोन देना बंद भी करना चाहिए।
फिर एक बात यह भी है कि आज कोरोना के खतरे में लोगों को बचाव के लिए चौकन्ना भी कर दिया है, इसलिए लोगों के बीच एक बार रोग-प्रतिरोधक क्षमता की भी चर्चा होने लगी है। विटामिन सी से भरपूर सस्ते फल हिन्दुस्तान में बहुत से हैं। आंवले से लेकर इमली तक, और नींबू से लेकर संतरे तक कई तरह की चीजें सस्ती हैं, आसानी से मिल जाती हैं। लोगों को इलाज के लिए चाहे आयुर्वेद पर पूरा भरोसा न हो, लेकिन रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का काम आयुर्वेद में शायद एलोपैथी से बेहतर है। लोग केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी की गई भरोसेमंद जानकारी पर अमल कर सकते हैं, और कोरोना से परे-परे चलते हुए जिंदगी गुजार भी सकते हैं।
रणनीति पर भाजपा में विरोधाभास
क्या भाजपा में रमन सिंह अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं? कम से कम हाल के दिनों के घटनाक्रमों को देखकर तो यही लगता है। जिस तरह कोरोना प्रकोप के बीच वे दारूबंदी और मजदूरों की बेहाली को लेकर राज्य सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, उससे पार्टी का एक बड़ा खेमा असहमत है। यह खेमा फिलहाल सरकार के कामकाज के तौर तरीके से कुछ बिंदुओं पर असहमत होने के बावजूद किसी तरह मोर्चा खोलने के सख्त खिलाफ दिख रहा है।
रमन सिंह दो दिन पहले यह कहते सुने गए, कि कोरोना संक्रमण और प्रवासी मजदूरों की समस्याओं की वापसी को लेकर सरकार विपक्ष को विश्वास में नहीं ले रहा है। दूसरी तरफ, पार्टी के दो सीनियर विधायकों ने उसी दिन मुख्यमंत्री निवास में भूपेश बघेल के साथ बैठक कर मजदूरों की वापसी से लेकर सरकारी इंतजामों पर विस्तार से चर्चा की और अपनी तरफ से सुझाव भी दिए। ये अलग बात है कि इन विधायकों ने जानकारी शायद रमन सिंह को न दी हो।
पार्टी के एक नेता अनौपचारिक चर्चा में दारूबंदी की रमन सिंह की मांग से असहमत दिखे। वे कहते हैं कि रमन सिंह के सीएम रहते एक बड़े दारू कारोबारी की कार बिना चेकिंग के सीएम हाऊस में जाती थी। रमन सरकार में दारू कारोबारियों की धमक रही। ये बातें कम से कम राजनीतिक और कारोबार के क्षेत्र से जुड़े तकरीबन सभी लोग जानते हैं। ऐसे में जब प्रदेश कोरोना संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, रमन सिंह का दारूबंदी का विरोध फिलहाल उचित नहीं है।
छुट्टी का दिन और बड़ी-बड़ी गाडिय़ां
सरकारी दफ्तरों में कामकाज का हाल कामकाज के दिनों में तो दिखता ही है, छुट्टी के दिनों में भी दिखता है। रायपुर में जमीनों के काम से जुड़े एक दफ्तर में दूसरे भी कई प्रशासनिक काम हैं। कल वहां जब मीडिया से जुड़े कुछ लोग दूसरे जिले या प्रदेश जाने के पास बनवाने खड़े थे, मुख्यमंत्री के एक बहुत पुराने परिचित और कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी खड़े थे, तब डिप्टी कलेक्टर रैंक के इस अफसर के साथ कमरे में कई लोग बैठे हुए थे जिनके नाम और चेहरे जानना जरूरी नहीं है, बाहर उनकी 50-50 लाख से अधिक की कारें खड़ी हुई थीं जो बता रही थीं कि छुट्टी के दिन इस तरह बैठने में किसे प्राथमिकता है। मीडिया के लोग बाहर खड़े रहे, और अधिक हॉर्सपॉवर के लोग भीतर इत्मिनान से साहब के साथ बैठे थे। सत्तारूढ़ पार्टी जरूर बदली है लेकिन अफसरों के तौर-तरीके जरा भी नहीं बदले हैं। जिनके खिलाफ सत्तारूढ़ लोग भी शिकायत करते रहे, उनका भी कुछ बिगड़ता नहीं है।
लालबत्ती के दावेदार फिर उम्मीद से
छत्तीसगढ़ में लालबत्ती के दावेदार नेताओं के बीच उम्मीद की किरण जगी है। चर्चा है कि इस महीने के आखिर तक निगम-मंडल की एक छोटी सूची जारी हो सकती है। हालांकि इसकी अधिकृत पुष्टि नहीं है, लेकिन दावेदार सक्रिय हो गए हैं। उनका मानना है कि छत्तीसगढ़ में कोरोना की स्थिति नियंत्रण में है। ऐसे में 10-12 लोगों को लालबत्ती की सौगात मिल सकती है। लेकिन जिस तरह से सरकार कोरोना के कारण खर्च में कटौती कर रही है। ऐसे में नई नियुक्तियों की संभावना कम ही दिखती है। इन चर्चाओं को सच मान भी लिया जाए, तो केवल 10-12 लोगों को उपकृत करने का जोखिम सरकार उठाएगी, इसके आसार भी कम ही दिखाई देते हैं। छत्तीसगढ़ में 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनी है। पार्टी का हर दूसरा-तीसरा नेता लालबत्ती का सपना संजोए हुए है। इस स्थिति में असंतोष बढ़ सकता है। सरकार से जुड़े लोगों का तो कहना है कि कोरोना युग में नियुक्ति करने से असंतोष के साथ संदेश भी अच्छा नहीं जाएगा। जबकि दावेदार नेताओं का कहना है कि हाल फिलहाल में नियुक्ति नहीं की गई तो वे ठीक से लालबत्ती का सुख भी नहीं भोग पाएंगे, क्योंकि डेढ़ साल से ज्यादा का समय तो बीत गया है और कोरोना से पूरी तरह से निजात मिलने की संभावना तो दूर-दूर तक दिख नहीं रही है। सरकार की शुरुआत का पहला एक साल और आखिरी का एक साल तो चुनाव में बीत जाता है। बचे तीन साल ही कुछ काम करने को मिलते हैं, उसमें भी कटौती हो ही रही है। दावेदारों को लगता है कि तत्काल नियुक्ति होगी तभी दो-ढाई साल काम करने का मिल पाएगा। इसलिए वे कोरोना युग में भी लालबत्ती के लिए दबाव बनाए हुए हैं, लेकिन सरकार की समस्या यह है कि एक अनार हैं और बीमार सौ हैं। एक भी बीमार छूटता है तो बवाल मचना तय है। लिहाजा सरकार भी समय काट रही है। अब देखना यह है कि लालबत्ती के किस-किस दावेदार को सेहत सुधारने का मौका मिलता है या फिर वे बीमार ही बने रहते हैं।
छोटे अफसर का हाल..
लॉकडाउन के बाद राज्य से बाहर तो दूर, रायपुर से बाहर जाने की अनुमति के लिए लोगों को भारी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। बाकी जिले में अनुमति के लिए इतनी समस्या नहीं है, जितनी कि रायपुर में है। इसके लिए एसडीएम प्रणव सिंह को ज्यादा जिम्मेदार माना जा रहा है। प्रशासन ने यात्रा की अनुमति के लिए उनका मोबाइल-टेलीफोन नंबर सार्वजनिक किया है, लेकिन आम लोग तो दूर, कई अफसरों की शिकायत है कि एसडीएम उनका फोन तक नहीं उठाते। एक पूर्व अफसर ने कलेक्टर को फोन किया, तब कहीं जाकर कलेक्टर का मैसेज मिलने के बाद उन्होंने फोन उठाया।
प्रणव सिंह की हरकतों की अलग-अलग स्तरों पर रोजाना शिकायतें हो रही हैं, मगर उनके तेवर नहीं बदले। ताजा मामला एक पेट्रोल पंप कर्मचारी से जुड़ा हुआ है। हुआ यूं कि पेट्रोल पंप कर्मी की बेटी विशाखापटनम के एक स्कूल में पढ़ती है, और वहां छात्रावास में रहती है। लॉकडाउन के बाद छात्रावास में रहने वाले बच्चों के पालक उन्हें किसी तरह निकालकर अपने घरों में ले गए. पेट्रोल पंप कर्मी की बेटी अकेली ही रह गई। स्कूल बंद हो चुका है, लेकिन एक शिक्षिका और एक-दो स्टॉफ सिर्फ अकेली छात्रा के लिए वहां हैं । स्कूल स्टाफ लगातार पेट्रोल पंप कर्मी से बेटी को ले जाने के लिए कह रहा है और अल्टीमेटम भी दे चुका है। मगर पेट्रोल पंप कर्मी का पास नहीं बन पा रहा।
एसडीएम तो पहुंच के बाहर थे, तो उन्होंने किसी तरह एक प्रभावशाली व्यक्ति के जरिए उन्होंने गृह सचिव उमेश अग्रवाल के पास गुहार लगाई। गृह सचिव ने तुरंत इसको संज्ञान में लिया और खुद अनुमति देकर एसडीएम को पास जारी करने कहा। एसडीएम का काम देखिए, अनुमति पास तो जारी हुआ, लेकिन यात्रा का कारण निधन कार्यक्रम में जाना लिखा था। चूंकि आंध्रप्रदेश पुलिस काफी सख्त है। ऐसे में गलत कारण बताकर यात्रा करना जोखिम भरा था।
आखिरकार पेट्रोल पंप कर्मी को यात्रा टालनी पड़ी। एक पूर्व आईएएस कहते हैं कि प्रशासनिक अफसरों का फोन कभी बंद नहीं होना चाहिए। ट्रेनिंग में इसकी सीख भी दी जाती है। पता नहीं कब, किसको जरूरत पड़ जाए है। वैसे भी महामारी के समय प्रशासन को 24 घंटा चौकस रहना चाहिए। मगर एसडीएम की ट्रेनिंग हुई भी है या नहीं, यह समझ से परे है।
राजधानी की पुलिस का रिस्पांस टाईम!
