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मंदिर+मोदी, तीसरी जीत?
24-Jan-2024 4:54 PM
मंदिर+मोदी, तीसरी जीत?

@NARENDRAMODI/X

 मयूरेश कोण्णुर

अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित होने के बाद से ही देश में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बहस चल रही है।

ये मंदिर वहीं बना है, जहाँ छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी।

अयोध्या मामले में सुनवाई के बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन को एक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए, जो वहाँ पर एक मंदिर का निर्माण कराएगी।

इसके साथ ही कोर्ट के आदेश पर उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए पाँच एकड़ की जमीन आबंटित की गई है।

अब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो गया है और सोमवार 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा भी कर दी है।

एक तरफ चर्चा इस बात की चल रही है कि कैसे लोकसभा चुनाव से पहले जान बूझ कर राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित की गई, वह भी तब, जब मंदिर का निर्माण अभी भी अधूरा है।

विपक्ष ने समारोह के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। यहाँ तक कि शंकराचार्यों ने भी इस कार्यक्रम में शामिल न होने का फैसला किया। उनके इस कदम से एक और हलचल पैदा हो गई।

वहीं, दूसरी ओर भाजपा, आरएसएस और उससे जुड़े दलों और संगठनों ने प्रत्येक घर में अक्षत वितरित कर और कलश यात्राएं निकाल कर पूरे देश में धार्मिक माहौल बनाया। देश के कोने-कोने में भगवा रंग से सराबोर धार्मिक माहौल नजर आ रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस शो का नेतृत्व कर रहे हैं। वह इतने बड़े पैमाने पर होने वाले किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने वाले पहले प्रधानमंत्री होंगे।

ऐसे में इस आयोजन में अंतर्निहित राजनीतिक उद्देश्य से कौन इनकार कर सकता है?

आज का अयोध्या कांड कभी भी केवल धार्मिक नहीं रहा। इसमें हमेशा से राजनीति शामिल रही है।

राम मंदिर आंदोलन न केवल हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद को मुख्यधारा में लेकर आया, बल्कि भारतीय राजनीति की प्रकृति को भी बदल दिया। मंदिर का मुद्दा जैसे ही राजनीति में आया, इसका असर हर अगले चुनाव पर पड़ा। ऐसा लगता है कि इसका असर इस बार के चुनाव पर भी पड़ेगा।

क्या अगले कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में मंदिर सबसे बड़ा मुद्दा होगा? भाजपा ने पिछले तीन दशक में इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ लिया है, तो क्या वह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार बहुमत लाएगी।

क्या भाजपा को फिर मंदिर का फायदा मिलेगा?

पिछले तीन दशक का राजनीतिक इतिहास बताता है कि राम मंदिर मुद्दे से बीजेपी को चुनाव में मिलने वाली सीटों के लिहाज से फायदा हुआ है। भाजपा का वोट बेस धीरे-धीरे बढ़ता गया है। भाजपा जो कभी दो सांसदों तक सीमित थी, उसने पहले लोकसभा में सौ के आंकड़े को छूआ और जल्द ही पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली।

चुनाव विश्लेषक और लोकनीति-सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदू वोटों के बीच सर्वेक्षणों के आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाते हैं। वो कहते हैं कि ज़्यादातर लोग धार्मिक आस्था रखते हैं। वो मंदिरों ने नियमित रूप से जाते हैं, उन लोगों ने भाजपा को वोट दिया। यह मतदान प्रतिशत में महत्वपूर्ण है।

संजय कुमार बताते हैं कि रोजाना मंदिर जाने वाले धार्मिक लोगों में से 51 फीसद ने 2019 में बीजेपी को वोट दिया। करीब इतना ही फीसद 2014 में भी था। लेकिन जो लोग बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं हैं और रोजाना मंदिर नहीं जाते, उनमें से 32 फीसदी ने बीजेपी को वोट दिया। इसका मतलब है कि धार्मिक लोगों का झुकाव बीजेपी की ओर है।

