विचार / लेख
इमरान कुरैशी
(कल के अंक से आगे)
कुलपतियों की नियुक्ति पर टकराव
इस मुलाकात के बाद शिक्षा विभाग की तरफ से निकले विज्ञापन को वापस ले लिया गया। लेकिन 30 अगस्त को राज्यपाल सचिवालय ने कुलाधिपति की शक्ति और अधिकार के संबंध में एक पत्र जारी किया। इसमें कहा गया कि कुलाधिपति (राज्यपाल) सचिवालय के निर्देश के अलावा किसी अन्य स्तर पर जारी दिशा-निर्देश का पालन नहीं करें। किसी अन्य द्वारा विश्वविद्यालय को निर्देश देना उनकी स्वायत्ता के अनुकूल नहीं है। ये बिहार राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1976 के प्रावधानों का उल्लंघन है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजभवन लंबे समय से कवर कर रहे अविनाश कुमार कहते हैं, ‘नीतीश सरकार का राज्यपालों के साथ विवाद तो समय-समय पर हुआ है, लेकिन कोई भी विवाद बहुत ज्यादा तूल नहीं पकड़ता। नीतीश कुमार सामंजस्य बना कर चलते हैं। वैसी स्थितियां नहीं बनतीं जैसे राबड़ी राज में राज्यपाल के साथ विवाद में बन जाती थीं।’
झारखंड में कई बार बनी टकराव की स्थिति
रवि प्रकाश, रांची
झारखंड की मौजूदा हेमंत सोरेन सरकार के चार साल के कार्यकाल में विधानसभा की ओर से बहुमत से पारित कमसे कम आधा दर्जन विधेयक राज्यपाल ने सरकार को लौटा दिए। कई दफा तो इसके लिए हिन्दी और अंग्रेज़ी अनुवादों में मामूली अंतर जैसे कारण भी बताए गए। ज़्यादातर मामलों में विधेयक लौटाते वक्त राज्यपाल ने कोई टिप्पणी नहीं की।
बगैर नोटिंग के लौटाए गए विधेयकों को लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन के शीर्ष नेताओं ने पिछले दिनों जब राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन से मिलने का वक्त माँगा, तो राजभवन ने उनके पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद जब इन नेताओं का प्रतिनिधिमंडल राज्यपाल से मिलने राजभवन पहुँचा, तो उन्हें बताया गया कि राज्यपाल राँची में नहीं हैं। तब इन नेताओं ने अपना आपत्ति पत्र राजभवन के मुख्य द्वार पर स्थित राज्यपाल के कार्यालय को सौंपा और वापस लौट गए।
झारखंड के राज्यपाल
इन नेताओं ने वहाँ मौजूद मीडिया से कहा कि झारखंड की राज्यपाल रहीं (अब राष्ट्रपति) द्रौपदी मुर्मू ने राज्यपाल रहते हुए खुद द्वारा लौटाए गए हर विधेयक पर नोटिंग की। इससे सरकार को यह समझने में आसानी हुई कि राज्यपाल को किन बिंदुओं पर आपत्ति है।
इसी तरह झारखंड के राज्यपाल रहे सैयद सिब्ते रजी ने भी अपने कार्यकाल के दौरान नोटिंग के साथ विधेयकों को लौटाया, लेकिन झारखंड के मौजूदा राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन और इनके पूर्ववर्ती रमेश बैस (अब महाराष्ट्र के राज्यपाल) ने अधिकतर विधेयकों को लौटाते वक्त नोटिंग करना तक ज़रूरी नहीं समझा।
इस कारण सरकार और राजभवन के बीच हमेशा टकराव की स्थिति बनी रही। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वयं कई जनसभाओं में राज्यपाल के कार्यकलाप पर टिप्पणी की। राज्यपाल रहे रमेश बैस की सरकार और मुख्यमंत्री से संबंधित टिप्पणियाँ सुर्खय़िों में रहीं। सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं व प्रवक्ताओं ने प्रेस कांफ्रेंस कर राजभवन पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के आरोप लगाए। तब विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता व प्रवक्ताओं ने राज्यपाल का बचाव किया।
इस दौरान विधानसभा अध्यक्ष रवींद्र नाथ महतो की राजभवन को लेकर की गई टिप्प्णियाँ भी चर्चा में रहीं। विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को बार-बार लौटाए जाने के बाद स्पीकर ने कहा था कि विधानसभा अब अंग्रेज़ी अनुवाद कर अपने विधेयक राजभवन नहीं भेजेगा। अगर राज्यपाल चाहें तो अपने स्तर पर इसका अनुवाद करा लिया करें।