राजधानी रायपुर की एक सबसे पुरानी और संपन्न कॉलोनी, चौबे कॉलोनी में बड़े-बड़े नेता रहते हैं, कई पत्रकार, और बड़े-बड़े कारोबारी रहते हैं। इसके बावजूद कॉलोनी के बीच के अकेले दशहरा-मैदान में दस-बीस लोग रोज इक_ा होकर शाम से रात तक दारू पीते बैठे रहते थे। यह सिलसिला कई साल से चल रहा था, और इस खुले शराबखाने के बगल से सैकड़ों महिलाएं भी गालियां और बेहूदी बातें सुनते हुए शाम की सैर पर निकलती थीं, और सैकड़ों आदमी भी। लेकिन जब-जब किसी ने इसका विरोध करने के लिए पुलिस को खबर की, तो पुलिस ने सबसे पहले इन शराबियों को ही सावधान किया, और शिकायत करने वाले का नाम-नंबर इनको बता दिया। नतीजा यह हुआ कि कॉलोनी के लोग इन मवालियों को बर्दाश्त करने के आदी हो गए, और मामला यहां तक बढ़ गया कि शराब दुकान के कोचिये इनको इसी मैदान पर शराब भी पहुंचाने लगे, और पानी की बोतलें भी। खुलेआम शराबखोरी के बाद दो दिन पहले शराबी सडक़ पर अपने दुपहिए रोककर वहीं पेशाब करने लगे। इसे देखकर कॉलोनी के एक आदमी ने विरोध किया, तो शराबियों ने उसे धमकाना शुरू किया, लेकिन जब रायपुर एसपी को फोन करके इसकी शिकायत की तो भी वे धमकाते हुए खड़े रहे क्योंकि पुलिस की गाड़ी 20 मिनट तक पहुंची नहीं। एसपी बताते रहे कि उन्होंने सरस्वती नगर थाने को कह दिया है, गाड़ी पहुंच रही होगी, लेकिन दो किलोमीटर दूर के थाने की गाड़ी एसपी के कहने के बाद भी 20 मिनट तक नहीं पहुंची। उसके बाद एक किसी दूसरे थाने की गाड़ी पहुंची तब तक शराबी भाग निकले।
इस पूरे मामले की शिकायत डीजीपी डी.एम. अवस्थी से की गई जो कि इसी शहर में एडिशनल एसपी हुआ करते थे। कल उन्होंने खुद फोन करके जब पुलिस अफसरों को भेजा, और वहां पुलिस आकर खड़ी रही, तो शराबियों के हौसले पस्त हुए। हालत यह है कि थाने से दो मिनट की दूरी पर जो सार्वजनिक जगह है, वहां पर शराबियों की भीड़ को पकडऩे के लिए भी पुलिस का रिस्पांस टाईम करीब 25 मिनट था। दुनिया में शायद ही कोई मुजरिम इतना इंतजार करते होंगे। यह हाल राजधानी का है, और पुलिस से अच्छी खासी पहचान वाले आदमी ने एसपी को बार-बार फोन किया, जिसका इतना असर हुआ। अब कितने लोग किसी सार्वजनिक दिक्कत को लेकर डीजीपी को फोन कर सकते हैं, और रायपुर के लोगों की शिकायत के लिए डीजीपी ने पुलिस मुख्यालय में एक सेल बनाया हुआ है, वहां तक रात में कितने लोग पहुंच सकते हैं? वैसे राजधानी के हाल के एक जानकार ने बाद में इस शिकायतकर्ता को कहा कि अगर शराब पीने का जिक्र न किया जाता, और सिर्फ गुंडों की मौजूदगी कही जाती तो शायद पुलिस जल्दी पहुंचती क्योंकि सरकारी धंधे को मंदा करने की कोई नीयत सरकारी विभागों की है नहीं। फिर आते-जाते लोग शराबियों की इस भीड़ के बीच कई बार वायरलैस की आवाज भी सुनते रहते हैं, जो कि जाहिर तौर पर पुलिस की मौजूदगी का सुबूत है।
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार और पुलिस के बड़े-बड़े दावे कॉलोनी की सडक़ पर शराबी-मवालियों की पेशाब में बह गए हैं।
कोरोना से बचाव की मौलिक कोशिशें
कोरोना से बचने के लिए लोग तरह-तरह के मौलिक प्रयोग कर रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयोग छत्तीसगढ़ राजस्व मंडल के अध्यक्ष सी.के. खेतान के कोर्ट में देखने मिला। इस महीने पहले हफ्ते में जब राजस्व मंडल का काम फिर से शुरू हुआ तो बिलासपुर में उन्होंने अपनी अदालत में वकीलों पर अपने बीच कांच का एक पार्टीशन खड़ा कर दिया ताकि संक्रमण आरपार न आ सके। कांच के नीचे से कागज और फाईल लेने-देने की जगह भी बनी हुई है। उन्होंने अपने रायपुर के दफ्तर में भी ऐसा ही इंतजाम कर रखा है ताकि लोगों से जरूरी मिलने-जुलने से परहेज भी न करना पड़े, और दोनों तरफ के लोगों की सेहत को कोई खतरा भी न हो।
यह शीशा कुछ उसी तरह का है जिस तरह 15 अगस्त के भाषण में लालकिले पर प्रधानमंत्री के सामने बुलेटप्रूफ शीशा लगाया जाता है। कोरोना के लिए बुलेटप्रूफ की जरूरत तो नहीं है, लेकिन कांच का यह पार्टीशन खतरे को कम करने वाला लगता है।
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लोगों ने देखा होगा कि किसी तरह एक किसी बैंक में एक काऊंटर पर बैठा व्यक्ति एक इलेक्ट्रिक आयरन और चिमटा लेकर बैठा है, मिलने वाले चेक चिमटे से थामकर टेबिल पर रखता है, और उस पर गर्म आयरन चलाकर उसके बाद उसे थामता है। चूंकि कोरोना के साथ लंबा जीना है, और कम से कम मरना है, इसलिए ऐसी तमाम सूझबूझ से काम लेना ही होगा।
सबसे ऊपर बने रहना आसान नहीं...
