विचार / लेख
उरुफ जाफरी
पाकिस्तान में केबल टीवी के पॉपुलर होने के साथ ही भारतीय टीवी और फिल्मों की चर्चा भी शुरू हुई। स्टार प्लस, जी सिनेमा, जी टीवी और कलर्स टीवी के ड्रामे और शो खूब देखे जाने लगे।
यह भी कहा जा सकता है कि इससे पाकिस्तान के अपने चैनलों की डिमांड भी कम हुई।
इसका इलाज ये निकाला गया कि ‘कहानी घर-घर की’, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जैसे टीवी धारावाहिकों का फार्मूला तैयार किया गया, जो बिकने भी लगा।
जब पाकिस्तान में केबल टीवी पर भारतीय चैनलों को बैन किया गया तो दर्शक उदास भी हुए। लेकिन आज भी पाकिस्तान के हमारे अपने ड्रामों में यह फार्मूला चल रहा है।
कौन कौन से सीरियल हुए मशहूर
पाकिस्तान के एक कामयाब टीवी और फि़ल्म लेखक साजी गुल, आजकल ग्रीन इंटरटेनमेंट चैनल के कंटेंट हेड हैं।
उनका कहना है, ‘स्टार प्लस ने हमारी मेल ऑडिएंस हमसे छीन ली क्योंकि सास बहू फार्मूला सिर्फ महिलाएं देखा करती थीं। स्टार प्लस का दौर पाकिस्तान ड्रामों के लिए पतन का दौर था।’
‘फिर पाकिस्तानी ड्रामे ने दोबारा करवट तब ली जब कैमरा तकनीक और कंटेंट में एडवरटाइजिंग से जुड़े लोगों ने भाग लिया।’
उन्होंने कहा, ‘ये और बात है कि जब वो (भारतीय चैनल वाले) हमसे लिखवाते हैं तो उन्हें पाकिस्तानी रंग ही चाहिए और हमारी उर्दू भी उन को बहुत पसंद है।’
भारतीय टीवी चैनलों को क्या पाकिस्तान में लोग अब भी मिस करते हैं? ये सवाल जिसके भी सामने मैंने रखा, उन लोगों को ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’, जरूर याद आया।
याद आता भी क्यों नहीं, पाकिस्तान में जब केबल टीवी ने आंख खोली तो सबसे बड़े आकर्षण हुआ करते थे, स्टार प्लस, जी टीवी, कलर्स टीवी और बॉलीवुड फि़ल्में।
स्टार प्लस और जी टीवी के ड्रामे जैसे हमारे घरों में रहने लगे। शाम के साढ़े छह बजे नहीं कि अम्मी, दादी, भाभियां, सासें, हम सभी टीवी का रिमोट संभाल के बैठ जाते और अगर केबल में मसला होता तो केबल वाले को भी फोन किया जाता।
ये 2004 की बात होगी जब मेरी बीबीसी उर्दू लंदन से वापसी हुई थी तो घर का माहौल फिर से मिला।
अगर काम से जल्दी वापसी हो जाती तो स्टार प्लस लग ही जाता और कोई ना कोई सीरियल का लुत्फ़ उठाया जाता। अम्मी से बात मनवानी होती तो पूजा की थाली भी बना ली जाती।
प्रोडक्शन के हिसाब से कहानी तो दस किश्त के बाद भी कुछ ज्यादा आगे ना बढ़ी होती लेकिन सीन इतने लंबे जरूर होते कि दो ब्रेक में ड्रामा ख़त्म हो जाता।
ये स्टार प्लस या जी की वो तरकीब थी जो दर्शकों को बांधे रखती।
ताहिर जमां का ताल्लुक पहाड़ी इलाके हुंज़ा से है, जहां महिलाएं कम ही घरों से निकलती हैं।
वे याद करते हैं, ‘गोपी और ससुराल गेंदा फूल जैसे ड्रामे मेरी सासू मां के दिल से बहुत करीब थे। वो जैसे ड्रामे देखते हुए हर हीरोइन और वैम्प को डांटना अपना कर्तव्य समझतीं, फिर उनको याद दिलाया जाता कि ये तो सिर्फ एक ड्रामा है, लेकिन हम दोनों देखते रोज थे।’
ताहिर जमां का मानना है, ‘हमारी महिलाएं न सिर्फ इन ड्रामों को शौक से देखती थीं बल्कि उसमें जो कुछ होता वो अपने जीवन में भी अप्लाई करतीं।’
‘वो ये भूल कर कि ये सभी धारावाहिक इतने लंबे-लंबे सीन्स पर एडिट किए जाते हैं, देखने वाले मासूम लोग उनके प्रभाव में गुम हो जाते।’
भारत और पाकिस्तान के टीवी सीरियल
टीवी और फिल्मों के मशहूर लेखक साजी गुल कहते हैं, ‘हमारे पास अपनी शैली वाले लेखक और निर्देशक हैं, जबकि भारतीय टीवी मनोरंजन में हर चैनल एक ही जैसा काम प्रोड्यूस कर रहे हैं।’
