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अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड किस हद तक सेहत को करते हैं खराब
23-Jan-2024 2:23 PM
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड किस हद तक सेहत को करते हैं खराब

सुशीला सिंह, आदर्श राठौर

अगर आप रेल या सडक़ से लंबी यात्रा कर रहे हों या फिर कहीं घूमने गए हों और बीच सफर में भूख लग जाए तो पेट भरने के लिए दाल, चावल या रोटी जैसे विकल्पों की तुलना में आपको चिप्स, बिस्किट और कोल्ड ड्रिंक्स जैसे भरपूर विकल्प मिल जाएंगे।

कई बार हम यूं ही टाइम पास करने के लिए या फिर पेट भरा होने के बावजूद स्वाद की वजह से भी इन्हें खाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि खाने-पीने की पारंपरिक चीज़ों की जगह खाए जाने वाले ये स्वादिष्ट विकल्प ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड’ कहलाते हैं और इनका ज़्यादा इस्तेमाल सेहत के लिए हानिकारक होता है?

यही नहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि इन्हें कुछ इस तरह से तैयार किया जाता है ताकि इन्हें खाने में मजा आए और हम इनके आदी हो जाएं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 10 सालों में भारत में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के बाजार में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।

क्या होता है अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड

डॉक्टर अरुण गुप्ता बाल रोग विशेषज्ञ हैं और न्यूट्रिशन एडवोकेसी फॉर पब्लिस इंटरेस्ट (एनएपीआई) नाम के थिंक टैंक के संयोजक हैं।

वह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड का मतलब कुछ इस तरह बताते हैं, ‘सरल शब्दों में समझें तो अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड वह खाद्य सामग्री है, जिसे आप आमतौर पर अपने किचन में नहीं बना सकते। यह सामान्य खाने की तरह नहीं दिखती। जैसे कि पैकेट में आने वाले चिप्स, चॉकलेट, बिस्किट और बड़े पैमाने पर बनाए गए ब्रेड और बन वगैरह।’

वे कहते है, ‘हर समुदाय अपने स्वाद और पसंद के हिसाब से खाना तैयार करता है। इसे भी फूड प्रोसेसिंग यानी खाद्य प्रसंस्करण कहा जा सकता है। अगर हम दूध से दही बनाते हैं तो वो प्रोसेसिंग है। लेकिन अगर किसी बड़ी इंडस्ट्री में दूध से दही बनाया जाए और उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए रंग, फ्लेवर, चीनी या कॉर्न सिरप डाला जाए तो यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड होगा।’

वह कहते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में डाली जाने वाली ये चीज़ें उनकी पोषकता नहीं बढ़ातीं बल्कि उन्हें इसलिए डाला जाता है ताकि आप इन्हें खाते रहें, इनकी बिक्री होती रहे और ज्यादा मुनाफ़ा हो। ऐसे में इन्हें सिर्फ बड़े उद्योग ही तैयार कर सकते हैं।

अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड को कॉस्मैटिक फूड भी कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड ऐसी सामग्री से बनाए जाते हैं जिन्हें औद्योगिक तकनीकों और प्रक्रियाओं से तैयार किया जाता है।

डब्लयूएचओ के अनुसार, अल्ट्रा प्रोसेस्ड चीजों के कुछ उदाहरण हैं-

   कार्बोनेटेड कोल्ड ड्रिंक

     मीठे, फैट वाले या नमकीन स्नैक्स, कैंडी

  बड़े पैमाने पर तैयार ब्रेड, बिस्किट, पेस्ट्री, केक, फ्रूट योगर्ट

  रेडी टू ईट मीट, चीज, पास्ता, पिज़्जा, फि़श, सॉसेज, बर्गर, हॉट डॉग

 इन्स्टेंट सूप, इन्स्टेंट नूडल्स, बेबी फॉर्मूला

विशेषज्ञों के अनुसार इन सब चीजों में औद्योगिक प्रक्रिया के तहत चीनी, नमक, फैट्स (वसा) या इमल्सिफाई (दो अलग-अलग तरह के पदार्थों को मिलाना) करने वाले केमिकल और प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिन्हें हम अमूमन अपने किचन में इस्तेमाल नहीं करते।

