विचार / लेख
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-मोहम्मद हनीफ
शहरों में जन्मे भाई-बहनों ने पंजाब की ग्रामीण संस्कृति को ज़्यादातर फिल्मों में ही देखा है। वो भी तब जब एक हीरोइन सरसों के खेत में अंदर जाकर डांस करने लगती है और एक शहरी बाबू पेड़ के पीछे छिपकर उसे देखता रहता है।
अमर सिंह चमकीला पर एक फिल्म आई। लोगों ने इसे देखा और पसंद भी किया।
डायरेक्टर इम्तियाज अली साहब की ख़ूब तारीफ़ भी हुई। दिलजीत सिंह दोसांझ और परिणीति चोपड़ा की भी बल्ले-बल्ले, लेकिन उसी समय एक छोटी सी बहस छिड़ गई कि कौन से गाने खऱाब हैं और कौन से अच्छे हैं?
और ये भी कहा गया कि चमकीला बेहद गंदे गाने गाता था। उसको न तो बाप की, न माँ की, न भाभी की, न साली की और न बूढ़े आदमी की, किसी की इज़्जत नहीं थी।
चमकीला को मारने की बात कहने वाले भी ये कहते थे कि तुम गंदे गाने गाते हो, सुधर जाओ। लेकिन वह बाज नहीं आया और 27 साल की उम्र में अपनी पत्नी अमरजोत कौर के साथ क़त्ल कर दिया गया।
पंजाब का कल्चर एक तरह से ‘गंद से मुक्त’ हो गया।
कल्चर शब्द भी हमने पहली बार शहर आकर सुना था। वहां भी हमारे शहरी मित्र कहते थे कि शहरों के पास यानी हमारे पास कल्चर (संस्कृति) होता है और आपके गांव वालों के पास सिर्फ एग्रीकल्चर।
अब शहरी कल्चर इतना हावी था कि हम उन्हें कभी बता ही नहीं पाए कि अगर हमारे पास एग्रीकल्चर नहीं होता तो आपके बच्चे दूध कहां से पीते?
आपको तो यह भी नहीं मालूम कि जो गेहूं की रोटी आप रोज खाते हो, वह शहर की फैक्ट्रियों में नहीं उगती, बल्कि गांव में ही पसीना बहा कर किसान उगाता है।
शिव कुमार बटालवी
पंजाबी के सबसे अजीम कवि शिव कुमार बटालवी थे। उनकी मृत्यु भी युवावस्था में ही हो गई थी। एक इंटरव्यू लेने वाले ने उनसे पूछा कि आप कवि क्यों बने? उन्होंने कहा, ‘हिंदुस्तान का समाज तबकों में बँटा हुआ है, कोई लोअर मिडिल क्लास, कोई अपर मिडिल क्लास। इन सबकी अपनी-अपनी त्रासदियाँ हैं। माता-पिता सभी बच्चों को पढ़ाते हैं, जुएं की तरह। उसके बाद उसका रिटर्न मांगते हैं। मेरे वालिद साहब भी तहसीलदार थे। उन्होंने भी मुझे पढ़ाया, पता नहीं मैं शायर क्यों बन गया।’अमर सिंह चमकीला के पिता तहसीलदार नहीं थे।
हमारे शिव कुमार बटालवी पंजाबी के महान क्लासिक शायर बन गए। चमकीला गाँव के अखाड़ों में गाने वाला गंदा-मंदा गायक। जब वह मशहूर हो गए तो चौधरियों ने उन्हें शादियों में भी बुलाना शुरू कर दिया। लेकिन चमकीला चौधरियों की शादियों में गाने के बाद भी मजदूर और मरासी (विदूषक) ही रहे।
फिल्म में उनका किरदार दिलजीत सिंह दोसांझ ने निभाया है और बहुत अच्छा अभिनय किया है।
वही दिलजीत सिंह जब अंबानी के शादी से जुड़े समारोह में गए तो एक अंतरराष्ट्रीय रॉकस्टार की तरह गए।
हम भी एक नवाब की हवेली के सेट पर उमराव जान वाले गाने ‘इन आंखों की मस्ती के दीवाने हजारों हैं...’ सुन लें तो वो हाई कल्चर है।
अगर कोई गऱीब आदमी 1200 का टिकट खरीद कर लाहौर के किसी हॉल में डांसर नरगिस का डांस देख ले तो हमारी तहजीब पर बन आती है, ऐसा वाला सियापा शुरू हो जाता है।