हालांकि पाकिस्तान की अपनी मनोरंजन की दुनिया पर भारतीय टीवी चैनलों का असर आज भी है, जो फार्मूला सबसे ज्यादा बिकता है वह है सास-बहू की तकरार वाला ड्रामा, क्योंकि भारतीय चैनलों ने यही मसाला हर ड्रामे पर छिडक़ा है और केबल से जो कुछ हम तक आया वो सिर्फ महिलाओं तक सीमित या लिमिटेड था।
अगर बात की जाए केबल पर भारतीय ड्रामों पर पाबंदी के बाद की तो महिलाओं ने भी यही कहा कि हम अब देखते ही नहीं और अगर देखे भी तो एक लंबा समय बीत चुका है।
ज़्यादा वक्त लंदन में गुजार कर आने वाली लाहौर की एक हाउस वाइफ का मानना है, ‘हमारी संस्कृति तो अलग-अलग है लेकिन पहनावा जरूर हमको भाता है। चाहे साड़ी हो या लहंगे। फैशन फॉलो करने से तो हमें कोई नहीं रोक सकता। साड़ी और ज्वेलरी के डिजाइन और कलर कॉम्बिनेशन के लिए तो हम दुबई से भी अक्सर खरीददारी करते हैं।’
कुछ महिलाओं का ये भी कहना था कि उन सभी जी और स्टार प्लस के ड्रामों में भारतीय कल्चर खूब जम कर दिखाया जाता। उसका पाकिस्तानी समाज पर भी असर रहा है और आगे भी रहेगा।
कुछ महिलाओं ने ये भी कहा कि एक दूसरे की संस्कृति को समझने के लिए कौन सा हिमालय पार जाना पड़ता है। एक घर के दो हिस्से ही तो हैं, जो धर्म के नाम पर बांट दिए गए। लेकिन अगर हम आम पाकिस्तानी युवा की बात करें तो हमारी आम बोलचाल में हिंदी ड्रामों और फिल्मों की भाषा जरूर बोली जाती है।
एक उबर चालक ने अपनी सवारियों के बारे में कहा, ‘कस्टमर अपमान करते हैं।’
ये एक उदाहरण है कि किस तरह से पाकिस्तानी जुबान में ऐसे जुमले भी आ गए जो भारतीय ड्रामों या फिल्मों में इस्तेमाल होते हैं, जैसे कि सीख लेना, अच्छे से मिल लेना, इसके चलते वैसा हो गया, ऐसा कब तक चलेगा, रोक लगा दी है। वगैरह-वगैरह।
भारत में पाकिस्तानी टीवी सीरियल
हालांकि ये भी याद रखना होगा कि पाकिस्तान के लेखक-लेखिकाओं के लिखे ड्रामे भारत में भी खूब मकबूल हुए हैं।
नूर उल हुदा शाह, बी गुल, फरहत इश्तियाक़ और उमेरा अहमद के टीवी ड्रामे सरहद पार भी शौक से देखे गए।
फरहत इश्तिाक़ का ड्रामा हमसफऱ शुद्ध पाकिस्तानी समाज पर बनाया गया था और सरहद पार भी खूब चर्चा में रहा।
हमारे समाज में जागीरदारों का मुद्दा बड़ा मुद्दा है, ज्यादा ड्रामे इसकी चर्चा करते हैं लेकिन बकौल लेखक और आलोचक सलमान आसिफ कहते हैं कि हमारी सभ्यता में वो रंग नहीं है शायद जो हिंदू धर्म से जुड़े हैं।
आसिफ का यह भी कहना था कि हिंदुस्तान में त्योहार भी इतने सारे हैं कि ड्रामे के कई एपिसोड उनको मनाते हुए दिखाए जा सकते हैं और वो रौनक, वो रंगीनी सभी को अपनी ओर खींचती है।
यही वजह है पाकिस्तानी समाज में शादी ब्याह से लेकर मनोरंजन की स्क्रीन्स तक में इनकी परछाइयां देखी जा सकती हैं।
आसिफ कहते हैं कि आज के टीवी सीरियल्स चकाचौंध भरे होते हैं और ये सरहद के दोनों तरफ बन रहे हैं।
वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने यह भी कहा कि भारतीय टीवी और बॉलीवुड असली भारत नहीं दिखाते हैं, जो टीवी और फिल्मी स्क्रीन्स से बहुत अलग, सादा और मुश्किल है।
मुल्क के तौर पर भी भारत बड़ा है, तो वहां ज्यादा मुद्दे हैं। यही वजह है कि नेटफ्लिक्स में अच्छा कवर किया जा रहा है, चाहे ‘दिल्ली क्राइम’ हो या ‘बॉम्बे बेगम’। ये भी नहीं भूलना चाहिए कि टीवी ड्रामों की और नेटफ्लिक्स को देखने वाले दर्शक अलग-अलग हैं।
हाल ही में नेटफ्लिक्स पर दिखाए जाने वाले सीरियल ‘द रेलवे मैन’ ने तो जैसे लोगों को हिलाकर रख दिया।
समाज की हर कहानी को लिखना और स्क्रीन्स पर दिखाना भी एक बड़े हिम्मत की बात है। यह पाकिस्तान के लेखकों के लिए आसान नहीं है।(bbc.com)