सरकार में कुछ गिनी-चुनी कुर्सियां ऐसी रहती हैं जिनके एक से अधिक दावेदार रहते हैं। और सबसे ऊपर तो एक ही अफसर को बिठाया जा सकता है, इसलिए चाहे मुख्य सचिव हो, या डीजीपी, या वन विभाग के प्रमुख, इनकी कमजोरी, गलती, या गलत काम ढूंढने वाले खासे लोग रहते हैं।
अब डीजीपी डी.एम. अवस्थी ने लॉकडाऊन के बाद से पुलिस मुख्यालय जाना बंद करके पुराने रायपुर में पुराने पुलिस मुख्यालय के अहाते में हरी जाली का एक तम्बू बनवाया और उसी में बैठकर काम कर रहे हैं। नए रायपुर के पुलिस मुख्यालय में तो निजी गाडिय़ों वाले लोग ही जा सकते थे, सरकारी बसें बंद होने के बाद, ऑटोरिक्शा बंद होने के बाद आम लोग तो जा नहीं सकते, इसलिए बिना एसी के तम्बू में बैठकर डी.एम. अवस्थी काम कर रहे हैं। इस बीच कांग्रेस पार्टी में इन दिनों अकेला साधु-संन्यासी चेहरा बने हुए आचार्य प्रमोद कृष्णन ने कहीं यह खबर पढ़ी तो उन्होंने सोशल मीडिया पर इसकी जमकर तारीफ कर दी, और साथ-साथ छत्तीसगढ़ पुलिस की भी जो कि बहुत काम कर रही है। अब टीवी पर कांग्रेस पार्टी के अकेले हिन्दू संन्यासी आध्यात्मिक गुरू ने अगर यह तारीफ कर दी तो कुछ लोग डी.एम. अवस्थी के खिलाफ जुट गए, और तम्बू को नाटक करार देने लगे। अब यह नाटक है या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन पुलिस के छोटे-छोटे कर्मचारियों के परिवार जो दिक्कत लेकर डीजीपी से मिलने जाते हैं, उन्हें तो पुराने पुलिस मुख्यालय का यह तम्बू सुहा रहा है।
बाज़ार और सत्ता की राजनीति
आखिरकार सराफा और मोबाइल कारोबारियों को दूकान खोलने की अनुमति के लिए कांग्रेस नेताओं के यहां मत्था टेकना पड़ा। पहले ये कारोबारी सुनील सोनी और श्रीचंद सुंदरानी के भरोसे थे और उनके मार्फत जिला प्रशासन पर दबाव बनाने के कोशिश कर रहे थे, लेकिन उन्हें तगड़ा झटका लगा। बाकी कारोबारियों को सशर्त अनुमति मिल गई, लेकिन सराफा-मोबाइल कारोबारी रह गए।
चूंकि सरकार कांग्रेस की है, तो कांग्रेस नेता ज्यादा मददगार हो सकते हैं, यह समझने में इन कारोबारियों को थोड़ी देर लगी। खैर, ये सब सत्यनारायण शर्मा और कुलदीप जुनेजा के साथ कलेक्टर से चर्चा के लिए पहुंचे। सत्यनारायण शर्मा ने चित परिचित अंदाज में एक कारोबारी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यह हमेशा सेवा के लिए तत्पर रहता है। आपकी भी करेगा। यह सुनकर कलेक्टर समेत अन्य अफसर हंस पड़े। कलेक्टर ने कारोबारियों को आश्वस्त किया कि सोमवार से उनकी दिक्कतें दूर हो जाएंगी। इसके बाद कारोबारियों ने राहत की सांस ली।
धंधा मंदा है
लॉकडाउन के बाद धार्मिक संस्थानों की आय में भी बेहद कमी आई है। एक प्रतिष्ठित धर्मगुरू के संस्थान में तो कर्मचारियों को वेतन देने में दिक्कतें हो रही है। गुरूजी का प्रवचन कार्यक्रम बंद है। इससे अच्छी खासी आय हो जाती थी। इसके अलावा दानदाता भी खुले हाथ से दान करते थे। इससे संस्थान के आश्रम और अन्य सामाजिक कार्य स्कूल आदि अच्छे से चल रहे थे, लेकिन लॉकडाउन के बाद आमदनी एकदम कम हो गई। बड़े दानदाताओं ने हाथ खींच लिए हैं। एक पूर्व आईएएस, जो कि हमेशा गुरूजी के कार्यक्रम में शोभा बढ़ाते थे, वे भी खामोश हैं। संस्थान से जुड़े लोगों का मानना है कि लॉकडाउन लंबा चला, तो समाज सेवा से जुड़ी कई योजनाओं को बंद करना पड़ सकता है।
मशहूर का काम बढ़ गया
लॉकडाउन के बाद भी कुछ फेमस लोगों के खाने-पीने की दूकानें काफी चली। हुआ यूं कि इन लोगों ने घर से कारोबार शुरू कर दिया। नाम तो था ही। बिक्री भी पहले से ज्यादा हुई। कोतवाली-सदर बाजार के दो कचौरी वालों को तो फुर्सत ही नहीं थी। एक दिन पहले ऑर्डर देना होता था, तब दूसरे दिन लोगों को कचौरी मिल पाती थी। कुछ इसी तरह एक बड़े पान भंडार का भी हाल रहा। शहर के प्रतिष्ठित लोग उनकी दूकान में पान खाने आते थे, लॉकडाउन के बाद दूकान बंद हुई , तो पान के आदी हो चुके लोगों को काफी दिक्कतें हुई।
पान दूकान के संचालक ने ग्राहकों को संतुष्ट करने के लिए एक नया तरीका अपनाया। वे ग्राहकों से पान की पत्ती लाने के लिए कहते थे और फिर उसे बनाकर वापस दे देते थे। पान के शौकीन लोग पत्ती लेकर दूकान के पिछवाड़े में खड़े देखे जा सकते थे। इसी तरह कुछ दिन पहले एक प्रतिष्ठित मल्टीनेशनल कंपनी के कुछ अफसर रायपुर पहुंचे। उनमें से कुछ विशेष किस्म के पान मसाले के शौकीन थे। वे इसके लिए भारी भरकम कीमत देने के लिए तैयार थे। जब कंपनी के डिस्ट्रीब्यूटर उनके लिए दर्जनभर डिब्बा पान मसाला लेकर पहुंचे, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। डिस्ट्रीब्यूटर ने पैसे लेने से मना किया तो वे भावुक हो गए और डिस्ट्रीब्यूटर को गले लगा लिया।
अंग्रेजों का छोड़ा टोकरा...
सुप्रीम कोर्ट ने कल तय किया है कि वीडियो कांफ्रेंस से होने वाली सुनवाई में वकील अपने घर से सफेद कपड़ों में कैमरे के सामने पेश हो सकते हैं। अब तक देश में व्यवस्था यह है कि वकीलों को काले कोट में ही पेश होना पड़ता है, और सुप्रीम कोर्ट में तो वकील जादूगरों जैसे काले लबादों में भी देखे जाते हैं। जज भी काले लबादे पहनकर बैठते हैं। सुप्रीम कोर्ट से लेकर नीचे की अदालतों तक यही व्यवस्था चलते रहती है।
बड़ी अदालतों के अधिक फीस वाले बड़े वकीलों का तो हाल फिर भी ठीक रहता है कि वे एसी कारों में पहुंचते हैं, लेकिन छोटी अदालतों के दुपहियों में पहुंचने वाले वकीलों का हाल बहुत खराब रहता है। हिन्दुस्तान की 45 डिग्री की गर्मी में भी वे काले कोट में पहुंचते हैं, और पसीने के दाग कोट के कॉलर पर समंदर किनारे लहरों के छोड़े गए झाग की तरह दिखते रहते हैं।
अदालतों के जानकार बेहतर बता पाएंगे, लेकिन हमारा अंदाज यह है कि अंग्रेज के वक्त से छोड़ी गई परंपरा को हिन्दुस्तान उसी तरह ढो रहा है, जिस तरह इस देश के सफाई कर्मचारी आज भी सिर पर मैला ढोते हैं। रेलगाडिय़ों और रेल्वे स्टेशनों पर गर्मी में सब कुछ खौलते रहता है, लेकिन वहां टीटीई काले कोट में चलते हैं मानो उनके बदन की बैटरी सोलर चार्जिंग वाली हो।
यह सही मौका है जब पूरे हिन्दुस्तान की अदालतों से, रेल्वे से काले कोट खत्म किए जाएं जिन्हें कि गर्मियों में देखना भी भारी पड़ता है।
आज दुनिया भर में यह भी माना जा रहा है कि बदन पर जितने गैरजरूरी कपड़े पहने जाते हैं, वे किसी संक्रामक रोग को बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट को भी अभी केन्द्र सरकार की तरफ से बताया गया है कि कोट पहनने से या काले लबादे पहनने से संक्रमण का खतरा अधिक रहता है।
दुनिया के कई विकसित देशों में रिसर्च में यह भी पाया गया है कि मरीजों को देखने वाले डॉक्टर अगर टाई पहनते हैं, तो वह टाई संक्रमण का एक बड़ा जरिया बन जाती है। डॉक्टर हर भर्ती मरीज को देखने के लिए झुकते हैं, और उनकी टाई मरीज के बिस्तर को या मरीज को छूती ही है। ऐसी टाई संक्रमण को आगे बढ़ाने का काम भी करती है। '
अजय चंद्राकर का धरना
दारूबंदी के लिए भाजपा के अनोखे धरने की काफी चर्चा रही। और जब पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर, धरना देने रमन सिंह के घर गए, तो पार्टी के भीतर खुसुर-फुसुर शुरू हो गई। रमन सिंह के साथ अजय चंद्राकर के धरने को पार्टी की अंदरूनी राजनीति से जोडक़र भी देखा जाने लगा। अजय चंद्राकर प्रदेश अध्यक्ष बनने की दौड़ में है। चर्चा है कि कुछ समय पहले उनका नाम तय भी हो गया था, लेकिन रमन सिंह खेमे के विरोध के चलते नियुक्ति रूक गई। और जब अजय, रमन सिंह के घर धरने पर बैठे तो पार्टी नेताओं की निगाहें उन पर टिकी रही।
रमन सिंह के साथ धरने पर संगठन के कर्ताधर्ता सौदान सिंह और पवन साय भी थे। कोरोना संक्रमण के बीच दारूबंदी और मजदूरों की बेहाली को लेकर तेज गर्मी में कूलर की ठंडी हवा लेते अजय और अन्य दिग्गज नेता सोफे पर धरने में बैठे। संपन्न किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले अजय चंद्राकर की गिनती तेजतर्रार नेताओं में होती है। वे संसदीय मामलों के जानकार हैं, और शौकीन मिजाज भी हैं। वे भाजपा की गुटीय राजनीति में बृजमोहन अग्रवाल खेमे के माने जाते हैं। बृजमोहन अपने निवास में धरने पर बैठे थे।
पहले चर्चा थी कि अजय, बृजमोहन अग्रवाल के घर धरने के लिए जा सकते हैं। वहां धरने के लिए आरामदेह गद्दा-तकिया बिछाया गया था, लेकिन अजय वहां नहीं गए। अब जब अजय, बृजमोहन के घर नहीं गए, तो उनके बृजमोहन खेमे से छिटकने की चर्चा भी होने लगी। हालांकि उनके करीबियों का मानना है कि चूंकि अजय चंद्राकर का घर भी रमन सिंह के घर के नजदीक ही है। ऐसे में रमन के निवास पर धरना देना ज्यादा सुविधाजनक भी था। वैसे भी संगठन के कर्ता-धर्ता भी रमन निवास में थे। अब अजय को रमन निवास में धरने का फायदा मिलता है, या नहीं देखना है।
भोपाल से छत्तीसगढ़ी मजदूरों के लिए मदद जुटाने में लगी हैं रात-दिन
भोपाल में लगातार छत्तीसगढ़ के मजदूरों की मदद में लगी हुईं लेखिका तेजी ग्रोवर ऐसे सैकड़ों लोगों की तकलीफों से लगातार विचलित हैं, और यातना पाते हुए भी वे जुटी हुई हैं। फेसबुक पर उन्होंने अभी पोस्ट किया है- क्या कोई छत्तीसगढ़ की एक दंपत्ति के लिए टिकटों का इंतजाम कर सकते हैं जिसमें करीब 3 हजार रुपये लगेंगे, वहां घर पर बाप मर गया है और माँ बहुत बीमार है। वे रात-दिन अपनी पूरी ताकत से लोगों के खाने-पीने के इंतजाम में लगी हंै, और लोगों से कह-कहकर मदद भिजवा रही हैं, ऐसे लोगों के फोन रीचार्ज करवा रही हैं ताकि व कम से कम संपर्क में रह सकें। उन्होंने फेसबुक पर यह भी लिखा है कि बहुत से राज्यों में फंसे हुए छत्तीसगढ़ के लोगों को मदद की जरूरत है और अगर फोन पर बात करने के लिए कोई वालंटियर तैयार हो तो वे उनके नंबर भेज सकती हैं। वे छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूरों के खातों में लोगों से कुछ-कुछ रकम भी डलवाने की कोशिश कर रही हैं।
धरना तेरी किस्में अनेक...
