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वो क्या मुद्दे थे जिनकी वजह से ओडिशा में नवीन पटनायक को गंवानी पड़ी कुर्सी?
08-Jun-2024 7:29 PM
वो क्या मुद्दे थे जिनकी वजह से ओडिशा में नवीन पटनायक को गंवानी पड़ी कुर्सी?

-संदीप साहू

ओडिशा में चुनाव के नतीजे ने पूरे देश को अचंभे में डाल दिया है. लगातार पांच चुनाव जीतने वाली बीजू जनता दल (बीजेडी) चुनाव हार जाएगी और राज्य में बीजेपी की सरकार बनेगी, इसका अंदाज़ा न प्रेक्षकों को था और न ही चुनावी सर्वे करने वाले संस्थाओं को.

हालांकि राज्य में एक साथ हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बीजेपी 2019 के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन करेगी यह साफ़ नजर आ रहा था.

ओडिशा की राजनीति पर नज़र रखने और इसे समझने वाले सभी का यह मानना था कि लोकसभा चुनाव में पार्टी बेहतरीन प्रदर्शन करेगी. लेकिन विधानसभा चुनाव में भी बीजेडी हार जाएगी यह किसी ने नहीं सोचा था.

सभी का अंदाज़ा यही था कि पिछली बार की तरह इस बार भी राज्य में "स्प्लिट वोटिंग" होगी, जिसके तहत लोकसभा चुनाव में बीजेपी अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी और विधानसभा चुनाव में बीजेडी की जीत होगी, भले ही पिछली बार के मुक़ाबले पार्टी का वोट शेयर और सीटों की संख्या में गिरावट आए.

सब यही मानकर चल रहे थे कि नवीन पटनायक लगातार छठी बार सरकार बनाएंगे और अगले ढाई महीनों में सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग का रिकॉर्ड तोड़कर देश में सबसे अधिक समय तक सत्ता में बने रहने वाले मुख्यमंत्री बन जाएंगे.

लेकिन मंगलवार को जब चुनाव के परिणाम आए, तो सब दंग रह गए. बीजेपी ने न केवल राज्य की 21 में से 20 लोकसभा सीटें जीतीं, बल्कि विधानसभा चुनाव में भी बीजेडी को पछाड़ कर राज्य के 147 में से 78 सीट ले गई, जो सरकार बनाने के लिए आवश्यक 74 सीटों से चार सीट अधिक थी.

बीजेडी को केवल 51 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को 14, निर्दलीय को तीन और सीपीएम को एक.

पिछली बार लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीतने वाली बीजेडी का इस बार पूरी तरह से पत्ता साफ़ हो गया जबकि पिछली बार की तरह इस बार भी कांग्रेस के सप्तगिरी उलाका कोरापुट लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीत गए.

न केवल नवीन की पार्टी चुनाव बुरी तरह से हारी, बल्कि खुद नवीन को भी अपने 27 साल के लंबे और अविश्वसनीय रूप से सफल राजनीतिक करियर में पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा.

पिछली बार की तरह इस बार भी वे दो सीटों से चुनाव लड़ रहे थे. अपने पारंपरिक चुनाव क्षेत्र हिंजलि से जहां वे केवल 4,636 वोटों से जीत गए, वही कांटाबांजी सीट पर उन्हें बीजेपी के लक्ष्मण बाग ने 16,344 वोटों से हरा दिया.

पांडियन के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा

आख़िर क्या वजह है कि लगातार पांच बार भारी बहुमत से जीतने वाले राज्य के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, जो कभी कोई चुनाव नहीं हारे, इस बार मात खा गए? प्रेक्षकों की मानें तो उनकी हार का सबसे बड़ा कारण था आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में प्रवेश करने वाले उनके पूर्व निजी सचिव वीके पांडियन को पार्टी की कमान पूरी तरह थमा देना.

पांडियन जो पिछले अक्टूबर तक उनके निजी सचिव थे, वो नौकरी से इस्तीफ़ा देकर बीजेडी में शामिल हो गए थे. चुनाव के दौरान उन्होंने न केवल प्रत्याशियों का चयन किया, बल्कि पार्टी की ओर से प्रचार का पूरा ज़िम्मा अपने हाथों में लिया.

पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में 40 नाम थे. लेकिन लगभग 40 दिनों के प्रचार में केवल पांडियन और कभी कभार नवीन के अलावा पार्टी के किसी और नेता को कहीं मंच पर या रोड शो के दौरान देखा नहीं गया.

