विचार/लेख
- राजीव कुमार शुक्ला
आम तौर पर मुझसे जुड़े रहे लोग मेरे बारे में तरह-तरह की राय रखते हुए (जो स्वाभाविक है, होना ही है और लगभग सब के साथ होता है) एक आम धारणा यह रखते हैं कि मेरी याददाश्त ख़ासी अच्छी है और शायद जो तमाम अटरम-शटरम बातें मुझे याद बनी रहती रही हैं (गो अब कुछ धुंधलापन मंडराता पता चलता है) और जिनको मैं कई बार साथ में मौजूद लोगों के चाहे-अनचाहे बखानता रहता हूँ, वह सब इस धारणा को सत्यापित भी करता है।
पर एक विचित्र और मेरे लिए (और मेरी इस प्रसिद्धि के लिए) ख़ासा लज्जाजनक तथ्य यह है कि अपने पिता की मृत्यु की तारीख़ पर वह स्मृति बहुधा मेरे भीतर से जैसे धुल सी जाती है और फिर कभी अगले दिन, कभी दो-चार दिन बाद और कभी और भी ज़्यादा बाद में एक झटके से लौटती है। कई सालों तक एक विस्मयविमूढ़ पश्चाताप का आंतरिक कोड़ा उसके साथ लौटता था। अब चीजें ढलती जा रही हैं, तो पछतावा उतना तीखा नहीं होता, पर होता अब भी है। पिता का निधन 3 दिसम्बर, 1998 को हुआ था और इसलिए बीते 3 दिसम्बर को उनको गए 25 साल हो गए- चौथाई सदी। वे इक्कीसवीं सदी में साथ नहीं आ सके थे।
इक्कीसवीं सदी में माँ भी साथ नहीं आई थीं। पिताजी के देहावसान के ठीक चार दिन बाद 7 दिसम्बर, 1998 को उनकी भी देह छूट गई थी। मैं उस समय सतना में पिताजी की चिता से उनकी अस्थियाँ एकत्रित कर रहा था (कमाल की बात है कि इस प्रक्रिया को फूल चुनना भी कहा जाता है), जो 4 दिसम्बर को उनके दाह-संस्कार के तीन दिन बाद भी इतना ताप संजोए थी कि मेरी उंगलियाँ उस गर्म राख में थोड़ी-थोड़ी झुलसती जा रही थीं (मैं जीवित जो था)। तभी छोटे भाई सोनू श्मशान में बदहवास हाल में आए और बिलखते हुए जमीन पर लोटते-लोटते कहने लगे कि माँ भी नहीं रहीं। मुझे याद है कि जो पण्डित जी पुरोहिताई कर रहे थे, उन्होंने कहा, वाह, अद्भुत। कैसी सती नारी थीं। अब इसी चिता में उनका अंतिम संस्कार भी होगा। हुआ भी। यद्यपि इस ‘सती नारी’ के आख्यान में मेरी कोई आस्था न तब थी, न अब है, पर अपनी सामान्य आदत के अनुसार तब मैंने कोई लम्बा तर्क-वितर्क किया हो, ऐसा याद नहीं है। एक स्तब्ध सन्नाटा था, जिसने मुझे जकड़ लिया था, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद की मेरी सूखी किरकती आंखों से आंसुओं की धार बह चली थी।
जन्म देने वाली मां सत्यवती शुक्ला
मुझे जन्म देने वाली माँ मेरी एक साल दस महीने की उम्र में ही चल बसी थीं। उनकी मेरे मन में छवि का आधार वे फोटो हैं, जिनमें अपने बाद वे दिखाई देती रहीं। जब हरदोई में होश संभाला था, तो मेरा घर स्त्रीविहीन घर था। पिता, मैं और एक पहाड़ी नौकर। तब छह साल का था, जब जून, 1963 में पिताजी के फिर विवाह के उपरांत वे माँ घर में आईं, जिन्होंने मुझे उसके बाद के जीवन में इस कदर और इतना सारा दुलार दिया कि मातृहीनता-बोध के वे शुरुआती वर्ष एक झीनी चादर में तहाकर भीतर के किसी तहख़ाने में रख दिए गए।
फिर भी, उन वर्षों ने एक विशेष काम कर दिया था। मेरी पीढ़ी तक उत्तर प्रदेश के अर्द्धसामंती सोच वाले मध्यवर्गीय समाज में पिता-पुत्र संवाद ही बहुत दुर्लभ हुआ करता था, अंतरंग बातचीत तो बहुधा असम्भव ही होती थी। पर मेरे शैशव और ठीक उसके बाद के वर्षों में पिता को मातापिता की जो दोहरी भूमिका निभानी पड़ी थी, उसने हमारे आपसी संबंधों में ऐसी गाढ़ी रागात्मकता सिरज दी थी कि अब तक की मेरी उम्र के आधे से अधिक काल तक वे मेरे सबसे घनिष्ठ और विश्वसनीय मित्र जैसे भी थे, इस हद तक कि यह कल्पना भी थर्रा देती थी कि कभी वे साथ नहीं रह जाएंगे। उनके बिना मैं कैसे जिऊँगा, समझ में नहीं आता था। पर वे अन्तत: चले ही तो गए और कयामत यह कि शानदार याददाश्त का तमग़ा लगाए फुदकने वाला और दुनिया-जहान की जानकारियों से लबालब रहने वाला मैं अक्सर ही उनके हमेशा के लिए बिछड़ जाने की तारीख़ उस दिन भूल जाता हूँ। कभी सोचता हूँ कि यह उस स्मृतिभ्रंश के सिलसिले का अगला चरण हो सकता है, जिसकी गिरफ्त में अपने पिता को उनके अंतिम वर्षों में जाते मैंने कातर निरुपायता के साथ देखा-जाना था। या शायद मेरे भीतर की गुंजलकों में बसने वाला कोई ‘डिफेंस मैकेनिज्म’ है। कौन जाने!
आज अभी मैं रेलगाड़ी यात्रा में हूँ दिल्ली से जबलपुर जाता हुआ। बर्थ पर आंखें बंद कर लेटा था कि अचानक याद आया कि आज 7 दिसम्बर है। माँ को गए 25 साल यानी चौथाई सदी पूरा होने की तारीख। कल सुबह कटनी से गुजरुंगा, जहाँ से कुछ ही दूर वह सतना है, जहाँ माँ और उसके चार दिन पूर्व पिता को पच्चीस साल पहले अंतिम विदा दी थी। सोचने लगा हूँ, तो माँ का स्नेहिल स्पर्श अपने सिर पर महसूस होने लगा है। और जैसे पापाजी की आवाज भी सुनाई देने लगी है।
और हाँ, माँ और पिता को याद करते हुए कुछ-कुछ उस जमाने में भी लौट रहा हूँ, जब घोर आस्तिकता से ओत-प्रोत वे दोनों मंदिरों और देवालयों के साथ-साथ उसी श्रद्धा भाव से मजारों और दरगाहों में भी जाते थे, अपनी उंगली पकड़ाकर मुझे भी ले जाते थे। उसे खोए यूं तो महज कुछ साल बीते हैं, पर लगता है जैसे न जाने कितनी चौथाई सदियाँ गुजर गईं। पर हमारे भीतर उजाला बिखेरती उस लौ को पनपाने के लिए माँ और पिता की स्मृति को सस्नेह अशेष आभार तथा नमन।
-विवेकानंद माथने
भारत सरकार धीरे-धीरे गरीबों को रेल से बाहर करने या उनके लिये अलग से रेल चलाने की योजना पर काम कर रही है। ट्रेन में यात्रियों की भीड़ कम करने के लिये साधारण और स्लीपर कोच की संख्या कम करके आम यात्रियों को रेल में यात्रा करने से रोकने का प्रयास होता दिख रहा है। अब आम यात्रियों को एसी का महंगा टिकट खरीदकर ही सफर करना पड़ेगा।
भारतीय रेल में नये बदलावों के तहत मेल, एक्सप्रेस, सुपरफ़ास्ट आदि सभी लंबी दूरी की यात्री ट्रेनों में जनरल और स्लीपर क्लास के कोच कम करके एसी कोच की संख्या बढाई जा रही है। जनरल कोच की संख्या दो तक सीमित की जा रही है, स्लीपर के चार से अधिक कोच कम किये जा रहे हैं और उनकी जगह एसी-3 के चार से अधिक कोच और एसी-2 के एक या दो कोच बढाये जा रहे हैं। नई हाई स्पीड ट्रेनों में केवल एसी कोच की ही व्यवस्था बनाई जा रही है।
यात्री ट्रेनों में एसी-1, एसी-2, एसी-3, स्लीपर क्लास और जनरल क्लास मिलाकर 22 या 24 डिब्बे होते हैं। सामान्यत: जनरल के तीन, स्लीपर के सात, एसी-3 के छह, एसी-2 के दो, एसी-1 का एक, इंजन, गार्ड और पेंट्री कार, कुल 22 डिब्बे होते हैं। उसकी जगह अब जनरल के दो, स्लीपर के दो, एसी-3 के 10, एसी-2 के 4, एसी-1 का एक और इंजिन, गार्ड और पेंट्री कार, कुल 22 डिब्बे रहेंगे।
जनरल कोच में 103 और स्लीपर में 72 सीटें होती हैं। इन डिब्बों में हमेशा क्षमता से ज्यादा भीड़ होती है। स्लीपर कोच में कई यात्री नीचे सोकर सफर करते हैं और जनरल कोच में क्षमता से डेढ़-दो गुना अधिक यात्री सफर करते हैं। एक ट्रेन में 1300 के आसपास सीटें होती हैं, लेकिन अधिकतर ट्रेनों में 3-400 ज्यादा यात्री सफर करते हैं।
एक ट्रेन में जनरल का एक और स्लीपर के पांच कोच कम करके एसी के कोच बढाने का मतलब है कि एक ट्रेन में जनरल के 103 और स्लीपर क्लास के 360, ऐसे कम-से-कम 463 यात्रियों को एसी में सफर करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। इससे मजदूर, किसान और विद्यार्थियो को रेलयात्रा मुश्किल हो रही है।
इस बदलाव से यात्रियों की कितनी लूट हो रही है इसका अनुमान लगाने पर बड़ी तस्वीर उभरती है। एसी-3 का किराया स्लीपर क्लास से लगभग ढाई गुना से अधिक होता है और जनरल क्लास से लगभग पांच गुना अधिक होता है। अगर स्लीपर का टिकट 400 रुपये है तो एसी-3 का टिकट 1000 रुपये से अधिक होता है। एक यात्री को 12 घंटे के सफर के लिये 600 रुपये अधिक देने होंगे। एक ट्रेन में 360 स्लीपर कोच यात्रियों को हर दिन कुल दो लाख 16 हजार रुपये ज्यादा देने होंगे और जनरल कोच के यात्रियों को कम-से-कम 82 हजार रुपये ज्यादा देने होंगे।
जाहिर है, एक ट्रेन में जनरल और स्लीपर के कोच की संख्या कम करके कम-से-कम 463 यात्रियों को रेल में यात्रा करने से रोका जा रहा है या महंगा टिकट लेकर सफर करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। ऐसे यात्रियों से कुल मिलाकर तीन लाख रुपयों से ज्यादा किराया वसूला जा रहा है। इसके अलावा ‘तत्काल,’ ‘प्रीमियम तत्काल,’ ‘डायनेमिक’ और ‘फ्लेक्सी’ टिकटों के नाम पर भी यात्रियों पर आर्थिक बोझा डाला जा रहा है।
प्रश्न एक ट्रेन का नहीं है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में रोजाना 13,452 यात्री ट्रेनें चलती हैं और 2.4 करोड़ यात्री सफर करते हैं। अगर इस तरह का बदलाव केवल 10 प्रतिशत ट्रेनों में मानकर हिसाब किया जाए तो यात्रियों को हर रोज लगभग 40.4 करोड़ रुपये और हर साल लगभग 14 हजार 730 करोड़ रुपये ज्यादा देने होंगे। प्रत्यक्ष में यह आंकडा अनुमान से कहीं अधिक हो सकता है।
यह रेल विभाग द्वारा आम यात्रियों की लूट है जिसकी सही जानकारी रेल मंत्रालय ही दे सकता है। उसके अनुसार वित्त-वर्ष 2022-23 में उसने 2.40 लाख करोड़ रुपये का रिकॉर्ड राजस्व कमाया है जो पिछले वर्ष से लगभग 49 हजार करोड रुपये अधिक है। केवल यात्रियों से 63,300 करोड़ रुपए का रिकार्ड राजस्व कमाया है जो पिछले वर्ष से लगभग 24,086 करोड़ रुपये से अधिक है।
भारत सरकार ने कुछ साल पहले रेल सुधार की बड़ी-बड़ी घोषणाऐं की थीं। ट्रेन की भीड़, ट्रेन की देरी, ट्रेन की गंदगी, पीने का अस्वच्छ पानी आदि समस्याओं को दूर करके सबको कंफर्म रिजर्वेशन, वेटिंग यात्रियों के लिये दूसरी स्वतंत्र ट्रेन की व्यवस्था, ट्रेन समय पर चलाना, ट्रेन में सफाई आदि के आश्वासन दिये थे, लेकिन इनमें कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि समस्याऐं और यात्रियों की दिक्कतें अधिक बढ गई।
वरिष्ठ नागरिकों की रियायतें खत्म कर दी गई हैं। लंबी दूरी की ट्रेन में टिकट की मांग बढऩे पर ‘डायनेमिक’ या ‘फ्लेक्सी’ किराया लगाकर टिकटों की कीमत बढ़ाई गई है। स्टेशन की भीड़ नियंत्रित करने के नाम पर त्यौहारों पर प्लेटफॉर्म टिकट बढ़ाये जाते हैं। बोतलबंद पानी की बिक्री बढ़ाने के लिये रेल्वे स्टेशन पर नल कम किये गये हैं। स्टेशनों पर उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय में रुकने के लिये भी किराया वसूला जाता है। सामान्य यात्रियों के लिये स्वच्छ खाना उपलब्ध कराने के लिये कोई कदम नहीं उठाये गये।
भारतीय रेल में सुधार केवल अमीरों के लिये होते दिख रहे हैं। नये रेल ट्रैक बनाये जा रहे हैं। ‘राजधानी,’ ‘शताब्दी,’ ‘दुरंतो,’ ‘वंदेभारत’ जैसी हाईस्पीड ट्रेनों की संख्या बढ़ाई जा रही है जिनमें केवल एसी कोच ही होंगे। उनका किराया भी ज्यादा होगा।
अब मेल, एक्स्प्रेस, सुपरफास्ट ट्रेन में साधारण यात्रियों के लिये कोई स्थान नहीं होगा। उनकी दिक्कतें बढऩे पर रेल विभाग अलग से साधारण ट्रेन चलाने की बात कर रहा है। अगर ऐसा होता है तो यात्रियों की लूट के साथ-साथ यह समाज में आर्थिक और सामाजिक आधार पर भेदभाव करना होगा।
भारतीय रेल्वे सुधार के नाम पर आम लोगों को लूटकर अमीरों को सुविधाऐं पहुंचा रही है। स्पष्ट है, सरकार देश के गरीबों को रेल में सफर करने से रोकना चाहती है या उन्हें रेल से बाहर करना चाहती है। अब वह रेल में भी अमीरों और गरीबों में भेदभाव करना चाहती है। सरकार भले ही इंकार करे, लेकिन वह रेल को निजी हाथों में सौपने की दिशा में आगे बढ़ रही है। (सप्रेस)
- शुरैह नियाजी
मज़दूर के तौर पर काम कर चुके 34 साल के कमलेश्वर डोडियार मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में विधायक चुने गए हैं।
वो रतलाम की सैलाना विधानसभा सीट से चुनाव जीत कर आए हैं।
चुनाव में मिली जीत के बाद जब कमलेश्वर को भोपाल आने के लिए कार नहीं मिली तो उन्होंने अपने बहनोई की बाइक से ही भोपाल पहुंचने का सोचा।
कमलेश्वर ने अपने गांव से भोपाल तक 330 किलोमीटर का सफर 9 घंटे में बाइक से पूरा किया।
भोपाल पहुंचने पर जब उनसे पूछा गया कि इतनी दूर बाइक से आने में उन्हें दिक़्क़त तो नहीं हुई? इस सवाल पर उन्होंने कहा कि इस तरह की यात्रा की उन्हें आदत है।
राजधानी भोपाल में अब वो लोगों से मिल रहे हैं। उन्होंने गुरुवार रात मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाक़ात की। वो शुक्रवार को भी कई अधिकारियों से मिले।
शिवराज सिंह चौहान ने कमलेश्वर को मिठाई खिलाकर बधाई दी। उन्होंने शिवराज सिंह चौहान से मंत्रिमंडल में शामिल होने की भी इच्छा जताई।
विधानसभा पहुंच कर वो सबसे पहले उसके गेट पर नतमस्तक हुए। इसके बाद उन्होंने विधानसभा में निर्वाचन से जुड़ी प्रकिया को पूरा किया।
संघर्षों से भरी जि़ंदग़ी
कमलेश्वर ने भारतीय आदिवासी पार्टी के टिकट पर जीत दर्ज की है।
वह भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों के अलावा एक मात्र व्यक्ति है जिन्हें इस विधानसभा चुनाव में जीत मिली है।
वो रतलाम जिले में आदिवासियों के लिए आरक्षित सैलाना विधानसभा सीट से चुनाव जीते हैं।
उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार हर्षविजय गहलोत को 4,618 वोटों से हराया है।
कमलेश्वर की जि़ंदग़ी बहुत ही संघर्ष भरी रही है। उनके माता-पिता मज़द़ूरी करके अपना और अपने परिवार का जीवनयापन करते रहे हैं। कमलेश्वर ने भी मज़दूरी की है।
तीन दिसंबर को जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस दिन भी कमलेश्वर की मां सीता बाई मज़दूरी करने गई थीं।
हाथ टूट जाने की वजह से उनके पिता ने इन दिनों मज़दूरी करना बंद कर दिया है।
लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलेश्वर ने अपनी मां की मज़दूरी बंद करा दी है। उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘मैंने जिस दिन जीत हासिल की, उसी दिन मैंने फैसला कर लिया था कि मेरी मां अब मज़दूरी नहीं करेंगी। इसलिए अब उन्होंने यह काम छोड़ दिया है।’
वेटर का भी किया काम
कमलेश्वर के परिवार में 6 भाई और 3 बहनें हैं। वो उनमें सबसे छोटे हैं। परिवार के सभी सदस्य मज़दूरी करते हैं। इनका परिवार मज़दूरी करने के लिए गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में भी जाता है।
उन्होंने पांचवीं तक की पढ़ाई अपने गांव में ही की। 8वीं तक की पढ़ाई उन्होंने सैलाना में की। 12वीं की पढ़ाई उन्होंने रतलाम से की। वहीं से उन्होंने बीए अंग्रेज़ी में किया और फिर एलएलबी करने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी का रुख किया। उन्होंने बताया, ''पढ़ाई में जो भी रुकावट आई वो आर्थिक वजह से ही रही। परिवार के हर सदस्य के पास मात्र सवा बीघा ज़मीन है, जिससे कुछ नहीं हो सकता। इसलिए मज़दूरी करना मजबूरी है।’
नव निर्वाचित विधायक, मध्य प्रदेश
कमलेश्वर की मां को रोज़ाना मज़दूरी करने के 200 रुपये ही मिलते थे लेकिन कई बार उन्हें 300 रुपए तक मिल जाते हैं।
कमलेश्वर ने 2006 में 11वीं की परीक्षा के बाद पहली बार मज़दूरी की थी। उस समय वो राजस्थान के कोटा अपनी मां के साथ मज़दूरी करने गए थे। उन्होंने उस समय करीब 3 महीने तक मज़दूरी की थी। इसके बाद उन्होंने रतलाम के एक होटल में वेटर का भी काम किया। उन्होंने कई अन्य जगहों पर भी मज़दूरी की है।
कमलेश्वर अपने परिवार के साथ टीन की चादर वाले घर में रहते हैं। बारिश के समय पानी उनके घर में आ जाता है।
बराक ओबामा से प्रभावित
कमलेश्वर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से ख़ासे प्रभावित हैं। कमलेश्वर बताते है, ‘मुझे उनका संघर्ष काफ़ी हद तक अपनी तरह का लगता है। उनका परिवार भी कीनिया से आकर अमेरिका में बसा और तमाम कि़स्म के भेदभाव का सामना उन्होंने किया और उसके बाद वो उस मुक़ाम पर पहुंचे।’
जेल भी जा चुके हैं कमलेश्वर
विधानसभा तक का सफऱ तय करने से पहले कमलेश्वर 11 बार जेल जा चुके हैं। उन पर 16 मामले दर्ज हैं।
उनका दावा है कि राजनीतिक कारणों से उन पर ये मामले दर्ज कराए गए हैं।
कमलेश्वर ने 2018 का विधानसभा का चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा था। उस चुनाव में उन्हें 18,800 मत मिले थे। इन्होंने 2019 में लोकसभा चुनाव भारतीय आदिवासी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर लड़ा और 15,000 से ज्यादा वोट हासिल किए।
उसी समय कमलेश्वर ने फैसला कर लिया था कि वे न सिफऱ् अगला विधानसभा चुनाव लड़ेंगे बल्कि जीतेंगे भी।
वो कहते हैं कि चुनाव लडऩे के लिए ज़रूरी पैसा उन्होंने चंदा करके जमा किया।
कमलेश्वर कहते हैं कि वो आगे भी आदिवासियों की लड़ाई लड़ते रहेंगे और उनके हित में काम करेंगे।
रतलाम के स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार रीतेश मेहता कहते हैं, ‘कमलेश्वर अपनी धुन के पक्के हैं और अपने समाज का दर्द महसूस करते हैं और उसमें बदलाव लाना चाहते है। इसके लिए वे लड़ाई-झगड़े से भी परहेज़ नहीं करते हैं। यही वजह है कि आदिवासी समुदाय के हक़ की लड़़ाई में उन पर कुछ अपराधिक मामलें भी दर्ज हुए।’
मेहता कहते हैं कि आने वाला वक्त ही बताएगा कि कमलेश्वर विधायक के रूप में अपने समाज का कितना भला कर पाते हैं। (bbc.com/hindi)
- प्रियंका झा
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में नई सरकार के गठन पर जारी सस्पेंस के बीच इन विधानसभा चुनावों में लडऩे वाले बीजेपी के 10 सांसदों ने संसद सदस्यता छोड़ दी है। पार्टी ने हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए अपने 21 सांसदों को मैदान में उतारा था। इनमें से 12 उम्मीदवारों को जीत मिली और नौ के हिस्से में हार रही।
ये सांसद चाहते तो विधायकी छोडक़र, संसद सदस्य बने रह सकते है, क्योंकि विधायकी छोडऩे के बावजूद बीजेपी का तीनों राज्यों में बहुमत बरकऱार रहता।
लेकिन उन्होंने संसद से इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा।
इन इस्तीफ़ों की टाइमिंग इसलिए ज़रूरी हो जाती है क्योंकि रविवार को चुनावी नतीजे आने के बाद अभी तक मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान मे सीएम पद के लिए नाम पर शीर्ष नेतृत्व का मंथन जारी है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह का नाम सीएम पद की दौड़ में है। लेकिन कहा ये भी जा रहा है कि बीजेपी नए चेहरों को भी सीएम बना सकती है।
इन अटकलों के बीच सांसदों के इस्तीफ़े ने ये सवाल खड़ा कर दिया है कि आखऱि बीजेपी के इस दांव के पीछे क्या रणनीति हो सकती है।
क्यों लिया गया सांसदों का इस्तीफ़ा?
