विचार / लेख

आपात काल का स्मरण
26-Jun-2024 2:12 PM
आपात काल का स्मरण

डॉ. आर.के. पालीवाल

25 जून 1975 को लागू किए गए देश के इकलौते आपातकाल को लगे पचासवा साल शुरू हुआ है। देश की बड़ी आबादी को, जिसकी उम्र पचपन साल से कम है, आपातकाल के गर्मी में सर्दी सी सिहरन पैदा करने वाले लोकतन्त्र के काले अध्याय की प्रत्यक्ष जानकारी नहीं है। हमारी पीढी ने आपातकाल को अपनी युवावस्था में साक्षात देखा और कुछेक ने आपातकाल की यातना को काफी करीब से महसूस भी किया था। अच्छा यह रहा कि गांधी के शिष्य रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए अभूतपूर्व अहिंसक जन आंदोलन के कारण आपातकाल बहुत दिन नहीं टिक पाया था। यह भी एक सुखद स्थिती है कि पिछले पचास साल में फिर किसी भी दल की केंद्र सरकार की यह हिम्मत नहीं हुई कि आपतकाल के उस काले दौर को दोबारा पुनर्जीवित कर सके। आपातकाल का स्मरण करते हुए हमे इसकी तह में भी जाना चाहिए कि आपात काल के दौर में प्रताडि़त हुए काफी लोग आज उसी कांग्रेस के साथ इंडिया गठबन्धन में क्यों शामिल हैं जिसने आपातकाल लगाया था ? और आपात काल के प्रताडि़त लोगों की जनता पार्टी की बहुमत की सरकार को जनता ने तीन साल में ही अलविदा कहकर दोबारा इंदिरा गांधी को देश की कमान क्यों सौंप दी थी ! राजनीति एकतरफा और सपाट नहीं होती इसलिए उसका अध्ययन भी सतही तौर पर नहीं हो सकता।

    जिस तरह से आपात काल घोषित करने की सजा इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार के रूप में मिली थी कुछ कुछ उसी तरह से थोड़ी कम सजा इस साल लोकसभा चुनाव में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को भी मिली है जिनकी सीटों की संख्या बहुमत के आंकड़े से काफी कम हो गई है। यह अकारण नहीं है कि 2019 में मिले प्रचंड बहुमत के बाद नरेंद्र मोदी सरकार पर भी देश को अघोषित आपातकाल सरीखी स्थिति में लाने के आरोप लगने लगे थे।जिस तरह से पुलिस प्रशासन और केंद्रीय जांच एजेंसियों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग आपात काल में हुआ था कुछ कुछ वैसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी के पिछले कार्यकाल में किसान आंदोलन के प्रति संवेदनहीनता, महिला पहलवानों के मामले में हीलाहवाली और मणिपुर की हिंसा पर जबरदस्त चुप्पी एवम विरोधी दलों के नेताओं के खिलाफ एकतरफा जांच एजेंसियों की दंडात्मक कार्रवाई के रूप में दिखाई देने लगी थी। इसीलिए प्रबुद्ध नागरिकों का एक बड़ा तबका इसे अघोषित आपातकाल की संज्ञा दे रहा था।अब उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह सत्ता से बाहर होकर इंदिरा गांधी ने अपने खुद के व्यवहार और राजनीति में सकारात्मक परिर्वतन किया था उसी तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जनता द्वारा बहुमत नहीं देने के फैसले से हताश निराश नहीं होंगे और संविधान एवम लोकतांत्रिक मूल्यों का पहले से बेहतर ढंग से पालन करेंगे।

    आपात काल को लेकर एक दो सकारात्मक बात भी लोगों के जेहन में जिंदा है। उस दौरान नौकरशाही का बड़ा वर्ग अनुशासनात्मक कार्यवाही के भयवश दफ्तरों में समय से आने लगा था और नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर भी काफी अंकुश लगा था, इसीलिए इसे अनुशासन पर्व की संज्ञा भी दी गई थी। अघोषित आपातकाल एक तरह से घोषित आपातकाल से भी खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि इसमें अधिसंख्य लोगों को लोकतन्त्र और कानून के राज का भ्रम रहता है जिससे वे अचानक वैसे ही इसके शिकार बन जाते हैं जैसे वन में निश्चिंत विचरते हिरण को पीछे से दबे पांव आया बाघ या तेंदुआ दबोच लेता है। सत्तासीन राजनीतिक ताकतों के खिलाफ अभिव्यक्ति की तनिक सी आजादी लेने पर किसी को भी संगीन धाराओं में जेल में सड़ाया जा सकता है। मीडिया के उस वर्ग को विज्ञापनों से वंचित किया जा सकता है जो सत्ता की आलोचना करता है। ऐसे में प्रबुद्ध वर्ग की जिम्मेदारी बनती है कि जनता को घोषित अघोषित आपातकाल के खतरों के प्रति आगाह करता रहे।

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