भाजपा 1980 के दशक में राम मंदिर मुद्दे के जोर पकडऩे के साथ ही इन मतदाताओं का समर्थन तेजी से हासिल करती आई है।

कुमार कहते हैं, 2014 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उस समय की ‘यूपीए’ सरकार के खिलाफ गुस्से, 2019 में पुलवामा-बालाकोट की घटनाओं के बाद बने माहौल के बाद भी मतदाताओं पर धार्मिक मुद्दों का प्रभाव कम नहीं हुआ है।

उनका मानना है कि इस बार के चुनाव में भी ऐसा ही होने की संभावना है। वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि 2024 का चुनाव हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जाएगा और राम मंदिर सबसे आगे रहेगा। मुझे यकीन है कि कम से कम उत्तर भारत के मतदाता राम मंदिर के निर्माण के लिए बीजेपी को वोट देंगे।’

राम मंदिर का मुद्दा धार्मिक या राजनीतिक?

बीजेपी के नेता लगातार कहते रहे हैं कि राम मंदिर का कार्यक्रम पूरी तरह से धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। इसके बाद भी जब जनता की भावनाएं इस पैमाने पर प्रभावित होंगी तो उसका असर उनकी राय पर भी दिखेगा।

महाराष्ट्र भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष माधव भंडारी कहते हैं, ‘जब इस तरह का कोई बड़ा आंदोलन होता है, जो देश के कोने-कोने में पहुंच जाता है, तो जनमत एक दिशा में जाने लगता है। इसका किसी न किसी तरह से प्रभाव पड़ेगा और आपको वह परिणाम जरूर नजर आएगा।’

अयोध्या में राम मंदिर बनाने और राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने का वादा कर भाजपा ने इस मुद्दे को सालों तक जि़ंदा रखा।

भाजपा भले ही मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के जरिए उन्हीं परिणामों को दोहराने का इरादा रखती है, इतिहास हमें यह भी बताता है कि कुछ धारणाएं, जैसी सतह पर दिखाई देती हैं, वो चुनाव क्षेत्र में बदल जाती हैं।

वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘यहां तक कि जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया था, तब भी हर जगह यह धारणा थी कि हिंदुत्व हर जगह हावी होगा और भाजपा हर जगह चुनाव जीतेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और कांशीराम एकसाथ आए और बीजेपी हार गई। वो बाद के कुछ चुनावों में भी सरकार नहीं बना सकी।’

लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘बीजेपी को जो बहुमत मिलने वाला था, राम मंदिर के प्रभाव से उसमें अधिकतम 10-20 सीटें बढ़ जाएंगी। ऐसा नहीं है कि राम मंदिर ही बीजेपी के दोबारा सत्ता में आने का एकमात्र कारण हो, अन्यथा यह मुश्किल होगा। आप एक ही प्रोडक्ट को बार-बार नहीं बेच सकते हैं। लोगों ने राम मंदिर के विचार को स्वीकार किया। यह अब तैयार है। इसका अनुमान सभी को पहले से ही था। इसलिए बीजेपी को इसका कोई खास फायदा नहीं मिलेगा। लेकिन राम मंदिर को लेकर बने भावनात्मक माहौल का वे फायदा जरूर उठाएंगे। यही राजनीति है।’

मंडल बनाम कमंडल, जाति बनाम धर्म

आम चुनाव से पहले जब अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा जोर पकड़ रहा है तो सवाल पूछा जा रहा है कि क्या हम एक बार फिर भारतीय राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के साक्षी बनेंगे।

जब 80 के दशक में राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ और 90 के दशक में और अधिक उग्र हो गया, तो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं। ओबीसी समुदाय को आरक्षण दिया गया।

इस कदम ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। चुनावी राजनीति में धर्म और जाति प्रमुख कारक हैं। असली सवाल यह है कि क्या इतिहास दोहराया जाएगा? क्या ‘मंडल’ को रोक पाएगा ‘कमंडल’?

कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ यही करने की कोशिश कर रहा है। राम मंदिर का मुद्दा सामने आते ही जाति जनगणना की मांग की गई। हालांकि, 1992-93 के बाद से 2024 तक समय और सामाजिक-राजनीतिक हालात काफी बदल गए हैं।

पहचान की राजनीति, समाज में धर्म और जाति की लड़ाई की प्रकृति बदल गई है। इसके अलावा, भाजपा की राजनीति अब ‘कमंडल’ तक सीमित नहीं है, बल्कि उसने ‘मंडल’ को भी जन्म दिया है। इसका अर्थ यह है कि वे पहले से ही सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के प्रमुख अखबार ‘जनमोर्चा’ के संपादक सुमन गुप्ता कहते हैं, ‘2014 तक, ओबीसी, विशेष रूप से उत्तर भारत में खुद को भाजपा से दूर कर रहे थे। उनका एक अलग राजनीतिक एजंडा था। मंडल था और कमंडल भी था। बेरोजगारी और अन्य मुद्दे थे। लेकिन उसके बाद से राजनीति पूरी तरह से बदल गई हैं। ‘मंडल’ के खिलाफ ‘कमंडल’ खड़ा करने की राजनीति बदल गई है। भाजपा अब अति पिछड़ों से जुड़ गई है, जो पहले मंडल का हिस्सा हुआ करता था।’

गुप्ता कहते हैं कि ऐसा बीजेपी की ओर से ग्रामीण इलाकों में गरीबों के लिए लाई गई कल्याण योजनाओं की वजह से हुआ है। ये योजनाएं उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए थीं। इससे ये वर्ग भी बीजेपी के करीब आ गया।

रामदत्त त्रिपाठी भी कहते हैं कि बीजेपी की राजनीति ‘धर्म प्लस कल्याण’ जैसी हो गई है।

लोकनीति सीएसडीएस के संजय कुमार का मानना है कि अगर विपक्षी दल राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे के प्रभाव को कम करने के लिए जाति जनगणना का मुद्दा लाते हैं, तो भी उसके बहुत प्रभावी होने की संभावना नहीं है।

वो कहते हैं, ‘एक तरह से जाति जनगणना के मुद्दे पर मंदिर का मुद्दा हावी हो जाएगा। भले ही विपक्ष जाति जनगणना की बात करता हो, लेकिन अब लोगों के लिए जाति से ज्यादा धर्म महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए जाति खतरे में है का नैरेटिव उतना प्रभावी नहीं है। लेकिन ‘हिंदू खतरे में है’ का नारा अधिक प्रभावी हो गया है। यह जाति की राजनीति से ज्यादा लोगों को लामबंद करेगा। इसलिए जाति जनगणना के लाइन पर लोगों को लामबंद करना मुश्किल लगता है।’

तो क्या ऐसे माहौल में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूर रहना समझदारी है या खतरनाक?

विपक्षी दलों की प्राण-प्रतिष्ठा

समारोह से दूरी

पिछले कुछ दिनों मंदिर के मुद्दे पर हुई राजनीतिक बहस में यह ऐसा सवाल था, जिस पर सबसे अधिक बहस हुई। पहले सवाल यह था कि अयोध्या में इस समारोह का निमंत्रण किसे मिलेगा। लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी नेताओं को न्योता दिया गया। हालांकि, सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे समेत लगभग सभी विपक्षी दलों ने समारोह से दूरी बनाए रखी। उन्होंने कहा कि वे बाद में अयोध्या जाएंगे।

इस निमंत्रण को स्वीकार करना या न करना विपक्ष के लिए आसान नहीं था। समारोह में शामिल होना बीजेपी की राजनीतिक साख को समर्थन देने जैसा माना जाएगा। इसमें भाग न लेने का मतलब कट्टर हिंदू मतदाताओं को नाराज़ करने का जोखिम उठाना हो सकता है।

विपक्ष के नेताओं ने कार्यक्रम के राजनीतीकरण का आरोप लगाते हुए अयोध्या जाने से परहेज किया। उन्होंने यह भी कहा कि वे आधे-अधूरे मंदिर के ढांचे को देखने की बजाय उसके पूरा होने के बाद मंदिर का दर्शन करेंगे।