दारूबंदी की मांग को लेकर भाजपाई अपने घरों पर धरने पर बैठे। बड़े नेता रमन सिंह, बृजमोहन अग्रवाल, रामविचार नेताम और अजय चंद्राकर के धरने को मीडिया में जगह जरूर मिली, लेकिन इसके लिए पार्टी के मीडिया सेल को भरपूर मेहनत करनी पड़ी। बृजमोहन को छोडक़र ज्यादातर बड़े नेता शहर के बाहरी इलाके मौलश्री विहार में रहते हैं। और यहां लोगों की आवाजाही भी कम रहती है। ऐसे में लोगों तक इस अनोखे धरने की जानकारी के लिए मीडिया ही एकमात्र स्त्रोत रह गया था।
दूसरी तरफ, प्रेमप्रकाश पाण्डेय के धरने को मीडिया कवरेज ज्यादा नहीं मिला, लेकिन वह यहां आम लोगों की निगाह में रहा। प्रेमप्रकाश का बंगला शंकर नगर में है और बंगले के ठीक सामने ट्रैफिक सिग्नल है।प्रेमप्रकाश अपने बंगले के पोर्च में डॉ. सलीम राज और आकाश विग के साथ कुर्सी डालकर बैठे थे। बंगले का दरवाजा खोल दिया गया था और ट्रैफिक सिग्नल के पास लोगों की जमा भीड़ प्रेमप्रकाश का हाथ जोडक़र-हिलाकर अभिवादन करते दिखी। खुद सीएम भूपेश बघेल का काफिला प्रेमप्रकाश के बंगले के सामने से होकर गुजरा। भूपेश ने प्रेमप्रकाश और थोड़ी दूर आगे बृजमोहन के धरने को देखा। बाकी के धरने का हाल जंगल में मोर नाचा...जैसा रहा। मगर प्रेमप्रकाश और बृजमोहन का धरने का नजारा सबने देखा वाला रहा।
दारू या मज़दूर ?
दारूबंदी के खिलाफ धरने से भाजपा का एक बड़ा खेमा असहमत था। यह खेमा लॉकडाउन के चलते मजदूरों की बेहाली, क्वॉरंटीन सेंटर की बदहाली जैसे मुद्दे को उठाने के पक्ष में था। मगर दारूबंदी को धरना-प्रदर्शन का मुख्य विषय बनाने पर कुछ बड़े नेताओं के बीच आपस में किचकिच भी हुई। पार्टी के एक बड़े नेता का कहना था कि दारू का सरकारीकरण भाजपा की सरकार ने किया। हर चुनाव में मतदाताओं को रिझाने के लिए दारू का खुलकर इस्तेमाल करती थी।
विधानसभा चुनाव का हाल तो यह रहा कि सरकारी दबाव के चलते बाकी दल के प्रत्याशियों को दारू जुटाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी।और यह तमाम बातें आम जनता की जानकारी में भी थीं. जबकि भाजपा प्रत्याशियों और समर्थकों की दारू तक आसान पहुंच थी। विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर दारू पकड़ी भी गई। ऐसे में जब कोरोना प्रकोप के चलते लोगों की नौकरियां जा रही है, देश-प्रदेश में भय का वातावरण बना हुआ है। ऐसे में तात्कालिक मुद्दों को नजर अंदाज करने से कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। चूंकि धरने का मुद्दा संगठन में हावी खेमा ने तय किया था, इसलिए ज्यादातर नेता औपचारिकता ही निभाते दिखे।
ऑनलाइन पढ़ाई के रिस्क
लॉकडाउन पीरियड में स्कूल-कॉलेजों में ऑनलाइन क्लासेस चल रही हैं। यह कितना उपयोगी होगा यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन ऑनलाइन क्लासेस से गुरुजी खासे परेशान हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनको पढ़ाने में दिक्कत हो रही है या वे पढ़ाना नहीं चाह रहे हैं, बल्कि वे इसके रिस्क से घबराए हुए हैं। घर से क्लास के लिए शिक्षकों को सुबह से मशक्कत करनी पड़ती है। क्लास शुरु करने से आधा घंटा पहले वे सभी स्टूडेंट्स को कनेक्ट होने के लिए संदेश भेजते हैं या फोन करते हैं। इस दौरान कुछ बच्चे एंड्राइड फोन नहीं होने की बात कह कर बंक मार देते हैं। गिने-चुने बच्चों के साथ क्लास शुरु होते ही पढ़ाई की बात कम व्यक्तिगत समस्याएं ज्यादा होती हैं। कुछ बच्चे तो शिक्षक से पहले ही कह देते हैं कि उनके पास एक केवल एक जीबी का डाटा है और उसको भी पूरे दिन चलाना है, तो आप अपनी बात लिमिटेड समय में खत्म कर दीजिए। ये समस्या स्कूल नहीं बल्कि कॉलेज के बच्चों के साथ भी है। जो थोड़े-मोड़े बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई में दिलचस्पी दिखाते भी है, तो नेटवर्क की प्राब्लम आ जाती है। बच्चों को क्लास शुरु होने से आधा घंटे पहले अपने घर से दूर तालाब किनारे या पेड़ पर चढऩा पड़ता है। ताकि नेटवर्क मिल सके।ऐसे बच्चों को पढ़ाते समय में शिक्षक की चिंता रहती है कि कहीं घर से बाहर निकले स्टूडेंट्स को पुलिस न पकड़ ले या पेड़ से गिर न पड़े। कुल मिलाकर ऑनलाइन पढ़ाई तो ठीक है लेकिन उसके रिस्क और समस्याएं भी कम नहीं।
कोरोना के डर ने बनाया आत्मनिर्भर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंगलवार को अपने संदेश में आत्मनिर्भर बनने पर खासा जोर दिया। उनका इशारा रोजगार और व्यवसाय को लेकर था, लेकिन लॉकडाउन और कोरोना संक्रमण के डर ने लोगों को कुछ हद तक आत्मनिर्भर बना दिया है। लोगों की छोटे-मोटे कामकाज के लिए आत्मनिर्भरता कम हुई है और उन्होंने खुद काम करने की आदत डाल ली है। वरना नेताओं से लेकर सरकारी अधिकारियों के पास हर काम के लिए अलग-अलग कर्मचारियों की तैनाती हुआ करती था। मसलन, घर के गार्डन की देखभाल के लिए माली, खाना बनाने के लिए बावर्ची, साफ-सफाई के लिए सफाई कर्मी, गाड़ी के लिए ड्राइवर और घर के दूसरे कामों के लिए अलग कर्मचारी। अब ये सब काम घर के लोग आपस में बांट कर रहे हैं। इसका फायदा यह हुआ कि बंगला ड्यूटी की परंपरा कुछ कम हुई है। इन सरकारी कर्मचारियों का मूल काम में उपयोग हो रहा है। कुल मिलाकर जिस परंपरा को कोई नहीं रोक पाया, उसे कोरोना के खौफ ने तो रोक दिया है। कहते हैं ना कि हमारे देश में भय और लालच से कोई भी काम करवाए जा सकते हैं। यहां भी भले ही भय के कारण, लेकिन बरसो से चली आ रही परंपरा पर विराम तो लगा है। अब देखने वाली बात यह है कि यह भय कितने दिनों तक रहता है।
‘अ’सरदार लोग
लॉकडाउन में फंसे मजदूरों की वापसी शुरु हो गई है, लेकिन अभी भी रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में गए मजदूर परिवार सहित पैदल और ट्रकों में लद कर लौट रहे हैं। शहर टाटीबंध में इसका नजारा देखा जा सकता है। हालत यह है कि भूखे-प्यासे मजदूर लौट रहे हैं। यहां उनके गंतव्य तक पहुंचने की न कोई व्यवस्था है और न ही उनके खाने-पीने का कोई इंतजाम है। मजदूर जैसे-तैसे अपनी मंजिल तक पहुंचने में लगे हैं। इस दौरान सरकारी अमला पूरा गायब है। वो तो गनीमत है कि इलाके के सिख समाज के लोग वहां मजदूरों की सेवा के लिए डटे हुए हैं। उनके लिए पानी और खाने-पीने के सामान के साथ घर पहुंचाने के लिए नि:स्वार्थ मदद कर रहे हैं। उनके सेवा भाव और मजदूरों की तकलीफ को देखकर किसी का भी दिल पसीज जाएगा। समाज के लोगों की जितनी तारीफ की जाए कम है, क्योंकि वे दिन-रात थके हारे मजदूरों और परिवार जिसमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल हैं, उनकी तीमारदारी कर रहे हैं। इस समाज के लोगों की सेवा भावना पूरी दुनिया में मशहूर है, इस संकट के इस समय में भी इसके लोगों ने मिसाल पेश की है।
बाजार और धर्मसंकट
लॉकडाउन के बीच दूकान खोलने की अनुमति के लिए नेतागिरी करना कुछ कारोबारियों को भारी पड़ गया। हुआ यूं कि रायपुर के रेड जोन में होने के कारण सिर्फ जरूरी वस्तुओं के कारोबार की अनुमति है। राज्य शासन व्यापारियों की दिक्कतों को देखकर केन्द्र की राय के विपरीत कुछ और अनुमति देने पर विचार कर रहा था कि चेम्बर के राजनीति में हासिए पर चल रहे श्रीचंद सुंदरानी ने नाराज व्यापारियों को एकजुट करना शुरू कर दिया।
सुंदरानी को सांसद सुनील सोनी का भी साथ मिला। सुनील सोनी की कोशिश थी कि शादी-ब्याह के सीजन के चलते सराफा और कपड़ा कारोबार को अनुमति मिल जाए। सुंदरानी ने पहले रमन सिंह के मार्फत केन्द्र सरकार पर रायपुर को रेड जोन से बाहर निकालने के लिए दबाव बनाया। सुनील सोनी ने भी इसके लिए कोशिश की। मगर नतीजा सिफर रहा। अब गेंद राज्य शासन के पाले में आ गई। श्रीचंद के विरोधी कांग्रेस के व्यापारी नेता भी सक्रिय हो गए और फिर नतीजा यह हुआ कि सराफा और मोबाइल को छोडक़र बाकी सारे कारोबार के लिए सशर्त अनुमति जारी कर दी गई। सुनील सोनी और श्रीचंद की दिक्कत यह है कि वे चाहकर भी जिला प्रशासन के फैसले का विरोध नहीं कर पा रहे हैं।
कहानी कॉलर ट्यून की...