प्रिजर्वेशन की शुरुआत

तुर्की में टमाटर सुखाते लोग। खाने पीने की कुछ चीजों से नमी निकालकर उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन में पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ। वी सुदर्शन राव बताते हैं कि जब सभ्यता की शुरुआत हुई तभी से प्रिजर्वेशन (संरक्षण) का इस्तेमाल होने लगा। इसका मुख्य काम भोजन को लंबे समय के इस्तेमाल के लिए बैक्टीरिया और फफूंद आदि से खराब होने से बचाना था।

वे बताते हैं, ‘हमारे पूर्वजों ने ये जाना कि अगर खाद्य पदार्थों से नमी को निकाल लिया जाए तो उसे प्रिज़र्व किया जा सकता है। इसलिए सबसे पहले खाद्य पदार्थों को धूप में सुखाने से शुरुआत हुई, क्योंकि उन्होंने जाना कि सूखे हुए खाद्य पदार्थों को लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है।’

हैदराबाद स्थित, इंडियन कॉउसिल फॉर मेडिकल रिसर्च में वैज्ञानिक रह चुके डॉ. वी सुदर्शन राव बताते हैं कि प्रिजर्वेशन के लिए नमक, शुगर का उपयोग होने लगा, जिन्हें आप प्रिज़र्वटिव कह सकते हैं। लेकिन अब नई तकनीक आने की वजह से प्रिजर्वेशन में कई बदलाव आए हैं।

इसी बात को समझाते हुए गुजरात के राजकोट में नगरपालिका निगम के स्वास्थ्य विभाग में डॉ. जयेश वकानी बताते हैं, ‘उदाहरण के तौर पर आप अचार लीजिए। उसमें अधिक नमक, शुगर, सिरका और सिट्रिक एसिड को इस्तेमाल किया जाता है, जो प्राकृतिक तौर पर प्रिजर्वटिव का काम काम करते हैं। अगर कृत्रिम प्रिजर्वेटिव इस्तेमाल करने होते हैं तो भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) के मानकों के अनुसार उन्हें इस्तेमाल करना होता है।’

प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल कॉस्मेटिक्स में भी

जानकार बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में होने वाले प्रिजर्वेटिव, जिनमें कई प्रकार के एंटीमाइक्रोबियल, एंटीऑक्सिडेंट, सॉर्बिक एसिड आदि शामिल हैं, उनका हर खाद्य सामग्री में इस्तेमाल नहीं हो सकता।

खाद्य पदार्थों में बैक्टीरिया को रोकने के लिए एंटीमाइक्रोबियल प्रिजर्वेटिव का उपयोग होता है। वहीं तेल में एंटीऑक्सिडेंट, जबकि सॉर्बिक एसिड प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल फफूंद से बचाने के लिए होता है।

प्रिज़र्वेटिव का इस्तेमाल केवल खाद्य सामग्रियों में ही नहीं होता, बल्कि कॉस्मेटिक्स जैसे क्रीम, शैम्पू, सनस्क्रीन में भी होता है, ताकि इन्हें लंबे समय तक उपयोग किया जा सके।

लेकिन क्या ये हानिकारक हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ। जयेश वकानी कहते हैं, ‘किसी भी पदार्थ या खाद्य सामग्री में प्रिजर्वेटिव का उपयोग सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखकर किया जाता है और जितनी मात्रा की जरूरत हो, केवल उतना होता है, क्योंकि ज्यादा इस्तेमाल का कोई फायदा नहीं होता।’

डॉ.  वी सुदर्शन राव कहते हैं कि भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) खाद्य सामग्रियों में इस्तेमाल होने वाले प्रिजर्वेटिव की जाँच करता है और ये पाया गया है कि 60-70 साल तक लेने पर भी इनका शरीर को कोई नुकसान नहीं होता।

प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड

उपभोक्ताओं को जागरूक करने वाली संस्था ‘कंज़्यूमर वॉइस’ के सीईओ आशिम सान्याल कहते हैं कि खाने-पीने की चीजों को लंबे समय तक खराब होने से बचाने के अलावा टेस्ट बढ़ाने और रंग डालकर आकर्षक बनाने में भी प्रिजर्वेटिव को इस्तेमाल किया जाता है।

ये प्रिजर्वेटिव कृत्रिम होते हैं और सीमित मात्रा में ही डाले जाते हैं। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को खराब होने से बचाने के लिए जो तरीक़े अपनाए जाते हैं, उससे ये बेहद हानिकारक बन जाते हैं।