मध्य प्रदेश में 7 सांसदों ने चुनाव लड़ा, जिनमें फग्गन सिंह कुलस्ते, राकेश सिंह, उदय प्रताप सिंह, रीति पाठक, प्रह्लाद सिंह पटेल, गणेश सिंह और नरेंद्र सिंह तोमर शामिल थे। इनमें से गणेश और कुलस्ते चुनाव हार गए।
राजस्थान से बीजेपी की तरफ से सात सांसदों ने चुनाव लड़ा। जिनमें बाबा बालकनाथ, किरोड़ीलाल मीणा, दीया कुमारी, राज्यवर्द्धन सिंह राठौड़, भागीरथ चौधरी, नरेंद्र खीचड़ और देवजी पटेल शामिल थे। इन सात में से सिर्फ चार ही चुनाव जीत सके। चुनाव जीतने वालों में राज्यवर्द्धन, बालकनाथ, दीया कुमारी और किरोड़ीलाल का नाम है। वहीं, छत्तीसगढ़ में बीजेपी के चार सांसदों ने चुनाव लड़ा और जीतने वाले तीनों ने इस्तीफ़ा दे दिया।
इनमें गोमती साय, रेणुका सिंह, अरुण साव शामिल हैं। हारने वालों में दुर्ग से सांसद विजय बघेल हैं, जो कि भूपेश बघेल के भतीजे हैं और उन्हीं से पाटन विधानसभा सीट पर हारे हैं।
मध्य प्रदेश में बीजेपी ने 163, छत्तीसगढ़ में 54 और राजस्थान में 115 सीटों पर जीत दर्ज की है। तीनों राज्यों में पार्टी इतनी मज़बूत स्थिति में है कि अगर सांसदों के सीट छोडऩे के बाद उपचुनाव में हार मिले तो भी बीजेपी सरकार बहुमत नहीं खोती।
बहुमत पर असर न पडऩे के बावजूद पार्टी ने सांसदों से इस्तीफ़ा क्यों लिया?
मध्य प्रदेश की राजनीति को बारीकी से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया इसके पीछे कई कारण गिनाते हैं।
वो कहते हैं कि सांसदों को चुनाव लड़वाने से पहले पार्टी की नीति ये रही होगी कि ये दिग्गज सत्ता विरोधी लहर को काटने में मदद करेंगे। नरेंद्र सिंह तोमर, प्रह्लाद पटेल, रीति पाठक वे नाम हैं जो जीतते आए हैं। ऐसे में पार्टी ये मानकर चल रही थी कि अगर चुनावों में 5-10 सीटों से बहुमत से दूर रह जाएं, तो उस फ़ासले को पाटने में ये सांसद मदद करेंगे।
हालांकि, इनका इस्तीफ़ा लेने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा, ‘इससे बीजेपी के लिए लोकसभा में बहुमत पर कोई असर नहीं होगा। एक कारण ये भी हो सकता है कि शायद बीजेपी शिवराज को सीएम न बनाना चाहती हो, ऐसे में उनके पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक से अधिक नाम होंगे। प्रह्लाद पटेल का नरसिंहपुर जि़ले में काफ़ी कमांड है। उनकी स्थिति ऐसी है कि वो किसी भी पार्टी से लड़ें, जीत सकते हैं।’
‘एक तीर से दो शिकार’
साल 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी मज़बूत रही है। साल 2005 में शिवराज सिंह चौहान पहली बार मध्य प्रदेश के सीएम बने और 2020 में उन्होंने चौथी बार इस पद की शपथ ली थी।
वसुंधरा राजे साल 2003 में राजस्थान की पहली महिला सीएम बनी थीं। इसके बाद राज्य में जब-जब बीजेपी सरकार लौटी, सीएम पद पर वसुंधरा ही बैठीं। वहीं रमन सिंह छत्तीसगढ़ के गठन के बाद राज्य पहले निर्वाचित सीएम बने और फिर 15 साल यानी 2018 तक इस पद पर बने रहे।
लेकिन ताज़ा चुनाव के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीएम पद के लिए कई नाम तैर रहे हैं। कई मीडिया रिपोर्टों में भी ये दावे किए जा रहे हैं कि विधायक बनने वाले सांसदों में से भी किसी को सीएम पद पर बैठाया जा सकता है।
बुधवार शाम एक चि_ी वायरल हुई, जिसमें राजस्थान के लिए मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्रियों के नाम थे। हालांकि, पार्टी ने इसे फ़ेक बताया लेकिन ये तीनों नाम उन सांसदों के थे जो अब विधायक बन गए हैं।
हालांकि, मुख्यमंत्री के पद तक कोई एक ही नेता पहुंचेगा। लेकिन जानकारों की नजऱ में सांसदों से विधायक बनने वाले नेताओं को राज्य के मंत्रीपद तक ज़रूर पहुंचाया जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी सांसदों के इस्तीफ़े को बीजेपी की ‘एक तीर से दो शिकार’ वाली नीति के तौर पर देखती हैं।
उनका कहना है, ‘सांसदों से इस्तीफ़ा लेने के पीछे दो कारण हो सकते हैं। एक तो अब ये विधायक बने रहेंगे और इन सीटों पर उपचुनाव कराने की झंझट नहीं होगी। दूसरा, इससे खाली हुए संसदीय सीटों पर नए चेहरों को उतारने का मौका मिलेगा। हो सकता है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव में अपनी टीम में नए चेहरे शामिल करना चाहते हों। ये कदम एक तीर से दो शिकार करने जैसा है।’
क्या सांसदों का डिमोशन है ये कदम?
शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह उस समय अपने-अपने राज्यों के सीएम पद की कुर्सी पर थे, जब नरेंद्र मोदी भी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
इन नेताओं की जनता के बीच अच्छी पकड़ मानी जाती है और इसलिए ये भी कहा जाता है कि बीजेपी गुजरात, उत्तराखंड या कर्नाटक की तरह इन राज्यों में सीएम पद के चेहरे नहीं बदल सकी।
लेकिन नतीजों को आए जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, वैसे-वैसे नए चेहरे की चर्चा भी ज़ोर पकड़ती जा रही है।
राजस्थान में दीया कुमारी, बाबा बालकनाथ, छत्तीसगढ़ में रेणुका सिंह और अरुण साव, मध्य प्रदेश में नरेंद्र सिंह तोमर और प्रह्लाद पटेल को सीएम पद की दौड़ का हिस्सा बताया जा रहा है।
लेकिन क्या मज़बूत नेताओं को हटाकर नए चेहरे लाना बीजेपी के लिए आसान होगा। इस पर वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदीनिया कहते हैं, ‘बीजेपी किसी भी आदमी को ज़्यादा ताकतवर नहीं होने देती है। योगी आदित्यनाथ का कहीं किसी ने नाम नहीं सुना था। उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया। इनका एक स्टाइल है, किसी भी आदमी को ज़्यादा नहीं बढऩे देना।’
नीरजा चौधरी का भी ये मानना है कि आज के वक्त में शायद ही ऐसा कोई है जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के फ़ैसलों को चुनौती दे। वह कहती हैं, ‘मोदी-शाह नए चेहरों को लाकर अपनी नई टीम खड़ी करना चाहेंगे।’
मध्य प्रदेश में बीजेपी के चुनाव अभियान से जुड़े रहे नेता दीपक विजयवर्गीय कहते हैं, ‘ये तो हमने टिकट वितरण से पहले ही तय कर लिया था कि अगली विधानसभा में कौन-कौन नेता रहेंगे। कौन कार्यकर्ता किस भूमिका में रहेगा ये तो पहले ही पार्टी ने तय कर लिया था।’
तो क्या ये सांसदों और मंत्रियों का डिमोशन है, ये पूछे जाने पर वह कहते हैं, ‘सांसदों का डिमोशन या प्रमोशन नहीं होता। सभी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं। किस कार्यकर्ता को क्या भूमिका दी जाए ये पार्टी समय-समय पर तय करती है।’
लोकसभा चुनाव में अब छह महीने भी नहीं बचे। फिर क्या इन इस्तीफ़ों को लोकसभा चुनाव से पहले सांसदों के टिकट काटने की रणनीति से जोड़ा जा सकता है?
लज्जा शंकर हरदीनिया इस पर कहते हैं, ‘हां, ये भी एक कारण हो सकता है, लेकिन ये टिकट देते समय की रणनीति नहीं रही होगी। उस समय मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बहुमत पाना ही लक्ष्य रहा होगा। हालांकि, बीजेपी को इससे एक मौका भी मिल गया है इन संसदीय सीटों पर कोई नया चेहरा लाने का।’ (बीबीसी)
-देवयानी भारद्वाज
कल जब सारा देश चार राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर सांसत में फंसा था, मैंने सुबह के रुझान देख लेने के बाद 1954 में बनी संभवत: अपने समय की सबसे शुरुआती फेमिनिस्ट फिल्म Salt of The Earth को देखते हुए दिन बिताना चुना। अपने शुरुआती दौर में अमरीका में प्रतिबंधित इस फिल्म को अब अमरीकी सिनेमा के इतिहास में क्लासिक फिल्मों में शुमार किया जाता है। फिल्म निर्देशक Herbert J. Biberman और लेखक Michael Wilson भी उस दौर में हॉलीवुड के दस ब्लैक लिस्ट किए गए फि़ल्मकारों में शामिल थे।
फिल्म मैक्सिको की एंपायर जि़ंक माइन में 1950 में शुरू हुई खनिकों की ऐतिहासिक हड़ताल और उसकी सफलता में स्त्रियों की भागीदारी पर केंद्रित है। यह फिल्म उस दौर में एक नारीवादी पहल के रूप में सामने आती है, जब फेमिनिज़्म या नारिवाद जैसे शब्दों का चलन शुरू नहीं हुआ था। खनिक जो कंपनी के ही कब्जे वाली जमीन पर रहते हैं वे कंपनी में मजदूरों के लिए बराबरी की मांग करते हैं लेकिन घरेलू सुविधाओं के लिए औरतों की मांग को अहमियत नहीं देते। वहीं एक समय ऐसा आता है जब महिलाओं को हड़ताल पर बैठे पुरुषों की जगह लेनी पड़ती है और पुरुषों को घर संभालना पड़ता है तो पुरुषों को वे सारी जरूरतें समझ आने लगती हैं जिनकी मांग औरतें कर रही थीं। फिल्म उस दौर की है जब दुनियाभर में कामगार संगठित हो रहे थे और आज फिर प्रासंगिक हो जाती है जब यूनियनों को लगभग खत्म कर दिया गया है।
मैं इसे देख रही थी और मुझे उत्तराखंड की खदान में पंद्रह दिन तक फंसे रहे खान मजदूर याद आ रहे थे। यह फिल्म लगभग 75 साल पहले दुनिया के एक हिस्से में संगठित श्रमिक आंदोलन की बात करती है। आज पचहत्तर साल बाद हम उत्तराखंड में खदान से बाहर आए मजदूर का मालिकों के प्रति आभार का वीडियो देखते हैं तो समझ आता है कि हमने कितनी पीढिय़ों के संघर्ष को ज़ाया किया है।
इतिहास जब रचा जा रहा होता है, क्या उसे रचने वालों को भी ठीक उस समय इस बात का भान होता होगा कि आने वाला समय उसे किस तरह याद करेगा, कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह फिल्म अपने बनने में जाने कितनी तरह से इतिहास रच रही थी। इसके निर्माताओं के पास बहुत संसाधन नहीं थे और वे एक वास्तविक घटना पर आधारित फीचर फिल्म बना रहे थे, इसके लिए तीन पेशेवर कलाकारों के अलावा उन्होंने अन्य सारे कलाकारों के तौर पर पेशावर अभिनेताओं को नहीं बल्कि उन लोगों को लिया जो खुद उस हड़ताल में शामिल खान मजदूर और उनके परिवार थे।
अमरीकी सरकार ने फिल्म को बनाने से रोकने के लिए इसमें केंद्रीय भूमिका निभा रही अभिनेत्री Rosaura Revueltas को गिरफ्तार कर फिर से मेक्सिको डिपोर्ट कर दिया, लेकिन फिर भी इस फिल्म को बनाने के इरादे को नहीं तोड़ पाई।
यदि न देखी हो तो ज़रूर देखनी चाहिए। कितनी बार इसे देखते हुए खुशी से सिहरन होती है, गला रुंध जाता है। औरतों की उस पीढ़ी पर नाज़ होता है। थोड़ा और जिम्मेदारी का अहसास होता है। यदि एनिमल देखने जा रहे हैं तो पहले यूट्यूब पर धरती के इस नमक को देख कर जाइए।
डॉ. आर.के. पालीवाल
जैसे जैसे आज़ादी के बाद हमारी राजनीति सेवा की पटरी से उतरकर विकृत होकर सत्ता की मेवा के प्रति आसक्त होती गई वैसे वैसे सत्ता के लिए साम दाम दण्ड भेद कुछ भी कर गुजरने वाला एक ऐसा स्वार्थी वर्ग तैयार हो गया जिसे आज का सर्व शक्तिमान ब्राहमण या सवर्ण वर्ग कह सकते हैं। यही आज का राज वर्ग है। सहूलियत के लिए इसे सत्ता वर्ग या शोषक वर्ग कह सकते हैं। संख्या बल में यह वर्ग भले ही अल्प संख्यक दिखता है लेकिन धनबल, बाहुबल और शक्ति बल में यह आम जनता से सहस्त्र गुणा है। यही वर्ग जनता के लिए कानून बनाता है और यही वर्ग कानून के राज और शासन के कामकाज को पूरी तरह नियंत्रित करता है। नौकरशाही और उद्योगपति तक इस वर्ग की कठपुतली की तरह काम करते हैं। प्रिंट मीडिया अपने अधिकांश पन्ने इसी वर्ग के लिए काले करता है और इलेक्ट्रोनिक मीडिया का अधिकांश प्राइम टाइम इसी वर्ग के इर्दगिर्द गुजरता है। बड़े बड़े फि़ल्म और खेलों के सितारे, महानायक और भगवान इसी वर्ग के सामने नतमस्तक होते हैं।
वैसे तो देश के किसी भी हिस्से में इस वर्ग के प्रभुत्व को देखा जा सकता है। उदाहरण के तोर पर तेलंगाना के वर्तमान परिदृश्य से इसे सहजता से समझा जा सकता है।नए राज्य तेलंगाना के बनने से लेकर हाल तक सत्ता पर अजगर की तरह काबिज रहे के चंद्रशेखर राव इस राज्य की सत्ता के पहले राजा थे। उनकी कार्यशैली पुराने जमाने के अंहकारी राजाओं जैसी थी और उनकी राजनीति में विचारधारा का कोई महत्त्व नहीं है। सिर्फ सत्ता ही उनकी एकमात्र विचारधारा है। यही उनका धर्म है और यही उनकी जाति है। उन्होंने सत्ता वर्ग में प्रवेश तत्कालीन कांग्रेस की ड्रेस पहनकर किया था। उसके बाद सत्ता का पेंडुलम तेलगु देशम पार्टी की तरफ झुकता देखकर उन्होंने उसी का झंडा पकड़ लिया था और बाद में उसे भी धकियाकर सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन कर नई पार्टी बना ली थी। अपने पूरे जीवन में दल बदलते हुए उनकी नजऱ हमेशा तेलंगाना के शीर्ष पद पर रही।
इधर उनकी नजऱ उनकी पुरानी पार्टी टी डी पी प्रमुख चंद्रबाबू नायडू की तरह दिल्ली की शीर्ष गद्दी की तरफ बढऩे लगी थी लेकिन उसके पहले ही उनकी जमीन खिसकने से उनके हाथ से चंद्र बाबू नायडू की तरह राज्य की कुर्सी भी चली गई। कमोबेश यही स्थिति तेलंगाना के मुख्यमंत्री की कुर्सी के नए दावेदार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंथ रेड्डी की है। उन्होंने सत्ता का पहला पाठ भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा ए बी वी पी में सीखा था। उसके बाद उनकी इंट्रनशिप भी के चंद्रशेखर राव की टी आर एस और चंदबाबू नायडू की टी डी पी में हुई।
कालांतर में कांग्रेस की तरफ ज्यादा हरी घास देखकर उन्होंने कांग्रेस के पाले में छलांग लगाना बेहतर समझा। जहां तक विचारधारा का प्रश्न है उन्होंने हर राजनीतिक घाट का पानी पीकर यह साबित किया है कि वे सिर्फ और सिर्फ सत्ता वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं चाहे उसमें बने रहने के लिए कितने ही दल बदलने पड़ें।
के चंद्रशेखर राव और रेवंथ रेड्डी जैसे लाखों करोड़ों युवा और वरिष्ठ नेता हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता वर्ग से नाभिनाल संबद्ध हैं। यह संख्या आज़ादी के बाद से लगातार बढ रही है। अभी इसकी कुल संख्या भले ही सवर्ण समाज की तरह आबादी का एक या दो प्रतिशत ही होगी लेकिन इसके बिना सत्ता और शासन का पत्ता नहीं हिल सकता। इस वर्ग के लिए दार्शनिक लुकाच ने काफी पहले कहा है कि सत्तावर्ग की कामयाबी का राज यह है कि वह अपनी सोच को सर्वहारा में प्रतिष्ठित करने में कामयाब हो जाता है।
सत्ता वर्ग हमारे समाज का सबसे चालाक वर्ग बन गया है जिसकी तुलना किसी अन्य वर्ग से असंभव है। इस वर्ग में राजाओं सी शानो शौकत है, पूंजीवादियों सी धन संपत्ति की अथाह लालसा है, सवर्णों जैसा अहंकार है और अफसरों जैसी हेकड़ी है। दुर्भाग्य से इस वर्ग के अधिकांश सदस्यों में नैतिक मूल्यों और विचारधारा के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है। सत्ता और सिर्फ सत्ता ही इनका एकमात्र ध्येय है चाहे इसके लिए अपने गुरुओं, वरिष्ठों, परिजनों और मित्रों के साथ विश्वासघात करना पड़े या लोकतंत्र और संवैधानिक सिद्धांतों को तार तार करना पड़े। सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए इस वर्ग के लोक किसी भी हद तक जा सकते हैं। संविधान और लोकतंत्र को इस सत्ता वर्ग से ही सबसे बड़ा खतरा है।
ध्रुव गुप्त
इन दिनों फेसबुक पर हैकर्स का आतंक बढ़ गया है। कई मित्रों के ऐसे पोस्ट देखे और फोन पर भी कुछ लोगों से जानकारियां मिलीं कि उन्होंने मैसेंजर पर प्राप्त किसी लिंक या वीडियो को क्लिक किया और उनके फेसबुक एकाउंट हैक हो गए। ऐसे एकाउंट हैक कर या तो पैसों की मांग की जाती है या कई दूसरे तरीकों से एकाउंटधारी को परेशान और ब्लैकमेल किया जाता है। हैकर्स द्वारा डाले गए आपत्तिजनक कंटेंट के कारण कुछ हैक्ड एकाउंट्स को फेसबुक गायब भी कर दे रहा है। इसके कारण कुछ मित्रों के वर्षों के लिखे-पढ़े पर पानी फिर गया है। कुछ ही साल पहले मेरे साथ भी एक साजि़श हुई थी।मैंने एक वीडियो का लिंक दबाया ही था कि मेरे प्रोफाइल पर अश्लील फिल्मों की बारिश होने लगी। जानकर मित्र ऐसे हमलों से निबटने के तरीके जानतेहैं लेकिन ज्यादातर लोग संकट में फंस जाते हैं। कुछ लोगों ने पुलिस के साइबर सेल की मदद भी मांगी हैं लेकिन चूंकि ऐसे हमले ज्यादातर फेक एकाउंट्स और फेक मोबाइल नंबर्स से होते हैं इसीलिए दोषी सामान्यत: पकड़ में नहीं आते। फिलहाल इतना ही किया जा सकता है कि मेसेज बॉक्स में मिले किसी लिंक को तबतक न क्लिक करें जबतक वे किसी बहुत परिचित या भरोसेमंद व्यक्ति द्वारा नहीं भेजे गए हों।
यह धोखाधड़ी और साजि़श टेक्नोलॉजी के साइडइफेक्ट्स हैं। कृपया सावधान रहें और सुरक्षित रहें !
