विचार / लेख

ग्रामीण शाइरी वाले मुनव्वर राना
15-Jan-2024 4:21 PM
ग्रामीण शाइरी वाले मुनव्वर राना

कृष्ण कल्पित

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई

मैं घर में सबसे छोटा था मिरे हिस्से में मां आई!

एक जीती-जागती मां की तुलना किसी जड़ दूकान से करने वाले उर्दू के मशहूर शाइर मुनव्वर राना नहीं रहे। वे एक अरसे से बीमार थे और कल हृदयाघात से लखनऊ के एक अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। वे इकहत्तर वर्ष के थे।

मुनव्वर राना की एक और प्रसिद्ध रचना है- मुहाजिरनामा। इस तवील नज़्म में वे अपनी मां को सोना और अपनी अहलिया यानी पत्नी को पीतल बता रहे हैं-

हमारी अहलिया तो आ गई मां छूट गई आखिर

के हम पीतल उठा लाए सोना छोड़ आए हैं!

दरअसल शाइरी की दूकानों पर मुनव्वर राना से पहले माशूक ही अलहदा-अलहदा अंदाज में बिका करते थे। मुनव्वर राना शायद गजल के पहले दूकानदार थे, जिन्होंने गजल की दूकान में मां को या उसकी भावनाओं को बेचना शुरू किया। इससे पहले सलीम जावेद इस मां को, मेरे पास मां है कहकर, बाजार में ला चुके थे और सिनेमा में बेच चुके थे।

मुनव्वर राना राहत इंदौरी की तरह मुशाइरों के मकबूल और कामयाब शाइर थे । मुनव्वर राना, राहत इंदौरी के साथ नवाज देवबंदी ने मुशाइरों की शाइरी को पूरी तरह बदल दिया । इन तीनों ने मिलकर मुशाइरों से तरन्नुम और शाइरी से तगजज़ुल को देश निकाला दे दिया और एक नई तरह की सडक़ की शाइरी का ईजाद किया, जो पिछले तीन दशकों से भारतीय भीड़ों को पागल बनाती रही।

मुनव्वर राना अपनी शायरी में गांव लाए, आंगन, छप्पर, दुपट्टा, अमरूद के पेड़ और मां को लेकर आए । अदब की दुनिया में इस शाइरी का क्या मोल है, पता नहीं लेकिन उनकी शाइरी जनता में और सुनने वालों में बेहद लोकप्रिय थी ।

इब्ने बतूता ने भारत के बारे में शताब्दियों पूर्व जो किताब लिखी थी उसमें वे एक दिलचस्प बात कहते हैं कि भारत के लोगों की एक विचित्र आदत है कि ये बात-बात में तालियां बजाते रहते हैं। तुक या काफिया मिलते ही ये ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजाते हैं। आजकल के मुशाइरे और कथित कवि सम्मेलन जब सुनता हूं तो मुझे इब्नबतूता की बात याद आती है। वे बिना अर्थ समझे सिर्फ तुक मिलने पर तालियां बजाने लगते हैं ।

गांव-देहात के इतने सारे बिंबों के साथ मुनव्वर राना की गज़़लों को आसानी से आप ग्रामीण शाइरी कह सकते हैं। मुनव्वर राना मुशाइरों के सबसे लोकप्रिय और महंगे शाइरों में से एक थे । विचारों से वे कई बार कठमुल्ला लगते थे। वे पहले कोलकाता में और इन-दिनों लखनऊ में गजल ट्रांसपोर्ट नाम की कम्पनी भी चलाते थे। यही कारण रहा होगा कि मुनव्वर राना अपनी गजलों के काफिये भी ट्रक के टायरों की तरह बदलते थे, जो बहुत खडख़ड़ाहट और शोर करते हैं ।

उर्दू के एक लोकप्रिय शाइर मुनव्वर राना को हिन्दी के एक कवि की तरफ से खिराजे अकीदत और विनम्र श्रद्धांजलि !

वह कबूतर क्या उड़ा छप्पर अकेला हो गया

मां के आंखें मूंदते ही घर अकेला हो गया!

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