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पानी से लेकर खाने तक में प्लास्टिक का होना कितना ख़तरनाक
19-Jan-2024 4:23 PM
पानी से लेकर खाने तक में प्लास्टिक का होना कितना ख़तरनाक

पीने का साफ़ पानी इंसान की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है.

जब कभी हम यात्रा कर रहे हों या ऐसी जगह हो, जहाँ साफ़ पानी न मिल पाए, वहां हमारी कोशिश रहती है कि बोलतबंद पानी मिल जाए.

हम यह मानते हैं कि इस पानी में गंदगी नहीं होंगी. लेकिन इस पानी के अंदर माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक के असंख्य महीन कण हो सकते हैं.

बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी और रटगर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोतलबंद पानी में पहले के अनुमानों की तुलना में 100 गुना ज़्यादा माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं.

उन्होंने पाया कि एक लीटर पानी में क़रीब ढाई लाख नैनोप्लास्टिक कण हो सकते हैं.

इन शोधकर्ताओं ने पानी के तीन ब्रैंड की बोतलों की पड़ताल की तो उन्हें एक लीटर में एक लाख दस हज़ार से चार लाख नैनोप्लास्टिक कण मिले.

वैज्ञानिकों के मुताबिक़, पानी में ज़्यादातर प्लास्टिक कण उसी बोतल से घुले थे.

भारत में भी माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण
अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएंगे तो आपको प्लास्टिक की कई सारी चीज़ें नज़र आएंगी.

ऐसी ही चीज़ों के बारीक़ टुकड़े जब बहुत छोटे आकार में टूट जाते हैं तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है.

आमतौर पर पाँच मिलीमीटर से छोटे टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक कहलाते हैं. कुछ टुकड़े इससे भी छोटे होते हैं, जिन्हें नैनो स्केल में ही मापा जा सकता है. उन्हें नैनो प्लास्टिक कहा जाता है.

ये दोनों ही तरह के आसानी से नज़र नहीं आते. मगर ये दुनिया के लगभग हर हिस्से में मौजूद हैं. फिर चाहे वह नदियों का पानी हो, समंदर की तलहटी हो, या फिर अंटार्कटिक में जमी बर्फ़.

आईआईटी पटना के एक शोध में बारिश के पानी में भी माइक्रोप्लास्टिक कण मिले थे.

इसी तरह एक अन्य शोध में पाया गया कि भारत में ताज़ा पानी की नदियों और झीलों तक में माइक्रोप्लास्टिक मिल रहा है. इनमें फ़ाइबर, छोटे टुकड़े और फ़ोम शामिल हैं.

इस शोध के मुताबिक़, फ़ैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी और शहरी इलाक़ों से निकलने वाले प्लास्टिक वेस्ट जैसे कई कारणों से ये हालात बने हैं.

क्या हैं माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरे
एक समस्या तो यह है कि पीने के पानी तक में माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं. लेकिन दूसरी समस्या यह भी है कि अभी तक पक्के तौर पर नहीं मालूम कि इंसान के शरीर पर माइक्रोप्लास्टिक का क्या असर होता है.

साल 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिव्यू किया था और समझने की कोशिश की थी कि माइक्रोप्लास्टिक अगर इंसानों के शरीर के अंदर चले जाएं तो क्या ख़तरे हो सकते हैं.

लेकिन सीमित शोधों के कारण डब्ल्यूएचओ किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका. फिर भी उसने अपील की थी कि प्लास्टिक के प्रदूषण को कम किया जाना चाहिए.

दिल्ली के पुष्पांजलि मेडिकल सेंटर के वरिष्ठ चिकित्सक मनीष सिंह ने बीबीसी सहयोगी आदर्श राठौर को बताया कि माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी ज़्यादा जानकारी नहीं है, इसलिए इस विषय पर और सावधान रहने की ज़रूरत है.

उन्होंने कहा, “माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी सीमित शोध सामने आए हैं. कुछ शोध ऐसे भी हैं कि ये हमारे एंडोक्राइन ग्रंथियों (हारमोन पैदा करने वाली ग्रंथियों) के काम में समस्या पैदा करती हैं. हो सकता है भविष्य में पता चले कि माइक्रोप्लास्टिक बहुत गंभीर नुक़सान कर सकते हैं, इसलिए अभी से सजग रहने की ज़रूरत है.”

हर जगह माइक्रोप्लास्टिक

माइक्रो प्लास्टिक पानी के अलावा यह उस ज़मीन में भी बहुतायत में पाए जाने लगे हैं, जहाँ खेती होती है.

अमेरिका में साल 2022 में एक पड़ताल की गई थी. इसके मुताबिक़, सीवर की जिस गाद को वहां फसलों के लिए खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, उसमें माइक्रोप्लास्टिक होने के कारण 80 हज़ार वर्ग किलोमीटर खेती योग्य ज़मीन दूषित हो गई थी.