हालाँकि, अबतक राजभवन द्वारा लौटाए गए या वहाँ पेंडिंग पड़े तमाम विधेयक अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ भेजे गए थे। इसके बावजूद कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक भी शामिल हैं। इस विधेयक को रमेश बैस ने अपने कार्यकाल के दौरान लौटा दिया था। सरकार अब इसे दोबारा भेजने की तैयारी कर रही है।
राज्यपाल ने मंत्री को किया तलब
यहाँ राज्यपाल रहे महाराष्ट्र के मौजूदा राज्यपाल रमेश बैस ने तो एक दफा झारखंड के कृषि मंत्री बादल पत्रलेख को राजभवन तलब कर एक विधेयक पर उनसे बातचीत की। यह पहला मौका था जब राज्यपाल किसी विधेयक को लेकर मंत्री को राजभवन बुला लें।
अपने कार्यकाल के दौरान रमेश बैस ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरन की विधानसभा सदस्यता को लेकर चुनाव आयोग के एक रहस्यमय पत्र को लेकर भी मीडिया में राजनीतिक टिप्पणियाँ भी कीं। हालाँकि, उस पत्र का मज़मून अभी तक रहस्य बना हुआ है। राजभवन अब उसपर कोई टिप्पणी नहीं करता।
रमेश बैस अपने कार्यकाल के दौरान राँची के एक मल्टीप्लेक्स में 'कश्मीर फाइल्स' देखने गए। इस दौरान मॉल के मालिक कारोबारी विष्णु अग्रवाल के साथ सिनेमा हॉल में बैठी उनकी एक तस्वीर भी मीडिया में चर्चा में रही। उसी विष्णु अग्रवाल को बाद के दिनों में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मनी लाउंड्रिंग के एक मामले में गिरफ़्तार कर लिया। वे इन दिनों जेल में हैं।
इस बीच राष्ट्रपति ने रमेश बैस को समय से पहले ही यहाँ से हटाकर महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त कर दिया। इसके बाद सीपी राधाकृष्णन झारखंड के राज्यपाल नियुक्त किए गए। लेकिन, नए राज्यपाल भी विधानसभा द्वारा बहुमत से पारित विधेयकों को लौटाने और उन्हें रोके रखने का सिलसिला नहीं तोड़ पाए। अलबत्ता झारखंड के विभिन्न जि़लों के भ्रमण के दौरान नए राज्यपाल द्वारा सिफऱ् केंद्र सरकार की योजनाओं की तारीफ किए जाने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्यपाल पर टिप्पणियाँ भी कीं। जेएमएम ने कहा कि राज्यपाल को किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह काम नहीं करना चाहिए।
इन विधेयकों में क्या है
राज्यपाल की मंज़ूरी नहीं मिलने के कारण अधर में लटके विधेयकों में से कुछ वैसे भी हैं, जिन्हें लागू कराने का वादा कर झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) सत्ता में आई थी। मॉब लिंचिंग निवारण विधेयक, 1932 के खतियान आधारित डोमिसाइल संबंधित विधेयक और ओबीसी आरक्षण बढ़ाने संबंधित विधेयक ऐसे ही कुछ विधेयक हैं, जो या तो सत्तारूढ़ जेएमएम के घोषणा पत्र में थे, या फिर अपने चुनावी भाषणों में पार्टी नेताओं ने इसका वादा किया था।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की टिप्पणी
ऐसे में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पिछले दिनों की गई यह टिप्पणी काबिल-ए-गौर है। ''झारखंड की जनता ने राज्य में जो सरकार बनाई है, विधेयक उसी सरकार के ज़रिए विधानसभा से पारित कराए गए हैं। ये विधेयक कैसे कानून सम्मत नहीं हो सकते हैं। झारखंड की माँग होती रही, पर इसे बनाने में 40 साल लग गए। झारखंड के मूलवासियों को सत्ता हासिल करने में 20 साल लग गए। झारखंड के साथ हमेशा छल हुआ। मूलवासी अब चुप नहीं बैठेंगे। अपना हक लेकर रहेंगे।''
छत्तीसगढ़ में सरकार बदलने से क्या कम होगा टकराव?