-रवि तिवारी
पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। सारे पूर्वानुमान धाराशाही होकर रह गए हैं। बीजेपी ने हिंदी बेल्ट में जबरदस्त सफलता हासिल कर अपना परचम लहराया है। कांग्रेस को तेलंगाना में अच्छी कामयाबी मिली है। मिजोरम में बीजेपी और कांग्रेस हासिये पर है। सबसे आश्चर्यजनक परिणाम छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के रहे। राजस्थान अपने स्वभावगत तौर पर हर पांच साल में सत्ता बदलता है और वहां पर हुआ भी वही।
छत्तीसगढ़ में आये चुनाव नतीजों ने सबको चौंका कर रख दिया है। अप्रत्याशित नतीजे सामने आए हैं। कांग्रेस की आपसी लड़ाई के कारण सरगुजा की सभी 14 सीटें कांग्रेस ने इस बार गंवा दी तथा बस्तर में उसके खराब प्रदर्शन ने कांग्रेस को इस बार सत्ता से बेदखल कर रख दिया है।
उद्योगपति व व्यापारी वर्ग इस शासन से बहुत दुखी था,अधिकारी वर्ग ईडी की कार्यवाही से परेशान था जो अपने बचाव के लिए इस शासन से छुटकारा की चाहत रखने लगा था, किसानों का तोड़ बीजेपी ने निकाल ही लिया था। साथ ही महिलाओं के लिए ठीक समय पर जबरदस्त योजना लाकर काम भी करना शुरू कर दिया था जिससे इसका सम्पूर्ण असर बीजेपी के पक्ष में चला गया। कांग्रेस सरकार के दो कद्दावर मंत्री हिन्दू-मुस्लिम के शिकार हो गए। इनके कुछ उम्मीदवार बहुत कम वोटों से हारे जिसमें प्रमुख नाम उपमुख्यमंत्री श्री टीएस सिंहदेव का भी है। सरकार के प्रति जनता की नाराजगी ऊपर से दिखाई नहीं पड़ती थी लेकिन नतीजे उसकी तीव्रता को बयान कर जाते हैं। मुख्यमंत्री सहित कांग्रेस के अन्य विधायकों का बीजेपी के विधायकों के मुकाबले अत्यंत कम वोटों से जितना भी जनता की नाराजगी को ही इंगित करता है।
केंद्र की बीजेपी सरकार ने लगातार छत्तीसगढ़ में ईडी की कार्यवाही कर कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार की पक्की मुहर जनता के मन में लगाने में कामयाबी हासिल कर ली। इसका भी जबरदस्त नुकसान पार्टी को चुनाव में हुआ है। निचले स्तर का भ्रष्ट्राचार अपनी चरम पर था जिससे हर आम व्यक्ति प्रभावित रहा इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता।
ढाई-ढाई साल की लड़ाई कांग्रेस को भारी पड़ी, मनमुटाव जगजाहिर हुआ, जनमानस के मन मे कांग्रेस की छबि धूमिल हुई, इन सबके बाबजूद कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल में बहुत अच्छे काम भी किये है खासकर कोरोना वाले समय में स्थितियो को बहुत कुशलतापूर्वक संभाला गया, सारी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद शासन को रफ्तार प्रदान की, उद्योगों की, व्यापार की रफ्तार को निरंतर बरकरार रखा, छत्तीसगढ़ी संस्कृति की, आदिवासी संस्कृति की नई पहचान पूरे देश में कराई, स्थानीय खेलों को नई ऊंचाई प्रदान की, माता कौशल्या का मंदिर, राम वन गमन पथ पर किए कार्य को कैसे नकारा जा सकता है। विवेकानंद इंग्लिश मीडियम स्कूलों की तेजी से बढ़ती आम लोगों में लोकप्रियता, इसके साथ ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल योद्धा की तरह अकेले लड़ते रहे इससे भी तो इंकार नहीं किया जा सकता। इसके अलावा लोगों को जो खटकता रहा मुसलमानों का लगातार बढ़ता दायरा हिन्दू वर्ग को नागवार गुजर रहा था जिसकी चर्चा हर घर में होती थी। कुर्मी वर्ग की चौधराहट अन्य समुदाय को खटकने लगी थी, पीएससी के घटनाक्रम ने नवजवानों को सरकार के खिलाफ लाकर खड़ा कर दिया था, ला एंड आर्डर आम जन के लिए चिंता का विषय बनने लगा था। मुखिया प्रदेश में चल रही अन्य गतिविधियों से बेखबर ही रहा आज ऐसा लगता है।
इन सबके बावजूद बीजेपी की पिछले पांच सालो की कोई उपलब्धि नहीं थी, मरी पड़ी, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी हुई बीजेपी को अंतिम समय में एक ही सहारा मिला और वह था श्री नरेन्द्र मोदी जी का चेहरा और उनकी राजनैतिक कार्यशैली इसके साथ श्री अमित शाह की रीति-नीति व श्री ओम माथुर, श्री मंडाविया की कार्यकुशलता व उनकी रणनीति जिसने बीजेपी को आश्चर्यजनक रूप से सफल बनाया इसमे किसी भी स्थानीय नेताओं का कोई योगदान नहीं था।
इस चुनाव के बाद कांग्रेस को आत्ममंथन करने की सक्त: जरूरत है की कांग्रेसी मानसिकता वाला यह छत्तीसगढ़ प्रदेश लगातार बीजेपी की कार्यशैली व विचारधारा को क्यो पसंद करने लग गया है?
-मोहम्मद शाहिद
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों की जब सुगबुगाहट शुरू हुई तब से ही ऐसा माना जा रहा था कि इस बार बीजेपी के लिए ये चुनाव कड़ी चुनौती बनने जा रहा है।
इसकी पुष्टि तब हो गई जब बीजेपी ने शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रॉजेक्ट नहीं किया। ऐसा माना जा रहा था कि उन्हें लेकर एंटी-इनकम्बेंसी फ़ैक्टर होगा, क्योंकि वो 18 साल से मुख्यमंत्री हैं।
वहीं पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद जताई जा रही थी।
लेकिन जैसे जैसे चुनावों की तारीख़ नज़दीक आती गई, बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व और राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उतनी ही तेज़ी से चुनाव प्रचार में जुटे नजऱ आए।
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य के चुनाव प्रचार का प्रमुख चेहरा थे और वो लगातार राज्य का दौरा कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ग्राउंड लेवल पर लोगों से मिल रहे थे जिसमें उनकी बार-बार महिलाओं से की जा रही अपील ख़ूब नजऱ आती रही।
कभी शिवराज सोशल मीडिया के चर्चित नामों के साथ नजऱ आए तो कभी महिलाओं को अपनी सरकार की ‘लाड़ली बहन योजना’ की याद दिलाते दिखे। कई बार महिलाओं के बीच में ऐसे संकेत देते भी दिखे कि ये उनकी आखऱिी पारी है।
लेकिन 3 दिसंबर के परिणाम के बाद तस्वीर पूरी तरह बदल गई है। बीजेपी ने 230 में से 163 सीटें जीत ली हैं, जो पूर्ण बहुमत से 47 ज़्यादा हैं।
इस जीत का श्रेय जहां बीजेपी के नेता पीएम मोदी को दे रहे हैं, वहीं विश्लेषक इसका बड़ा श्रेय बीजेपी के चुनावी गणित और कुछ श्रेय शिवराज की मेहनत को दे रहे हैं।
इस बीच सवाल अब भी बरकऱार है कि मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा? बीजेपी के इतिहास में सबसे लंबे समय तक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान इस पद पर बरकऱार रहेंगे या कोई नया शख़्स इस पद को संभालेगा?
बीजेपी ने मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत सात सांसदों को टिकट दिया था, जिसकी ख़ासी चर्चा रही। क्या इनमें से कोई इस कुर्सी पर बैठेगा?
शिवराज सिंह चौहान रहेंगे बरकऱार?
18 साल तक मुख्यमंत्री के पद पर रहने की वजह से शिवराज सिंह चौहान को फिर से मुख्यमंत्री पद का मज़बूत दावेदार माना जा रहा है। लेकिन चुनाव से पहले ही शिवराज सिंह चौहान को पार्टी ने हाशिए पर रख दिया था और उम्मीदवारों की लिस्ट में उनका नाम आखिरी सूची में आया था।
हालांकि, बीजेपी ने चुनाव प्रचार के दौरान पाया कि शिवराज सिंह चौहान की महिलाओं के बीच अच्छी पकड़ है और उनकी लाड़ली बहन योजना को लोग हाथों-हाथ ले रहे हैं।
मध्य प्रदेश चुनाव पर बारीकी से नजऱ रखे रहे बीबीसी संवाददाता सलमान रावी कहते हैं कि 'शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव के दौरान ये साबित कर दिया कि बीजेपी के लिए उन्हें नजऱअंदाज़ करना आसान नहीं है। राज्य में मास लीडर की छवि भी सिफऱ् शिवराज सिंह चौहान की ही थी। ये वक़्त ही बताएगा कि कौन मुख्यमंत्री होगा लेकिन गुटबाज़ी ज़ोरों पर है।'
वहीं ये भी कहा जा रहा है कि पार्टी के बड़े तबक़े का मानना है कि अगले लोकसभा चुनाव तक उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है क्योंकि अब चुनावों में छह महीने से भी कम समय बचा है।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की रेस में शिवराज के साथ, प्रह्लाद सिंह पटेल, ज्योतिरादित्य सिंधिया और कैलाश विजयवर्गीय को बताया जा रहा है।
भूपेश बघेल का कांग्रेस में क्या होगा राजनीतिक भविष्य?
सलमान रावी कहते हैं, ‘बीजेपी शानदार तरीक़े से जीतकर आई है, अगर ऐसे में वो शिवराज को हटाती है तो ये काउंटर प्रॉडक्टिव भी हो सकता है। विजयवर्गीय को ग्वालियर-चंबल संभाग क्षेत्र के लोग नहीं जानते, वहीं सिंधिया की महाकौशल की जनता पर पकड़ नहीं है। लेकिन शिवराज की पूरे एमपी पर अच्छी पकड़ है और वो पूरे प्रदेश के ‘मामा’ हैं, इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें नजऱअंदाज़ करना मुश्किल होगा।’
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल मध्य प्रदेश के चुनाव पर कहते हैं कि शिवराज की ‘लाड़ली बहन योजना’ ने महिलाओं का वोट ज़रूर बढ़ाया लेकिन एंटी इनकम्बेंसी की लहर थी, जिसे बीजेपी के आक्रामक चुनाव अभियान ने काबू किया।
वह कहते हैं, ‘शिवराज सिंह को बीजेपी कैसे मुख्यमंत्री बनाएगी क्योंकि पूरे चुनाव अभियान में पार्टी ने उन्हें हाशिए पर रखा हुआ था।’
‘बीजेपी ने संकल्प पत्र मतदान से तीन-चार दिन पहले जारी किया था और ताज्जुब की बात ये थी कि इस संकल्प पत्र में लाड़ली बहन योजना के संदर्भ में पैसे बढ़ाने की बात ग़ायब थी। अगर शिवराज को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो ये वादा तो पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि संकल्प पत्र में वो बात ही नहीं है।’
प्रह्लाद पटेल बीजेपी की
कितनी बड़ी पसंद?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की रेस में प्रह्लाद सिंह पटेल का नाम भी आगे है। वो दामोह से सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं।
प्रह्लाद पटेल का नाम संघ को भी पसंद है क्योंकि उन्होंने छात्र राजनीति की शुरुआत एबीवीपी से की और वो संघ के भी कऱीब रहे हैं।
सलमान रावी कहते हैं कि बीजेपी ने महाकौशल-विंध्य पर पूरा ध्यान लगाते हुए वहां से प्रह्लाद पटेल को उतारा था और महाकौशल क्षेत्र हिंदुत्व की नई लैब है।
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार संजय सक्सेना कहते हैं कि मध्य प्रदेश में बीजेपी ओबीसी चेहरे पर ही दांव खेलेगी, क्योंकि उमा भारती, बाबूलाल गौर से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक सब ओबीसी समुदाय से आते हैं।
कोट कार्ड
संजय सक्सेना कहते हैं, ‘शिवराज सिंह चौहान अगर मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं तो प्रह्लाद सिंह पटेल की ही सबसे प्रबल दावेदारी है क्योंकि वो ओबीसी समुदाय से आते हैं।’
वहीं, राजेश बादल प्रह्लाद पटेल को भी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं मानते। वो कहते हैं कि शिवराज को लेकर एंटी-इनकम्बेंसी का फ़ैक्टर था तो बीजेपी ने भ्रम पैदा किया और उसने चार अलग-अलग क्षेत्रों से बड़े-बड़े नाम खड़े किए।
वो कहते हैं कि महाकौशल-विंध्य से प्रह्लाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे केंद्र के नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा गया ताकि जनता को लगे कि उनके क्षेत्र का नेता मुख्यमंत्री हो सकता हैं, इसी तरह से बीजेपी ने अलग-अलग क्षेत्रों में भ्रम पैदा किया।
सिंधिया पर दांव लगाएगी बीजेपी?
कांग्रेस का दामन छोडक़र जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी का दामन थामा तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी गिर गई क्योंकि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के उनके समर्थक विधायक भी बीजेपी के पाले में आ गए।
इस बार के चुनाव में ग्वालियर-चंबल संभाग में बीजेपी को 34 में से 18 सीटों पर जीत मिली है जबकि 2018 में महज़ सात सीटों पर जीत मिली थी। यानी इस बार बीजेपी को 11 सीटों का फ़ायदा हुआ है।
वहीं सिंधिया के कांग्रेस में रहते हुए 2018 के विधानसभा चुनाव में इन 34 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी।
मध्य प्रदेश में बीजेपी के पास सिंधिया भी एक चेहरा हैं जिसकी प्रदेश में एक मास अपील है।
सलमान रावी कहते हैं कि सिंधिया जब पार्टी में आए तो उनकी बीजेपी से क्या डील हुई इसके बारे में अब तक साफ़ नहीं है लेकिन हाल में उनकी पीएम मोदी और अमित शाह से जिस तरह से नज़दीकी बढ़ी है, उससे उनके नाम की चर्चा काफ़ी है।
वो कहते हैं कि चुनाव के दौरान ग्वालियर के महल से बीजेपी के शीर्ष नेताओं की नज़दीकी रही, अमित शाह महल में खाना खाने गए और पीएम मोदी सिंधिया के स्कूल के कार्यक्रम में भी गए।
संजय सक्सेना ज्योतिरादित्य सिंधिया की जाति के सवाल पर कहते हैं कि वो ख़ुद को ओबीसी नेता बताते हैं हालांकि वो महाराज हैं। अगर ओबीसी कार्ड खेलना होगा तो बीजेपी सिंधिया के नाम पर भी खेल सकती है।
राजेश बादल कहते हैं कि सिंधिया अगर मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं तो वो बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव में उलटे पड़ सकते हैं क्योंकि सिंधिया परिवार बीते 50 सालों से कांग्रेस में था और बीजेपी की तीन पीढिय़ां सिंधिया ख़ानदान से संघर्ष करती गुजऱी है।
‘उनके मुख्यमंत्री बनने से बीजेपी का पारंपरिक स्थानीय नेतृत्व नाख़ुश हो जाएगा और इससे ग्रास रूट लेवल तक ग़लत मैसेज जाएगा। लोकसभा का चुनाव भी वो हार चुके हैं तो उनका पक्ष कमज़ोर है।’
कैलाश विजयवर्गीय की भी चर्चा
बीजेपी के उम्मीदवारों की जब सूची जारी हुई तो उसमें केंद्र में मौजूद नेताओं के नामों को देखकर सबको हैरानी हुई। इस बात की हैरानी ख़ुद कैलाश विजयवर्गीय को भी हुई थी।
कैलाश विजयवर्गीय इंदौर से चुनाव जीत गए हैं और उन्हें भी मुख्यमंत्री की दौड़ में माना जा रहा है।
हालांकि, वो राज्य में जीत का श्रेय सिफऱ् शिवराज को नहीं देना चाहते हैं। उन्होंने इस जीत के बाद भारी जनादेश के पीछे मोदी के नेतृत्व को वजह बताया।
जब उनसे पूछा गया कि क्या लाड़ली बहना स्कीम बड़ी जीत का कारण बनी। इस सवाल के जवाब पर उन्होंने कहा ‘क्या लाड़ली बहना योजना छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी थी?’
सलमान रावी इस बयान पर कहते हैं कि बीजेपी के महासचिव ये बात कह रहे हैं, इसका मतलब है कि बीजेपी ये मान रही है कि सिफऱ् शिवराज की योजना फ़ैक्टर नहीं थी बल्कि मोदी का चेहरा भी एक बड़ी वजह थी।
‘वो (विजयवर्गीय) मास लीडर नहीं हैं, दूसरा वो ओबीसी समुदाय से नहीं आते हैं। कांग्रेस के जातिगत जनगणना के आंकड़े के वादे को काउंडर करने के लिए कैलाश विजयवर्गीय सही चेहरा बीजेपी के लिए नहीं होंगे।’
संजय सक्सेना कहते हैं, ‘संगठन के लिहाज़ से उन पर बीजेपी दांव खेल सकती है। मुझे लगता है कि उन्हें संगठन की जि़म्मेदारी दी जाएगी।’
नरेंद्र सिंह तोमर या फग्गन सिंह कुलस्ते
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के चुनाव लडऩे की जब घोषणा हुई तब ये माना जाने लगा था कि वो मुख्यमंत्री के पद की रेस में सबसे आगे हैं।
चुनाव प्रचार के दौरान उनके बेटे देवेंद्र सिंह का एक कथित वीडियो वायरल हुआ जिसमें वो पैसे के लिए डील कर रहे थे। चर्चा है कि इस वीडियो के सामने आने के बाद बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम नहीं उठाना चाह रही है।
वहीं, आदिवासी समुदाय से आने वाले केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते के नाम की भी चर्चा चल रही थी लेकिन वो चुनाव हार गए। वहीं, विश्लेषक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक पारी अब समाप्ति की ओर है और उन्हें महाकौशल से एक चेहरे के तौर पर वोट बटोरने के लिए उतारा गया था।
कोई छिपा नाम आएगा सामने?
