विचार / लेख

सनातन और अनित्य पर बहस
19-Jan-2024 4:28 PM
सनातन और अनित्य पर बहस

 शंभूनाथ

सनातन धर्म के नाम पर प्राचीन भारत में कभी कोई एक सर्वमान्य धार्मिक आस्था नहीं रही है, कोई एक सुनिर्धारित रीतिरिवाज और जीवन शैली नहीं रही है। यह संयोग नहीं है कि महाभारत के अलावा सनातन का उल्लेख बौद्धों के ग्रंथ ‘महावग्ग’ में भी है। ‘सनातन’ का अर्थ सामान्यत: ‘शाश्वत सत्य’ है। रामानुजाचार्य ने कहा था, ‘इसका न कोई आदि है और न अंत’। फिर भी खुद उन्होंने कई प्राचीन विचारों और परंपराओं पर सवाल खड़े किए। सैकड़ों साल के धार्मिक विकास को देखते हुए कहा जा सकता है कि सनातन धर्म से हिंदू धर्म बहुत व्यापक है।

महाभारत के संवाद में कई जगहों पर सदाचरण के संदर्भ में कहा गया है, ‘यह धर्म है’। यह कथन भी है, ‘कौरवों ने सनातन धर्म का ध्वंस कर दिया’। फिर भी वैदिक साहित्य और महाभारत दोनों जगहों पर प्रधानता धर्म की व्याख्या की है। बृहदारण्यक उपनिषद में है, ‘यह जो धर्म है, वह सत्य ही है। धर्म बोलने वाले के लिए कहते हैं कि सत्य बोलता है।’ (1.4.14)। खुद वैदिक दर्शनों ने ‘सनातन’ और ‘अंध परंपरा’ को चुनौती दी थी।

यदि महाभारत महाकाव्य के अनुसार सनातन धर्म का कोई समेकित स्वरूप निर्धारित किया जाए तो हम पाते हैं कि सनातन के तीन प्रमुख अंग हैं- ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’, ‘स्त्री की पुरुष-अधीनता’ और ‘भाग्यवाद’। अगर ये सनातन के मुख्य आधार हैं तो ये हिंदू धर्म के लिए बड़ी समस्याएं हैं।

‘गीता’ में एक जगह कुलधर्म के क्षय को सनातन धर्म के क्षय के रूप में देखा गया है। दूसरी जगह अर्जुन कृष्ण के विश्वस्वरूप को सनातन धर्म का रक्षक बताते हैं (14.27)। हिंदू धर्म में कृष्ण के अलावा कई अन्य बड़े देवता हैं, जैसे- सूर्य, शिव, राम (विष्णु के एक अन्य अवतार), गणेश और दुर्गा। इसका अर्थ है, ‘सनातन’ विविधतापूर्ण है।

एक समय की खास धार्मिक व्यवस्था से असहमति व्यक्त करते हुए गौतम बुद्ध ने ‘सनातन’ के समानांतर ‘अनित्य’ का प्रतिपादन किया था, ताकि ‘वर्ण व्यवस्था’ जैसी चीजों को चुनौती दी जा सके। अनित्य का अर्थ है कुछ भी नित्य या शाश्वत नहीं है। इसलिए वर्ण व्यवस्था भी शाश्वत नहीं है। बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख तत्वों में एक है अनित्यता। कहा गया है, ‘सब्बे संखारा अनिक्का (अनित्य), सब्बे संखारा दुक्खा, सब्बे धम्मा अनात्ता (अनात्मवाद)।’ बौद्ध धर्म ‘शाश्वत’ की जगह ‘परिवर्तन’ की बात करता है। बुद्ध भारतीय संस्कृति के बाहर नहीं हैं।

सनातन यदि कुछ है तो वह बहुवचनात्मक और सृजनात्मक है

सनातन के बारे में प्रधान तथ्य यह है कि उसका एक रूप नहीं है। वह बहुवचनात्मक है, क्योंकि हिंदू धर्म बहुकेंद्रिक है। दूसरी बात, अथर्ववेद में कहा गया है, सनातन हमेशा पुनर्नवा होता रहता है (10.8.23), अर्थात सनातन स्थिर मामला नहीं है। सनातन की पुनर्नवता का अर्थ पुरानी चीजों का ही नया-नया रूप लेना नहीं है, उन पुरानी चीजों का बदलना भी है।

हिंदू धर्म को सनातन की एकरूपता में सीमित करने की संगठित कोशिशें 19वीं सदी के नवजागरण, सुधारवादी आंदोलनों और आगे चलकर गांधी के उदारवाद के विरोध में हुई थीं। 1886 में ‘सनानत धर्म सभा’ बनी, जो धार्मिक सुधार आंदोलन के विरोध में थी।

कर्मणा वर्ण व्यवस्था काफी पहले जन्मना वर्ण व्यवस्था में बदल चुकी थी। यदि ‘सनातन’ जैसा कुछ है, तो पुरोहित वर्गों द्वारा कर्मणा वर्ण व्यवस्था क्यों नहीं बनी रहने दी गई? वर्ण व्यवस्था विघटित होकर इतनी जाति–बिरादरियों में क्यों बदल गई? देखा जा सकता है कि 19वीं सदी में सनातन धर्म सभाएं दलितों और स्त्रियों को पुरानी दशा में ही रखना चाहती थीं। इसी तरह मुसलमानों के वहाबी और देवबंद आंदोलन भी मजहबी सुधारों के विरोध में थे और कट्टरताओं के बीच होड़ थी।