आलोक प्रकाश पुतुल, रायपुर
छत्तीसगढ़ में अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है, ऐसे में उम्मीद तो यही है कि आने वाले दिनों में राज्य में सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव देखने को नहीं मिलेगा।
लेकिन पिछली सरकार के दौरान दोनों का आपसी विवाद कई बार देखने को मिला। इस तनातनी के चलते ही आरक्षण का क़ानून लागू नहीं हो पाया। किसानों की सुरक्षा से संबंधित विधेयक भी अटका रहा।
गौरतलब है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि और पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि राज्य का निर्वाचित प्रमुख नहीं होने के नाते, राज्यपाल विधानसभा सत्र की वैधता पर संदेह नहीं कर सकते या सदन द्वारा पारित विधेयकों पर अपने फैसले को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते।
अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो घोषणा करेगा कि वह विधेयक पर सहमति देता है या सहमति नहीं देता है, या वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है। लेकिन ऐसे विधेयक को अनिश्चितकाल के लिए दबा कर नहीं रखा जा सकता।'
कांग्रेस के आरोप
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के मीडिया प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ''छत्तीसगढ़ में विधानसभा से पारित अधिकांश विधेयकों को केवल राजनीतिक कारणों से आज तक राज्यपाल ने लटका रखा था।''
2012 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से 58 फ़ीसदी कर दिया था। वहीं 2018 में आई भूपेश बघेल की सरकार ने आरक्षण का दायरा बढ़ा कर 82 फ़ीसदी कर दिया। लेकिन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भूपेश बघेल सरकार के आरक्षण की व्यवस्था पर रोक लगा दिया।
पिछले साल 19 सितंबर को हाईकोर्ट ने रमन सिंह के शासनकाल में लागू आरक्षण व्यवस्था को 'असंवैधानिक' बताते हुए, इसे भी रद्द कर दिया।
हालत ये हो गई कि छत्तीसगढ़ में आरक्षण का कोई रोस्टर ही लागू ही नहीं रहा। कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा अटक गए, नियुक्तियां अटक गईं और पदोन्नति भी।
पिछले साल दिसंबर में छत्तीसगढ़ विधानसभा ने लोक सेवा और प्रवेश के लिए, देश में सबसे ज़्यादा 76 फ़ीसदी आरक्षण का विधेयक पारित किया और उसे हस्ताक्षर के लिए तब की राज्यपाल अनूसुइया उइके को भेज दिया। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने के बजाय राज्य सरकार से आरक्षण के इस दायरे को बढ़ाए जाने को लेकर सवाल-जवाब शुरू कर दिया।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री में टकराव
राज्य के मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल का आरोप है कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित क़ानून पर सवाल-जवाब करने का अधिकार नहीं है। या तो वो इस विधेयक पर हस्ताक्षर करें या इस वापस करें। लेकिन अनूसुइया उइके ने इस साल फरवरी तक इस आरक्षण विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किया। यहां तक कि उनके बाद बनाए गए राज्यपाल विश्वभूषण हरिचंदन ने भी इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है।
इसी तरह जब केंद्र सरकार ने तीन नए कृषि क़ानून लाए तो 23 अक्टूबर 2020 को छत्तीसगढ़ सरकार ने कृषि उपज मंडी अधिनियम को संशोधित करते हुए विधेयक पारित किया।
यह विधेयक भले केंद्र के कृषि क़ानून से कोई छेड़छाड़ नहीं कर रहा था लेकिन यह केंद्र के कृषि क़ानूनों को निष्प्रभावी करने वाला विधेयक था। इस विधेयक में मंडी की परिभाषा में डीम्ड मंडी को भी रखा गया था। सरकार ने निजी मंडियों को डीम्ड मंडी घोषित करने का फ़ैसला किया था। यह विधेयक तीन साल से भी अधिक समय से राजभवन में पड़ा रहा।
साल 2020 में राज्य के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय और सुंदरलाल शर्मा विश्वविद्यालय में जब राज्य सरकार की इच्छा के अनुरूप कुलपतियों की नियुक्ति नहीं हो पाई तो राज्य सरकार ने विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक पारित किया।
मार्च 2020 में पारित इस विधेयक के अनुसार, राज्य सरकार जिस नाम की अनुशंसा करेगी, उसे कुलपति नियुक्ति किया जाएगा। इसके अलावा कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ के पत्रकार और सांसद चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखने का फ़ैसला किया गया था। लेकिन राज्यपाल ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर ही नहीं किया।
उम्मीद है कि अब सत्ता परिवर्तन के बाद इन टकरावों का दौर समाप्त होगा और छत्तीसगढ़ में बरसों से लंबित विधेयकों के दिन फिरेंगे। (bbc.com/hindi)