बीजेपी मध्य प्रदेश प्रमुख वीडी शर्मा और मंत्री राजेंद्र शुक्ला के नामों की भी चर्चा चल रही थी और दोनों ही ब्राह्मण समुदाय से आते हैं।
सलमान रावी कहते हैं कि ब्राह्मण समुदाय से होने के नाते इनके नामों पर बात आगे बढ़ती नहीं दिख रही क्योंकि बीजेपी ओबीसी की ही राजनीति करना चाहती है।
वहीं संजय सक्सेना कहते हैं कि ‘ओबीसी के अलावा किसी नाम पर विचार होगा तो वो एससी-एसटी समुदाय से होगा। मुझे नहीं लगता कि ब्राह्मण कोई नेता मुख्यमंत्री होगा। पिछली बार नरोत्तम मिश्रा के नाम की चर्चा थी लेकिन उन पर बीजेपी ने दांव नहीं लगाया और इस बार वो चुनाव हार गए।’
‘महिला ओबीसी के नाम की भी चर्चा चल रही है लेकिन इस पर भी सवाल उठता है कि वो लोकसभा चुनाव के लिहाज़ से कितना कारगर साबित होगा। महिला ओबीसी में भोपाल से सिफऱ् कृष्णा गौर का चेहरा नजऱ आता है जो एक लाख छह हज़ार वोटों से चुनाव जीती हैं।’
सलमान रावी कहते हैं कि इस सबके बावजूद बीजेपी को ये महारत हासिल है कि वो अचानक मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फडणवीस जैसे नामों को खड़ा कर देती है, मध्य प्रदेश में ऐसा भी नाम हो सकता है जिसकी कोई चर्चा न हो।
वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल अतीत के उदाहरणों का हवाला देते हुए कहते हैं कि बीजेपी ने जिन राज्यों में जीत हासिल की वहां कभी भी विधायकों ने मुख्यमंत्री नहीं चुना, पीएम मोदी ने अचानक कोई नया नाम निकालकर चौंका दिया, ऐसा गुजरात, झारखंड, उत्तराखंड, हरियाणा में देखा जा चुका है।
वह कहते हैं, ‘पीएम मोदी की जो शैली है उसमें वो दो तीन चेहरों को चर्चा में बनाए रखते हैं और एक नए नाम को ले आते हैं। जैसे कि सिंधिया लगातार बड़े नेताओं के साथ डिनर कर रहे हैं, प्रह्लाद पटेल अमित शाह से मिल रहे हैं तो ऐसा लगता है कि इनमें से कोई मुख्यमंत्री बने।’
राजेश बादल कहते हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस के जातिगत जनगणना के मुद्दे से निपटने के लिए बीजेपी ओबीसी के नए चेहरे पर ही दांव खेलेगी। (bbc.com/hindi)
सुनीता नारायण
देश अपनी आज़ादी के 76वें साल का जश्न मना रहा है। इस मौके पर यह जायज़ा लेना उचित होगा कि पर्यावरण आंदोलनों ने देश की नीतियों और विकास को आकार देने में क्या भूमिका निभाई है।
पर्यावरण आंदोलन की तीन अलग-अलग राहें हैं जिन पर हम इतिहास में इनके पदचिन्ह देख सकते हैं।
पहली, जिसमें पर्यावरण आंदोलन ने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए विकास रणनीति को परिभाषित करने में भूमिका निभाई है। दूसरी, जिसमें पर्यावरणीय अभियानों ने विकास परियोजनाओं का विरोध किया है और इस संघर्ष से कार्रवाई के लिए सर्वसम्मति उभरी है। तीसरी, पर्यावरणीय आंदोलन ने प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य के मामलों में नीतियों में बदलाव करने की ओर ज़ोर लगाया है।
आंदोलन की ‘प्रकृति’ जटिल है। पिछले 75 सालों में ये आंदोलन दो धाराओं में बंटकर काम करते रहे हैं - विकास के रूप में पर्यावरणवाद और संरक्षण के रूप में पर्यावरणवाद।
आंदोलन में यह विभाजन इसके जन्म के समय, 1970 के दशक में, भी नजऱ आ रहा था। 1973 में, ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ नामक एक कार्यक्रम शुरू किया गया था जो संरक्षण की पश्चिमी अवधारणा के अनुरूप प्रमुख प्रजातियों के संरक्षण हेतु अभयारण्यों हेतु भूमि चिन्हित करने के लिए था। लगभग उसी समय, हिमालय के ऊंचे इलाकों में महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया था, जिसमें उन्होंने पेड़ काटने (पेड़ों पर आरी-कुल्हाड़ी चलाने) का विरोध किया था। उनका आंदोलन संरक्षण के बारे में नहीं था; उन्हें जीवित रहने के लिए पेड़ों की आवश्यकता थी और इसलिए वे उन्हें काटने और उन्हें उगाने का अधिकार चाहते थे।
यह भेद हमारी नीतियों में भी झलकता है जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उनके संरक्षण के बीच डोलती रहती हैं। और इन सब में, समुदायों के अधिकार उपेक्षित रहे हैं।
प्रोजेक्ट टाइगर वर्ष 2004 में तब पतन के गर्त में पहुंच गया था जब राजस्थान के सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के सभी बाघ शिकारियों की बलि चढ़ गए थे। तब, टाइगर टास्क फोर्स ने सुधार के लिए अजेंडा तय किया, जिसमें अभयारण्य की सुरक्षा को मज़बूत करना और टाइगर कोर ज़ोन वाले इलाकों से गांवों को अन्यत्र बसाना शामिल था। तब से जंगल में बाघों की संख्या स्थिर हो गई है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि क्या स्थानीय समुदायों को इस संरक्षण प्रयास से कोई लाभ हो रहा है?
इसी प्रकार, चिपको आंदोलन ने देश को वन संरक्षण और वनीकरण के लिए प्रेरित किया। 1980 के दशक में वन संरक्षण कानून लागू किया गया था, जिसमें यह व्यवस्था थी कि केंद्र सरकार की अनुमति के बिना वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता है।
इस कानून ने कुछ हद तक वन भूमि उपयोग परिवर्तन की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है, लेकिन साथ ही इसने उन समुदायों को वनों से दूर कर दिया है जो इनकी रक्षा करते थे। आज सवाल यह है कि जंगल कैसे उगाएं, कैसे उन्हें काटें और दोबारा फिर उन्हें उगाएं ताकि भारत काष्ठ-आधारित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ सके और इस तरह बढ़ सके कि स्थानीय लोगों को इससे फायदा हो।
1980 के दशक में, नर्मदा नदी पर बांध बनाने की परियोजना ‘विनाशकारी’ विकास का चरमबिंदु था। यह परियोजना 1983 में साइलेंट वैली पनबिजली परियोजना को रोकने के निर्णय के बाद आई थी। साइलेंट वैली परियोजना केरल के उपोष्णकटिबंधीय जंगलों की समृद्ध जैव विविधता को बचाने के लिए रोकी गई थी।
नर्मदा परियोजना के मामले में भी मुद्दे वही थे - जंगलों की क्षति और विस्थापित गांवों का पुनर्वास। इस आंदोलन को बहुत सम्मान और निंदा दोनों मिलीं। लेकिन इस आंदोलन ने इस मुद्दे को बहुत अच्छे से उठाया कि नीति में और फिर सबसे महत्वपूर्ण रूप से क्रियांवयन में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए।
1980 के दशक की इन हाई-प्रोफाइल परियोजनाओं के कारण 1990 के दशक में पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन करने और मंज़ूरी देने के ताम-झाम की स्थापना हुई। लेकिन संतुलन बनाने का उपरोक्त कार्य अभी भी अधबीच में है।
यह 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सूखा पड़ा था जिसने हमारे सहयोगी और पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल को जल प्रबंधन की मान्यताओं को फिर से देखने-समझने के लिए प्रेरित किया।
डाइंग विजड़म नामक पुस्तक में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्रों में पारंपरिक जल प्रबंधन की तकनीकी प्रवीणता का दस्तावेज़ीकरण किया गया है। इसने विकेन्द्रीकृत और समुदाय-आधारित जल संरक्षण के विचार को उभारा, जिसके बाद आजीविका में सुधार करने और जहां बारिश होती है वहीं उस पानी को भंडारित करने के लिए जल निकायों के पुनर्जनन की दिशा में नीतिगत बदलाव हुए।
दिसंबर 1984 में आई औद्योगिक आपदा भोपाल गैस कांड - जिसमें यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुई थी और मौके पर ही हज़ारों लोग मारे गए थे - के कारण औद्योगिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए बने कानूनों में सुधार हुआ, और कुछ हद तक कंपनियों की तैयारियों में सुधार हुआ। लेकिन हमने उन लोगों को अब तक न्याय नहीं दिया है जो इसके चलते अब भी स्वास्थ्य समस्याओं से पीडि़त हैं और उनके पास आजीविका का अभाव है।
1990 के दशक में दिल्ली में स्वच्छ हवा के अधिकार के लिए लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई से बेहतर ईंधन के विकल्प मिले और प्रौद्योगिकी की गुणवत्ता में सुधार हुआ है -दिल्ली ने स्वच्छ संपीडि़त प्राकृतिक गैस (सीएनजी) को अपनाया। (बाकी पेज 8 पर)
लेकिन जैसे-जैसे सडक़ों पर वाहन और प्रदूषण बढ़ाने वाले ईंधन का दहन (उपयोग) बढ़ा, वैसे-वैसे वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि हुई। अच्छी खबर यह है कि आज, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों के खिलाफ व्यापक अफसोस (या चिंता) है। बुरी खबर यह है कि हम परिवहन प्रणाली को बेहतर करने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं - यानी उद्योग, बिजली या खाना पकाने में उपयोग होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के उपयोग को थामने के कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं।
ऐसी और भी अन्य घटनाएं हैं जिन्हें पर्यावरण इतिहास डायरी में अवश्य दजऱ् किया जाना चाहिए। हालांकि, भारत के पर्यावरण आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण लाभ वह आवाज़ है जो इसने देश के नागरिकों को दी है। यही आंदोलन की आत्मा है। दरअसल, पर्यावरणवाद का सरोकार तकनीकी सुधारों से नहीं है बल्कि लोकतंत्र को मज़बूत करने से है। (स्रोत फीचर्स)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे राजनीतिक दल और उनके हाई कमान सत्ता हासिल करने के लिए तरह तरह के शॉर्ट कट अपनाते हैं। जिसका शॉर्ट कट सबसे आकर्षक होता है वह बाजी मार लेता है।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे बहुत दिनों तक चुनाव विश्लेषकों को स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए परेशान करते रहेंगे क्योंकि यहां लंबी एंटी इनकंबेंसी थी, सडक़ जैसे बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की हालत दयनीय थी, दल बदल कराकर अनैतिक तरीके से सत्ता हथियाई गई थी। यही कारण था कि भाजपा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को आगे नहीं बढ़ाया था। इन सब विषम परिस्थितियों के बावजूद भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल होना आश्चर्यजनक है।भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस भले ही विरोधाभासी दावे कर अपनी पीठ थपथपाते हुए या दूसरे को नीचा दिखाने के लिए अपनी जीत और हार के बारे में कुछ भी कहें लेकिन सच्चाई यह ही है कि अब चुनाव जनता के जरूरी जमीनी मुद्दों यथा सडक़, पानी, बिजली, रोजग़ार, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि सुविधाओं को लेकर नहीं लड़े और जीते जाते अपितु सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न भावनात्मक मुद्दों पर जनता के खास वर्गों को लामबंद किया जाता है। धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय संस्कृति चार ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिनके साथ धन का मिश्रण जनता में हवाई लहर बना देता है। विभिन्न भावनात्मक मुद्दों को अलग अलग या विभिन्न मिश्रण के साथ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों द्वारा समय समय पर अपनाकर सत्ता हासिल करने के पूर्व के भी कई उदाहरण हैं, मसलन क्षेत्रीय अस्मिता और भाषा को लेकर तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, टी आर एस और तमिलनाडू में डी एम के और ए आई ए डी एम के आदि, अनुसूचित जातियों के दम पर बहुजन समाज पार्टी, एम वाई मिश्रण से समाजवादी पार्टी और राजद इसी तरह अपने अपने राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे हैं। भारतीय जनता पार्टी अब सरेआम हिंदुत्व को आगे बढ़ाने में पहले जैसा संकोच नहीं करतीं और खुलकर राम मंदिर और धार्मिक लोक का ढिंढोरा पीटती है। इसी तरह कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के आरोप लगते रहे हैं।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यही प्रारंभिक संकेत दे रहे हैं कि भाजपा के प्रचंड बहुमत के लिए धर्म (हिंदुत्व) और धन का मिश्रण अत्यंत कारगर साबित हुआ है। जहां तक धन का प्रश्न है उसमें कई स्रोतों से जनता को धन पहुंचा है। सबसे ज्यादा लाडली बहनों के खातों में हर महीने सरकारी धन जमा होना अन्य सभी मुद्दों पर भारी पड़ा है। भाजपा का हर महिला के खाते में छत्तीस हजार रूपए प्रतिवर्ष जमा करने का वादा खुद में इतना आकर्षक है कि उसके सामने तमाम रेवडिय़ां बौनी दिखाई देती हैं।भारतीय जनता पार्टी के पास कॉरपोरेट चंदे का धन भी कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में कई गुणा है जिसके सहारे दल के रुप में बड़ा खर्च संभव था।अमीर उम्मीदवारों का निजी काला धन भी लगातार लम्बे समय तक सत्ता में रहने के कारण भाजपा के उम्मीदवारों के पास होना स्वाभाविक है।धन के ये तीन बड़े स्रोत काफी मतदाताओं के ईमान डिगाने में सक्षम हैं। सत्ता हासिल करने के लिए धन बल का प्रयोग हमारे लोकतंत्र के शैशव काल से चल रहा है। ऐसा लगता है कि इन चुनावों में उसने धर्म के साथ मिलकर जबरदस्त काम किया है।
धर्म और धन का भाजपाई गठजोड़ निश्चित रूप से राजस्थान और छत्तीसगढ में भी प्रभावी रहा है, हालाकि वहां कांग्रेस की आपसी कलह के कारण भी भाजपा विजयी हुई है। एक तरफ जहां भाजपा का धर्म और धन का मारक गठजोड़ बेहद सफ़ल रहा है वहीं कांग्रेस ने पिछड़ी जातियों को लुभाने का दांव चला था। आनन फानन में चले इस दांव ने कांग्रेस को लाभ के बजाय हानि पहुंचाई है। पिछड़ी जातियों ने तो कांग्रेस को ज्यादा अहमियत नहीं दी उल्टे सवर्ण समाज कांग्रेस से दूर छिटक गया जो उसका परंपरागत वोट बैंक था। उम्मीद की जा सकती है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में धर्म और धन के गठजोड़ को जारी रखेगी और कांग्रेस ने कुछ नया दांव नहीं चला तो भाजपा आसानी से सत्ता की हैट्रिक पूरी करेगी।
देवेन्द्र वर्मा
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने राजनीतिक विश्लेषकों, चुनावी पंडितों, एग्जिट पोल के नाम से पोस्टमार्टम करने वाली एजेंसियों और भाजपा सहित अन्य राजनीतिक दलों के अनुमानों को सिरे से खारिज कर दिया। चुनाव परिणामों के आने के पूर्व भाजपा के नेता परिणामों को लेकर सशंकित थे, एकतरफ़ा परिणामों से उन सबकी बाँछे खिली हुई है, यद्यपि इस जीत का सेहरा तो सब मोदी, शाह, और नड्डा के सिर पर बांध रहें हैं, लेकिन जीत के कारण उनकी योजनाओं विशेषकर मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना को ‘गेम चेंजर’ बताने में या जीत में स्वयं के योगदान का उल्लेख करने में भी राज्य के नेता पीछे नहीं हैं।
प्रश्न यह है कि क्या तीन तीन राज्यो में इतनी बड़ी जीत के लिए किसी एक योजना को गेम चेंजर माना जा सकता है ?
वर्ष 2018/19 के विधान सभाओं और लोकसभा चुनाव में भी के सिलिंडर पर सब्सिडी, किसानों को आर्थिक अनुदान, बिजली बिल्स माफ़ जैसी अनेक योजनाओ के रहते हुए विगत चुनावों में (2018/19) विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के मताधिकार का ट्रेंड अलग अलग रहा, अर्थात राज्य विधानसभा के चुनाव में मतदाताओं ने भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों के स्थानीय राज्य नेतृत्व की तुलना करते हुए मतदान किया तो परिणाम भाजपा के केद्रीय नेतृत्व की आशानुकूल नहीं आये, राज्यों में भाजपा को सरकार बनाने लायक़ बहुमत भी नहीं मिल पाया फलस्वरूप कई राज्यो में कांग्रेस अथवा अन्य दलों की सरकारें बनी ।
राज्यों में तो भाजपा को सरकार बनाने लायक़ बहुमत नहीं मिला, (यद्यपि पश्चात भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से प्रभावित होकर भाजपा में सम्मिलित होकर भाजपा की सरकारे बनी) लेकिन अल्पावधि के अंतर में संसद के निर्वाचन के लिए मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व में भरपूर भरोसा प्रदर्शित किया, नतीजा 2014 में 282 सीट्स से 2019 में भाजपा को 303 सीट्स पर विजय श्री प्राप्त हुई।
हाल ही के 5 राज्यो के चुनाव के लगभग एक वर्ष पहले हिमाचल और कर्नाटक के चुनाव भाजपा ने एक बार फिर राज्य नेतृत्व को महत्व देते हुए चुनाव में जाने का निर्णय किया लेकिन विपक्षी दलों के नेतृत्व की तुलना में भाजपा के राज्यो के नेतृत्व को लगभग ख़ारिज कर दिया।
2023 हाल के पाँच राज्यो के चुनाव 2024 में लोकसभा के चुनाव पूर्व होने वाले ऐसे चुनाव थे, जिनके परिणाम जनता की पहचानने के लिए महत्वपूर्ण हैं, साथ ही हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस को सत्ता की कुर्सी प्राप्त होने के और भाजपा की शिकस्त पश्चात (बाकी पेज 8 पर)
2024 के चुनावों के मद्दे नजऱ भाजपा के लिए उत्तर भारत के प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान के चुनाव जीतना एक चुनौती था, और चुनाव में इस चुनौती को अपने अकल करना भी।
इन चुनावों में केंद्र की योजनाओं, स्वयं की लोकप्रियता के आधार पर जाने का जोखिम लिया, और संगठन के केंद्रीय नेतृत्व नड्डा ने अमित शाह के मार्ग दर्शन में चुनावों का संपूर्ण संच अपने हाथ में ले लिया।
शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे और रमन सिंह पूर्व मुख्य मंत्रियों को विशेष महत्व नहीं देकर यह संदेश देना कि सत्ता में आने मुख्यमंत्री का निर्णय पश्चात होगा, और सबसे महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को सामने रखते हुए मोदी के नाम पर मतदाताओं से वोट देने की अपील करना, चुनाव घोषणा पत्र को मोदी की गारंटी जोडऩा ।
पूर्ण मोदी की शतक से अधिक सभायें और रोड शो, अमित शाह और नड्डा के संगठन को सक्रिय करने की जीतोड़ मेहनत और बूथ लेवल तक कार्यकर्ताओं को जि़म्मेदारी सौंपने से मोदी की चुनाव लडऩे की डिज़ाइन (अभिकल्पना) ने भाजपा की जीत की संभावनाओं को साकार कर दिया।
चुनाव में केंद्र की लोक कल्याणकारी योजनाओं और चुनावों की रणनीति की अभिकल्पना ( डिज़ाइन) का आरंभ पूर्व स्थापित प्रक्रियाओं को तिलांजलि देते हुए हुए, पहली बार चुनावों की घोषणा होने के पूर्व हाई कमांड द्वारा अपने सूत्रों से जानकारी प्राप्त कर, प्राप्त जानकारी के आधार पर प्रत्याशियों के नामों की घोषणा, अनेक केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव में उतारना, चुनाव संचालन का संपूर्ण नियंत्रण केंद्रीय नेतृत्व द्वारा अपने पास रखना, एंटी इनकम्बैंसी की धार को बोथरा करने के लिए सामूहिक नेतृत्व में चुनाव में जाना, इन योजनाओं से आये परिवर्तन को बार बार दोहराया गया।
मोदी ने इन चुनावों के लिये जो डिज़ाइन तैयार की है, उसमें पूर्व मुख्यमंत्रियों को सीएम पदके लिये प्रोजेक्ट नहीं किया, मोदी सामान्यत: अपने निर्णयों में परिवर्तन नहीं करते हैं, ऐसी स्थिति में नहीं राज्यों में सीएम के लिये नये नाम सामने आयें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
चैतन्य नागर
आइन्स्टाइन को दिन में करीब दस घंटे तक नींद आती थी। इसके अलावा वह बीच-बीच में कुछ मिनटों की झपकी लेते रहते थे। उनका मानना था कि नींद दिमाग को टटका बना देती है, उनकी सृजनात्मक अंतर्दृष्टियां काम और विश्राम के अंतराल में ही जन्मती हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं कोई लगातार नींद में रहे। और यह उम्मीद करे कि उस नींद की स्थिति में ही चमत्कार का जन्म होगा। यह बात जीवन की हर क्षेत्र में लागू होती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बहुत अधिक। कांग्रेस पर तो जरूरत से ज्यादा।
कांग्रेस के साथ दो बड़ी समस्याएं हैं। बाकी छोटी तो और भी कई हैं। सबसे विचित्र समस्या यह है कि वह सोचती है कि भाजपा के करीब दस साल के शासन के बाद भी जनता उसकी पुराने, परम्परावादी राजनीतिक दर्शन के झांसे में आ जायेगी। इस दर्शन में मुस्लिम तुष्टिकरण, जातिवाद पर आधारित राजनीति वगैरह शामिल है। दूसरी यह कि कांग्रेस एक विचित्र किस्म के रुग्ण अहंकार से पीडित है और इसका सोचना है कि चूंकि उसने कई दशकों तक देश पर राज किया है, तो यही अनंत काल तक उसे आगे राज करने का भी अधिकार दे देती है। ऐसा सोचते समय वह बदलते हुए देश और समाज, इसके सामाजिक ढाँचे वगैरह को पूरी तरह अनदेखा कर देती है। वह अभी भी सोचती है कि एक परिवार या एक व्यक्ति के आधार पर वह लगातार लोगों को झांसे में रखेगी और जीतती जायेगी, सत्ता पर काबिज रहेगी। जब आत्म निरीक्षण की बात होती है तो वह बार-बार विपक्ष पर अधिक और स्वयं पर कम गौर करती है। इसका अर्थ है कि उनकी हार का दोष उनकी कमियों पर नहीं, बल्कि विपक्ष पर मढा जाना चाहिए। अजीब बात यह है कि कांग्रेसी इस अनर्गल बात पर बार बार भरोसा कर बैठते हैं। परिणाम यह है कि उनका सबसे बड़ा नेता, (पार्टी अध्यक्ष नहीं, बल्कि राहुल गांधी) लगातार, झूठे वाह्य आवरण के पीछे बैठकर ऐसे फैसले लेता रहता है जिसके बारे में उसकी समझ अभी भी परिपक्व नहीं हुई (यह भी नहीं मालूम कि उम्र के किस पड़ाव पर यह परिपक्व होगी), और पार्टी उनकी जय जयकार करती रहती है।
अब तीन राज्यों में हार के बावजूद हो सकता है कांग्रेस पार्टी स्थानीय नेताओं पर दोष मढ़ दे, या भाजपा के चातुर्य या कुटिलता पर। ई वी एम पर भी कुछ लोगों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है। वह और भी कई सृजनात्मक कारण ढूँढ सकती है। पिछले कई वर्षों में हुई लगातार पराजय ने उसे इस काम में माहिर बना दिया है। पर जो बात उसे समझ नहीं आ रही, वह यह है कि यह सब उसके खुद के लिए कितना विध्वंसक है।
कांग्रेस के साथ उलझी हुई विचारधारा की भी एक समस्या है। कांग्रेस पार्टी कभी भी ओबीसी आधारित राजनीति के केंद्र में नहीं रही। हमेशा इसकी परिधि में ही रही है। न ही वह हिन्दूवादी पार्टी रही है। मंडल आयोग का उसने विरोध किया था। उसे मुस्लिम समुदाय का विकास करने वाली पार्टी नहीं बल्कि मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाली पार्टी के रूप में ही इतिहास याद रखेगा। तो फिर अचानक कांग्रेस जातिगत जनगणना वगैरह की बात कैसे करने लगी? कैसे कमलनाथ जैसे नेताओं ने सॉफ्ट हिंदुत्व का नाटक रचना शुरू किया? क्यों राहुल गांधी ने माथे पर भस्म लगाकर मंदिरों में जाना शुरू किया? क्यों उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों को बेवकूफ बनाने की कोशिश की? खासकर तब जब भारत पिछले दस वर्षों में मोदी की कार्य शैली देख चुका है। जनता मोदी पर इसलिए भरोसा करती है क्योंकि उन्होंने जो कहा, वो किया। 3.0 हटाई, तीन तलाक खत्म किया, राम मंदिर बनाया जिसका वादा किया वही किया। वोटर वोट देते समय सोचता है कि ये तो भरोसे के लोग हैं। कम से कम जो कहते हैं, वो करते तो हैं। इधर कांग्रेस अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट और आश्वस्त ही नहीं। जब खुद ही स्पष्ट नहीं, तो जनता के पास कौन सा सन्देश लेकर जायेगी?
