विचार / लेख
दीपाली अग्रवाल
एक ही किताब को मन की अलग-अलग तह में पढ़ा जाए तो उसका असर भी वैसा ही पड़ता है।
ओशो का एक व्याख्यान है जिसमें मिस्र के पिरामिड की चर्चा है। वे बता रहे हैं कि मन की स्थिति से उसके भीतर के तहखाने खुल गए थे। वह बना ही यूं है कि, जो जैसा अनुभव कर रहा होगा वैसे कमरे में वहां पहुँच जाएगा।
किताबों के साथ भी वैसा नहीं है? गुनाहों का देवता तीन बार पढ़ी, तीनों बार अलग परिस्थिति में, हर बार भाव अलग थे। सो आखिऱी पेज को पढ़ते वक़्त जो शेष मिला, वह भिन्न था, हर बार।
2017 में पढ़ी थी आषाढ़ का एक दिन, सिफऱ् इसलिए कि एक अच्छा नाटक है, पढऩा चाहिए यानी पढऩे के लिए पढ़ी थी। किताब में संवाद अच्छे लगे, बारिश और परिवेश भी। पात्रों के नाम मोहक महसूस हुए मातुल, निक्षेप, प्रियंगुमंजरी। जैसे मोहन राकेश ने शब्दकोश के सबसे सुंदर शब्द खोजने चाहे। मुझे भी सब आकर्षक लगा। इसी के साथ किताब पढ़ी और रख दी।
पिछले दिनों फिर नजऱ पढ़ी तो लगा दोहरा ली जाए। लेकिन इस बार की छाप उस बरस से अलग थी। किताब बिना बदले ऐसा जादू कैसे कर पाती हैं, मैं सोचती हूँ। मैं सोचती हूँ कि मल्लिका का वह उपन्यास जो उसने कोरे पृष्ठ पर ही लिख दिया, मैंने तब महसूस क्यों न किया। जबकि कालिदास तो उसका उल्लेख सरलता से करते हैं। वह उपन्यास जो कालिदास की तमाम रचनाओं से बड़ा था, जिसे एक नाटक में लेखक ने सरलता से लिख दिया। जिसे मैंने पहली बार में पढ़ा ही न था।
इस बार मैं शायद मल्लिका के घर के प्रकोष्ठ में थी, वहां जहां सिवा उसके अस्तित्व और उस ग्रंथ के कुछ न था। मुझे लगता है कि, किताबें मिस्र के पिरामिड जैसी हैं, मन की स्थिति से खुलते हैं उसके तहख़ाने।