लोगों को मोबाइल पर कॉल किया जाए, तो उनके व्यक्तित्व के कई पहलू पता चलते हैं। बहुत से लोग अपनी पसंद के किसी ईश्वर की आराधना का संगीत लगाकर रखते हैं। कुछ लोगों के तो फोन लगने के पहले से उनकी धार्मिक प्राथमिकता उनके नंबरों से पता लग जाती है जब नंबर में 786 होता है जो कि मुस्लिमों के बीच बहुत शुभ नंबर माना जाता है। बहुत से लोग ऐसी अंधाधुंध शोरगुल की म्युजिक लगाकर रखते हैं कि लगता है कि उन्हें लोगों के कानों पर जरा भी रहम नहीं है। शिकायत करने पर ऐसे लोगों का आमतौर पर यह कहना रहता है कि पता नहीं किसी बच्चे ने ऐसा संगीत डाल दिया होगा, या मोबाइल कंपनियां ही किसी बटन के दबने से ऐसा संगीत फोन पर सेट कर चुकी होंगी। वैसे भाजपा सरकार जाने के बाद बहुत से अफसरों ने कई बरस से चली आ रही धार्मिक कॉलर ट्यून को बदला है, और सरकारी दफ्तर के कमरों में कहीं-कहीं गांधी के साथ नेहरू को भी टांग लिया है।
जो भी हो, अगर किसी को फोन लगाने पर उसकी ओर से आने वाला संगीत चूभने वाला हो तो उसकी शिकायत जरूर करनी चाहिए। इन दिनों चारों तरफ मोबाइल फोन पर कोरोना की कॉलर ट्यून इस तरह गूंज रही है कि लोग अब उसे सुनना उसी तरह भूल गए हैं जिस तरह सुबह आने वाली कचरा गाड़ी का संगीत अब सुनाई नहीं देता। लेकिन फिर भी किसी के लिए यह दिलचस्प प्रयोग हो सकता है कि वे राज्य के सारे विधायकों की कॉलर ट्यून, सांसदों की कॉलर ट्यून, और आईएएस, आईपीएस, आईएफएस सेवाओं के अफसरों की कॉलर ट्यून को देखें कि कौन सी कॉलर ट्यून किस तबके में अधिक लोकप्रिय है।
नमकहरामी
लॉकडाउन थ्री के अंतिम चरण में नमक की किल्लत की खबर फैल गई है। जिसके कारण लोग थोक में नमक खरीद रहे हैं। इतना ही नहीं दुकानदारों ने मनमानी कीमत में नमक बेचना शुरु कर दिया है। हालांकि सरकार ने कड़ाई करते हुए छापामार कार्रवाई की है। पुलिस की पेट्रोलिंग पार्टियां भी किराना दुकानों के सामने जाकर एनाउंसमेंट कर रही है कि अधिक कीमत में नमक बेचने पर कार्रवाई की जाएगी। इसके बावजूद बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। कल तक 60-70 रुपए किलो में बिक रहा नमक आज 40 रुपए में बिक रहा है। सुपरबाजार में जरुर नमक निर्धारित कीमत में मिल रहा है, लेकिन वहां दो से ज्यादा पैकेट खरीदने की अनुमति नहीं है। नमक को लेकर सोशल मीडिया गरम है। लोग नमक के साथ अमिताभ बच्चन की फिल्म नमकहराम को याद कर रहे हैं। सोचने वाली बात यह है कि नमक की आड में नमकहरामी कौन लोग कर रहे हैं। चर्चा है कि हमारे देश में दोनों की पर्याप्त संख्या है।
जोगी के लिए साय की प्रार्थना
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी इस समय जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। उन्हें दवाओं के साथ दुआओं की भी जरुरत है। उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए डॉक्टरों के साथ समर्थक और जानने वाले भी अपने-अपने तरीकों से कोशिश कर रहे हैं। इसी में एक नाम है वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय का। साय जोगी के लिए महामृत्यृजंय का जाप कर रहे हैं।
जबकि जोगी और साय के बीच सियासी कटुता किसी से छिपी नहीं है। जोगी जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री थे, तो साय नेता प्रतिपक्ष हुआ करते थे। दोनों अलग-अलग विचारधारा के साथ अलग-अलग राजनीतिक दल से जुड़े हैं। सीएम और नेता प्रतिपक्ष का पद भी एक दूसरे के विरोध का माना जाता है। जोगी के मुख्यमंत्रित्वकाल में साय ने उनके निवास के सामने बड़ा प्रदर्शन किया था। इस प्रदर्शन में पुलिस ने जमकर लाठियां भांजी थीं । पुलिस की लाठी खाने से साय का पैर भी फ्रैक्चर हुआ था। जोगी पर विपक्षी दल के नेताओं की आवाज को दबाने के लिए पुलिस से पिटवाने के आरोप लगे थे। उस वक्त मुकेश गुप्ता रायपुर के एसपी हुआ करते थे।
जोगी की जाति के मसले को साय कोर्ट तक ले गए थे। अनुसूचित जाति जनजाति आयोग का अध्यक्ष रहते हुए भी उन्होंने जोगी की जाति पर सवाल उठाए थे। मरवाही से साय जोगी के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके हैं। जिसमें साय को हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद ही उन्होंने जोगी की जाति के मसले पर कोर्ट में याचिका लगाई थी। इतना सब कुछ होने के बाद भी साय भलमनसाहत दिखाते हुए जोगी के लिए अपने तरीके से प्रार्थना कर रहे हैं। यह छत्तीसगढ़ की सियासत की खासियत है कि जिंदगी भर एक दूसरे के घोर विरोधी भी जीवन मरण के मसले पर साथ खड़े हैं।
जोगी के बारे में भी कहा जाता है कि उनके हमेशा से अपने विरोधियों से अच्छे संबंध रहे हैं। जबकि, सियासी मैदान में विरोध करते करते कब कौन किसका दुश्मन बन जाता है, यह पता भी नहीं चलता। बात व्यक्तिगत टिप्पणियों से होते हुए बुरा-भला सोच तक पहुंच जाती है। पिछले दिनों बीजेपी के एक बड़े नेता के स्वास्थ्य को लेकर कई तरह की कहानियां सोशल मीडिया में सुनने को मिल रही थीं, जिसका उन्हें खंडन करना पड़ा। हम अक्सर राजनीति में शुचिता की बात करते हैं, लेकिन जब इसके पालन करने की बात होती है, तो सभी सियासी विरोध को प्रमुखता देते हैं। ऐसे समय में साय ने गिरते राजनीतिक मूल्यों के बीच मिसाल पेश की है। हम भी आशा करते हैं कि साय और उनके जैसे तमाम भलेमनसाहत रखने वालों की प्रार्थना स्वीकार हो, ताकि राजनीति में शुचिता को मुकाम हासिल हो सके।
कोरोना गया, प्रदेश अध्यक्ष आया?