एक समय ऐसा था जब पंजाब के छह जि़लों की पुलिस नरगिस के पीछे पड़ी थी।
भारत और पाकिस्तान की शादियां
भारत और पाकिस्तान में शादियों में आपने आमतौर पर देखा होगा कि पिता, बेटियां और भाभियां एक साथ डांस कर रहे होंगे और बैकग्राउंड में गाना बज रहा होगा, ‘चोली के पीछे क्या है।’
सभी खुश होते हैं और खुश होना भी चाहिए। लेकिन अगर किसी शादी में चमकीला गाए कि ‘साडा पियो गुआच गया तेरी माँ दी तलाशी लेनी।’ तो पहले हमारे कान लाल होते हैं और फिर चमकीला, अमरजोत के ख़ून से धरती लाल हो जाती है।
पाकिस्तान में चमकीले जैसे ग्रामीण कलाकार भी हुए हैं, जिन्हें फिल्म स्टूडियो या रेडियो स्टेशन में प्रवेश की अनुमति नहीं थी।
यह तो शुक्र करो टेप रिकॉर्डर की तकनीक का, जब टेप रिकॉर्डर आए तो उन्होंने अपने दोस्तों के साथ बैठकर गाने लिखे, उन्हें छोटे शहरों में रिकॉर्ड किया और इसी तरह मंसूर मलंगी, अल्हरिता लुहनेवाला आदि कलाकारों के गाने हमारी बसों और ट्रकों पर टेप रिकॉर्डर के साथ पूरे देश में छा गए।
ग्रामीण कल्चर सडक़ के रास्ते शहर पहुंच गया और शहरी लोगों ने भी इसे लोक संस्कृति के रूप में स्वीकार किया। लेकिन कभी-कभी इसकी सफ़ाई की जि़म्मेदारी नहीं छोड़ी।
कई ‘चमकीलियां’ मारी गईं!
इधर पाकिस्तान में भी ''गंदी संस्कृति'' को साफ़ करने के लिए कई 'चमकीलियां' मारी गई हैं। करिश्मा शहज़ादी , रज़ाला, अफसाना और उनके जैसी कई और, जिनके नाम पर न कोई फिल्म बनी और न ही किसी ने टीवी पर ख़बर चलाई। वे तो गंदे गाने भी नहीं गाती थीं, उन पर आरोप यह था कि वे एक औरत हैं और गाना भी गाती हैं। मंगोरा के मुख्य चौराहे पर तालिबान ने गायिका शबाना की गोली मारकर हत्या कर दी थी, साथ ही उनके गानों के टेप और सीडी भी उन पर फेंक दी गई थीं। मंगोरा के उस चौराहे का नाम उसके बाद से ही ख़ूनी चौक पड़ गया था।
पाकिस्तान में गंदे गानों को गाने का सबसे ज़्यादा आरोप पंजाबी सिंगर नसीबो लाल पर लगता है। उन्होंने हज़ारों अच्छे और बुरे गाने गाए।
इस मामले में उनको चमकीले की उस्ताद ही समझिए। उन्होंने कुछ गाने ऐसे भी गाए हैं- ‘नसीब साढ़े लिखे रब्ब ने कच्ची पेंसिल नाला...’ लेकिन लोगों को याद वही रहते हैं , जिन्हें सुना अकेले में जाता है और सबके सामने सिकोड़े जाते हैं नाक-मुंह।
नसीबो लाल अकसर कहती हैं कि गीत लिखने वाले मरद, वाद्य यंत्र बजाने वाले मरद , सुनने वाले भी मरद और गंदी अकेली नसीबो लाल।
हमारे दिलों को ठंडक तब मिली जब पाकिस्तान की बड़ी और सूफी गायिका आबिदा परवीन और नसीबो लाल एक गाने के लिए एक साथ आईं।
आबिदा परवीन का रुतबा इतना ऊंचा है कि पाकिस्तान में लोग उन्हें सूफी पीर मानते हैं। उन्होंने नसीबो लाल के हाथों को चूमा और गले लगा लिया। सबसे अच्छी और सबसे बुरी बहन ने मिलकर ‘तू झूम’ गाना गाया और मेला लूट लिया।
अब बाक़ी जिन्हें एग्रीकल्चर पसंद नहीं है, वे सूखे राशन पर गुज़ारा करें और अगर वे कभी किसी को कुछ गंदा कहते हुए सुनें, तो वे वहाँ से चले जाएँ और घर जाकर ‘इन आंखों की मस्ती के दीवाने हजारों हैं...’ सुन लिया करें।
रब्ब राखा!
(bbc.com/hindi)