अमेरिका के 44वें राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राहुल गांधी के बारे में लिखा है कि उनमें में एक ‘अनगढ़पन और घबराहट है, मानों वह ऐसे छात्र हों जिसने अपना पाठ पूरा कर लिया हो और शिक्षक को प्रभावित करने की चेष्टा में हो, लेकिन विषय का पारंगत होने के लिए जज़्बे और प्रतिभा दोनों की उसमें कमी हो।’ इस पुस्तक का शीर्षक है ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’। आम कांग्रेसी इस परिभाषा और व्याख्यान से बौखलाया था हालांकि पार्टी ने औपचारिक तौर पर इसपर चुप्पी साध ली थी। ओबामा ने अपनी किताब में सिर्फ राहुल गांधी के बारे में ही नहीं लिखा। उस काल के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में भी अपनी बात कही है। उनका कहना है कि डॉ सिंह एक भावशून्य ईमानदारी वाले व्यक्ति हैं। सोनिया गांधी का जिक्र करते हए ओबामा कहते हैं कि दुनिया में पुरुष नेताओं की खूबसूरती के बारे में खूब चर्चा होती है पर महिला नेताओं के सौंदर्य के बारे में लोग बातें करते हुए कतराते हैं। उन्होंने सुंदर स्त्री नेताओं में सोनिया गांधी के नाम का जिक्र किया है।
ओबामा ने थोड़े शब्दों में कांग्रेस के इन नेताओं को बड़े सटीक ढंग से परिभाषित किया है। उनकी टिप्पणियां किसी पूर्वग्रह से ग्रसित बिल्कुल नहीं लगती। दो बार राष्ट्रपति रहे ओबामा ने अपने गहरे अवलोकन की क्षमता को दर्शाया है। जो लोग उनके ऐसा कहने की आजादी पर सवाल कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्ममंथन करना चाहिए। ये किसी आम नेता का बयान नहीं जो प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी का विरोधी हो, अभी देश की सत्ता संभाले हुए लोगों का करीबी हो या कांग्रेस में राहुल गांधी की जगह हथियाने की फिराक में हो। यह एक बहुत ही लोकप्रिय और विश्व के सबसे बड़े नेताओं में से एक, नोबेल शांति का पुरस्कार पाए हुए एक सुलझे हुए नेता का बयान है जो कि अपने व्यक्तित्व, संजीदगी और अपने देश की जनता के साथ अच्छे संबंधों के कारण न सिर्फ अपने देश में बल्कि पूरी दुनिया में विख्यात रहा है। वह सस्ती लोकप्रियता और नाटकीय तौर तरीकों से कोसों दूर रहने वाले नेताओं में रहे हैं और ट्रम्प को उनके विलोम के रूप में देखा जा सकता है।
पिछले लोक सभा चुनावों के बाद एक शब्द बड़ा लोकप्रिय हुआ-आत्मनिरीक्षण। राजनैतिक आत्मनिरीक्षण का मतलब है चुनाव परिणाम के आईने में खुद की बदली हुई स्थिति को देखना। आईना आपको दिखाता है कि कैसे हैं आप, आपके नाक नक्श कैसे हैं, वजन बढ़ा हुआ है, या घटा है, वगैरह-वगैरह। अब आप आईने से कहें कि जरा बदल दे वह आपकी नाक का आकार, तो यह तो भयंकर बेईमानी हुई। आत्मनिरीक्षण में तो एक निर्ममता होनी चाहिए, एक कठोर और स्पष्ट दृष्टि, जिसमें कोई कोशिश भी करे तो न बदल पाये आपकी नाक के आकार को। खुद को जस का तस, यथाभूत देखने का साहस होना चाहिए।
मुझे तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस के लिए भारत का राष्ट्रीय पक्षी मोर नहीं, शुतुरमुर्ग होना चाहिए। कम से कम कांग्रेसियों के लक्षण देख कर तो ऐसा ही लगता है। कांग्रेसी खुद से रचे रेत के ढेरों में सर छिपा रहा है, बचने की कोशिश में है। खासकर एक ऐसी पार्टी जिसने अपना पूरा जीवन एक व्यक्ति, एक नाम पर लटककर बिताया हो, परजीवी की तरह अतीत की मृत देह को नोच कर अपनी राजनीतिक भूख मिटाने की कोशिश में रहा हो, उससे तो और कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती। शुतुरमुर्ग आत्मनिरीक्षण नहीं करता बस रेत के एक ढेर से दूसरे ढेर की तलाश भर कर सकता है। यही उसकी कमेडी है; यही ट्रेजडी। व्यक्ति और संगठन का वर्तमान जब सन्नाटे में चला जाता है, तो उसके पास एक रूमानी अतीत पर जीभ फिराने और उसे फिर से जिलाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। और उस मृत, तथाकथित गौरवशाली अतीत के आधार पर वह एक अजन्मे लुभावने भविष्य की कल्पना करता है, खुद को और दूसरों को बहलाने के लिए। समय की मांग यही है कि कांग्रेस इस देश के राजनीतिक लैंडस्केप पर कोई जगह चाहती है तो एक बार फिर से आत्म निरीक्षण करे। और सचाई के साथ करे। वैसे तो काफी देर हो चुकी है, पर फिर भी 2024 नहीं तो 2029 के लिए तो कुछ काम आ ही जाएगा उनका निरीक्षण।
आत्म-निरीक्षण के साथ कांग्रेस थोडा मोदी-निरीक्षण भी करे। उनमें सिर्फ बुराइयां न ढूँढे। उनकी कार्य शैली से, उनके व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता के कारणों को खंगाले और उनसे भी कुछ सीखे। कांग्रेस में कोई नरेंद्र मोदी नहीं बन सकता, बनने की जरूरत भी नहीं, पर कांग्रेस नरेंद्र मोदी से सीख जरूर सकती है, यदि वह उनकी अंधाधुंध नकारात्मक आलोचना से थोडा परहेज कर सके तो। यदि अभी भी नहीं, तो फिर कब? विधान सभा चुनावों के नतीजे और उनका संदेश दीवारों पर साफ-साफ लिखा है। साफ भी है और चीख भी रहा है। समय रहते उसे पढऩा और सुनना कांग्रेस की मदद करेगा। और नहीं तो जाने अनजाने में कांग्रेस और राहुल गांधी भाजपा के लिए एक कीमती जरिया बने रहेंगे, जीत के रास्ते पर । जब तक राहुल गांधी रहे, भाजपा उनकी और कांग्रेस की शुक्रगुजार रहेगी। वह बने रहें, भाजपा जीतती रहेगी। फिक्र नहीं कांग्रेस को, तो वह हारती रहे।
-ललित मौर्या
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) में प्रकाशित एक नई रिसर्च के मुताबिक घरों, इमारतों से बाहर वातावरण में मौजूद वायु प्रदूषण भारत में हर साल 21.8 लाख जिंदगियों को छीन रहा है। यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो चीन के बाद भारत दूसरा ऐसा देश है जहां वायु प्रदूषण इतनी बड़ी संख्या में लोगों की जिंदगियों को लील रहा है।
रिसर्च में जो आंकड़े साझा किए हैं उनके मुताबिक चीन में आउटडोर एयर पॉल्यूशन हर साल 24.4 लाख लोगों की मौत की वजह बन रहा है। वहीं यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो जीवाश्म ईंधन के उपयोग से होने वाले वायु प्रदूषण दुनिया भर में हर साल करीब 51.3 लाख लोगों को मौत के घाट उतार रहा है। इस जीवाश्म ईंधन का उपयोग उद्योग, बिजली उत्पादन और परिवहन जैसे क्षेत्रों में किया जा रहा है।बता दें कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी 2019 के साथ-साथ वातावरण में मौजूद प्रदूषण के महीन कणों की मौजूदगी की जानकारी के लिए नासा के उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों की मदद ली है। साथ ही उन्होंने इसके लिए ऐसे मॉडलों का उपयोग किया है जो वातावरण की परिस्थितियों और एरोसोल के साथ-साथ स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभावों का विश्लेषण कर सकते हैं।
इनकी मदद से शोधकर्ताओं ने यह समझने का प्रयास किया है कि जीवाश्म ईंधन से होने वाला वायु प्रदूषण कितने लोगों की जान ले रहा है और यदि जीवाश्म ईंधन को स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बदल दिया जाए तो उससे लोगों के स्वास्थ्य को कितना फायदा होगा।
61 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेवार जीवाश्म ईंधन
इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक दुनिया भर में 2019 के दौरान सभी स्रोतों से होने वाले वायु प्रदूषण के चलते 83.4 लाख लोगों की असमय मृत्यु हो गई थी। इसके लिए प्रदूषण के महीन कण और ओजोन जैसे प्रदूषक जिम्मेवार थे।
इनमें से आधे से अधिक करीब 52 फीसदी मौतें हृदय सम्बन्धी रोगों और चयापचय से जुड़ी थी। वहीं अकेले 30 फीसदी मौतों के लिए वायु प्रदूषण से जुड़ी हृदय सम्बन्धी बीमारियां जिम्मेवार थी। इसी तरह 16 फीसदी मौतों की वजह स्ट्रोक, 16 फीसदी के लिए फेफड़े की बीमारी और छह फीसदी के लिए मधुमेह जैसी स्थिति जिम्मेवार थी। वहीं 20 फीसदी मौतों की वजह स्पष्ट नहीं हो सकीहै। इसके लिए उच्च रक्तचाप और न्यूरोडीजेनेरेटिव विकार जैसे अल्जाइमर और पार्किंसंस जिम्मेवार हो सकते हैं।रिसर्च में वायु प्रदूषण से होने वाली इन 83.4 लाख मौतों के करीब 61 फीसदी के लिए केवल जीवाश्म ईंधन को जिम्मेवार माना है। ऐसे में शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा जैसे समाधानों की मदद ली जाए तो इन मौतों को टाला जा सकता है। साथ ही यह जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होगा।
बता दें कि इस अध्ययन में जीवाश्म ईंधन से जुड़ी मौतों के यह जो नए आंकड़े जारी किए गए हैं वो पिछले अधिकांश अनुमानों से कहीं ज्यादा हैं। ऐसे में शोध के मुताबिक जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से बंद करने से इससे होने वाली मृत्यु दर पर कहीं ज्यादा प्रभाव पड़ सकता है। शोधकर्ताओं ने खुलासा किया है कि यदि इंसानों द्वारा किए जा रहे वायु प्रदूषण को पूरी तरह नियंत्रित कर लिया जाए तो इससे होने वाली 82 फीसदी से अधिक मौतों को टाला जा सकता है।
ध्यान देने योग्य है कि यह आंकड़े ऐसे समय में जारी किए गए हैं जब दुबई में जीवाश्म ईंधन, बढ़ते उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर चर्चा के लिए अंतराष्ट्रीय सम्मेलन (कॉप-28) जारी है। शोधकर्ता कहीं न कहीं वैश्विक नेताओं का ध्यान जीवाश्म ईंधन की ओर आकर्षित करना चाहते हैं। लेकिन क्या यह डरावने आंकड़े वैश्विक नेताओं को अपने जीवाश्म ईंधन में कटौती करने के लिए सहमत कर पाएंगे। यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है।
अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने इस बारे में अपने अध्ययन में लिखा है कि, ‘निष्कर्ष दर्शाते हैं कि वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करना स्वास्थ्य के नजरिए से बेहद फायदेमंद होगा, जो पिछले अनुमानों से कहीं ज्यादा हैं।’ उनके मुताबिक यह नतीजेसंयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वच्छ औरअक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी को बढ़ावा देने का समर्थन करते हैं।
सीएसई भी लम्बे समय से वायु प्रदूषण को लेकर करता रहा है आगाह
गौरतलब है कि सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) और डाउन टू अर्थ भारत में बढ़ते प्रदूषण के खतरों को लेकर आगाह करता रहा है। हालांकि इसके बावजूद दिल्ली, फरीदाबाद ही नहीं देश के कई अन्य छोटे बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता जानलेवा बनी हुई है। देश में स्थिति किस कदर गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में पीएम 2.5 हर साल दो लाख से ज्यादा अजन्मों को गर्भ में मार रहा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा वायु प्रदूषण को लेकर जो गुणवत्ता मानक तय किए हैं उनके आधार पर देखें तो देश की सारी आबादी यानी 130 करोड़ भारतीय आज ऐसी हवा में सांस ले रहे है जो उन्हें हर पल बीमार बना रही है, जिसका सीधा असर उनकी आयु और जीवन गुणवत्ता पर पड़ रहा है। विडंबना देखिए कि जहां हम विकास की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं वहीं देश की 67.4 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां प्रदषूण का स्तर देश के अपने राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक (40 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) से भी ज्यादा है।
यदि भारत में जीवन प्रत्याशा के लिहाज से देखें तो प्रदूषण के यह महीन कण लोगों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। ऐसे में यदि हर भारतीय साफ हवा में सांस ले तो उससे जीवन के औसतन 5.3 साल बढ़ सकते हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा दिल्ली-एनसीआर में देखने को मिलेगा जहां रहने वाले हर इंसान की आयु में औसतन 11.9 वर्षों का इजाफा हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्ष में लिखा है कि जीवाश्म ईंधन से छुटकारा, लोगों को स्वस्थ बनाने और उनकी जीवन रक्षा का एक उम्दा तरीका है। यह संयुक्त राष्ट्र की उस योजना का भी हिस्सा है, जिसमें 2050 तक जलवायु पर पड़ते प्रभावों को पूरी तरह रोकने की वकालत की गई है। उनके मुताबिक यदि हम जीवाश्म ईंधन को साफ सुथरी अक्षय ऊर्जा से बदलने में कामयाब रहते हैं तो वायु प्रदूषण हमारे स्वास्थ्य पर मंडराते सबसे बड़े खतरों में शामिल नहीं होगा। (https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
-आलोक प्रकाश पुतुल
यह 2003 का किस्सा है। छत्तीसगढ़ में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से मैंने पूछा था कि ताज़ा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से कितनी सीटें मिलेंगी?
48 विधायकों के साथ सत्ता की कमान संभालने वाले अजीत जोगी ने भाजपा विधायकों को तोड़ कर, कांग्रेस विधायकों की संख्या को 62 तक पहुंचा दिया था।
अजीत जोगी ने जवाब दिया, ‘अभी से ज़्यादा!’
लेकिन विधानसभा चुनाव में 62 सीटों वाली कांग्रेस, 37 सीटों पर सिमट कर रह गई और भाजपा ने 50 सीटें हासिल कर के राज्य में अपनी सरकार बना ली थी।
बीस साल बाद, इतिहास ने फिर से अपने को दुहरा दिया है।
2018 के चुनाव में 68 सीटें हासिल कर के सरकार बनाने वाली कांग्रेस पार्टी ने, ताज़ा चुनाव में 75 पार का नारा दिया था। लेकिन हालत 2003 जैसी हो गई।
‘बघेल के अहंकार को जवाब’
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं, ‘जनता ने भूपेश बघेल के अहंकार को जवाब दिया है। पांच सालों तक कांग्रेस के भ्रष्टाचार को जनता ने जवाब दिया है। यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में लड़ा गया था, उनकी गारंटी पर जनता ने भरोसा जताया और भूपेश बघेल की सरकार और उनके अधिकांश मंत्रियों को नकार दिया।’
ताज़ा चुनाव में कांग्रेस के अधिकांश दिग्गज़ नेता हार गए हैं।
ताज़ा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के अलावा बसपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने अपनी उपस्थिति ज़रूर दजऱ् कराई लेकिन दूसरी पार्टियों का बड़ा असर होने की संभावना धरी रह गई। इसके उलट अधिकांश सीटों पर भाजपा ने बड़े अंतर से चुनाव जीतने में सफलता पाई है और भारी अंतर से हार के कई रिकॉर्ड भी बने हैं।
हालत ये है कि पिछले चुनाव में पूरे राज्य में सर्वाधिक 59284 वोटों के अंतर से कवर्धा से जीत हासिल करने वाले मंत्री और सरकार के प्रवक्ता मोहम्मद अक़बर भी 39,592 वोटें के अंतर से चुनाव हार गए हैं। कवर्धा में पिछले दो सालों से सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बना हुआ था।
उप-मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव अंबिकापुर से चुनाव हार गए हैं।
इसी तरह कवर्धा के पड़ोस की साजा सीट से, राज्य के दूसरे कद्दावर मंत्री और सरकार के दूसरे प्रवक्ता रवींद्र चौबे भी चुनाव हार गए हैं। इसी साल अप्रेल में, साजा के बीरनपुर गांव में हुए सांप्रदायिक दंगे में एक युवक भुवनेश्वर साहू की हत्या कर दी गई थी। दो दिन बाद इसी गांव में दो मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी। राज्य सरकार ने हिंदू युवक के परिजनों को 10 लाख रुपये और नौकरी देने की घोषणा की थी लेकिन मुसलमानों के लिए सरकार ने कोई मुआवज़ा घोषित नहीं किया और परिजनों को हाइकोर्ट जाना पड़ा।
भारतीय जनता पार्टी ने इस साजा सीट पर भुवनेश्वर साहू के मज़दूर पिता ईश्वर साहू को अपना उम्मीदवार बनाया था।
हिंदुओं के साथ खड़ी दिखने की कोशिश करने वाली कांग्रेस सरकार, अपनी इस पारंपरिक सीट साजा को भी नहीं बचा पाई और रवींद्र चौबे हार गए।
हिंदुत्व काम न आया
2018 में सत्ता में आने से पहले ही ‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी, नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ का नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आते ही, नदी नालों, गौवंश, जैविक खाद और सब्जी उगाने वाली बाड़ी को प्रोत्साहित करने की योजना पर काम शुरू किया लेकिन सरकार ने मूल रूप से गोबर खऱीदने की अपनी योजना को ही सर्वाधिक प्रचारित किया। धीरे से सरकार ने गोमूत्र की भी खऱीदी शुरू कर दी।
इस बीच सरकार, राज्य भर में राम रथ यात्रा में भी जुटी रही।
कांग्रेस सरकार उस राम वन गमन पथ का निर्माण करने में जुटी रही, जो मूलत: आरएसएस और भाजपा का एजेंडा था। भगवान राम की माता कौशल्या के नाम पर बनाए गए मंदिर के सौंदर्यीकरण और उसे प्रचारित करने का कोई अवसर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने हाथ से जाने नहीं दिया। जगह-जगह भगवान राम की विशालकाय मूर्तियों की स्थापना तो जैसे सरकार की प्राथमिकता में शामिल रही।
एक तरफ़ आदिवासी आस्था के प्रतीकों को हिंदू देवी-देवताओं से जोडऩे का काम कांग्रेस पार्टी की सरकार करती रही, वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के विरोध के बाद भी, अंतरराष्ट्रीय रामायण महोत्सव और गांवों में मानस प्रतियोगिता जैसे आयोजनों का सिलसिला राज्य भर में जारी रहा।
कांग्रेस नेताओं के संरक्षण में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए आयोजित गोष्ठियों की चर्चा तो देश भर में हुई।
इसी तरह, ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों पर हमले, उनके शवों को उखाड़ कर फेंकने और प्रार्थना स्थलों पर तोडफ़ोड़ के जितने मामले रमन सिंह की सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुए थे, उससे कई गुना अधिक मामले कांग्रेस की पांच साल के कार्यकाल में सामने आए।
सांप्रदायिक दंगों में मारे जाने वाले हिंदुओं को मुआवजा और नौकरी और इसके ठीक उलट ऐसी ही हिंसा में मारे जाने वाले मुसलमानों की उपेक्षा के बाद, राज्य में मान लिया गया था कि छत्तीसगढ़ की लगभग चार फ़ीसद की अल्पसंख्यक आबादी की परवाह कम से कम कांग्रेस पार्टी को तो नहीं ही है।
लेकिन हिंदुत्व का जो मैदान कांग्रेस पार्टी ने तैयार किया, विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उसी मैदान पर कब्ज़ा कर के अपनी जीत दजऱ् की।
छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संवाद प्रमुख कनीराम नंदेश्वर ने बीबीसी से कहा, ‘कांग्रेस सरकार ने हिंदुत्व के मुद्दों को स्पर्श करने की कोशिश तो की लेकिन उसमें ईमानदारी नहीं थी। इसकी आड़ में तुष्टिकरण किया गया। इसी तरह राज्य भर में धर्मांतरण की घटनाएं बढ़ीं और रही-सही कसर बेमेतरा में हुए उस दंगे ने पूरी कर दी, जिसमें एक हिंदू युवा को दिन-दहाड़े मार डाला गया।’
हालांकि कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला इससे सहमत नहीं हैं।
सुशील आनंद शुक्ला ने बीबीसी से कहा, ‘हमारे लिए हिंदुत्व वोट का कभी मुद्दा था ही नहीं। वह छत्तीसगढ़ की संस्कृति को सहेजने की प्रक्रिया थी। हालांकि हमने जनविकास के लिए लगातार पांच साल काम किया। जनता के लिए ताज़ा चुनाव में भी कांग्रेस ने कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की थी, लेकिन जनता को भाजपा ने झूठ बोल कर भरमाया और जीत हासिल की।’
कहां पिछड़ गई कांग्रेस?