लॉकडाउन में राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम काफी सक्रिय हैं। वे वीडियो कॉन्फ्रेंस कर सरगुजा संभाग के पदाधिकारियों की बैठक ले चुके हैं। वे राज्य सरकार पर तीखा हमला बोल रहे हैं। रामविचार का कद पार्टी के भीतर काफी बढ़ा है। उन्हें झारखंड के चुनाव में अहम जिम्मेदारी दी गई थी। चुनाव नतीजे भले ही पार्टी के अनुकूल नहीं आए। मगर उन्होंने झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास पार्टी के मुखिया बाबूलाल मरांडी को भाजपा में शामिल कराने में अहम भूमिका निभाई। वैसे तो मरांडी की घरवापसी के लिए अमित शाह सीधे प्रयासरत थे, लेकिन नेताम की भूमिका को नकारा नहीं जा रहा है। रामविचार प्रदेश अध्यक्ष की दौड़ में भी हैं। उन्हें सरोज पाण्डेय और सौदान सिंह का साथ मिल रहा है, लेकिन चर्चा है कि पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह उनके नाम पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं। यही वजह है कि उनके नाम की घोषणा नहीं हो पा रही है। माना जा रहा है कि कोरोना संक्रमण में कमी आते ही नए अध्यक्ष की घोषणा हो सकती है।
निर्वाचित लोग तो झांसे से बचें...
छत्तीसगढ़ के शहरों में लॉकडाऊन को लेकर जिस तरह के प्रयोग देखने मिल रहे हैं, वे लॉकडाऊन की पूरी जरूरत और नीयत, इन दोनों को खारिज कर दे रहे हैं। दारू के बारे में हम जितना लिख चुके हैं, उससे ज्यादा अब लिखने की जरूरत नहीं है क्योंकि केन्द्र सरकार ने जिस तरह दारू को खोला, उससे देश के तमाम राज्यों को चाहे-अनचाहे दारू शुरू करना पड़ा, और उसने पीने वाले तबके, और उनके संपर्क में आने वाले लोगों का शारीरिक-दूरी की, सोशल डिस्टेंसिंग की सारी कामयाबी को खत्म कर दिया। अब पाकिस्तान के एक मशहूर शायर की जुबान से, हर किसी को हर किसी से खतरा है।
लेकिन शनिवार-इतवार दो दिन के बाजार बंद के बाद आज जब बाजार खुले, तो शहर के बीच ट्रैफिक जाम हो गया। सारे दुपहिया वाले एक-दूसरे के बगल खड़े रहे, और डेढ़ महीने से चली आ रही मशक्कत किसी काम की नहीं रही। लेकिन सरकार के बीच बात की जाए तो पुलिस विभाग प्रशासनिक अधिकारियों को यह कहकर डरा देता है कि पुलिस के अमले पर वैसे भी बहुत दबाव है, काम के बोझ से वे थके हुए हैं, और ऐसे में दुकानों को खुलने के घंटे बढ़ाने का मतलब पुलिस का तनाव बढ़ाना है, और ऐसे में कभी पुलिस लाठी चलाने के बजाय गोली चला दे, तो पुलिस को जिम्मेदार न माना जाए। अब ऐसी चेतावनी के बाद प्रशासनिक अफसर ढीले पड़ जाते हैं कि कौन गोली चलने की नौबत लाए।
सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ में सुबह से रात तक दुकानों को अगर खोला जाए तो बाजार की भीड़ एकदम घट जाएगी, दुकानों पर लोगों का शारीरिक संपर्क नहीं होगा, और आज जब व्यापारी संगठनों से लेकर पार्षद और विधायक तक बाजार खोलने के हिमायती हैं, तब यह गैरजरूरी रोक-टोक खत्म होनी चाहिए। हर इलाके के पार्षद हैं, विधायक हैं, और सांसद भी अपने-अपने इलाकों में हैं। हर इलाकों के व्यापारी संगठन हैं, और इन पर जिम्मेदारी डालकर बाजार बिल्कुल सुबह से देर रात तक खोलने की छूट देनी चाहिए ताकि मुर्दा पड़ा हुआ बाजार चल सके, गरीब कारीगरों के चूल्हे जल सकें। दारू से मोटी कमाई करने वाली सरकार को भी यह समझना चाहिए कि अगर बाजार से कलपुर्जे नहीं मिलेंगे, तो मरम्मत करने वाले कारीगर भी कमा नहीं पाएंगे, और सस्ती दारू के ग्राहक टूटने लगेंगे। आज गरीब-मजदूरों, कारीगरों, छोटे-बड़े व्यापारियों के भले के लिए बाजार को बेरोक-टोक खोलने नहीं दिया जा रहा, तो कम से कम दारू की बिक्री के हित में बाजार को पूरे वक्त खुलने देना चाहिए। संक्रमण को रोकने के लिए जरूरी हो तो भी लगातार दो दिन बाजार बंद रखने के बजाय हर तीन दिन के बाद एक दिन बाजार बंद करना चाहिए, और जिन दिनों बाजार खुले, उसे चौबीसो घंटे खुले रखने की छूट रहनी चाहिए। अफसरों को एक ही कार्रवाई समझ में आती है, जिसका नाम प्रतिबंध है। इसलिए हर जगह पुलिस और प्रशासन प्रतिबंध बढ़ाकर समझ लेते हैं कि कानून व्यवस्था बेहतर हो गई है। जनता के बीच से चुनकर आने वाले विधायकों, और उनमें से बने हुए मंत्रियों को इस झांसे से बचना चाहिए।
नेताओं की अगली पीढ़ी
कांग्रेस के बड़े नेताओं के परिवार के सदस्य अब धीरे-धीरे राजनीति में कूद रहे हैं। कुछ तो आ चुके हैं, और कुछ उच्च शिक्षित युवा प्रोफेशनल कांग्रेस के जरिए राजनीति में सक्रिय हो रहे हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर की अगुवाई में ऑल इंडिया प्रोफेशनल कांग्रेस दो साल पहले ही अस्तित्व में आया था। इसके जरिए इंजीनियर, डॉक्टर, सीए और अन्य उच्च शिक्षित लोगों को कांग्रेस से जोडऩा मकसद रहा है। छत्तीसगढ़ में प्रोफेशनल कांग्रेस का पुनर्गठन हुआ है। यहां अध्यक्ष का दायित्व संभाल रहे धमतरी के नेता पंकज महावर की जगह अब क्षितिज विजय चंद्राकर को जिम्मेदारी सौंपी गई है।
क्षितिज, दिवंगत पूर्व केन्द्रीय मंत्री चंदूलाल चंद्राकर के परिवार से हैं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के दामाद भी हैं। क्षितिज आईटी एक्सपर्ट हैं और वे कनाडा में काम कर चुके हैं। थरूर ने प्रोफेशनल कांग्रेस के सचिव की जिम्मेदारी सुश्री ऐश्वर्या सिंहदेव को सौंपी है। ऐश्वर्या, पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव की भतीजी हैं और जिला पंचायत सदस्य आदित्येश्वर शरण सिंहदेव की बहन है। ऐश्वर्या की पढ़ाई लंदन में हुई है। और वे महिलाओं की समस्याओं को लेकर जागरूक भी हैं। राजनीतिक परिवार से होने से पहचान को लेकर संकट नहीं है। मगर उन्हें अब प्रोफेशनल कैरियर से हटकर काम कर दिखाना होगा।
राजधानी के बल्लम नेताओं का संघर्ष
राजधानी रायपुर में कांग्रेस के बड़े नेताओं को अपनी सियासी साख बचाए रखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। 15 साल बाद पार्टी सत्ता में आई तो उम्मीद थी कि उनका भी कुछ भला होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उलटे सरकार बनने के बाद जनता की अपेक्षाएं बढ़ गई। ऐसे में विधायकी बचाए रखने के लिए जमकर पसीना बहाना पड़ रहा है। शहर के एक युवा विधायक तो अब आटो रिक्शा चलाते गली-गली घूम रहे हैं। कोरोना संक्रमण में क्षेत्र के लोगों को राशन से लेकर तमाम जरुरी सामान खुद उपलब्ध करा रहे हैं। इतना ही नहीं पानी, सफाई जैसी तमाम समस्याओं के लिए वे वार्ड वार्ड घूम रहे हैं। दरअसल, उन्होंने प्रदेश की हाईप्रोफाइल सीट से बीजेपी के बड़े नेताओं को हराया है। ऐसे में अगले चुनाव में पत्ता साफ होने का खतरा भी हो सकता है। लिहाजा नेताजी कोई कोर कसर छोड़ नहीं रहे हैं। माना जाता है कि सत्ताधारी दल के जनप्रतिनिधियों के पास लोगों को उपकृत करने के कई अवसर होते हैं, लेकिन अभी तक उन्हें यह अवसर मिला नहीं है, तो जनता से सीधा जुड़ाव रखना जरुरी है, वरना पब्लिक तो चुनाव में पूरा हिसाब-किताब चुकता कर देती है। इसी तरह रायपुर नगर निगम के एक नेताजी विपक्षी दल की सरकार में खूब चांदी काट चुके हैं, लेकिन अपनी पार्टी की सरकार बनने के बाद पद के लिए भी लाले पड़ गए थे। खैर, जैस-तैसे एडजस्ट हो पाए। चूंकि काफी मान मन्नौवल के बाद पद मिला है, तो नेताजी चुपचाप बैठने में ही भलाई समझ रहे हैं। उनको भी पता है कि ज्यादा सक्रियता दिखाने से लोगों की अपेक्षाएं बढ़ेंगी और उन्हें पूरा करने की स्थिति में हैं नहीं। हालांकि नेताजी को दिल्ली जाने का मौका मिला था, लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। उनके बारे में कहा जाता है कि वे दिल्ली जाने से पहले ही इतने मशगूल हो गए थे, जिसका भी उन्हें नुकसान हुआ। वे सोशल मीडिया में अपनी एक पोस्ट के कारण भी चर्चा में है, जिसमें उन्होंने सरकार में नंबर टू की तारीफ की थी। हो सकता है कि कोई खिचड़ी पका रहे हों। इसी तरह राजधानी के एक और वयोवृद्ध नेताजी को उम्मीद दी थी कि सरकार बनने के बाद बड़ा ओहदा मिलेगा, लेकिन उनकी स्थिति भी जस की तस है। इंतजार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। कुल मिलाकर इन नेताओं का समय पद बचाने की चुनौती और संघर्ष में ही बीतता दिख रहा है।
