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वेरियर ऐल्विन और छत्तीसगढ़ के जवाहिर
16-Jun-2024 4:19 PM
वेरियर ऐल्विन और छत्तीसगढ़ के जवाहिर

-डॉ. परिवेश मिश्रा
वेरियर ऐल्विन और सारंगढ़ तथा छत्तीसगढ के साथ उनके रिश्तों के बारे में जानने की जिज्ञासा मुझमें पैदा करने का श्रेय जाता है स्व. अर्जुन सिंह के एक निर्णय को।

1980 में मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद श्री अर्जुन सिंह ने राज्य को बाहरी दुनिया से परिचित कराने के लिए डॉम मॉरेस को आमंत्रित किया कि वे आयें, राजकीय अतिथि के रूप में घूमें, देखें, समझें और राज्य के बारे में एक पुस्तक लिखें। उस समय तक छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था।

प्रसिद्ध पत्रकार फ्रैंक मॉरेस के बेटे डॉम यूं तो अंग्रेजी भाषा के एक नामी भारतीय (गोआ मूल के) उपन्यासकार, कवि और कथाकार थे जिन्हे उनके लेखन के लिए अनेक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे, फिर भी प्रसिद्ध अभिनेत्री और ‘मिस इंडिया’ रहीं लीला नायडू के पति के रूप में  भी उनकी एक पहचान रही है।

जो पुस्तक आयी वह थी ‘आन्सर्ड बाद फ्लूट : रिफलेक्शन्स फ्रॉम मध्यप्रदेश’।

1983 में पुस्तक को पढ़ते हुए जब मेरी नजर इसमें सारंगढ़ के उल्लेख पर गई तो उत्सुकता स्वभाविक थी। सारंगढ़ का उल्लेख वेरियर ऐल्विन के सन्दर्भ में आया था। दरअसल डॉम ने लिखा था कि ऐल्विन ने अपने पुत्र का नामकरण सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह के नाम पर जवाहर किया था। (यही बात बाद में ऐन्थ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की पुस्तक में प्रकाशित अपने संस्मरण में ऐल्विन की दूसरी पत्नी ने भी लिखी)। यह सब पढक़र ऐल्विन के बारे में अधिक जानने की मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी।

वेरियर ऐल्विन पच्चीस साल की उम्र में सन 1927 में एक क्रिश्चियन मिशनरी के रूप में भारत आये थे। लेकिन चर्च से नाता तोड़ कर आगे के जीवन की दिशा तय करने का जिम्मा उन्होंने गांधी जी को सौंप दिया और अपना सारा जीवन आदिवासियों के बीच खपा देने का विकल्प चुना।

सारंगढ़ में मैंने सबसे पहले राजा जवाहिर सिंह के पुत्र राजा नरेशचन्द्र सिंह जी से ऐल्विन के बारे में पूछा।

आज़ादी की लड़ाई के दौर में भारत के आदिवासियों की ओर आमतौर पर देश का ध्यान नहीं गया था। पश्चिम में गुजरात के भीलों के बीच ठक्कर बापा (अमृतलाल वि_लदास ठक्कर) काम अपवाद और सीमित था। वे गांधी जी के साथ हरिजन सेवक संघ का काम भी देखते थे। ऐल्विन न केवल देश के मध्य में रहने वाले मूल निवासियों के बीच पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे बल्कि उन्होने भारतीय आदिवासियों की जीवन-शैली, उनके रीति-रिवाज, उनकी भाषा-बोली, गीत-संगीत आदि को जितना समझा, आत्मसात और रिकॉर्ड किया उतना तब तक कोई नहीं कर सका था। अकादमिक दुनिया में यह सब करना ‘ऐन्थ्रोपोलॉजी’ (मानव विज्ञान) का विषय माना जाता है। और भारत में वेरियर एल्विन को ऐन्थ्रोपोलॉजी के पितामह का दर्जा दिया गया है।