कट्टरवादी धार्मिक संगठन अंग्रेजी राज के समर्थन में किस तरह थे, यह काशी के एक संगठन भारत धर्म महामंडल की एक पुस्तिका ‘भारत धर्म महामंडल रहस्य’ (1910) से जाना जा सकता है, ‘परम दयालु परमेश्वर की कृपा से आर्य प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी उन्नति और प्रजारक्षक गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए पृथ्वी भर में और कहीं देखने में नहीं आती।’ कुछ सदियों से प्रचारित किए गए सनातन की एक अन्य बड़ी सीमा ‘आर्यावर्तत’ को अर्थात उत्तर भारत को भारत समझने की है, जबकि भारत एक बड़ा देश है।

उपनिवेशवाद से गुजरे देशों में भेदभाव-भरी पिछड़ी मानसिकता अस्वाभाविक नहीं है। उपनिवेशवाद जिस देश में गया, उस देश में लोगों के विश्वासों को सामान्यत: कठोर बना देने का उसने हर संभव प्रयास किया। अंग्रेजों ने अपना यह लक्ष्य सबको आधुनिक जीवन शैली में प्रवृत्त करते हुए पूरा किया। जीवन शैली आधुनिक, पर जीवन दृष्टि रूढि़वादी! आधुनिक शिक्षा भी पुरानी निर्बुद्धिपरक मानसिकता को बदल नहीं पाई। राजा राममोहन राय, विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, फुले, रानाडे, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि के सुधार आंदोलन और शिक्षण-कार्यक्रम बहुत प्रभावी नहीं हो सके, हालांकि ये उदारवाद के कुछ दबाव बनाने में सफल हुए।

यदि सनातन का अर्थ नैरंतर्य है तो प्राचीन धार्मिक परंपराएं, जिन्हेें ‘सनातन’ कहा जाता है हमेशा सुधार, परिवर्तन और ‘उच्चतर’ की खोज से गुजरी हैं -यह स्वीकार करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि ॠग्वेद में ‘वस्तुओं’ और ‘सुखों’ की कामना प्रधान है, जबकि उपनिषदों में इससे भिन्न ‘आत्मज्ञान’ की प्रधानता है। अपर, वसवण्णा, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, कबीर, सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों ने शाश्वत में सुधार किया। उन्होंने सामान्यत: जाति भेदभाव, कर्मकांड और भाग्यवाद को नहीं माना।

सैकड़ों साल से भारत में ‘सनातन’ इतना विविधतापूर्ण और परिवर्तनशील रहा है कि अंतत: कुछ भी सनातन नहीं रह गया है। आज हम एक बदले वातावरण में हैं। इसका उच्च मूल्यबोध से संबंध नहीं बचा है। वर्तमान धार्मिक दौर में लोभ और भय ज्यादा छाया है। खुद ईश्वर असुरक्षित है। जिन हिंदुओं में धर्म बचा है, वे बहुत अकेलेपन का अनुभव करते हैं। ऐसे शांतिप्रिय लोग हर हिंसक झुंड और शोर के बाहर हैं!

भारतीय साहित्य की परंपरा में लक्षित किया जा सकता है कि विभिन्न युगों में सनातन कई सृजनात्मक बदलावों से गुजरता आया है। रामकथा ही सृजनात्मक बदलाव से नहीं गुजरती, महाभारत भी गुजरता है। महाभारत के कृष्ण से जयदेव, चैतन्य और सूरदास-मीरा के कृष्ण भिन्न हैं। वे लालित्य से भरे हैं। गौर करने की चीज है, सूर-मीरा के कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र की जगह बांसुरी सुशोभित है!

साहित्य ही नहीं, सैकड़ों साल के अजंता-एलोरा जैसे स्थापत्य, चित्र और मूर्ति कलाओं में नई-नई कल्पनाएं हैं। सनातनता को सृजनात्मकता ने बार-बार बंधनों से मुक्त किया है और ज्ञान के नए द्वार खोले हैं। सनातनता और सृजनात्मकता के द्वंद्वात्मक संबंध को देखना चाहिए। सनातन का कुछ विद्वान अर्थ निकालते हैं, ‘अतीत में जो भी था वह सब शाश्वत है’। यह अतीत का वर्तमान पर आक्रमण है, यह अतीत का मानव भविष्य पर आक्रमण है।

सनातनता को समझने के लिए अपने ज्ञान के दरवाजे को खुला रखना जरूरी है। इसका साहित्य की आधुनिक परंपराओं और हाशिये की आवाजों के नकार के लिए उपयोग घातक है। सनातनता ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति, सुधार और सृजनात्मकता से विच्छिन्न होकर कूपमंडूकता में बदल जाती है। वैदिक युवा नचिकेता की शिक्षा है, जिज्ञासा के द्वार हमेशा खुले रखें, जड़ताओं पर प्रश्न उठाते रहें!

‘वागर्थ’ जनवरी 2024 का संपादकीय, अंश

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