इसका चुनाव के नतीजे पर कितना असर पड़ेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मतदाता राम मंदिर उद्घाटन समारोह को धार्मिक मानते हैं या राजनीतिक।

एक तरफ जहां राम मंदिर का जश्न चल रहा है, जो राष्ट्रीय राजनीति का मूड बदल सकता है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ निकाल रहे हैं। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि यात्रा का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है।

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण कहते हैं, ‘जिस तरह से कार्यक्रम हो रहा है, उसे देखते हुए क्या भाजपा के खिलाफ वोट करने वाले लोग अपना मन बदल लेंगे? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होगा।’

कांग्रेस को अयोध्या के धार्मिक आयोजन में शामिल न होने के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के रुख़ से राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाने के रवैये को एक समर्थन मिल गया है।

चव्हाण कहते हैं, ‘हिंदू धर्म में पूजनीय शंकराचार्य ने कहा है कि अयोध्या में जो कुछ भी हो रहा है वह ग़लत है। उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया हैं। अब मुझे बताएं-क्या शंकराचार्य भी हिंदू विरोधी हैं? क्या वे मुस्लिम समर्थक हैं? उन्होंने भाजपा की राम मंदिर राजनीति को उजागर किया है।’

क्या महंगाई और बेरोजगारी से

बड़ा मुद्दा है राम मंदिर?

जमीनी हकीकत भी यही है- देश के आम लोगों को जीवन में बुनियादी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

लेकिन मीडिया ने जो नैरेटिव गढ़ा है, उससे क्या आप विश्वास करेंगे कि मंदिर का मुद्दा राजनीति में प्रमुख हो गया है। यह तब है, जब बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है।

‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी दर 8 फीसदी से ज्यादा है। इसे पिछले कुछ दशकों में सबसे ज्यादा बताया जा रहा है।

वहीं दूसरी तरफ महंगाई है। महंगाई ने कई परिवारों के बजट पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। इनमें से अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग के हैं। क्या राम मंदिर के धार्मिक माहौल में आम आदमी के जीवन से जुड़े ये मुद्दे चुनाव पर कोई असर डालेंगे?

पत्रकार गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘यह (धार्मिक) उन्माद इस हद तक पैदा किया जाएगा कि लोग अन्य सभी मुद्दों को ज़रूरी न मानने के पक्ष में होंगे। जब नेता इस तरह के उन्माद में शामिल होंगे तो स्वाभाविक रूप से जो लोग सामाजिक क्रम में उनसे नीचे हैं, वे ये सवाल नहीं पूछेंगे। टकराव की कोई संभावना नहीं है। सच यह है कि उनके पास इसके खिलाफ सवाल उठाने का कोई मौका ही नहीं है।’ वहीं संजय कुमार कहते हैं कि लोग भले ही बेरोजगारी, महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बात कर रहे हों, लेकिन असल वोटिंग में इसका असर शायद नजर न आए। ये हकीकत है।

वो कहते हैं, ‘लोग पिछले दो साल से इन मुद्दों का सामना कर रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों के दौरान हमारे सर्वेक्षणों में यह देखा गया था कि बेरोजगारी, महंगाई बढ़ रही थी, लेकिन हमने देखा कि इन मुद्दों के बाद भी भाजपा फिर से सत्ता में आई।

 उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बेरोजगारी और महंगाई से जुड़े मुद्दे थे, लेकिन लोगों ने फिर भी भाजपा को वोट दिया। लोग इन मुद्दों पर चिंता तो जताते हैं, लेकिन उन पर वोट नहीं करते हैं। वे दूसरे मुद्दों के लिए वोट देते हैं। वह मुद्दा है राष्ट्रवाद और हिंदुओं का एकीकरण।’

कई पर्यवेक्षकों के मुताबिक, बीजेपी राष्ट्रवाद के मुद्दे को मंदिर से जोडऩे में सफल रही है।

आने वाले चुनाव शायद ये तय करें कि राम मंदिर के निर्माण का भारतीय राजनीतिक पर कितना असर पड़ा है। (bbc.com)

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