विचार / लेख
-कनुप्रिया
रेडियो पर एक पर्यावरण वादी की चर्चा हो रही है, कैसे उन्होंने उत्तराखंड में अपने निजी प्रयासों से इलाके का स्वरूप ही बदल दिया, इलाके की पानी की समस्या ख़त्म हो गईं, सुखी बंजर पहाडिय़ाँ हरी भरी हो गईं।
और मैं सोच रही थी साधुवाद है इनको मगर अगर इन्हें ही ये सब करना था तो सरकारे क्या कर रही थीं? उनका पर्यावरण मंत्रालय क्या मुफ़्त की तनख्वाह उठाता है।
बारिश का मौसम है, शहर नालियाँ, सडक़ें पॉलीथिन के कचरे से अटी पड़ी हैं, और कैलाश खेर गा रहे होते हैं स्वच्छ भारत का सपना, कागजों पर भारत स्वच्छ हो भी गया होगा, आखिर सब कुछ डेटा और रिपोर्ट ही तो है, सो देख कर भी न देखिये कुछ।
सरकारें आखिर करती क्या हैं, पूरी सुरक्षा, पूरी लक्जरी, हर सुविधा के बाद, इस सवाल का जबरदस्त काउंटर आजकल इस तरह होता है कि जनता और लोग क्या करते हैं। अगर जनता और लोगों को, अपने निजी प्रयासों से ही सब कुछ करने की जिम्मेदारी लेनी है तो सरकारें चुनी क्यों जाती हैं।
न करें कुछ, मगर फिर विकास के नाम पर पर्यावरण और प्रकृति को नष्ट करने की योजनाएँ क्यों बनाती है? इस सवाल का भी जवाब है, कि विकास न करें वो? तो फिर जंगल, जमीन, जल सब नष्ट करके ही सब विकास करना है तब पर्यावरण मंत्रालय, उसकी नीति नियम आखिर है किसलिये? आँखों मे धूल झोंकने के लिए?
आप दशरथ माँझी बन जाइये, आपका गुणगान होगा, आप पर फिल्म बनेगी, अपने तईं कुछ तीन का तेरह आपसे होता हो तो रेडियो पर आपके इंटरव्यू होंगे, मगर मुँह खोलने की सजा मिलेगी, बरोबर मिलेगी।
इसलिये मुँह बन्द रखिये, सरकारों पर सवाल मत उठाइये, देखकर भी आँख बंद करने, सुनकर भी न सुनने की क्षमता का, बल्कि कला का विकास कीजिये, न हो रहा हो तो अभ्यास कीजिये।
क्योंकि अंतत: सरकारें चाहे अमेजन के जंगल नष्ट करें, या उत्तराखंड की बाढ़ का सबब बनें, चाहे आदिवासी इलाकों के जंगल, जमीन पर निजी कारोबारियों का कब्जा करवाएँ, वो देश भक्त ही रहेंगी, मगर आपने मुँह खोला, सवाल किए, न्याय माँगा, मानवीयता, और प्रकृति सरक्षण की दुहाई दी तो आप जरूर नक्सली, आतंकवादी ठहराए जा सकते हैं। आपकी जगह जेलों में हो सकती है।
इसलिये निजी प्रयासों के लिये साधुसाधु कीजिये, दो चार पेड़ लगाइए, बाकी सब तरफ से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लीजिये, देखना, सुनना, बोलना व्यर्थ है। शास्त्रों में इसे ही तप कहा गया है।