केवल चुनाव के दौरान ही नहीं, पिछले कई महीनों से न बीजेडी का कोई नेता, मंत्री या विधायक न कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी मुख्यमंत्री और बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक से मिल पाया या उनके सामने अपनी बात रख पाया.

पार्टी और सरकार के सारे फ़ैसले पांडियन ही लिया करते रहे. यहां तक कि मुख्यमंत्री के पास पहुंचने वाली फ़ाइलों पर भी उनके डिजिटल हस्ताक्षर का इस्तेमाल किया गया जबकि खुद नवीन लोगों की नज़र से ओझल हो गए.

पिछले दो तीन सालों से न वे "लोक सेवा भवन" (राज्य सचिवालय) जाते थे न विधानसभा. यही कारण है नवीन के स्वास्थ्य तथा सरकार और पार्टी में उनकी घटती और पांडियन की बढ़ती भूमिका को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा और पार्टी को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा.

सरकार और सत्तारूढ़ दल में पांडियन के बढ़ते हुए प्रभाव के खिलाफ लोगों में रोष को संज्ञान में लेते हुए बीजेपी ने बहुत ही चतुराई से "ओड़िया अस्मिता" को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया.

प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के सभी नेताओं ने बार बार इस बात को दोहराया कि ओडिशा के साढ़े चार करोड़ लोगों को अपना "परिवार" बताने वाले नवीन ने अपने राज्य और पार्टी के सभी नेताओं को नज़रअंदाज़ कर तमिलनाडु में जन्मे एक आदमी को सत्ता संभालने का ज़िम्मा सौंप दिया.

और यह बात लोगों में काम कर गई क्योंकि वे देख रहे थे की पार्टी और सरकार दोनों में पांडियन का ही बोलबाला था और पार्टी के मंत्री, विधायक तथा अन्य सभी सरकारी अफसर पूरी तरह से नाकाम कर दिए गए थे.

लोगों में पांडियन की भूमिका को लेकर ग़ुस्से को आखिरकार समझकर नवीन ने चौथे चरण के मतदान से ठीक पहले एएनआई को दिए गए एक इंटरव्यू में स्पष्ट किया की पांडियन उनके "उत्तराधिकारी" नहीं हैं.

उन्होंने अपने स्वास्थ्य के बारे में सफाई दी और कहा कि वे पूरी तरह से स्वस्थ हैं लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी.

'ओड़िया अस्मिता'

बीजेपी ने एक सोची, समझी रणनीति के तहत इस बार "ओड़िया अस्मिता" को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया.

हर बीजेपी नेता द्वारा हर चुनावी रैली में राज्य के शासन में "तमिल बाबू" के बोलबाला पर निशाना साधा जाना इसी रणनीति का हिस्सा था. लेकिन ओड़िया अस्मिता के मुद्दे पर बीजेपी का वार केवल पांडियन पर आक्रमण तक ही सीमित नहीं रहा. 24 साल और पांच चुनाव के बाद पहली बार मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का ओड़िया बोल न पाना भी एक चुनावी मुद्दा बन गया.

यही नहीं, कंधमाल में एक चुनावी रैली के दौरान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवीन के दुखती रग पर हाथ रखते हुए उन्हें बिना किसी कागज़ के सहारे राज्य के 30 ज़िलों के नाम और उनके सदर गिनाने की चुनौती दे डाली.

कुछ ही देर बाद बलांगीर में एक और रैली में उन्होंने नवीन को कांटाबांजी चुनाव क्षेत्र, जहां से वो चुनाव लड़ रहे थे, के 10 गांवों के नाम गिनाने की चुनौती दी.

अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले बारीपदा में एक आम सभा को संबोधित करते हुए तो मोदी ने राजनैतिक शिष्टाचार के सारी हदें पार कर दीं. नवीन के गिरते स्वास्थ्य का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि राज्य में बीजेपी की सरकार बनने पर एक जांच कमिटी बनाई जाएगी जो इस बात की तहकीकात करेगी कि इसके पीछे कोई साज़िश तो नहीं है. यह साफ था कि मोदी का आशय तमिलनाडु में जयललिता और शशिकला प्रकरण से था.

चुनाव से पहले नवीन को अपने "मित्र" बताने वाले और हमेशा उनकी प्रशंसा करने वाले मोदी के इस निर्मम प्रहार ने सभी को आश्चर्य कर दिया क्योंकि दोनों नेताओं में बहुत ही मधुर संपर्क रहे हैं.