अफसर का बाल-बांका नहीं
सरकार के एक मंत्री अपने विभाग के निगम में गड़बड़झाले से काफी परेशान हैं। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। उन्होंने इसके लिए जिम्मेदार निगम के प्रमुख अफसर को हटाने के लिए चिठ्ठी लिखी थी, लेकिन अफसर का बाल-बांका नहीं हुआ। अब निगम में जो कुछ भी गड़बड़ हो रहा है, उसका ठीकरा मंत्रीजी पर फूट रहा है।
सुनते हैं कि अफसर, कांग्रेस के एक बड़े पदाधिकारी के करीबी हैं। ऐसे में उन्हें हटाना भी आसान नहीं रह गया है। आखिरकार मंत्रीजी ने परिस्थितियों को भांपकर अफसर की शिकायत करना छोड़ दिया है और सिफारिश की है कि अफसर को और अहम जिम्मेदारी दे दी जाए। अब देखना है कि मंत्रीजी की सिफारिश मान्य होती है, अथवा नहीं।
किराए की उम्मीद भी नहीं
लॉकडाउन के चलते कई जगहों पर किराएदार और मकान मालिक के बीच विवाद चल रहा है। शहर के मध्य में स्थित एक व्यावसायिक कॉम्पलेक्स के दर्जनभर से अधिक दुकानदार किराया नहीं पटा पा रहे हैं। ऐसे में दुकान के मालिकों ने उन्हें किराया देने अथवा दुकान खाली करने के लिए दबाव बनाया है। कुछ व्यापारी नेता इस विवाद को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। दुकान के मालिकों को समझाइश देने की कोशिश हो रही है कि दुकान बंद है। कारोबार नहीं हो रहा है। ऐसे में किराए के लिए दबाव बनाना उचित नहीं है।
कुछ इसी तरह का मिलता-जुलता मामला एक खास कारोबार से भी जुड़ा है। सुनते हैं कि इस कारोबार ने अपने दफ्तर का तीन महीने का किराया नहीं पटाया है। मकान मालिक ने जब उन पर किराया देने अथवा दफ्तर खाली करने के लिए दबाव बनाया, तो उन्होंने पीएम के उस कथन का जिक्र करते हुए लंबा चौड़ा खत लिख दिया जिसमें पीएम ने किरायादारों पर दबाव नहीं बनाने का आग्रह किया था। अब मालिक परेशान हैं, और कोरोना संकट खत्म होने तक किराए की उम्मीद भी नहीं दिख रही है।
कोरोनारुपी खुशी
सरकारी कामकाज और ठेकों में लेन-देन सामान्य शिष्टाचार माना जाता है। हालांकि यह काम भी पूरी सावधानी और कोड वर्ड में किया जाता है। जैसा कि इस समय कोरोना संक्रमण का दौर चल रहा है, लिहाजा कोड वर्ड भी उसी हिसाब से तय हो रहे हैं। चर्चा है कि इस समय कोरोना के नाम से ही लेन-देन चल रहा है। आशय यह है कि अगर किसी को कुछ देना है तो वे कोरोना देना है कहकर इशारा कर रहे हैं। अब समझदार के लिए इशारा काफी होता है, जो कोड वर्ड को समझ गए, वो खुशी-खुशी कोरोना ले रहे हैं लेकिन जो नहीं समझ पाए, उनके भाग्य में कोरोनारुपी खुशी नहीं है।
धनिया का टेंशन
छत्तीसगढ़ में खेता किसानी से जुड़े विभाग ने धनिया से तौबा कर ली है। ऐसा नहीं है कि धनिया से कोई नुकसान हो रहा है, बल्कि यह फायदे का सौदा है। खाने में तो धनिया का विशेष महत्व होता है। धनिया के बिना तो किचन अधूरा ही रहता है। अमीर-गरीब सभी के खाने में धनिया तो आवश्यक है। इसके बावजूद विभाग के लोग इससे परहेज करते हैं। उनकी समस्या यह है कि वो किसानों को धनिया बोने की सलाह भी नहीं दे सकते, क्योंकि इसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं। समस्या केवल इतनी सी होती तो बात नहीं बिगड़ती। दरअसल, अब तो उन पर किसानों की धनिया बोने के आरोप लग रहे हैं। लिहाजा धनिया का नाम सुनते ही वे लोग टेंशन में आ जाते हैं।इसके पीछे का राज बहुतों को मालूम है।
पशोपेश में माननीय
सार्वजनिक जीवन में लोगों से मिलना-जुलना अनिवार्य माना जाता है, लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में यह किसी आफत से कम नहीं। लिहाजा, नेता-मंत्री लोगों से मेल-मुलाकात से एकदम से परहेज कर रहे हैं। हालांकि इतने से उनका काम बन नहीं रहा है। संकट के इस समय में लोग मदद के लिए बंगलों तक भी पहुंच रहे हैं। कुछ लोग फोन से लोकेशन ले रहे हैं। ऐसे में नेता-मंत्री भी बदल-बदलकर अपना लोकेशन बता रहे हैं। इससे थोड़ी बहुत राहत जरुर मिल रही है, लेकिन पूरी तरह से नहीं। जैसे-तैसे वीआईपी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं। लोगों की समस्या को सुनना और सुलझाना भी जरुरी है। इस पूरे संक्रमण काल में उनकी दिक्कत यह भी है कि ज्यादातर लोग एक जगह से दूसरी जगह या अपने प्रदेश लौटना चाहते हैं। ऐसे में नेता-मंत्री उनकी मदद नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि प्रवासियों की वापसी नियमों और सावधानी के साथ ही होनी है। फिर भी माननीय कोशिश भी कर रहे हैं। अपने विधानसभा के लोगों की ऐसी ही समस्या के लिए मंत्री बकायदा अफसरों को फोन भी कर रहे हैं, लेकिन अफसरों की भी अपनी मजबूरियां है। चाहकर भी अफसर-मंत्रियों के निर्देश का पालन नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में माननीयों की स्थिति खराब हो रही है। एक तरफ आम लोगों को लगता है कि नेता मिल नहीं रहे हैं और मशक्कत के बाद बात हो भी रही है, तो उनके काम नहीं हो रहे हैं। दूसरी तरफ अधिकारी भी नियम कानून का हवाला देकर काम नहीं कर रहे हैं। कुल मिलाकर माननीय बड़े पशोपेश में हैं कि मिले तो मुश्किल नहीं मिले तो समस्या। लोगों की समस्या को सुलझाए तो परेशानी और न सुलझाए तो बड़ी परेशानी।
मांस-मटन से खुला राज
छत्तीसगढ़ के पत्रकारिता विवि के कुलपति लॉकडाउन के कारण दिल्ली में फंसे हैं, लेकिन उनकी सरकारी गाड़ी लगातार दौड़ रही है। कई बार लोगों को संशय हो जाता है कि कहीं कुलपति महोदय लौट तो नहीं गए हैं। हालांकि ऐसा है नहीं। धीरे-धीरे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया था। इस बीच विवि के लोगों का माथा उस वक्त ठनका जब कुलपति जी की गाड़ी मांस-मटन की दुकान पर खड़ी देखी गई। दरअसल, कुलपति तो लहसून-प्याज तक नहीं खाते। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनकी गाड़ी मांस-मटन की दुकान में क्या करती है। इसके बारे में जानकारी जुटाई गई तो पता चला कि कुलपति जी की गाड़ी दरअसल, विश्वविद्यालय के एक बड़े साहब के जुगाड़ के लिए दौड़ रही है। अब विवि के गलियारे की यह कानाफूसी दिल्ली कुलपति जी तक पहुंच गई। उन्हें जैसे ही पता चला उन्होंने तत्काल दिल्ली से ड्राइवर को फोन करके इंक्वारी की। साथ ही रीडिंग और लॉग बुक के बारे में जानकारी ली। उन्होंने आते ही गाड़ी का लॉगबुक चेक करने के लिए ताकीद किया। इतनी पूछताछ के बाद से तो ड्राइवर सकते में है। दौड़ते-भागते उसने इसकी सूचना बड़े साहब को दी। अब देखना यह है कि मांस-मटन के लिए किस गाड़ी का उपयोग किया जाएगा। हालांकि लॉकडाउन से पहले जब कुलपति की नियुक्ति नहीं हुई थी, तब भी साहब गाडिय़ों का उपयोग करते थे, लेकिन उस समय लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। अब जब मामला धार्मिक भावनाओं से जुड़ा है, तो इसने नया रंग ले लिया है।
किसानी का क्या होगा?
