विचार / लेख
सच्चिदानंद जोशी
मां को इलाज के लिए अस्पताल में एडमिट कराया। जितना बड़ा अस्पताल उतनी ज्यादा औपचारिकताएं। पता नहीं कितने तो फॉर्म भरे और कितनी जगह हस्ताक्षर किए। उन्हीं फॉर्म में से एक में एक कॉलम था occupation of the patient (मरीज का पेशा )। मैंने उसे भरते समय थोड़ी देर सोचा और फिर बड़े गर्व से लिखा writer (लेखक)।
औपचारिकताएं करवाने वाली महिला ने पूरी जानकारी कंप्यूटर में भरी और रजिस्ट्रेशन नंबर के लिए इंतजार करने लगी। दो-तीन बार परेशान होने के बाद बेहद सकुचाते हुए लाचारी से बोली ‘माफ करें सर, कंप्यूटर writer ले नहीं रहा है, उसका कॉलम ही नहीं है। आप please कोई और पेशा बता दीजिए।’
मैं क्या कहता बस इतना कह पाया ‘ writer की जगह house wife लिख दीजिए।’ उसने खुशी खुशी लिखा और कंप्यूटर ने झट रजिस्ट्रेशन नंबर दे दिया।
मां को जब कमरे में स्थिर कर दिया और उनका इलाज शुरू हो गया तो मन थोड़ा शांत हुआ। वैसे भी अस्पताल , फिर चाहे वह कितना भी अच्छा हो, आपको तनाव में तो डाल ही देता है। मन शांत हुआ तो पुरानी यादों की गलियों में चला गया।
एम ए पास किया था प्रथम श्रेणी में और उन दिनो कॉलेज में लेक्चरर की तदर्थ नियुक्तियां बड़ी आसानी से मिल रही थी। लेकिन कुछ दिनों से लिखने और छपने का भूत सवार हो गया था। अपने खर्चे और शौक के लायक लिख कर और रेडियो पर नाटक करके कमा लेते थे। इलस्ट्रेटेड वीकली में खुशवंत सिंह जी का कॉलम और बल्ब में उनका कैरीकेचर बहुत लुभाता था। लगता था कि ऐसा ही लेखक बनना चाहिए जिसका लिखा पढऩे के लिए लोग इंतजार करें और जाकर पत्रिका खरीदें।
शरद जोशी जी को व्यंग्य लेखन में अपना आदर्श मानता था और उनके जैसा लिखने का प्रयास भी करता था। उनको आदर्श माना तो उनकी सभी बातों का अनुसरण भी करना चाहिए ऐसा विचार भी मन में आया। लेकिन उनकी पत्नी इरफान आंटी, मां की अच्छी मित्र थी और डांटने डपटने का पूरा हक रखती थी। इसलिए उन्होंने डपट कर हिदायत भी दी कि लेखक बनो लेकिन नौकरी धंधा भी साथ-साथ करो क्योंकि लेखन से आजीविका चलाना बहुत कठिन है। लेकिन अपन कहां मानने वाले थे। लेखक बनाने का भूत सवार था।
1981 में एक और घटना हुई ‘सिलसिला’ फिल्म का आना। अमिताभ बच्चन के बहुत बड़े पंखे होने के कारण इस फिल्म का लगभग दस बार तो पारायण कर ही लिया होगा। वो जमाना OTT का नहीं था इसलिए हर बार टिकट लेकर फिल्म देखनी पड़ती थी। उसमेwriter अमित मल्होत्रा का किरदार इतना पसंद आया की पूछिए मत। लेखक बनकर हौज खास में कोठी बनाने की कामयाबी दिल को छू गई। बहुत सारी ‘चांदनिया’ भी सपनों में आने लगी और writer बनने का निश्चय और पक्का होता गया।
इसलिए पिताजी को बड़ी शान से कह दिया ‘नौकरी नहीं करेंगे , लेखक बनेंगे।’
