विचार / लेख

उन्हें जन्नत मिलती है या जहन्नुम?
24-Jun-2024 9:53 PM
उन्हें जन्नत मिलती है या जहन्नुम?

-तजिन्दर सिंह
मुझे याद है मैं एक बार वेल्लोर का गोल्डन टेम्पल घूमने चला गया। वहां 4 तरह की लाइने बनी हुई थीं। 100, 250, 500 और फोकटिया। 

हम सिखों ने कभी पैसे दे दर्शन करना नहीं सीखा इसलिए फोकटिया वाली लाइन में लग गया। लोहे की जाली से बने संकरे गलियारे से धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते रहे। कुछ आगे बढ़े तो 100 रुपये वाले यहां पर हमसे मिल गए। कुछ और आगे बढ़े तो 250 वाले साथ शामिल हो गए। 500 वालों की लाइन अलग थी। अब मूर्ति की परिक्रमा कर लाइन में घूमते हुए हम मूर्ति के सामने पहुंचे। यहां 70-80 फुट दूर ही सबको रोक दिया गया। सब को यही से दर्शन करने थे। केवल 500 वाले मूर्ति के ठीक सामने बैठे थे।

जब सभी पंक्तियों के लोग एक एक कर मिलते चले गए तो मूर्ति के दर्शन करने वाले स्थान पर बहुत भीड़ हो गयी। भीड़ होने के कारण धक्का मुक्की होने लगी। जैसा कि सावन में अक्सर बाबाधाम में दिखती है। लोग उचक उचक कर मूर्ति का दर्शन कर सौभाग्य प्राप्त कर रहे थे। सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लोग इस कदर लालायित थे कि एक दूसरे पर चढ़े जा रहे थे।

मैं और मेरी पत्नी ने ऐसे उचक दर्शन को खारिज किया और बिना दर्शन किये जब वहीं से वापसी के लिए मुड़े तो वहां खड़ा गार्ड थोड़ा हैरान हुआ। गार्ड बोला यहां तक आ गए हैं तो थोड़ा कष्ट कर दर्शन कर ही लीजिए।

मैंने कहा, मैंने देवी के दर्शन नहीं किए तो क्या हुआ देवी ने तो मेरे दर्शन कर ही लिए होंगे। अब मैं ये उनके ऊपर छोड़ता हूँ। अगर एक दूसरे की पीठ पर सवार हो ऐसे उचक दर्शनों को देवी सही समझती हैं तो ठीक है। अन्यथा बिना उचक दर्शन के भी उनकी कृपा दृष्टि मुझे मिल जाएगी। तुम चिंता मत करो।

गार्ड मुंह बाए हैरानी से मुझे वापस जाते देखता रहा।

यही हाल बद्रीनाथ में भी था। दर्शन करने पहुंचे तो पंडितजी बोले, अभी भगवान जी के विश्राम का समय है। हमने भी उनके विश्राम में खलल नहीं डाला और वापस चले आये।

अभी पता लगा कि केदारनाथ में दर्शनों के लिए 2500 की रसीद काटी जा रही है और रसीद वालों को ही एंट्री मिल रही है।

पता नही किसने भक्तों के दिमाग मे घुसा दिया कि पैसे देकर, मारा मारी कर दर्शनों से लाभ होगा। पर्व त्योहारों पर दर्शनों के दौरान भगवान के सामने से किस तरह ये धकियाये जाते हैं। उसका नजारा देख मुझे इन पर तरस आता है। 

भीड़ और कुव्यवस्था के कारण हुए हादसों पर भक्तों और धर्म स्थल के प्रशासकों पर गुस्सा तो आता है लेकिन वो भी क्या करें जब भीड़ हद से ज्यादा हो जाए। ऐसे हादसों के लिए अगर व्यवस्थापक जिम्मेवार हैं तो भक्त भी किसी हद तक जिम्मेवार हैं।

सुनते हैं हज में लोग टूरिस्ट वीजा ले कर भी चले जाते हैं। वहां इनकी पकड़ धकड़ भी होती है। हद है भाई ऊपर वाले के दर्शनों में भी बेईमानी। पुण्य भी कमाना है तो बेईमान बन कर और 52 डिग्री में पुण्य कमाने का इतना भी क्या पागलपन। चार-पांच लाख में जरूरतमंदों की मदद कर यहां भी सवाब लूटा जा सकता है। लेकिन हाजी कहलाने का सुख/गर्व जरूरतमंदों की मदद में आड़े आ जाता है।

पैसे खर्च कर लोग पुण्य कमाने जाते हैं कि वहां बैठे लोगों की झोली भरने। ये सवाल भक्तों को खुद से पूछना चाहिए। एक बार मैं साउथ के किसी मंदिर में दर्शन के लिए गया। धर्मस्थल के बाहर मूत्रालय में पेशाब कर जब बाहर निकल रहा था तो वहां बैठे व्यक्ति ने 10 रुपये मांगे। मैंने कहा कि भाई मूत्र विसर्जन के कहीं भी पैसे नहीं लगते। वो व्यक्ति हिंदी भाषी था, बोला साहब इसे रेलवे स्टेशन का मूत्रालय या पाठक साहब का सुलभ शौचालय मत समझिए। मंदिर प्रशासन का बस चले तो यहां सांस लेने के भी पैसे वसूल लें।

पैसे से पुण्य खरीदने की मानसिकता वालों का दोहन होना तो निश्चित है। जितने ज्यादा ऐसे पागल पहुंचेंगे उतनी वहां के लोगों की कमाई होगी। ऐसे में हादसों की चिंता किसको है। सब तो माल कमाने में लगे हुए हैं। वो सरकारें हों या पुरोहित वर्ग। और अगर कहीं पुण्य के चक्कर मे मर मरा गए सरकार से मुआवजा और जन्नत तो ये ठेकेदार दिला ही देंगे।

खैर धार्मिक स्थलों पर हुए हादसों में मरने वाले भक्तों को जन्नत मिलती है या जहन्नुम। ये तो पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि इन भक्तों ने इन खूबसूरत स्थलों का बेड़ा गर्क जरूर कर देना है। यात्रा को हम जितना सुगम बना रहे हैं। उतनी तेजी से ये खूबसूरत स्थल नष्ट हो रहे हैं।

अभी एक वीडियो देखा कि थार में लोग केदारनाथ पहुंच जा रहे हैं। मेरे लिए इसमें खुश होने की कोई वजह नहीं और न ही मालदारों के लिए उपलब्ध हेलीकॉप्टर सेवा पर मुझे खुशी होती है।

ये सब एक पागलपन है जिसे वर्तमान दौर में और भी बढ़ाया जा रहा है।

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