यह सब करने के लिए लंबे समय तक आदिवासियों के बीच रहकर, उनका विश्वास जीतकर शोध कार्य करना पहली आवश्यकता थी। और मैं इन सब में सारंगढ़ और छत्तीसगढ़ की भूमिका समझना चाहता था। नरेशचन्द्र सिंह जी के संस्मरण सुनना चाहता था। एक जिज्ञासु व्यक्ति की लम्बी ‘विश-लिस्ट’ लेकर मैं राजा साहब के पास पहुंचा था। लेकिन अल्पभाषी और अध्यनशील राजा साहब ने गिरिविलास पैलेस की विजिटर बुक्स और किताबों की अलमारियों की ओर इशारा कर दिया। इनमें कुछ शेल्फ़ वेरियर एल्विन की पुस्तकों से भरे थे जिनमें से कुछ उनके हस्ताक्षरों के साथ थीं।
विजिटर्स बुक में वेरियर एल्विन की अनेक प्रविष्टियों के साथ की गयी टिप्पणियों में से एक  एल्विन ने हिन्दी (देवनागरी) में लिख कर नीचे स्वयं इसका भावार्थ अंग्रेजी में लिखा है।

‘संवरा के पांगे, राऊत के बांधे, राजा के फांदे’
संवरा के जादू में कैद (संवरा इस क्षेत्र का एक आदिवासी समुदाय है जिसे झाड़-फूंक, जादू-टोना जैसी ‘विद्याओं’ में पारंगत माना जाता है) ; राऊत (जिसे मवेशियों को कस कर बांधने की कला में महारत थी) की रस्सी से बंधा बैल, और सारंगढ़ राजा के प्रेम जाल/मोह पाश में फंसा मित्र, ‘इनके लिए बच कर निकलना नामुमकिन है’।

वेरियर एल्विन कौन थे, सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह से उनकी मित्रता कैसे हुई, गिरिविलास पैलेस कैसे एल्विन का दूसरा घर बना, महात्मा गांधी, नेहरू और पटेल से उनके क्या संबंध थे, आजादी के बाद की भारत सरकार में आदिवासियों के हित संरक्षण की वकालत करने और समझ विकसित करने में उनकी क्या भूमिका थी, इस तरह के तमाम प्रश्नों के उत्तर मिलते चले गये।

राजा साहब के अनुसार एल्विन से उनके पिता की मित्रता की वजह महात्मा गांधी थे। सौराष्ट्र के नगर राजकोट में सबसे प्रतिष्ठित वकीलों में से एक थे सीताराम पण्डित। गांधी जी ने ब्रिटेन से बैरिस्टरी पास कर हिन्दुस्तान लौटने के बाद वकालत की प्रैक्टिस करने का प्रयास किया तो शुरुआती दिनों में उन्होने इन्हीं सीताराम पण्डित के ऑफिस से शुरुआत की थी। सीताराम पण्डित के पुत्र थे रणजीत जो कुछ वर्षों के बाद स्वयं भी ब्रिटेन से बैरिस्टर बन कर लौटे। रणजीत पण्डित सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह के अभिन्न मित्र थे। जब रणजीत पण्डित का विवाह इलाहाबाद के आनन्द भवन में मोतीलाल नेहरू की बेटी विजयलक्ष्मी के साथ सम्पन्न हुआ तो बारातियों में राजा जवाहिर सिंह शामिल थे। दूसरी तरफ गांधी जी से रणजीत पण्डित के घरेलू संबंध थे। रणजीत पण्डित के माध्यम से राजा जवाहिर सिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये थे। गांधी जी ने वेरियर एल्विन को जब मध्य-भारत के वनों में जाकर आदिवासियों के बीच बसने और उनके लिए काम करने की सलाह दी तब उन्होने एल्विन को राजा जवाहिर सिंह का संदर्भ देकर उनसे मिलने की सलाह दी थी।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा (‘सावेजिंग द सिविलाईज़्ड’ जिससे मैंने अनेक संदर्भ लिए हैं) के अनुसार वेरियर एल्विन विदेशी मूल के सम्भवत: पहले व्यक्ति थे जिन्हे आजादी के बाद भारत की नागरिकता प्रदान की गयी। राष्ट्रपति के हाथों उन्हे पद्मभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ।

गांधी जी समेत कांग्रेस के नेताओं की सलाह पर एल्विन ने अपने मित्र शाम राव हिवाले को साथ लिया और दो सौ रुपये के साथ जनवरी 1932 में बैतूल से बैलगाड़ी पर निकल पड़े थे। उनका पड़ाव बना मैकल पर्वत पर अमरकंटक के पास करंजिया नाम का एक छोटा सा गोंड गांव। यहां दोनों ने झोपड़ी बनायी और रहना शुरू किया। कुछ समय के बाद पास के गांव में रहने वाली कोसी (कोसल्या) नामक गोंड महिला से एल्विन ने विवाह किया।