पिताजी भी दिलेर थे बोले ‘बेटा, जैसा मन चाहे करो। बस जब तक ठीक से कमाने न लग जाओ , शादी मत करना। क्योंकि तुम्हारा तो खर्चा मैं अपनी पेंशन से भी उठा लूंगा लेकिन दो लोगो का भारी पड़ जाएगा।’ कुछ दिन बिना नौकरी किए लेखन के दम पर गुजारा करने का प्रयास भी किया और सच कहें तो किया भी। लेकिन उन दिनो की सामाजिक मानसिकता में सिर्फ लेखक बन कर जीना स्वीकारा नहीं गया। अपने अस्तित्व को साबित करने के लिए कुछ तो करना जरूरी ही था। कुछ रिश्तेदारों ने दया की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया तो पिताजी बोले ‘कम से कम इन्हें ये साबित करके दिखाने के लिए कि तुम नाकारा नहीं हो कोई नौकरी कर लो।’ उसके बाद की नौकरी की कहानी एक अलग इतिहास है।
जब मराठी साहित्य पढऩे का शौक था तो पु.ल. देशपांडे जी को बहुत पढ़ा। उनके एक व्यक्ति चित्र ‘अंतू बरवा’ में अंतू उनका परिचय गांव के एक दूसरे सज्जन के कराते है कि ये अपने गांव के दामाद हैं और लेखक हैं। तो वो व्यक्ति भोले पन से पूछता है ‘लेखक तो ठीक है लेकिन करते क्या हैं।’ अंतू बरवा फिर खीज कर उन सज्जन को पु.ल. जी की महानता का बखान करते हैं। मन में संतोष होता था ये पढक़र कि जब पु.ल. जैसे लेखक को ये भुगतना पड़ा तो अपनी क्या बिसात है।
कहानी लेखक के रूप में मां की पहली किताब जरा देर से ही आयी। लेकिन जब एक आई तो उसके बाद लगातार काफी किताबें आई। मेरे मंझले मामा उन दिनों इंग्लैंड में थे और साल में एक बार सबसे मिलने भारत आते थे। जब उन्हें पता चला कि मां की दस बारह किताब आ गई हैं तो वे बड़े खुश हुए। उस साल जब वे भारत आए तो उन्होंने हमारी स्थिति देखी। वो वैसी ही थी जैसी पिछले साल थी। उन्हे घोर निराशा हुई। वे मां से बोले ‘दीदी मुझे तो लगा था कि आप लोग अब लखपति हो गए होगे ( बात 1985 की है जब लाख रुपए बहुत ज्यादा होते थे )। मुझे तो लगा था कि अब जीजाजी भी नौकरी छोड़ तुम्हारे अकाउंट ही सम्हाल रहे होंगे। ’ मां और पिताजी मुस्कुराए। मां बोली ‘घर और मेरे लेखन का सारा भार अभी भी तुम्हारे जीजाजी पर ही है। मैं तो अपनी रॉयल्टी से अपनी पसन्द या घर की जरूरत की एक आध चीज ही ले पाती हूं बस। ये भारत है भाई इंग्लैंड नही।’
आज मां की पचास से अधिक पुस्तकें हैं । इंग्लैंड वाले मामाजी अब इस दुनिया में नहीं है। लेकिन अगर आज वो होते तो भी उन्हें ये जानकर दुख ही होता कि भारत में अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी पर जीवन का गुजारा लेखक के लिए आज भी एक स्वप्न ही है जो शायद बहुत कम लोगों का पूरा हो पाता है।
अभी कुछ दिन पहले भारत की जनसंख्या एकत्रित करने वाला फार्म देखने का अवसर आया। उसमे पेशा या व्यवसाय के कॉलम में कलाकार और लेखक सम्मिलित नहीं थे। पता नहीं इस बार की जनसंख्या के फॉर्म में ये विकल्प जुड़े हैं या नहीं। बहरहाल इतना सच कि अस्पताल के पंजीकरण में तो ये विकल्प उपलब्ध नहीं है।और जब तक ये विकल्प उपलब्ध नहीं होते , लेखक को पेशे के रूप में कोई दूसरा विकल्प भरना ही पड़ेगा। मां के लिए तो मैने ‘हाउस वाइफ’ का प्रयोग कर लिया पुरुष लेखक क्या लिखेंगे , ‘हाउस हसबैंड’? जरा सोचिए!