विचार / लेख

हमारी वैचारिक लड़ाइयां बेहद खोखली
28-Jun-2024 9:34 PM
हमारी वैचारिक लड़ाइयां बेहद खोखली

-दिनेश श्रीनेत
वैचारिक लड़ाइयों में हम एक अहम बात भूल जाते हैं, पर्सपेक्टिव। यदि हम खुद को विचारवान मानते हैं तो इसका क्या अर्थ है? पंचतंत्र की कहानी में एक ब्राह्मण को दक्षिणा में कुछ ज्यादा अनाज मिल जाता है तो वह लेटे-लेटे कल्पना में उस अनाज से मुर्गियां, फिर बकरियां और उसके बाद गाएं खरीदता है। अपने लिए महल खड़ा कर लेता है, विवाह कर लेता है, बच्चे पैदा हो जाते हैं और फिर उसी स्वप्न में वह क्रोध में वह किसी को लात मारता है, हवा में उसका पैर चलता है और सारा अनाज जमीन पर गिर जाता है।

क्या उस ब्राह्मण को विचारवान कहेंगे? सोच तो उसने बहुत कुछ लिया। बौद्धिक जगत की लड़ाइयां भी कुछ ऐसी ही है। ऊपर से वैचारिक-बौद्धिक दिखने वाली मगर विचारविहीन। लोग काल्पनिक थ्योरी गढ़ते हुए हवा में हाथ और पांच चला रहे हैं और अनाज को मिट्टी में मिला रहे हैं।

फिर विचारवान होना क्या है? सबसे पहली जरूरत है दूरी तय करना। दूर से सब कुछ साफ-साफ दिखता है। व्यामोह में ग्रस्त और अहंकार में डूबे लोग नजऱ आते हैं। अब यह कहा जा सकता है कि निष्पक्ष होना क्या होता है? यह तो चालाकी है। किसी न किसी के पक्ष में तुमको खड़ा होना ही पड़ेगा। बीच का रास्ता नहीं होता। निष्पक्षता पाखंड है।
चींटियां मिलकर जब खांड का छोटा टुकड़ा उठाती हैं तो सब की सब उसे अपनी तरफ खींच रही होती हैं। नतीजा यह होता है कि अच्छे खासे संघर्ष के बावजूद वह खांड का टुकड़ा वहीं का वहीं रह जाता है। यह बात दूर से देखने पर ही समझ में आती है। चींटियां इसे नहीं समझ सकतीं (कोई यह न कहे, 'देखो जरा, हमें चींटी कह रहे हैं...'), उनके पास तो अपना पक्ष है कि देखो हम तो पूरी जान लगा कर इसे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि किसी तरह आप चींटी के साइज का होकर उनके पास जाकर खड़े होंगे तो उनके श्रम, संघर्ष की सराहना किए बिना नहीं रह सकेंगे। अगर कोई यूट्यूब माइक लेकर चींटियों के पास जाएगा तो हर चींटी यही कहेगी कि मैं पूरी ईमानदारी से अपना काम कर रही हूँ।

कुल मिलाकर कहना यही है कि चाहे आप गिरकर बेहोश हो जाएं। आपकी मेहनत और ईमानदारी की कद्र तो होगी मगर खांड का टुकड़ा कहीं नहीं जाएगा। असल वैचारिकता हमें यथार्थ के निकट ले जाती है। वह निष्कर्ष तक ले जाती है। वैचारिकता अपने समय की जटिलताओं को समझने का नाम है। जिस मार्क्सवादी चिंतन पद्धति ने सबसे पहले चीजों को द्वंद्वात्मकता में समझने की कुंजी दी, उसी के समर्थक सपाट तरीके से फतवे देने और गाली-गलौज में उतर आते हैं।

सही पर्सपेक्टिव के लिए आपको अपने पूर्वाग्रह से बाहर आना होगा। जटिलताओं पर बात करनी होगी। चीजों को उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में देखना होगा। हममें से कितने बौद्धिक कहे जाने वाले लोग यह समझ पाते हैं कि किस तरह बदलती हुई अर्थव्यवस्था उनके जीवन और सोच के तरीके बदल रही है। और उनकी आर्थिकी भी किसी स्वत:स्फूर्त तरीके से नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर वैश्विक राजनीति और टेक्नोलॉजी से संचालित हो रही है।

हिंदी के कितने बुद्धिजीवी भारत के वर्कफोर्स पर आसन्न आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरे को पहचान रहे हैं? उस पर लिख रहे हैं? यथार्थ से मुंह छिपाने की हमारी पुरानी आदत रही है। जब कंप्यूटर आए तो सबसे पहले मीडिया में जमे तथाकथित-बौद्धिक पत्रकारों ने उसका विरोध किया। यह वही लिखने-पढऩे वाला वर्ग बीते दस सालों के राजनीतिक परिदृश्य में एक बेहद ताकतवर झूठ और तुष्टिकरण पर आधारित नैरेटिव को काउंटर करने के लिए कोई लोकप्रिय नैरेटिव नहीं तैयार कर पाया, इनकी आधी जि़ंदगी प्रतिक्रियाएं देते बीत गई।

देश की साधारण समझी जाने वाली जनता ने समझदारी दिखाई और लोकतांत्रिक संतुलन बनाने में मदद की। मगर इसमें बुद्धिजीवियों और लेखकों का कोई योगदान नहीं है। उनको मु_ी भर सुनने वाले पहले भी थे और आज भी उतने ही है। यह चुनौती आज की नहीं है। उपनिवेशकाल से रही है। गांधी इसे बखूबी जानते थे। इसलिए उन्होंने छोटी-छोटी प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ी।

हम हिंदी पट्टी के लोग कब लोकतांत्रिक होने की लड़ाई में असहिष्णु हो जाते हैं, कब दयालु होने की वकालत करते-करते हिंसक हो जाते हैं, भाईचारे की बात करते-करते जातिवादी और सांप्रदायिक हो जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता।

हम लाठियों से पीट-पीटकर लोगों को अहिंसा का महत्व समझाना चाहते हैं। हमारी वैचारिक लड़ाइयां बेहद खोखली हैं। निजी हमलों, निजी लाभ और निजी स्वार्थों पर आधारित हैं। इन्हीं खोखली काल्पनिक लड़ाइयों के चलते दान में मिले अनाज को भी बिखेर देते हैं।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news