सुशील आनंद शुक्ला जिन महत्वपूर्ण घोषणाओं की याद दिलाते हैं, उनमें देश में सर्वाधिक 3200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी, किसानों की कजऱ् माफ़ी, स्व-सहायता समूह की कज़ऱ् माफ़ी, केजी से पीजी तक मुफ़्त पढ़ाई, 200 यूनिट तक मुफ़्त बिजली बिल, महिलाओं को हर साल 15 हज़ार रुपये जैसे वादे शामिल थे।
इसके मुक़ाबले भाजपा ने विवाहित महिलाओं को हर साल 12 हज़ार देने और 31 सौ रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान की खऱीदी का वादा किया था। भाजपा ने महिलाओं को 12 हज़ार की रक़म देने को लेकर महिलाओं से बड़ी संख्या में फॉर्म भी भरवाए। इसका भी बड़ा असर माना जा रहा है।
लेकिन पिछले चुनाव में कांग्रेस ने शराबबंदी, नक्सल मुद्दों पर शांति वार्ता, हसदेव में खदानों को बंद करने, बेरोजग़ारों और महिलाओं को नक़द रक़म देने जैसे वादे भले पूरा न किया हो लेकिन कज़ऱ् माफ़ी और धान खऱीदी ने किसानों के बीच सरकार की लोकप्रियता बढ़ा दी थी। इसके अलावा 200 यूनिट तक बिजली बिल आधा करने का वादा भी कांग्रेस ने पूरा किया था।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखऱि ताज़ा चुनाव में, इतनी लाभकारी योजनाओं की घोषणा के बाद भी जनता ने कांग्रेस पार्टी को क्यों नकार दिया?
राजधानी रायपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘सरकार का अहंकार और अतिआत्मविश्वास उसे ले डूबा। कांग्रेस ने 75 पार की घोषणा की और कार्यकर्ता कमज़ोर पड़ गए कि अब इतनी सीटें तो जीत ही रहे हैं। इसके अलावा भूपेश बघेल ने पांच साल मुख्यमंत्री रहने के चक्कर में पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया था। मंत्रियों के पर कतर दिए गए थे। विधायकों के काम नहीं हो पा रहे थे। विधायकों के ख़िलाफ़ अलोकप्रियता थी। यही कारण है कि पार्टी ने 71 में से 20 विधायकों की टिकट ताज़ा चुनाव में काट दी थी। लेकिन यह भी काम नहीं आया। आईएएस, आईपीएस अफ़सरों का हर चार-पांच महीने में तबादला इस तरह हो रहा था, जैसे तबादला यहां उद्योग हो।’
‘जनता से कटे नेता’
राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि पांच साल में एक के बाद एक कोयला घोटाला, शराब घोटाला, डीएमएफ़ घोटाला जैसे आरोप, ईडी और आईटी की छापामारी, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों के इन आरोपों में जेल भेजे जाने जैसे मुद्दों ने भी असर डाला। सरकार के अधिकांश विभागों में भ्रष्टाचार के मामले आम रहे।
यहां तक कि पीएससी में भी पीएससी अध्यक्ष के परिजनों, मुख्यमंत्री के कऱीबी अफ़सरों-नेताओं के बच्चों के शीर्ष पदों पर चयन को लेकर भी युवाओं में आक्रोश था। लेकिन सरकार इसकी जांच से भी बचने की कोशिश करती रही। उलटे इस मामले में अभियुक्तों का बचाव किया गया।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला कहते हैं, ‘बस्तर की सभी 12 और सरगुजा की सभी 14 सीटें कांग्रेस के पास थी। लेकिन इन पांच सालों में हसदेव से लेकर सिलगेर तक दो दर्जन से अधिक जगहों पर आदिवासियों के आंदोलन चलते रहे और साल-साल भर तक चलने वाले इन आंदोलनों की सरकार ने न केवल अनदेखी की, कुछ इलाकों में तो इन आंदोलनों का दमन भी किया गया। बस्तर में हुए फजऱ्ी मुठभेड़ों की न्यायिक जांच पर भी कार्रवाई करने के बजाय सरकार ने उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया।’
आलोक शुक्ला का कहना है कि सत्ता में आने के बाद से ही ‘मुख्यमंत्री ज़मीन से दूर होते चले गए। जन आंदोलनों से सरकार और कांग्रेस पार्टी ने न केवल दूरी बना ली थी, बल्कि मुख्यमंत्री ने जन आंदोलन के नेताओं के खिलाफ, सार्वजनिक तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करने का कोई अवसर नहीं जाने दिया। इसी तरह कांग्रेस के ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भी हाशिए पर डाल दिया गया।’
कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता सुशील आनंद शुक्ला हालांकि इससे इनकार करते हैं। उनका कहना है कि एक बार कांग्रेसजन बैठेंगे, चिंतन-मनन करेंगे।
वे राजनीति का एक स्थाई वाक्य ज़रूर दुहरा रहे हैं, ‘जनता का निर्णय शिरोधार्य है।’ (bbc.com/hindi)
संजीव खुदशाह
कल पहली बार स्टेडियम में अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय क्रिकेट देखने का मौका मिला।
यकीन मानिए तो क्रिकेट से मेरा विश्वास उठ चुका है। तब जब मैच फिक्सिंग के मामले में क्रिकेट की थू थू हुई थी। एक समय क्रिकेट को लेकर दीवानगी मेरे अंदर थी।
लेकिन अब वह बात नहीं है टीवी पर भी क्रिकेट मैं बहुत कम देखता हूं। कोई बहुत खास मैच होता है तभी टीवी के सामने बैठता हूं।
कल मुझे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जो की रायपुर के शहीद वीर नारायण अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम में खेला गया देखने का मौका मिला जो की मित्रों द्वारा प्रायोजित था।
स्टेडियम की ओर जाती हुई भीड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि क्रिकेट को लेकर कितनी दीवानगी है। बच्चे, बूढ़े, औरत, नौजवान, लड़कियां सब स्टेडियम की ओर जा रहे थे।
गेट पर ही पानी के बोतल, सिक्के, खाने की वस्तुएं रखवा ली गई। भीतर जाने के बाद पता चला कि?20 की पानी की बोतल ?100 में और खाने के जो समान है। उनका रेट कितना ज्यादा की मत पूछिए।
जैसे ही मैं स्टेडियम के भीतर पहुंचा आवक रह गया। स्टेडियम में खचाखच भरी भीड़ और दूधिया रोशनी से नहाती खिलाडिय़ों के मैदान। बेहद आकर्षक लग रहे थे। हम लोग जब अपनी सीट पर बैठकर क्रिकेट का आनंद लेने की कोशिश करने लगे तो महसूस हुआ की इससे ज्यादा अच्छा तो टीवी में लगता है। ऐसा लगता है कि हम खिलाडिय़ों के साथ ही घूम रहे हैं या मैदान के बीच में है।
लेकिन क्रिकेट के मैदान में बात दूसरी हो जाती है। कौन बैटिंग कर रहा है? कौन बॉलिंग कर रहा है? आप समझ नहीं पाते. यह जानने के लिए डिस्प्ले बोर्ड जो मैदान में 1 या 2 होते हैं उनका सहारा लेना पड़ता है। बच्चे बूढ़े सब अपने गालों में तिरंगा झंडा बनाए हुए। भारतीय टीम की नीली शर्ट जो मैच के दौरान, एक-दो घंटे के लिए ही पहननी थी लोगों ने 150, 300 में खरीदा था। ऐसा नहीं लग रहा था की यह कार्यक्रम किसी विकासशील देश में हो रहा है। लोगों की खरीदने की ताकत पहले से कहीं अधिक है। टिकट की मूल या 3500 से 25000 तक थे।
क्रिकेट का मैच दरअसल एक इवेंट हो गया है। ओवर खत्म होने के बाद आकर्षक म्यूजिक बजाया जाता है। चौका- छक्का या विकेट गिरने पर भी चीयर गर्ल्स नाचती हैं या फिर लोकल कलाकार डांस करते हैं। और दर्शकों को टीम से कोई लेना-देना नहीं। देशभक्ति तो अपनी जगह है। लेकिन दर्शक सिर्फ और सिर्फ इंजॉय करने के लिए वहां पर जाते हैं। उन्हें हर बॉल पर हर रन पर चिल्लाना है, खुशियां मनाना है। यह बड़ा अच्छा संकेत है कम से कम अति राष्ट्रवाद और किसी देश को लेकर के वह वैमनस्यता वाली बात यहां पर नहीं दिखती है।
आम भारतीयों के जीवन में ऐसी कुछ कमी रह गई है जो उनकी खुशियों में बाधा है इस बाधा को दूर करती है क्रिकेट। जो मैदान में जाकर देखी जाती है। इसे आप मैदान में जाकर देखें बिना महसूस नहीं कर सकते।
क्रिकेट मैच के ऑर्गेनाइजर आम जनता की इस जरूरत को समझ चुके हैं। इसीलिए इवेंट को इस तरह से रचा जाता है की क्रिकेट सिर्फ और सिर्फ एक मनोरंजन का खेल लगता है। जिसमें कोई देश जीते, कोई देश हरे। जो जनता अपनी पैसे को खर्च कर वहां पर आई है उसका सिर्फ और सिर्फ एक मकसद होता है एंजॉय करना। खुशियां मनाना। यह बात सही है कि अपने देश को हराते हुए देखना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है। फिर भी खेल भावना लोगों में अपनी जगह बना रही है।
बॉलीवुड की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही है जिसका टिकट 150 से ?400 का लेकिन लोग उसे नहीं देखने जाते हैं?। जबकि क्रिकेट का टिकट 3000 से लेकर 25000 तक है। फिर भी लोग वहां जा रहे हैं क्योंकि वह एंजॉयमेंट, वह दीवानगी जो क्रिकेट में है वह फिल्में नहीं दे पा रही हैं। या कहीं और ऐसा मनोरंजन उनको नहीं मिल पा रहा है।मुझे लगता है कि एक न एक बार इस तरह स्टेडियम में जाकर क्रिकेट मैच जरूर देखना चाहिए।
चंदन कुमार जजवाड़े
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा सुरंग से निकलने वाले बिहार के मजदूरों ने बीबीसी हिंदी से उन 17 दिनों के अपने अनुभव साझा किया जब वो अंदर उम्मीद के सहारे समय काट रहे थे।
सुरंग में फंसे 41 मजदूरों में बिहार के भी 5 मजदूर थे, जो शुक्रवार को पटना पहुंचे और फिर अपने-अपने घरों की तरफ रवाना हुए। घर पहुंचने पर इनका जोरदार स्वागत किया गया। इस स्वागत के पीछे इन मज़दूरों का सत्रह दिनों का साहस है, जिसने उन्हें मुश्किल समय में हिम्मत दी।
किसी भी लंबी सुरंग के अंदर सूनेपन में भी एक आवाज होती है, फिर अंधेरा, मिट्टी और कीचड़। यहां न सोने की जगह होती है और न ही शौच की।
मजदूरों ने सत्रह दिनों का यह समय कैसे गुजारा था, अपने इस खौफनाक अनुभव को उन्होंने साझा किया। बिहार के भोजपुर जि़ले के पेउर गांव के सबा अहमद करीब 14 साल से उसी कंपनी में काम कर रहे हैं, जो उत्तरकाशी का सुरंग बना रही है।
सबा अहमद ने बताया कि अंदर फंसे लोगों में वो सबसे अनुभवी थे और सीनियर फोरमैन के तौर पर काम कर रहे थे। यह प्रोजेक्ट साल 2018 के अंत में शुरू हुआ था। उत्तराखंड में सुरंग हादसे में बचाए गए बिहार के मजदूर सोनू के परिवार का क्या हाल है?
जब इलेक्ट्रीशियन ने शोर मचाना शुरू किया
जिस दिन यानी 12 नवंबर को यह हादसा हुआ उस दिन भारत में दिवाली का त्योहार था। सुरंग के अंदर सभी मजदूर 11 नवंबर की रात से ड्यूटी पर तैनात थे और उन्हें अपना काम पूरा करना था।
सबा ने बताया कि सभी मजदूरों को उस फेस का काम पूरा कर काम बंद करना था, ताकि दिवाली की तैयारी कर सकें।
दरअसल सुरंग बनाते समय इस बात का ख़्याल रखा जाता है कि किसी काम को बीच में न छोड़ा जाए, जिससे कोई हादसा या परेशानी होने की आशंका हो।
इसी दौरान सुबह कऱीब 5 बजे एक इलेक्ट्रीशियन ने शोर मचाना शुरू किया कि सुरंग धंस रही है। यह सुनकर सबा अहमद सुरंग के अंदर इस्तेमाल में आने वाली एक गाड़ी (मशीन) को लेकर उस तरफ भागे, जहां सुरंग के धंसने की बात की गई थी।
सबा अहमद याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं गाड़ी चलाते हुए बढ़ता गया। मुझे कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। फिर जब सुरंग से बाहर निकलने वाले छोर के कऱीब 250 मीटर अंदर था तो देखा कि वहां सुरंग धंस गई है।’
सबा अहमद ने बताया, ‘हमने फौरन अपना फ़ोन लगाने की कोशिश की लेकिन सुरंग के अंदर फोन काम नहीं करता है। उस वक्त सभी मज़दूरों को घबराहट होने लगी कि अब वो कैसे बाहर निकलेंगे।’
शुरू में यह सुरंग करीब 10 मीटर तक धंसी थी, लेकिन इसके मलबे से होकर कहीं-कहीं से बाहर की थोड़ी रोशनी अंदर तक आ रही थी। थोड़ी देर में इन मज़दूरों को खय़ाल आया कि सुरंग में मौजूद पानी के पाइप से कोई सिग्नल भेजने की कोशिश की जा सकती है।
सबा ने बताया कि सुरंग की खुदाई करते समय एक पाइप के जरिए बाहर से ताज़ा पानी अंदर की तरफ लाया जाता है ताकि चट्टानों को काटने के दौरान मशीन को ठंडा रखा जा सके। जबकि एक अन्य पाइप से सुरंग के अंदर के गंदे पानी और कीचड़ को बाहर निकाला जाता है।
पानी के पाइप के सहारे दिए संकेत
सबा के मुताबिक, उन लोगों ने तीन चार बार पंप चलाकर अंदर के पानी को कभी बाहर भेजा तो कभी बंद किया। इससे बाहर मौजूद लोगों को यह सिग्नल मिल गया कि अंदर मजदूर सुरक्षित हैं और कुछ कहना चाहते हैं।
सबा ने बीबीसी को बताया कि उन्हें इसकी ट्रेनिंग दी जाती है कि कोई भी सुरंग बनाते समय यही पाइप लाइन सभी मज़दूरों के लिए जीने का सहारा होती है। इसलिए पानी के पाइप को सुरंग के एक तरफ और बिजली के तारों को दूसरी तरफ रखा जाता है।
यह सब करने में मजदूरों को कऱीब 11 से 12 घंटे लग गए। उसके बाद वो फिर से निराशा में घिर गए, क्योंकि बाहर लोगों को क्या संकेत मिला है और बाहर के लोगों ने क्या समझा है, यह मजदूरों को पता नहीं था।
सबा याद करते हैं, ‘हम सभी थक हारकर इंतजार कर रहे थे, तभी अचानक सुरंग के अंदर सांय- सांय की आवाज़ आने लगी और सभी मज़दूर घबरा गए। थोड़ी देर में हमें पता चला कि पानी के पाइप से अंदर ऑक्सीजन भेजा जा रहा है और यह उसी की आवाज़ है।’
इस तरह से सभी मज़दूरों को थोड़ी राहत ज़रूर मिली। लेकिन अभी उनके सामने और भी परेशानी थी। 41 प्यासे लोगों के लिए सुरंग के अंदर कऱीब 50 लीटर पानी बचा था, जबकि खाने को कुछ नहीं था।
बिहार के सारण जि़ले के खजुवान गांव के सोनू साह के मुताबिक़, उन्हें शुरुआत के चौबीस घंटे तक काफ़ी घबराहट रही थी। उसके बाद जब कुछ नहीं हुआ तो सभी को लगने लगा कि वो बच जाएंगे।
इसी दौरान छह इंच के एक पाइप को सुरंग के अंदर पहुंचाकर मज़दूरों के लिए खाने को कुछ भेजने की तैयारी हो रही थी, लेकिन यह पाइप मलबे से टकराकर ऊपर की तरफ चला गया। हालांकि बाद में पाइप सही जगह पर पहुंच गया और अंदर फंसे लोगों के लिए काजू, किशमिश, चने और खाने की कई चीजें भेजी जाने लगीं।
अंदर दो किलोमीटर तक खुदाई हुई थी
बिहार के ही मुजफ्फरपुर के सरैया के रहने वाले दीपक भी उन्हीं मजदूरों में शामिल थे, जो सुरंग के अंगर फंसे थे।
दीपक याद करते हैं, ‘दो दिनों तक हमें काफ़ी डर लग रहा था कि क्या होगा, बचेंगे या नहीं। लेकिन खाने पीने की चीजें आने लगी थीं और फिर हमारे सीनियर फोरमैन ने समझाया कि कुछ नहीं होगा, घबराना नहीं है। उन्हें ऐसी स्थिति का पहले से थोड़ा-बहुत अनुभव था।’
सबा अहमद ने बताया कि 12 नवंबर को सुरंग जिस जगह पर धंसी थी, उसी जगह पर फिर से कुछ मलबा गिरा।
अगली रात को भी इस जगह पर कुछ मलबा गिरा और सुरंग पूरी तरह बंद हो गई। इस तरह से अब बाहर से रोशनी तो क्या हवा तक आने के लिए जगह नहीं बची।
सब अहमद कहते हैं, ‘मेरे अनुभव में इससे सुरंग के और धंसने का रास्ता बंद हो गया, क्योंकि मलबा ऊपर तक चला गया और इससे सुरंग के धंसने की जगह नहीं बची।’सिलक्यारा सुरंग जिस जगह पर धंसी थी, उससे बाहर निकलने का छोर कऱीब 250 मीटर दूर था।
जबकि अंदर दो किलोमीटर से ज़्यादा खुदाई हो चुकी थी। इसी खुली जगह ने सभी लोगों की जान बचाने में बड़ी मदद की।
सुरंग में शौच के लिए कऱीब डेढ़ किलोमीटर अंदर मशीन से कुछ गड्ढे तैयार किए गए, जिन्हें शौच के लिए इस्तेमाल किया गया। साफ-सफाई को लेकर भी लोगों को हिदायत दी गई ताकि कोई संक्रमण न फैले।
वॉटरफ्रूफिंग शीट को बनाया बिस्तर
इन मुश्किल परिस्थितियों में इस सुरंग की एक और खासियत ने अंदर फंसे लोगों की मदद की।
दरअसल सुरंग में अंदर काफी ढलान है, जिससे मशीन के लिए इस्तेमाल होने वाला पानी, या पहाड़ों से रिसने वाला पानी दूसरे छोर पर इक_ा हो रहा था और सुरंग में बाक़ी जगह पर कीचड़ जैसी स्थिति नहीं थी। इसलिए सभी लोगों के बैठने और आराम करने के लिए सूखी जगह मौजूद थी, लेकिन सुरंग के अंदर ठंड भी काफ़ी ज़्यादा होती है।
सोनू साह बताते हैं, ‘सुरंग में वॉटरप्रूफिंग के लिए जो शीट लगाई जाती है। सुरंग में बड़ी मात्रा में वह शीट मौजूद थी। हमने उसी को चाकू से काटकर ज़मीन पर बिछा दिया और उसी पर सोते थे, उसी को ओढ़ते थे।’
सबा अहमद याद करते हैं, ‘कुछ लोग सो जाते थे, लेकिन मैं पिछले 18 दिनों से नाइट ड्यूटी पर था तो ठीक से सो नहीं पा रहा था। सुरंग में सबसे सीनियर मैं ही था और हर परिस्थिति पर नजऱ रखनी होती। इसलिए कऱीब 5 बजे सुबह सोता था और फिर 7 बजे से बाहर से संपर्क शुरू हो जाता था, इसलिए जगना होता था।’
इस तरह से सारे मज़दूर बाहर से पाइप के ज़रिए आने वाले भोजन के सहारे थे। आपस में बातचीत और एक दूसरे को भरोसा दिलाते हुए उनका समय गुजऱ रहा था।
एक बार भोजन और पानी पहुंचने के बाद मज़दूरों को लगा कि अब वो सुरक्षित निकल जाएंगे।
दरअसल बाहर से सुरंग के अंदर के हालात और माहौल को समझ पाना मुश्किल था, लेकिन अंदर दो किलोमीटर से ज़्यादा लंबी सुरक्षित जगह और सुरंग में लगातार काम करने से जाना-पहचाना माहौल इन मज़दूरों को हौसला दे रहा था।
ताश की गड्डियों की मांग
सबा अहमद बताते हैं, ‘मैंने इस तरह से प्रोजेक्ट पर कई साल काम किया है, इसलिए भरोसा था कि बाहर निकल जाएंगे, क्योंकि सुरंग से निकलने के चार-पांच तरीके होते हैं। हमें जिस तरीके से निकाला गया वह सबसे बेहतर तरीका है।’
सोनू के मुताबिक़, एक बार जब यह लगने लगा कि वो सुरक्षित बच जाएंगे तो समय काटने का जुगाड़ सबसे ज़रूरी था। इसके लिए उन्होंने 6-7 गड्?डी ताश अंदर भेजने की मांग की।
सोनू ने बीबीसी को बताया, ‘मैंने ही जीएम साहब से इसके लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा ठीक है। फिर ताश आ गया, लेकिन ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं था कि ताश खेलते कैसे हैं।
उसके बाद कई लोगों को ताश खेलना सिखाया गया और अलग-अलग ग्रुप बनाकर सुरंग के अंदर ताश खेलकर समय गुज़ारने लगे।’
फिर कऱीब एक हफ़्ते के बाद जब पहली बार जब इन मजदूरों का वीडियो सामने आया तब उनके घरवालों को भी थोड़ी राहत मिली।
मज़दूरों के घर वाले उन्हें सीधा देख पा रहे थे और बात भी कर पा रहे थे। इससे मज़दूरों का भी हौसला बढ़ा। इस दौरान नेता, मंत्री, बचाव दल और कई लोगों ने उनसे बात की।
मज़दूरों ने धामी से कहा- ‘जल्दबाज़ी न करना’
सबा अहमद के मुताबिक़, ‘हमें किसी भी समय नहीं लगा कि अब जि़ंदा नहीं बचेंगे। इसलिए उत्तराखंड से मुख्यमंत्री धामी जी को हमने कहा कि सर जल्दबाज़ी या घबराहट में कुछ नहीं करना है हम सब सुरक्षित हैं, आराम से काम करें, लेकिन हमें सुरक्षित बाहर निकाल दें।’
इस तरह से देश विदेश के विशेषज्ञ, कई तरह की मशीनें और तकनीक के सहारे आखऱिकार 17 दिनों बाद 28 नवंबर मंगलवार की शाम इन सभी मज़दूरों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया।
सुरंग से बाहर निकलते ही सभी मज़दूरों के चेहरे खिल गए और उन्होंने अपने-अपने घरवालों से बात की।
लेकिन सुरंग के अंदर 400 घंटे से ज़्यादा समय तक सुरक्षित बचे रहने में सबा अहमद, सबसे बड़ा योगदान पानी निकालने वाले पाइप का मानते हैं। (bbc.com/hind)
1. Intelligence leads to arguments.“Wisdom leads to settlements. 2. Intelligence is power of will.“Wisdom is power OVER will.“3. Intelligence is heat, it burns.“Wisdom is warmth, it comforts.“4. Intelligence is pursuit of knowledge, it tires the seeker.“Wisdom is pursuit of truth, it inspires the seeker.“5. Intelligence is holding on.“Wisdom is letting go.“6. Intelligence leads you.“Wisdom guides you.“7. An intelligent man thinks he knows everything.“A wise man knows that there is still something to learn.“8. An intelligent man always tries to prove his point.“A wise man knows there really is no point.“9. An intelligent man freely gives unsolicited advice.“A wise man keeps his counsel until all options are considered.“10. An intelligent man understands what is being said.“A wise man understands what is left unsaid.“11. An intelligent man speaks when he has to say something.“A wise man speaks when he has something to say.“12. An intelligent man sees everything as relative.“A wise man sees everything as related.“13. An intelligent man tries to control the mass flow.“A wise man navigates the mass flow.“14. An intelligent man preaches.“A wise man reaches.