इन्ही कोसी और एल्विन के पुत्र थे जवाहर जिनसे पुस्तक के लिए शोध के दौरान मंडला में डॉम मॉरेस की भेंट हुई थी। दरअसल जब जवाहर की उम्र स्कूल जाने की हुई तो एल्विन ने उन्हे मुम्बई मे फ्रैंक मॉरेस की सुपुर्दगी में ही छोड़ा था। जवाहर और डॉम एक ही स्कूल में पढ़े थे।

छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच विश्वसनीयता पैदा करने के लिए राजा जवाहिर सिंह के कंधे ऐल्विन के माध्यम बने। दोनों ने मिलकर जो शोध किये और जहां किये उन्हें ‘री-विजिट’ करना भी आज के शोधकर्ताओं के लिए एक विषय बनने की संभावना रखता है।

1946 में राजा जवाहिर सिंह जी का देहांत हुआ और उसके बाद एल्विन सारंगढ़ नहीं आये।

आज़ाद भारत में जवाहरलाल नेहरू ने उन्हे आदिवासी मामलों के लिए भारत सरकार का सलाहकार नियुक्त किया। इतिहास का एक अपेक्षाकृत अल्पचर्चित पहलू यह है कि जब तक भारत में अंग्रेज़ रहे, भारत के उत्तर पूर्व के इलाके में प्रभावी प्रशासनिक  व्यवस्था खड़ी करने में अंग्रेज़ों की रुचि नहीं थी। तेल के कुएं, चाय बागान, और शिलॉंग के मौसम के कारण असम का कुछ हिस्सा अपवाद था। बाकी बचे इलाके जो आज मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि नामों से जाने जाते हैं, वहां प्रशासन की उपस्थिति शून्य थी। जब देश आजाद हुआ यह इलाका स्थानीय राजाओं या आदिवासी कबीलों के हाथों में था।

इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) के अधिकारियों के पास न तो उत्तर पूर्वी इलाकों में काम करने का अनुभव था न प्रशिक्षण। नेहरू ने अंग्रेजों की नीति को पलटते हुए भारतीय प्रशासनिक उपस्थिति को चीन की सीमा तक पहुँचाने का निर्णय लिया। वेरियर ऐल्विन की सलाह पर पण्डित नेहरू ने विदेश मंत्रालय के नेतृत्व में एक नयी सेवा का गठन किया - इंडियन फ्रन्टियर ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आई.एफ.ए. एस.)। सिविल सर्विस, विदेश सेवा, पुलिस, फौज, विश्वविद्यालय, सभी स्रोतों से आवेदन मँगवाये गये। हज़ारों आवेदनों में से पच्चीस योग्य व्यक्तियों का चयन कर शिलॉंग भेजा गया जहां वेरियर ऐल्विन का जि़म्मा था आदिवासियों के बीच काम करने के लिए इन्हें प्रशिक्षण देना। इस तरह 1953 में आई.एफ.ए. एस. का गठन हुआ। नेहरू और ऐल्विन की मृत्यु के बाद आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासियों की विशेष चिंता करने के लिए इन दोनों की आलोचना बहुत बढ़ गई थी।

अरुणाचल प्रदेश (पूर्व में नेफा) में रहने वालों का भारत से परिचय कराने और उनमें भारतीयता के लिए गर्व का जज़्बा जगाने का काम ऐल्विन ने किया। नेहरू के पंचशील के सिद्धांतों का स्रोत नेफा पर लिखी ऐल्विन की पुस्तक ही थी।

1968 में इंडियन फ्रंटियर ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस को भंग कर इसका विलय आई.ए.एस. के साथ कर दिया गया।

ऐल्विन के जीवन के अंतिम वर्ष शिलॉंग में बीते।

1964 में हृदयाघात ने उनका जीवन समाप्त कर दिया। अनेक लोगों का मानना रहा है कि कुछ ही महीनों के अंतराल में दोनों घनिष्ठ मित्रों नेहरू और ऐल्विन  की हुई मौतों के पीछे नेफ़ा पर हुए चीनी हमले से पहुँचे आघात की भी भूमिका थी।
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़

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