पिछले पांच साल में नवीन और उनकी पार्टी ने मोदी सरकार को हर मुद्दे पर बिना शर्त समर्थन दिया है. मार्च के महीने में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन की बात भी चल रही थी जो अंत में सफल नहीं हुई.

चुनाव के दौरान एएनआई को दिए गए एक इंटरव्यू में नवीन के ऊपर इस करारे आक्रमण के बारे में पूछे जाने पर मोदी ने कहा कि ओडिशा के स्वार्थ की खातिर वे नवीन के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों की "बलि" चढ़ाने के लिए तैयार हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी के इस व्यक्तिगत आक्षेप ने लोगों को नवीन के स्वास्थ्य, ओडिशा के प्रति उनकी निष्ठा और राज्य के बारे में उनके ज्ञान के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया.

रत्न भंडार की चाबी

बीजेपी की "ओड़िया अस्मिता" रणनीति की एक और महत्वपूर्ण कड़ी थी महाप्रभु जगन्नाथ के मंदिर के रत्न भंडार की चाबी जो छह साल पहले खो गई थी.

मोदी और बीजेपी के सभी नेताओं ने हर चुनावी सभा में यह मुद्दा उठाकर नवीन सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर घेरा. मोदी ने तो एक सभा में यहां तक कह दिया कि "कहीं ये चाबी तमिलनाडु तो नहीं चली गई ?" जबकि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा की उनकी पार्टी की सरकार बनी तो रत्न भंडार की चाबियां "पाताल" से भी ढूंढ कर निकालेगी.

रत्न भंडार के मुद्दे पर बीजेपी नेताओं द्वारा उठाए गए सवालों का बीजेडी के पास कोई उत्तर नहीं था. पिछले छह सालों में सरकार ने न केवल चाबी ढूंढने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि इस पर बनाई गई जांच कमीशन के रिपोर्ट को भी सार्वजनिक नहीं किया.

हाई कोर्ट में इस मुद्दे पर दायर की गई याचिका को सरकार लंबित करती आई है. ग़ौरतलब है कि मंदिर क़ानून के तहत हर तीन साल में एक बार रत्न भंडार के जवाहरात की गिनती होना लाज़िमी है. लेकिन 1978 के बाद रत्न भंडार कभी खोला नहीं गया. इससे लोगों में यह धारणा बनी है कि रत्न भंडार के हीरे, जवाहरात में से शायद कुछ गायब कर दिए गए हैं, जिसे सरकार छुपाने की कोशिश कर रही है.

सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी

पांडियन के अलावा बीजेजी की हार का एक और प्रमुख कारण यह भी था कि लगातार 24 साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी के खिलाफ कुछ "एंटी इनकंबेंसी" भी थी जिसका पूरा फायदा मुख्य विरोधी दल के रूप में बीजेपी को मिला.

लगातार पांच बार और भारी बहुमत के साथ सत्ता में रहने के बाद भी नवीन सरकार कई इलाकों में पीने का पानी, सड़कें और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहय्या नहीं कर पाई, स्कूलों में शिक्षक और सरकारी अस्पतालों में डाक्टर तैनात नहीं कर पाई, इसको लेकर लोगों में फैला असंतोष आखिरकार बीजेडी के लिए घातक साबित हुआ.

कई स्तर पर फैले व्यापक भ्रष्टाचार भी लोगों के रोष का एक बड़ा कारण बना. वैसे नवीन पटनायक सरकार ने हर वर्ग और आयु के लोगों के लिए कोई न कोई मुफ्त योजना बना रखी थी, जो बीजेडी को लगातार पांच बार चुनावी जीत दिलाती दिख रही थी. लेकिन इनमें से किसी एक भी योजना का लाभ कथित तौर पर स्थानीय बीजेडी कार्यकर्ता और सरकारी अफसरों को घुस दिए बिना लोगों को नहीं मिला, जिसका चुनाव पर असर पड़ा.

महिलाओं का घटता समर्थन

महिलाओं को नवीन का सबसे बड़ा वोट बैंक माना जाता है. खासकर उनकी सरकार द्वारा 2001 में शुरू की गई "मिशन शक्ति" कार्यक्रम के अंतर्गत संगठित लगभग 70 लाख महिलाओं का भरपूर समर्थन को उनकी लगातार जीत का एक बड़ा कारण माना जाता है.