““Intelligence is good“but wisdom achieves better results.
-Social Media
डॉ. आर.के. पालीवाल
उत्तराखंड के सिलक्यारा में सुरंग निर्माण कार्य में लगे इकतालीस मजदूरों के सकुशल बाहर निकलने से देश के उन तमाम संवेदनशील नागरिकों ने राहत की सांस ली है जो सत्रह दिन से सुरंग धंसने से उसमें फंसे हुए लोगों के लिए चिंतित थे। प्रकृति और पर्यावरणविदो का एक बड़ा वर्ग पूरे हिमालय पर्वत श्रृंखला में हो रहे निर्माण कार्य पर चिंता जाहिर करता रहा है। यह अकारण नहीं है कि पिछ्ले कुछ दशकों से हिमालय के लिए चिंतित लोग सरकार और प्राइवेट कंपनियों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में किए जा रहे अंधाधुंध निर्माण कार्यों का जबरदस्त विरोध करते रहे हैं । विगत दो दशक में हिमालय में प्राकृतिक और मानव पोषित आपदाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। केदारनाथ की बाढ़ से लेकर जोशी मठ के मकानों और सडक़ों की दरारों तक कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हिमालय पर्वत श्रृंखला अंधाधुंध विकास को सहन करने में सक्षम नहीं है। ऐसा लगता है कि केन्द्र और राज्य सरकार की हिमालय पर्वत श्रृंखला में विकास कार्य की कोई स्पष्ट नीति नहीं है, इसीलिए इस क्षेत्र में भयावह प्राकृतिक आपदाओं और सिलक्यारा जैसी दुर्घटनाओं की पुनरावृति की संभावना बनी रहेगी।
सिलक्यारा सुरंग निर्माण का कार्य केंद्रीय परिवहन विभाग की राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना के अंतर्गत चारधाम यात्रा मार्ग को सुगम बनाने के लिए शुरु किया है। लगभग साढ़े चार किलोमीटर लंबी सुरंग के निमार्ण से वर्तमान गंगोत्री यमुनोत्री मार्ग की 25 किलोमीटर दूरी घटकर 5 किलोमीटर रह जाएगी और इस सुरंग के बाद 60 मिनट का सफर घटकर 5 मिनट रह जाएगा। निश्चित रुप से चारधाम यात्रा के तीर्थयात्रियों को सुरंग बनने से यात्रा में सहूलियत होगी लेकिन हिमालय क्षेत्र के संवेदनशील इलाकों में लंबी सुरंग बनाने से कमजोर पहाड़ी क्षेत्रों में भू स्खलन आदि की समस्याओं में भी इजाफा होता है। इसीलिए पर्यावरणविद इन इलाकों की विकास योजनाओं को प्रकृति केंद्रित रखने पर जोर देते हैं ताकि तीर्थाटन और पर्यटन के नाम पर प्रकृति और पर्यावरण से खिलवाड़ न हो। चारधाम की यात्रा उस दौर में भी की जाती थी जब आवागमन के लिए आज जैसी सुविधाओं का नितांत अभाव था। उन दिनों केवल धार्मिक प्रवृत्ति के लोग ही तीर्थाटन करते थे लेकिन इधर धार्मिक और मौज मस्ती के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पहाड़ों पर चौड़ी सडक़ें, बडी बडी सुरंग और विशाल होटल और रिजॉर्ट आदि के निमार्ण से प्रकृति और पर्यावरण का महाविनाश किया जा रहा है। पिछली आपदाओं और दुर्घटनाओं से भविष्य के लिए कोई खास सबक नहीं लिया गया। संभावना यही है कि कुछ समय बाद सिलक्यारा की दुर्घटना को भी वैसे ही भुला दिया जाएगा जैसे केदारनाथ और जोशीमठ की आपदा को भुला दिया गया।
सिलक्यारा की दुर्घटना में एन डी आर एफ की टीमों ने सत्रह दिन तक अथक प्रयास कर यह साबित कर दिया कि दुर्घटनाओं के दुष्प्रभाव से लोगों को बचाने के लिए हमारी तकनीकी क्षमता में अच्छा खासा विकास हुआ है। दूसरे,इस दुर्घटना ने एक बार फिर हमें चेताया है कि हिमालय क्षेत्र में भारी निर्माण करने के दौरान जमीन धंसने से बडी दुर्घटना घट सकती है। ऐसे निर्माण इस संवेदनशील क्षेत्र में प्रकृति और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं इसलिए हिमालय के संतुलित विकास के लिए एक दूरगामी योजना बनाई जानी चाहिए। इस क्षेत्र में बड़े निर्माण कार्य की जगह प्रकृति केंद्रित विकास ही स्थाई हल है। यदि सरकारें प्रकृति और पर्यावरण को दरकिनार कर इसी तरह बडी बडी परियोजनाओं को क्रियान्वित करती रहेंगी तो प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं की पुनरावृति को रोकना संभव नहीं होगा।
दिपाली अग्रवाल
जैसे ही कैब ली तो ड्राइवर ने बताया कि आप जैसे सारे कस्टमर हों तो कितना अच्छा हो। मैं अचानक हुई इस प्रशंसा पर चौंकी तो उसने कहा कि आप आगे गाड़ी तक ख़ुद ही चलकर आ गईं, अधिकतर लोग इंतज़ार ही करते रहते हैं। मैंने सोचा कि इंतजार से अच्छा है कि ख़ुद चलकर जाया जाए लेकिन बहुत बात करने का मूड नहीं था। मैं किसी काम को लेकर कुछ मनन कर रही थी कि वो अपनी कहानी सुनाने लगे कि कैसे यहां एक सत्तर साल के बुजु्र्ग रहते हैं जो महीने की 45.000 रुपया कैब में देते हैं और उनका एक बेटा है जिसके पास मर्सिडीज़ है। थोड़ी जिज्ञासा जगी कि उस व्यक्ति के बारे में और पूछूं लेकिन ख़ुद को रोक लिया। मै सुबह ही बाहर से लौटी हूंं, 5 बजे की जागी और किसी काम के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मुझे कुछ मंथन करना था लेकिन कैब वाले अंकल रुके नहीं, वे लगातार कहानी सुनाते रहे। मेरी हम्म से वे जान नहीं पाए कि मैं बहुत सुनने की इच्छा में नहीं हूं। वे अपने बारे में बताने लगे कि दिल्ली-एनसीआर में कई जगह फ़्लैट खऱीद रखे हैं, बेटे के लिए। अब देखना है कि बेटा कितने पैसे कमाता है।
इन सब पर बहुत अनिच्छा से मैंने पूछा कि वे कहां से हैं, वे बोले मथुरा तो मुझे उत्साह हुआ। मैंने बताया कि मथुरा से हूं मैं भी, किसी दूसरे शहर में किसी अपने शहर के व्यक्ति का मिलना शहर में पहुंचने जैसा ही लगता है। वे बोले कि राया से हूं और उनके समधी बरसाने मंदिर में किसी पद पर हैं। इसमें गर्व जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि - आप लोगों को राधारानी के पैर नहीं छूने देंगे लेकिन हम लोग छू लेते हैं। फिर उन्होंने बताया कि बेटे की शादी तय हो गई है, दो महीने बाद है। बेटा नोएडा में ही नौकरी करता है और 6 फुट 2 इंच का है पर लडक़ी 5 फुट 2 इंच की है। वे व्यथा ज़ाहिर करते हुए बोले कि आजकल लड़कियों की हाइट कम ही रह जाती है, मैंने अपनी ओर देखकर सहमति जताई। वे बोले कि जिनकी हाइट ज़्यादा है भी वो नोन-वेज खाती हैं और उन्हें वेजेटेरियन ही बहू चाहिए। इसकी बात में कितनी वैज्ञानिक सच्चाई है, ये तो ईश्वर ही जाने। ख़ैर, बात तो अब लंबी चल पड़ी।
वे अपने फ़ोन में बेटे, होने वाली बहू और समधी की तस्वीरें दिखाने लगे. कुछ संतों की तस्वीरें भी थीं। बात बरसाने से होकर कृपालु महाराज और गोकुल तक भी पहुंच गई। वे सबकी तस्वीरें दिखाते जाते। मैंने ध्यान से देखा उनकी उम्र कुछ 46 के कऱीब होगी। फिर वे बोले कि शिक्षा का बहुत महत्व है लेकिन अपनी ही बात को फिर काटकर बोले कि जितना मैंने कमा लिया क्या कोई नौकरी वाला कभी कमा पाएगा, किस तरह उन्होंने संघर्ष किया है, गाडिय़ां चलाईं, पैसे बचाए और ज़मीनें खऱीदीं। उस पल तो सुनने में सब बहुत आसान ही लग रहा था लेकिन अब वे आराम करना चाहते हैं। बरसाने में ही घर बना रहे हैं और राधा रानी की सेवा में जीवन बिताना है।
मुझे ऑफि़स पहुंचने की जल्दी थी और काम करना था। मैं शांत बैठ गई और वे बोलते रहे फिर दफ़्तर उतारने तक भी तस्वीरें दिखाते रहे। मैंने उन्हें बताया था कि मैं भी मथुरा से हूं लेकिन इससे उन्हें कोई ख़ास जिज्ञासा नहीं हुई थी। पर मुझे गाड़ी से उतरना था और उनको टोकना अनादर लग रहा था। अंत में वे बोले कि मैंने आपका समय खऱाब किया उसके लिए स़ॉरी। मैंने हंसते हुए कहा कि - नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं, उन्होंने राधे-राधे कहा और मैंने कहा - जय श्रीकृष्ण।
कई बार सोचना टाल देना चाहिए, जीवन कितने रूपों में सामने आता है, कितने अनुभवों के साथ। यही सोचकर अब उस विषय पर मंथन करूंगी जिस पर काम करना है।
प्रमोद भार्गव
2024 लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल माने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के एक्जिट पोल, मसलन वास्तविक अनुमान कहीं बदलाव तो कहीं बराबर की टक्कर जता रहे हैं। वास्तविक नतीजे तो 3 दिसंबर को आएंगे, उससे पहले सामने आए इन अनुमानों ने मतदाता की नब्ज टटोलने की कोशिश की है। लेकिन इस बार एक्जिट पोलों में जो भिन्नता व दुविधा दिखाई दे रही है, उससे लगता है कि मतदाता की मंशा टटोलने वाली सर्वे एजेंसियों की सर्वेक्षण प्रणालियां वैज्ञानिक नहीं हैं। क्योंकि मध्यप्रदेश से जुड़े जो 8 सर्वे खबरिया चैनलों में प्रसारित हुए हैं, उनमें से 7 भाजपा को और एक एबीपी-सी वोटर कांग्रेस को बहुमत दे रहे हैं। भाजपा सत्ता में आती है तो इसका जीत का श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और चुनाव के ठीक पहले लाई गई ‘लाडली बहना योजना’ को दिया जाएगा। जिन 7 सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया गया था, वे खुद अपनी जीत की उधेड़बुन में लगे रहे। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल अंचल में कोई करिश्मा दिखा पाएंगे, ऐसा मतदाता के रुख से फिलहाल नहीं लग रहा है।
राजस्थान के 8 सर्वे में से 5 भाजपा और 3 कांग्रेस के पक्ष में हैं।
छत्तीसगढ़ में 8 में से 8 सर्वे कांग्रेस को फिर से सत्ता में आते दिखा रहे हैं।
तेलंगाना में 6 सर्वे में से 5 सर्वे कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दे रहे हैं। दूसरे नंबर पर यहां मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति है। भाजपा को 5 से लेकर 13 सीटों पर ही संतोष करना पड़ेगा। साफ है, कर्नाटक के बाद कांग्रेस तेलंगाना में भी सत्तारूढ़ होती दिख रही है। यहां के चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस अधिकांश एक्जिट पोल में कांग्रेस से चुनाव हारती हुई नजर आ रही है। ध्यान रहे, तेलंगाना में कुछ ही महीने पहले कांग्रेस चुनावी संग्राम में उतरी थी। बावजूद वह बढ़त में है तो इसका प्रमुख कारण सत्तारूढ़ दल के प्रति सत्ता विरोधी रुझान है। यहां कांग्रेस को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी लाभ पहुंचाती दिख रही है। भाजपा का तेलंगाना में बुरी तरह से पिछडऩा इस बात का संकेत है कि दक्षिण भारत में न तो राम मंदिर और धारा-370 जैसे मुद्दे काम आए और न ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह का जादू चला।
मिजोरम में राष्ट्रीय पार्टियां आती नहीं दिख रही हैं। यहां त्रिशंकु सरकार बनती दिखाई दे रही है। मिजोरम में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में 14 से 18 सीटों की जीत के साथ एमएनएफ उभरती दिख रही है। उसका सीधा मुकाबला जेडपीएम से है। इस क्षेत्रीय दल को 12 से 16 सीटें मिल सकती हैं। कांग्रेस को 8 से 10 और भाजपा को दो सीटें मिलने के अनुमान लगाए गए हैं। साफ है, एक्जिट पोल करने वाली सर्वे एजेंसियों में इतना झोल और विरोधाभास है कि ये सर्वे भरोसे के नहीं लग रहे हैं। इसीलिए इन सर्वेक्षणों को ‘जितने मुंह, उतनी बातें’ कहा जा रहा है। वैसे भी ये अनुमान संयोग से ही सटीक बैठते हैं।
ओपीनियन पोल, मसलन जनमत सर्वेक्षण जहां मतदान पूर्व मतदाता की मंशा टटोलने की कोशिश है, वहीं एक्जिट पोल, अर्थात सटीक सर्वेक्षण, मतदान पश्चात, मतदाता का निर्णय जानने की कोशिश है। ओपीनियन पोल बाईदवे शुल्क चुकाकर प्रायोजित ढंग से कराए जा सकते हैं, इसलिए क्योंकि इनके प्रकाशित व प्रसारित होने के बाद मतदाता के रूख को प्रभावित किया जा सकता है। किंतु एक्जिट पोल मतदान पूरा हो चुकने के बाद, महज वास्तविक परिणाम के पूर्व अनुमान हैं।
इसलिए कोई राजनीतिक दल इन्हें अपनी इच्छानुसार कराने में रुचि नहीं लेता। मतदान के बड़े प्रतिशत को अब तक सत्तारूढ़ दल के खिलाफ व्यक्तिगत असंतुष्टि और व्यापक असंतोष के रूप में देखा जाता था, लेकिन मतदाता में आई बड़ी जागरूकता ने परिदृश्य को बदला है, इसलिए इसे केवल नकारात्मकता की तराजू पर तौलना बड़ी भूल होगी। इसे सकारात्मक दृष्टि से देखने की भी जरूरत है। मध्यप्रदेश में महिलाओं का बढ़ा प्रतिशत भाजपा के पक्ष में दिखाई दे रहा है।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा इस बार चुनाव के दो माह पहले तक मुश्किल में दिखाई दे रही थी। लेकिन अब लाडली बहना उसे वैतरणी पार कराती दिखाई दे रही है। जबकि 2013 में शिवराज अपने बूते 200 विधानसभा सीटों में से 165 सीटें जीतने में सफल हो गए थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ चुनाव की कमान होने के बावजूद कांग्रेस महज 58 सीटों पर सिमटकर रह गई थी।
मतदान के बड़े प्रतिशत के बावजूद मददाता को मौन माना जा रहा है। लेकिन मतदाता मौन कतई नहीं है। मौन होता तो चैनल एक्जिट पोल के लिए कैसे सर्वे कर पाते? हां, उसने खुलकर राज्य सरकार को न तो अच्छा कहा और न ही उसके कामकाज के प्रति मुखरता से नाराजगी जताई। मतदाता की यह मानसिकता, उसके परिपक्व होने का पर्याय है। वह समझदार हो गया है। अपनी खुशी अथवा कटुता प्रकट करके वह किसी दल विशेष से बुराई मोल लेना नहीं चाहता। इस लिहाज से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व जीवंत माध्यम बनी सोशल साइट्स पर खातेदारों ने दलीय रुचि नहीं दिखाई। हां क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दे उछालकर आभासी मित्रों की राय जानने की कोशिश में जरूर लगे रहे। मानसिक रूप से परिपक्व हुए मतदाता की यही पहचान है।
पारंपरिक नजरिए से मतदान में बड़ी रूचि को सामान्यत: एंटी इनकमबेंसी का संकेत, मसलन मौजूदा सरकार के विपरीत चली लहर माना जाता है। इसे प्रमाणित करने के लिए 1971, 1977 और 1980 के आम चुनाव में हुए ज्यादा मतदान के उदाहरण दिए जाते है। लेकिन यह धारणा पिछले कुछ चुनावों में बदली है। 2018 में छोड़ 2013, 2008 और 2003 में बड़े मतदान का लाभ सत्तारूढ़ होते हुए भी मध्यप्रदेश में भाजपा को मिलता रहा है। 2010 के चुनाव में बिहार में मतदान प्रतिशत बढकऱ 52 हो गया था, लेकिन नीतीश कुमार की ही वापिसी हुई। जबकि पश्चिमी बंगाल में ऐतिहासिक मतदान 84 फीसदी हुआ और मतदाताओं ने 34 साल पुरानी माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार को परास्त कर, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीत दिलाई थी। गोया, चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक दलों को अब किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है, मतदाता पारंपरिक जड़ता और प्रचलित समीकरण तोडऩे पर आमदा हैं।
बड़े मत प्रतिशत का सबसे अहम, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। निकट भविष्य में इस उम्मीद की पूरी होने की संभावना भी नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कालांतर में राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी। क्योंकि जब मतदान प्रतिशत 75 से 85 प्रतिशत होने लग जाएगा तो किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत खत्म हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्या बल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाएगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर धु्रवीकरण की राजनीति नगण्य हो जाएगी।
यह स्थिति मतदाता को धन व शराब के लालच से मुक्त कर देगी। क्योंकि कोई प्रत्याशी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुश्किल होगा। जाहिर है, ऐसे हालात भविष्य में निर्मित होते हंै तो भारतीय राजनीति संविधान के उस सिद्धांत का पालन करने को मजबूर होगी, जो समाजिक न्याय और समान अवसर की वकालत करता है। बड़ा मतदान प्रतिशत ही ऐसा प्रमुख कारण हैं, जिसके चलते एक्जिट पोल एकतरफा नहीं रह गए हैं। क्योंकि इसके सर्वे के नमूने का प्रतिशत बहुत कम होता है। गोया, इस आधार पर बड़े मतदाता समूह की मंशा की पड़ताल करना और व्यवहारिक नतीजे पर पहुंचना बहुत कठिन काम है।
वैसे भी अब कई सर्वे एजेंसियां क्षेत्रीय पत्रकारों से फोन पर बात करके नतीजों का अनुमान लगाने का तरीका अपना रहे हैं। जो सर्वे की वैज्ञानिक प्रणाली को नकारता है। दरअसल क्षेत्रीय पत्रकार किसी न किसी दल या प्रत्याशी से प्रभावित रहते हैं और उसी प्रभाव के चलते वे अपनी राय व्यक्त कर देते हैं, जो तटस्थ नहीं होती। इसीलिए इस बार एक्जिट पोल के अनुमानों को जितने मुंह, उतनी बातें कहा जा रहा है।
अक्टूबर माह में एनसीईआरटी ने अंग्रेज़ी और हिंदी में चंद्रयान-3 पर 10 शैक्षिक मॉड्यूल्स जारी किए। इनका उद्देश्य लाखों स्कूली बच्चों को हालिया चंद्रयान मिशन की जानकारी प्रदान करना है। प्रेस और मीडिया में गंभीर आलोचना के बाद इन मॉड्यूल्स को एनसीईआरटी के वेबपेज से हटा लिया गया था, लेकिन सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति के बाद इसे पुन: अपलोड कर दिया गया। सरकारी विज्ञप्ति में मॉड्यूल्स का बचाव करते हुए कहा गया है कि ‘पौराणिक कथाएं और दर्शन विचारों को जन्म देते हैं और ये विचार नवाचार एवं अनुसंधान की ओर ले जाते हैं।’