कोरोना के कारण गांव, गरीब और किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। इस दौर में गांवों में खेती किसानी चौपट हो गई है और मजदूरों को रोजगार नहीं मिल रहा है। हालत यह है कि सभी के सामने रोजी रोटी का संकट हो गया है। हालांकि सरकार का दावा है कि राज्य में किसान और गरीब दोनों की स्थिति अच्छी है। राज्य सरकार मनरेगा में काम उपलब्ध कराने में भी अव्वल रहा है। दूसरी तरफ 25 सौ रुपए समर्थन मूल्य के कारण किसान की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन राज्य के किसानों को अभी भी 25 सौ रुपए का बकाया यानि करीब पौने 7 सौ रुपए मिलने का इंतजार है। सरकार ने मई में किसानों को बकाया राशि देने का मन बनाया है। ऐसे में यह राशि किसानों के लिए काफी उपयोगी साबित होगी, क्योंकि राज्य में साग-भाजी और फलों की फसल तो खरीददार नहीं मिलने के कारण चौपट हो गई है। कोरोना के कारण उत्पन्न स्थिति का असर आने वाले कुछ सालों तक रहने वाला है। आशंका जताई जा रही है कि इस महामारी के बाद नौकरी जाने का खतरा है, लिहाजा लोग गांव की तरफ जा सकते हैं। ऐसे में ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हो सकती है। यह सोच सही है, लेकिन इसके लिए किसानी को प्रोत्साहित करने की जरुरत है और सरकार को लघु-कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए पहल करनी होगी। अन्यथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चौपट होने में देर नहीं लगेगी। किसानों का मानना है कि धान के कटोरे को बचाए रखने के लिए उपज का एक-एक दाना समर्थन मूल्य पर खरीदने की जरुरत है। क्योंकि सरकार केवल 15 क्विंटल धान समर्थन मूल्य पर खरीद रही है। छत्तीसगढ़ में सरकार सूबे के खेत खलिहानों से ही निकल कर बनी है। किसानों ने बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इसलिए भी बंपर जीत दिलाई, ताकि उसकी फसल का वाजिब मूल्य मिल सके। कोरोना महामारी के बाद फिलहाल तो कोई चुनाव नहीं है। संभव है कि किसानों की तरफ से सरकार का ध्यान हट जाए, जबकि खेती किसानी पर विशेष ध्यान की आवश्यकता है। फिलहाल तो इसके सियासी नफा-नुकसान नहीं है, लेकिन देर करने पर नुकसान ज्यादा हो सकता है, क्योंकि किसान बाजी पलट भी सकते हैं। 15 साल तक सत्ता में रहने के इससे एकदम से दूर हुई बीजेपी इसका दर्द अच्छे से समझ सकती है। लोगों का तो यह भी कहना है कि रमन सिंह को दिल्ली से अनुमति मिल गई होती, तो शायद पार्टी की इतनी दुर्गति नहीं होती। उम्मीद है कि उनको अब यह बात समझ आ गई होगी, लेकिन फिलहाल को समझने की बारी सरकार की है, क्योंकि कहा जाता है कि अब पछताए होत क्या जब चिडिय़ा चुग गई खेत।
शराब पर सियासत और नफा-नुकसान की कहानी
लॉकडाउन पीरियड में शराब बिक्री के पीछे राजस्व को बड़ा कारण माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि राज्य सरकारों को शराब बिक्री से करोड़ों-अरबों का राजस्व मिलता है और राजस्व नहीं मिलेगा तो राज्य की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। विकास कार्य तो रुकेंगे ही साथ ही कोरोना संकट के इस दौर में उसकी रोकथाम पर होने वाले खर्च की व्यवस्था करने में दिक्कत होगी। कुछ राज्य तो केन्द्र से राजस्व की भरपाई की शर्त पर शराब बिक्री बंद करने के लिए सहमति जता रहे हैं। कांग्रेस के संचार विभाग के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी ने शराब बिक्री के मामले में बचाव की मुद्रा में कहा है कि कांग्रेस ने 5 साल के भीतर शराबबंदी का वादा किया है। नोटबंदी या लॉकडाउन की तरह शराबबंदी नहीं की जा सकती। कोरोना काल में सभी राज्यों में आर्थिक गतिविधियां शून्य हो गई हैं। राज्य सरकारों पर कर्मचारियों को वेतन देने के साथ कोरोना खर्च का बोझ है। उन्होंने यह भी कहा कि शराबबंदी समुचित व्यवस्था और राज्य के राजस्व की वैकल्पिक व्यवस्था बनाने के बाद ही की जाएगी।
कुल मिलाकर उन्होंने अपनी सरकार के शराब बिक्री के फैसले को वाजिब ठहराने के लिए तमाम दलीलें पेश की। दूसरी तरफ कांग्रेस के इन तर्कों से सामाजिक संगठन और शराबबंदी आंदोलन से जुड़े लोग सहमत नहीं है। सीए और सामाजिक कार्यकर्ता निश्चय वाजपेयी का कहना है कि शराब के राजस्व का विकल्प काफी पहले तलाश लिया गया था। कामराज के प्रस्ताव पर कांग्रेस ने पहले ही ऐसा टैक्स लगाया हुआ है। कांग्रेस ने शराब से मिलने वाले राजस्व की भरपाई के लिए सेल्स टैक्स को शराबबंदी टैक्स के रूप में लागू किया था। कई हिस्सों में शराबबंदी भी की गई। बाद की सरकारों ने शराब बिक्री तो वापस शुरू कर दी मगर शराबबंदी टैक्स यानी सेल्स टैक्स बंद नही किया। उनका कहना है कि आज भी यह टैक्स जीएसटी का एक बड़ा हिस्सा है। सरकारों को इससे शराब से कहीं अधिक राजस्व मिलता है।
देखा जाए तो शराब का मुद्दा लॉकडाउन के दौर में गरमाया हुआ है। विपक्ष के साथ सामाजिक संगठन और महिलाओं ने लॉकडाउन पीरियड में भी शराब का खुलकर विरोध शुरु कर दिया है। वे घरों की बरबादी और महिलाओं पर हो रही हिंसा के लिये शराब को जिम्मेदार मान रहे हैं। उनका मानना है कि कोरोना महामारी के कारण 45 दिनों तक प्रदेश की शराब दुकानें अचानक बंद करनी पड़ीं। इतनी लंबी अवधि तक शराब नही मिलने के बावजूद प्रदेश में कोई जन हानि नही हुई। बल्कि इसके उलट शराबियों का स्वास्थ्य सुधर गया। उनकी खुराक बढ़ गई। घरेलू हिंसा बंद हो गई। गांव मे लड़ाई-झगड़े बंद हो गए और सुख-शांति का वातावरण बन गया। ऐसे में राजस्व का बहाना कर कर शराब बेचना उचित नहीं है।
वाजपेयी ने तो यह भी मांग की है कि कांग्रेस को खुलासा करना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के एक लाख करोड़ के सालाना बजट में से शराब से मात्र चार हजार करोड़ ही आते हैं। इसमे से 1600 करोड़ की शराब खरीदी जाती है। इसके अलावा आबकारी विभाग और आठ सौ सरकारी शराब की दुकानों पर मोटी रकम खर्च करने के बाद सरकारी खजाने मे कोई विशेष आमदनी जमा नही होती। फिर ऐसा क्या कारण है कि कोरोना महामारी के बीच वो राजस्व का बहाना बनाकर शराब दुकानों पर हजारों की भीड़ इक_ा कर रही है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर शराब बिक्री का इतना मोह क्यों है। राजनीति और प्रशासन से जुड़े लोग भी मानते हैं कि शराब बिक्री से सरकार को तो भारी भरकम कमाई होती है, साथ ही इससे होने वाली अवैध कमाई भी कई सौ करोड़ में है। यह एक बड़ी वजह है जिसके कारण सरकार किसी भी पार्टी की हो, यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
शराब से सरकारी कमाई को कम आंकने वाले थोड़ी और तफ्तीश करेंगे तो पता चलेगा कि शराब से सरकारी खजाने में 3 से साढ़े 3 हजार करोड़ का मुनाफा होता है। निश्चित तौर पर इस बरस यह आंकड़ा और बढ़ सकता है, क्योंकि शराब के दाम में 30 फीसदी की बढ़ोतरी की है। शराब बिक्री में खर्च करीब-करीब उतना ही आना है, जितना पिछले बरस आया था। जानकारी के मुताबिक पिछले साल वेतन भत्ता, बिजली-पानी, किराया, टैक्स तमाम मद में 150-200 करोड़ के बीच खर्च हुआ था। 1350 करोड़ के आसपास की दारु खरीदी गई। जबकि बिक्री पांच हजार तीन सौ करोड़ से अधिक की हुई थी। इस तरह शराब से आमदनी का मोटा अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी शराब से हो रही बरबादी के आगे इस मुनाफे को न्यूनतम आंका जाना चाहिए।