लेकिन इस बार चुनाव के परिणाम से यह स्पष्ट है कि इन महिलाओं का समर्थन भी उन्हें पूरी तरह से नहीं मिला.

बीजेपी का फ़ोकस

इस बार बीजेपी ने ओडिशा पर जितना ज़ोर लगाया वह पहले कभी नहीं देखा गया.

खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार बार राज्य का दौरा किया और इस दौरान 10 रैलियां और दो रोड शो किए जबकि अमित शाह, जेपी नड्डा समेत पार्टी के सभी चोटी के नेता बार बार ओडिशा आए और जमकर प्रचार किया.

उत्तर प्रदेश, असम और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने भी राज्य के कई दौरे किए जबकि भूपेंद्र यादव और कुछ अन्य नेता पूरे प्रचार के दौरान यहां बने रहे और प्रचार अभियान का संचालन किया.

केंद्र मंत्री भूपेंद्र यादव तो पूरे चुनाव के दौरान यहीं बने रहे और प्रचार अभियान का संचालन किया.

बीजेपी के बढ़ते क़दम

लेकिन बीजेपी को ओडिशा में यह अपार सफलता केवल पिछले डेढ़ महीने के प्रचार की वजह से नहीं मिली. सन 2009 में बीजेडी के साथ गठबंधन टूटने के बाद पार्टी राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने की लगातार कोशिश करती रही है.

2009 के चुनाव के ठीक पहले नवीन ने जब अप्रत्याशित रूप से अपनी ओर से गठबंधन तोड़ दिया, तो बीजेपी सकते में आ गई. 2004 चुनाव में 7 लोकसभा सीटें और 32 विधानसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी 2009 में एक भी लोकसभा सीट जीत नहीं पाई जबकि विधानसभा में उसके विधायकों की संख्या केवल छह रह गई.

पार्टी का वोट शेयर लोकसभा चुनाव में क़रीब 13 % और विधानसभा चुनाव में लगभग 15% था.

2014 के चुनाव में बीजेपी को एक लोकसभा सीट और 10 विधानसभा सीटें मिलीं. पार्टी का वोट शेयर 22 फ़ीसदी और 18 फ़ीसदी रहा.

2019 में बीजेपी को 8 लोकसभा सीटें और 23 विधानसभा सीटें मिलीं. लेकिन गौर करने वाली बात यह थी कि पिछले (2014) चुनाव के मुकाबले इस बार पार्टी के वोट शेयर में भारी इजाफा हुआ.

लोकसभा में यह शेयर 38.4% पर जा पहुंचा था जो बीजेडी के 42.6% से कुछ ही कम था. हालांकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी को क़रीब 32.49% वोट मिले जो बीजेडी के 44.71% से काफी नीचे थी.

लेकिन इस बार पार्टी ने एक लंबी छलांग लगाते हुए लोकसभा चुनाव में अपने वोट शेयर को 45.34% तक पहुंचाया जबकि बीजेडी का शेयर सिमट कर केवल 37.53% रह गई. हालांकि विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों के बीच कांटे की टक्कर था, लेकिन सीटें बीजेपी को अधिक मिलीं. इस बार बीजेपी का वोट शेयर 40.07% रहा जबकि बीजेडी का 40.22%.

बीजेपी की पहली सरकार

अब जबकि राज्य में बीजेपी की पहली सरकार बनना तय है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इसे लेकर चर्चाएं जोरों पर हैं. हालांकि कुछ महीने पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के चयन में बीजेपी आलाकमान ने सभी को चकित कर दिया था. लेकिन इसके बावजूद ओडिशा में नए मुख्यमंत्री को लेकर अटकलबाज़ी थम नहीं रही.

सबसे अधिक चर्चा में हैं मोदी के चहेते और देश के महालेखाकार (सीएजी) गिरीश मुर्मू, जो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरह मयूरभंज ज़िले से आते हैं.

इनके अलावा केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, सांसद वैजयंत पांडा और राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व सांसद सुरेश पुजारी के नाम भी चर्चा में हैं. पुजारी इस बार ब्रजराजनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आए हैं.

अगर पार्टी चुने गए विधायकों में से किसी को मुख्यमंत्री बनाती है तो पुजारी ही सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह घोषणा कर दी थी कि जून 10 को राज्य में बीजेपी सरकार का शपथ ग्रहण उत्सव होगा. (bbc.com/hindi)

 

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