इस गाद में माइक्रोप्लास्टिक्स के अलावा, कुछ ऐसे केमिकल भी थे, जो कभी विघटित नहीं होते यानी उसी अवस्था में बने रहते हैं.

वहीं, ब्रिटेन में कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी ने पाया था कि यूरोप में हर साल खेती वाली ज़मीन में खरबों माइक्रोप्लास्टिक कण मिल रहे हैं जो हर निवाले के साथ लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहे हैं.

बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि कुछ पौधे ऐसे हैं, जिनमें बाक़ियों की तुलना में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा होता है.

दरअसल, कुछ शोध बताते हैं कि जड़ों वाली सब्ज़ियों में माइक्रोप्लास्टिक ज़्यादा पाए जाते हैं. यानी पत्ते वाली सब्जियों में कम माइक्रोप्लास्टिक होंगे, जबकि मूली और गाजर जैसी सब्ज़ियों में ज्यादा.

माइक्रोप्लास्टिक से कैसे बचा जाए?

डॉक्टर मनीष सिंह बताते हैं कि समस्या यह भी है कि भारत में अधिकतर जगह कचरे के निपटान की सही व्यवस्था नहीं है. इसी कारण माइक्रोप्लास्टिक नदियों और खेती वाली ज़मीन तक पहुंच रहा है.

उन्होंने कहा, “खाने-पीने की असंख्य चीज़ें प्लास्टिक में पैक होती हैं. फिर समस्या ये है कि लोग घरों में प्लेट और चॉपिंग बोर्ड तक प्लास्टिक के इस्तेमाल करते हैं. इस सबसे बचना चाहिए. लेकिन सरकार को भी इस विषय पर ध्यान देना चाहिए.”

प्लास्टिक और संबंधित उत्पादों का इस्तेमाल कम करने के लिए भारत सरकार ने एक जुलाई 2022 से सिंगल यूज़ यानी एक बार इस्तेमाल किए जा सकने वाले प्लास्टिक पर रोक लगा दी थी.

सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उत्पादन, आयात, भंडारण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. दुनिया के कई देश पहले ही ऐसा क़दम उठा चुके थे.

लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि बायोडीग्रेडेबल विकल्प को समस्या को और गंभीर कर रहे हैं. ब्रिटेन की प्लाइमाउथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन बैगों में बायोडीग्रेडेबल लिखा होता है, उन्हें विघटित होने में भी कई साल लग सकते हैं.

यही नहीं, वे भी छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं.

माइक्रोप्लास्टिक खाने-पीने की चीज़ों में न मिले, इसके लिए शीशे की बोतलें इस्तेमाल करने की भी सलाह दी जाती है.

लेकिन, बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि भले ही ग्लास की बोतलें कई बार रीसाइकल की जा सकती हों लेकन शीशा बनाने के लिए सिलिका (रेत) का इस्तेमाल होता है. ऐसे में इसकी प्रक्रिया में भी पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है.

और फिर समस्या सिर्फ़ माइक्रोप्लास्टिक की ही नहीं, माइक्रोफ़ाइबर की भी है. पानी, समुद्री नमक और बीयर में भी माइक्रोफ़ाइबर पाए गए हैं और इनका बड़ा हिस्सा कपड़ों से आता है.

कैसे कम किया जा सकता है प्रदूषण

बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित लेख के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को कम करने की दिशा में एक उम्मीद जगी है.

शोधकर्ताओं ने ऐसे फंगस (फफूंद) और बैक्टीरिया की पहचान की है, जो प्लास्टिक को विघटित करने में मदद करते हैं.

इसी तरह, बीटल (गुबरैले) की एक क़िस्म का लारवा पॉलीस्टीरीन (एक तरह का प्लास्टिक) को विघटित कर सकता है.

इसके अलावा, पानी को ख़ास तरह के फ़िल्टरों और केमिकल ट्रीटमेंट से भी शुद्ध किया जा सकता है.

लेकिन डॉ. मनीष सिंह का कहना है कि इन उपायों से बेहतर है कि एक ओर तो सरकार प्लास्टिक का इस्तेमाल घटाने पर नीतियां बनाए और दूसरी ओर लोग भी अपने स्तर पर प्लास्टिक पर निर्भरता कम करें.

वह कहते हैं, “जैसे कि जूट या कपड़े के थैले इस्तेमाल करें. कपड़े खरीदते समय भी सिंथेटिक फ़ाइबर के कपड़ों के बजाय कॉटन के कपड़ों को तरजीह दें. प्लास्टिक के कचरे का सही से निपटारा करें. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि प्लास्टिक से बनी चीज़ों का इस्तेमाल कम करें.” (bbc.com)

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