डॉक्टर आशिम सान्याल बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में प्रिजर्वेटिव के इस्तेमाल को अलग करके नहीं देखा जा सकता बल्कि इसे अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से जोडक़र देखा जाना चाहिए।

डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिजर्वटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।

भारत में प्रोसेस्ड फूड के कारोबार का सेक्टर 500 अरब डॉलर है।

आशिम सान्याल बताते हैं कि सब्जी, दाल आदि बनाना भी प्रोसेस्ड फूड कहलाता है लेकिन अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड वो होता है, जिसे टेक्निकल इनोवेशन के जरिए प्रयोगशाला में नए रूप में ढाला जाता है। इसमें शुगर, सैचुरेटेड फैट्स आदि के अलावा प्रिजर्वेटिव के मिश्रण बहुत ज़्यादा मात्रा में होते हैं।

उनके अनुसार, ‘डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिज़र्वेटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनमें प्रिज़र्वेटिव इसलिए डाले जाते हैं ताकि लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सके। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।’

आशिम सान्याल कहते हैं कि उदाहरण के तौर पर चिप्स, कोल्ड ड्रिंक या अन्य खाद्य पदार्थों की बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आदत पड़ जाती है और यही आदत डलवाने के लिए ऐसे पदार्थ डाले जाते है।

उनके अनुसार, ‘ये वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुका है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड बहुत सी बीमारियों की जड़ बन चुका है। हमने जब भी जाँच की तो पाया कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में प्रिजर्वेटिव और अन्य केमिकल की मात्रा काफी ज़्यादा होती है।’

डॉ. आशिम सान्याल कहते हैं, ‘अल्ट्रा प्रोसेसिंग में पोषक तत्व ख़त्म हो जाते हैं। इस खाने में कोई गुणवत्ता नहीं रहती। जैसे तंबाकू या सिगरेट की लत लगती है, वैसे ही ऐसे भोजन के भी एडिक्टव होने के कारण लत पड़ जाती है।’

विशेषज्ञों का कहना है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के साथ दिक्कत यह है कि हमें पता ही नहीं चलता कि इन्हे कितना ज़्यादा खाया जा रहा है।

डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘खाना खाते वक्त हमारा दिमाग हमें सिग्नल देता है कि अब पेट भर गया। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को कुछ इस तरीक़े से तैयार किया जाता है कि आपको इन्हें खाने में मज़ा आए। जब आप इसे खा रहे होते हैं तो दिमाग से ऐसा सिग्नल नहीं आता कि पेट भर गया और आप इसे खाते चले जाते हैं।’

प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के नुकसान

डॉ. जयेश वकानी कहते हैं कि अगर कृत्रिम प्रिजर्वटिव का इस्तेमाल मानकों से ज़्यादा मात्रा और लंबे समय तक किया जाए तो शरीर में कैंसर भी बन सकता है।

डॉ अरुण गुप्ता भी कहते हैं कि कि कई बार खाद्य पदार्थों की शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए ऐसे प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिनसे नुक़सान हो सकता है।

वह कहते हैं, ‘इनमें प्रिज़र्वेटिव और कलरिंग एजेंट जैसे केमिकल होते हैं, जिनसे शरीर में एलर्जी हो सकती है या फिर शरीर की इम्युनिटी कमजोर हो जाती है। भले ही तुरंत पता न चले, लेकिन लंबे समय में ये ख़तरनाक साबित हो सकते हैं।’

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 125 देशों में भारत भूख के मामले में 111वें स्थान पर है और भूख से जूझ रही सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। जहां एक ओर देश कुपोषण की चुनौती झेल रहा है, वहीं मोटापे की बढ़ती समस्या का सामना भी कर रहा है। मोटापा बढ़ाने में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड भी भूमिका निभा रहे हैं।

डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘कभी-कभार इन्हें खाया जा सकता है, लेकिन जब हम इनका इस्तेमाल अपने भोजन के दस फ़ीसदी से ज़्यादा करने लगते हैं, यानी कि 2000 कैलोरी में 200 कैलोरी से ज़्यादा अगर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से आ रही हों तो नुकसान की शुरुआत हो जाती है।’

वे कहते कि सबसे पहले तो वजन बढऩे लगता है, जो खुद में कई बीमारियों को आमंत्रण देता है। इससे डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, दिल और किडनी से जुड़ी बीमारियाँ और यहा तक कि कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘हालिया शोध ये भी इशारा करते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड इस्तेमाल करने से डिप्रेशन और एंग्ज़ाइटी भी हो सकती है। ऐसा क्यों है, इस पर अभी शोध चल रहे हैं।’

आमतौर पर ये देखा गया है कि हर उम्र और वर्ग के लोग अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाते हैं, लेकिन भारत के लिहाज से देखें तो बच्चों को ज़्यादा खतरा है, क्योंकि आमतौर पर बच्चों को मीठी चीजें पसंद होती हैं। वे चिप्स, कैंडी, चॉकलेट, पैक्ड जूस और कोल्ड ड्रिंक्स खाना पसंद करते हैं।

डॉक्टर अरुण गुप्ता बताते हैं कि वैसे तो इस संबंध में ज़्यादातर शोध वयस्कों पर हुए हैं, लेकिन 2017 में हुए एक शोध में पता चला था कि करीब पचास फीसदी बच्चों को अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड से नुक़सान हो रहा है और ये उन्हें मोटापे की ओर धकेल रहा है।

क्या है बचने का रास्ता?

जानकार बताते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाने की आदत से बचना चाहिए।

आशिम सान्याल बताते हैं कि अगर आप एक हफ्ते में चार बार ऐसा भोजन या खाद्य पदार्थ खाते हैं तो धीरे-धीरे इसके सेवन में कमी लाएं।

साथ ही वे कहते हैं कि लोगों को फूड लेबल के बारे में जागरूक करने की भी जरूरत है। इसके अलावा, ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियों को भी सामग्रियों के फ्रंट पर प्रमुखता से जानकारी देनी चाहिए।

उनके अनुसार, ‘हम फ्रंट ऑफ पैक न्यूट्रिशनल लेबलिंग पर जोर दे रहे हैं, ताकि लेबल में सामने की ओर ये चीजें बताई जाएं कि इसमें शुगर ज़्यादा है, नमक ज़्यादा है या फैट ज़्यादा है। इन मुख्य चीजों पर ध्यान दिया जाएगा तो 80 फ़ीसदी समस्या पर रोक लग सकेगी। अभी ये सारी जानकारियाँ लेबल के पीछे लिखी होती हैं और इतनी छोटी होती हैं कि ग्राहकों का ध्यान ही नहीं जाता।’

आशिम सान्याल उदाहरण देते है कि लातिन अमेरिकी देशों ने फ्रंट लेबलिंग शुरू की है और इससे लोगों की खाने की आदत में बदलाव आया है, क्योंकि वे जागरूक हुए हैं। वहीं इस बात पर भी बहस होती है कि अगर लेबलिंग में जानकारी दी गई तो इससे ब्रिकी पर असर पड़ेगा। इसके जवाब में आशिम सान्याल कहते है कि सिगरेट और तंबाकू पर चेतावनी डाली गई है, क्या इससे ऐसे उत्पादों की ब्रिकी बंद हो गई?

वहीं, डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि इस मामले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है।

वह कहते हैं, ‘सरकार की जि़म्मेदारी सबसे बड़ी है। लोग क्या खा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए। इसके अलावा, मीडिया, समाज और संस्थाओं का भी फज़ऱ् है कि लोगों को इस बारे में जागरूक करें। फिर लोगों की अपनी मजऱ्ी है कि क्या करना है।’

डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि जिस तरह से दो साल तक के शिशुओं के लिए बेबी फूड का विज्ञापन करने पर भारत में रोक लगाई गई है, उसी तरह ज़्यादा नमक, चीनी और फ़ैट वाली सामग्रियों को लेकर भ्रामक प्रचार पर भी रोक लगनी चाहिए।

वह कहते हैं, ‘लोगों को पता चलना चाहिए कि कौन सी चीज़ हानिकारक है। हो सकता है कि फिर भी लोग खाएं, लेकिन उन्हें पता होगा कि इन चीज़ों को कम खाना चाहिए।’

डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘ऐसी नीतियों से इंडस्ट्री को भी संदेश जाता है कि भले वे प्रोसेस्ड फूड बनाएं, मुनाफ़ा कमाएं, इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन मुनाफ़ा भी कमाना और लोगों की सेहत से खिलवाड़ भी करना, ये सही नहीं है।’ (bbc.com)

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