गौरतलब है कि इन मॉड्यूल्स को नई शिक्षा नीति (एनईपी 2020) में वर्णित सीखने के विभिन्न चरणों (फाउंडेशनल, प्रायमरी, मिडिल स्कूल, सेकंडरी और हायर सेकंडरी) के अनुसार तैयार किया गया है। यह काफी हैरानी की बात है कि इन मॉड्यूल्स की सामग्री में कई वैज्ञानिक और तकनीकी त्रुटियां हैं जिनमें से कुछ का आगे जि़क्र किया जा रहा है। इसके अलावा, इनमें छद्म वैज्ञानिक दावे किए गए हैं, भ्रामक वैज्ञानिक सामग्री है और यहां तक कि एक नाज़ी वैज्ञानिक का हवाला भी दिया गया है जो एनसीईआरटी सामग्री के सामान्य मानकों से मेल नहीं खाता है। अंग्रेज़ी संस्करण में व्याकरण सम्बंधी त्रुटिया तो हैं ही।
इस प्रकार की गलत जानकारी विद्यार्थियों तक पहुंचे तो काफी नुकसान कर सकती है। और तो और, सामग्री का घटिया प्रस्तुतीकरण विद्यार्थियों को इस रोमांचक क्षेत्र से विमुख कर देगा।
वैज्ञानिक समुदाय के सदस्यों और सभी तर्कसंगत सोच वाले नागरिकों को इस घटिया ढंग से तैयार की गई सामग्री को खारिज कर देना चाहिए। व्यापक आलोचना के बाद एनसीईआरटी द्वारा इस सामग्री को वेबसाइट से हटाना और सरकार द्वारा पौराणिक कथाओं का हवाला देते हुए उन्हें वापस प्रसारित करना न तो उचित है और न ही ऐसा दोबारा होना चाहिए। एआईपीएसएन मांग करता है कि एनसीईआरटी इन मॉड्यूल्स को स्थायी रूप से हटा दे। चंद्रयान पर एनसीईआरटी मॉड्यूल्स में वैज्ञानिक त्रुटियों, छद्म वैज्ञानिक दावों और मिथकों की बानगी -
1. बुनियादी स्तर (कोड 1.1एफ, केजी और कक्षा 1-2)-
क.मॉड्यूल उवाच- (चंद्रयान-2 के संदर्भ में) ज्इस बार रॉकेट के पुजऱ्े में कुछ तकनीकी खामी के कारण उसका धरती से संपर्क टूट गया।
टिप्पणी- लॉन्चर रॉकेट ने ठीक तरह से काम किया। जबकि लैंडर सतह पर उतरने में विफल रहा, लेकिन चंद्रयान का ऑर्बाइटर मॉड्यूल काम करता रहा और इससे इसरो को डैटा भी प्राप्त होता रहा।
2. प्राथमिक स्तर (कोड 1.2पी, कक्षा 3-5):
क.मॉड्यूल उवाच: इस रॉकेट के तीन प्रमुख हिस्से हैं – प्रोपल्शन मॉड्यूल, रोवर मॉड्यूल और लैंडर मॉड्यूल जो हमें चंद्रमा के बारे में जानकारी भेजता है।
टिप्पणी- चंद्रयान-3 अंतरिक्ष यान को रॉकेट (एलएमवी3) अंतरिक्ष में लेकर गया था। अंतरिक्ष यान में एक ऑर्बाइटर और एक लैंडर था। रोवर को लैंडर के अंदर रखा गया था ताकि चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद उसे बाहर निकाला जा सके।
3. माध्यमिक स्कूल स्तर (कोड- 1.3एम, कक्षा 6-8)-
क.मॉड्यूल उवाच- प्राचीन साहित्य में वैमानिक शास्?त्र ‘विमान विज्ञान’ से पता चलता है कि उन दिनों हमारे देश में उडऩे वाले वाहनों का ज्ञान था (इस पुस्तक में इंजनों के निर्माण, कार्यप्रणालियों और जायरोस्कोपिक सिस्टम के दिमाग चकरा देने वाले विवरण हैं)।
टिप्पणी: कई अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि बहुप्रचारित वैमानिक शास्त्र की रचना 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई है और इसमें वर्णित डिज़ाइन, इंजन और उपकरण पूरी तरह से काल्पनिक, अवैज्ञानिक और नाकारा हैं।
ख.मॉड्यूल उवाच- वेद भारतीय ग्रंथों में सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। इनमें विभिन्न देवताओं को पशुओं, आम तौर पर घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले पहिएदार रथों पर ले जाने का उल्लेख मिलता है। ये रथ उड़ भी सकते थे। उडऩे वाले रथों या उडऩे वाले वाहनों (विमान) का उपयोग किए जाने का उल्लेख भी मिलता है। ऐसी मान्यता है कि हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार सभी देवताओं के पास अपना वाहन था जिसका उपयोग वे एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के लिए करते थे। माना जाता है कि वाहनों का उपयोग अंतरिक्ष में सहजता और बिना किसी शोर के यात्रा करने के लिए किया जाता था। ऐसे ही एक विमान – पुष्पक विमान (जिसका शाब्दिक अर्थ ‘पुष्प रथ’ है) का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
टिप्पणी: विभिन्न वैदिक ग्रंथों और महाकाव्यों में उडऩे वाले वाहनों के ये सभी उल्लेख कवियों की कल्पनाएं हैं। दुनिया भर की लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में उनके देवताओं के आकाश में उडऩे का उल्लेख मिलता है। इन्हें प्राचीन काल में उडऩे वाले वाहनों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। 1961 में यूरी गागरिन द्वारा अंतरिक्ष की यात्रा करने से पहले किसी भी मानव द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए पृथ्वी छोडऩे का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
ग.मॉड्यूल उवाच- आधुनिक भारत ने वैमानिकी विज्ञान की विरासत को आगे बढ़ाते हुए अंतरिक्ष अनुसंधान में उल्लेखनीय प्रगति की है।
टिप्पणी-जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ऐसे साहित्यिक संदर्भ कई प्राचीन सभ्यताओं में पाए जा सकते हैं और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए साराभाई और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयास इन काव्यात्मक कथाओं का उत्पाद नहीं हैं। ऐसा दावा करना साराभाई की विरासत और कई समकालीन वैज्ञानिकों के अग्रणी कार्यों का अपमान होगा।
घ.मॉड्यूल उवाच- चंद्रमा पर ऐसी चोटियां भी हैं जहां हर समय सूर्य का प्रकाश मौजूद होता है तथा ये चंद्र गतिविधियों की सहायता हेतु विद्युत उत्पन्न करने के उत्कृष्ट अवसर पैदा कर सकती हैं।
टिप्पणी- भले ही चंद्रमा के घूर्णन की धुरी क्रांतिवृत्त (एक्लिप्टिक) तल के लगभग लंबवत है, लेकिन किसी भी पर्वत शिखर पर ‘निरंतर सूर्य का प्रकाश' तभी हो सकता है जब वह लगभग दक्षिणी ध्रुव पर हो। चंद्रयान-3 का अवतरण स्थल चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव से 500 कि.मी. से अधिक दूर है। ऐसे में अवतरण स्थल के पास ऐसी पर्वत चोटियों का पता लगाना संभव नहीं है।
ङ.मॉड्यूल उवाच- (गतिविधि-1) चंद्रयान-3 बनाने में उपयोग की जाने वाली स्वदेशी सामग्रियों की सूची बनाएं जिसने चंद्रयान-3 को एक बजट अनुकूल मिशन बनाया।
(स्रोत फीचर्स)
निखिल गुप्ता के बारे में अमेरिकी अभियोग में क्या-क्या कहा गया है?
अमेरिकी अदालत में दाख़िल अभियोग में भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता पर एक लाख डॉलर कैश के बदले एक अमेरिकी नागरिक की हत्या की सुपारी देने के आरोप लगाए गए हैं।
अदालत में पेश दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता ने भारत सरकार के लिए काम करने वाले एक अधिकारी के कहने पर अमेरिका में एक हिटमैन से संपर्क किया और उसे एक सिख अलगाववादी नेता की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया।
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी से बातचीत के दौरान निखिल गुप्ता ने बताया था कि वो नार्कोटिक्स और हथियारों की अंतरराष्ट्रीय तस्करी से जुड़े हुए हैं।
अभियोग में ये भी दावा किया गया है कि निखिल गुप्ता पर गुजरात में एक आपराधिक मामला चल रहा है जिसमें मदद के बदले वो भारतीय अधिकारी के लिए न्यूयॉर्क में हत्या करवाने के लिए तैयार हो गए थे।
दस्तावेज़ के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने जिस हिटमैन से संपर्क किया था वह अमेरिकी ख़ुफिय़ा विभाग के अंडरकवर एजेंट थे।
इस एजेंट ने निखिल गुप्ता की सभी गतिविधियों और बातचीत को रिकॉर्ड किया। इसी के आधार पर ये मुक़दमा दायर किया गया है।
भारतीय मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक़ अमेरिका के न्यूयॉर्क में रहने वाले सिख अलगाववादी नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या का कॉन्ट्रैक्ट दिया गया था। पन्नू ने भी एक पत्र जारी कर इसे अपने खिलाफ साजिश बताया है। पन्नू भारत में घोषित आतंकवादी हैं।
पन्नू ने सार्वजनिक रूप से अलग खालिस्तान देश बनाने की अपील की है। हाल ही में उन्होंने एयर इंडिया की फ्लाइट को बम से उड़ाने की धमकी भी दी थी।
अभियोग में बताया गया है कि जिस अधिकारी ने निखिल गुप्ता को सुपारी दी थी वो भारत की सीआरपीएफ में कार्यरत रहे हैं।
गंभीर आरोप
अभियोग के मुताबिक मई 2023 में अधिकारी ने निखिल गुप्ता को अमेरिका में हत्या करवाने का काम दिया।
दस्तावेज के मुताबिक निखिल गुप्ता भारतीय नागरिक हैं और भारत में ही रहते हैं।
गुप्ता ने हिटमैन से संपर्क करने के लिए एक व्यक्ति से संपर्क किया, जिसे वो एक आपराधिक सहयोगी मान रहे थे। वास्तव में ये व्यक्ति अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी का विश्वसनीय सूत्र था।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र ने गुप्ता का संपर्क अमेरिकी एजेंसी के एक अंडरकवर एजेंट से करा दिया।
गुप्ता और अंडरकवर एजेंट के बीच एक लाख अमेरिकी डॉलर के बदले हत्या का सौदा हुआ।
निखिल गुप्ता ने अपने एक संपर्क के ज़रिए पंद्रह हज़ार अमेरिकी डॉलर न्यूयॉर्क के मैनहेटन में अमेरिकी एजेंट तक पहुंचाए।
ये हत्या के काम के लिए दी गई पेशगी थी। इसका वीडियो भी एजेंट ने रिकॉर्ड किया है और अभियोग के साथ लगाया गया है।
अभियोग के मुताबिक इस काम को निर्देशित कर रहे भारतीय अधिकारी ने जून 2023 में टार्गेट के बारे में व्यक्तिगत जानकारियां गुप्ता को दीं जो गुप्ता ने आगे अमेरिकी एजेंट को दे दीं। इनमें टार्गेट व्यक्ति की तस्वीरें और घर का पता भी था।
अभियोग के मुताबिक़ अमेरिका की गुज़ारिश पर और इस मामले के संबंध में निखिल गुप्ता को 30 जून 2023 को चेक गणराज्य में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उन्हें अमेरिका प्रत्यर्पित किया जाएगा।
मामला कहाँ फँसा?
अभियोग में दावा किया गया है कि मई के शुरुआती सप्ताह में भारतीय अधिकारी ने निखिल गुप्ता से एनक्रिप्टेड एप्लीकेशन के ज़रिए संपर्क किया था।
दावा है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक आपराधिक मामले में मदद करने के बदले हत्या की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया था।
निखिल गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच इलेक्ट्रॉनिक कम्युनिकेशन के ज़रिए लगातार वार्ता हो रही थी। इसके अलावा दिल्ली में दोनों ने मुलाक़ात भी की थी।
अभियोग में अमेरिकी एजेंसी की जांच के हवाले से कहा गया है कि गुप्ता और भारतीय अधिकारी के बीच लगातार एनक्रिप्टेट ऐप के ज़रिए बात हो रही थी और इस वार्ता के दौरान गुप्ता दिल्ली या आसपास के इलाक़े में ही थे।
अभियोग में दावा किया गया है कि 12 मई को गुप्ता को बता दिया गया था कि ‘उनके खिलाफचल रहे आपराधिक मामले को देख लिया गया है।’
उन्हें ये भी बताया गया था कि ‘गुजरात पुलिस की तरफ से अब कोई कॉल नहीं करेगा।’
23 मई को भारतीय अधिकारी ने फिर से गुप्ता को आश्वस्त किया कि ‘उन्होंने अपने बॉस से बात कर ली है और गुजरात में जो मामला है, वो अब साफ है और अब तुम्हें दोबारा कोई कॉल नहीं करेगा।’
अभियोग में दावा किया गया है कि भारतीय अधिकारी ने गुप्ता की एक डीसीपी से मुलाक़ात की व्यवस्था भी की।
अधिकारी से भरोसा मिलने के बाद गुप्ता ने न्यू यॉर्क में हत्या करवाने की योजना को आगे बढ़ाया।
गुप्ता ने इस काम के लिए अमेरिका में अमेरिकी खुफिया एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से संपर्क किया और कहा कि ‘जिस व्यक्ति की हत्या की जानी है वह न्यूयॉर्क और एक अन्य अमेरिकी शहर के बीच आता जाता है।’
भारत की प्रतिक्रिया
अभियोग में दावा गिया गया है कि गुप्ता ने न्यू यॉर्क में ये हत्या हो जाने के बाद अमेरिका और कनाडा में और अधिक काम देने का वादा भी एजेंट से किया था।
गुप्ता ने अमेरिकी ख़ुफिय़ा एजेंसी के भरोसेमंद सूत्र से 18 जून को कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद 19 जून को किए ऑडियो कॉल में कहा था, ‘हमें हरी झंडी मिल गई है, आप किसी भी वक़्त काम करवा सकते हैं, आज या कल। जितनी जल्दी हो ये काम करो, इस काम को पूरा करो।’
अभियोग के मुताबिक़ निखिल गुप्ता ने 30 जून को भारत से चेक गणराज्य की यात्रा की और इसी दिन चेक पुलिस ने अमेरिका के आग्रह पर उसे गिरफ़्तार कर लिया।
अमेरिका ने इस घटनाक्रम की जानकारी भारत को दी थी। भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक बयान जारी कर कहा है कि भारत इन आरोपों को गंभीरता से ले रहा है।
अरिंदम बागची ने गुरुवार को एक प्रेसवार्ता में कहा है कि इस अभियोग में किसी भारतीय अधिकारी का नाम नहीं है।
बागची ने कहा है, ‘हम पहले ही बता चुके हैं कि अमेरिका के साथ द्विपक्षीय सुरक्षा सहयोग पर वार्ता के दौरान, अमेरिकी पक्ष ने कुछ इनपुट साझा किए थे जो संगठित अपराधियों, आतंकवादियों, हथियारों के कारोबारियों और अन्य के नेक्सस के बारे में थे। भारत ने इसकी जांच के लिए विशेष जांच समिति गठित की है।’
उन्होंने कहा, ‘भारत सरकार ने इस मुद्दे की पूरी तरह से जांच करने के लिए एक विशेष जांच समिति का गठन करके जवाब दिया है, जो भारत केअंतरराष्ट्रीय संबंधों और आंतरिक सुरक्षा के लिए किसी भी प्रभाव को संबोधित करने के उसके संकल्प का प्रदर्शन करता है।’ (bbc.com/hindi)
मनोरमा सिंह
24 नवम्बर को देश में बहुत से खास-आम लोगों ने तुलसी विवाह किया, शायद उन्हें इसकी कथा मालूम हो अगर नहीं तो यहाँ शेयर कर रही हूँ, ये विवाह किसी भी स्त्री के अपने साथ यौन दुव्र्यहार करने वाले से विवाह को सौभाग्य के रूप में स्थापित और ग्लोरीफाय करता है और ईश्वर जैसा कोई व्यक्ति हो तो उस विवाह को स्त्री पर कृपा की तरह से ग्रहण किये जाने का संदेश देता है, उसे ईश्वर कृपा के रूप में जस्टिफाय करता है, बाकी आप इस कहानी को आज की किसी भी स्त्री से जोडक़र देखें और विचार करें। शुक्र है अपने देश का संविधान धर्म और आस्था की इन कहानियों से संचालित नहीं है इसलिए किसी भी पुरुष के ऐसे आचरण को अपराध की श्रेणी में रखा है चाहे वो किसी भी पद, रुतबे , ताकत या हैसियत का हो।
बहरहाल, कहानी इस प्रकार से है-
नारद पुराण के अनुसार, एक समय दैत्यराज जलंधर के अत्याचारों से ऋषि-मुनि, देवता और मनुष्य सभी बहुत परेशान थे। वह बड़ा ही पराक्रमी और वीर था। इसके पीछे उसकी पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली पत्नी वृंदा के पुण्यों का फल था, जिससे वह पराजित नहीं होता था। उससे परेशान देवता भगवान विष्णु के पास गए और उसे हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीहरि ने वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे का उपाय सोचा। भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण कर वृंदा को स्पर्श कर दिया। जिसके कारण वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग हो गया और जलंधर युद्ध में मारा गया।
भगवान विष्णु से छले जाने तथा पति के वियोग से दुखी वृंदा ने श्रीहरि को श्राप दिया कि आपकी पत्नी का भी छल से हरण होगा तथा आपको पत्नी वियोग सहना होगा। यह श्राप देने के बाद वृंदा अपने पति जलन्धर के साथ सती हो गईं जिसकी राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा का पतिव्रता धर्म तोडऩे से भगवान विष्णु को बहुत ग्लानि हुई। तब उन्होंने वृंदा को आशीष दिया कि वह तुलसी स्वरुप में सदैव उनके साथ रहेगी। उन्होंने कहा कि कार्तिक शुक्ल एकादशी को जो भी शालिग्राम स्वरुप में उनका विवाह तुलसी से कराएगा, उसकी मनोकामना पूर्ण होगी। तब से तुलसी विवाह होने लगा।
आकार पटेल
50 वर्षों से, भारत ने लोकसभा की संरचना या सीटों की संख्या में (जिसे परिसीमन कहा जाता है) कोई बदलाव नहीं किया है। किसी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के लिए सीटों की हिस्सेदारी बढ़ाने या घटाने के लिए जिस व्यक्ति को चुना जाता है उसके हाथ में बहुत ताकत होती है। आदेशों में 'क़ानून की शक्ति है और किसी भी अदालत में उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता' और उसे संशोधित नहीं किया जा सकता है।
हाल की घटनाओं ने परिसीमन के मुद्दे को फिर से प्रमुखता से सामने ला दिया है, और संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की भी शर्त है कि यह काम 'परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद प्रभावी होगा।'
लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह व्यक्ति कौन है। परिसीमन निर्धारित करने वाली समिति की आखिरी अध्यक्ष रिटायर्ड जज रंजना देसाई थी, जिन्होंने 2022 में यह काम छोड़ दिया था, और उन्हें दूसरा पद (प्रेस परिषद) दे दिया गया, लेकिन चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अभी भी उनका ही नाम अंकित है।
आइए, परिसीमन से जुड़े कुछ मुख्य मुद्दों की पड़ताल करते हैं, जो कि हमारे राज्यों में आबादी की विभिन्न संख्या पर आधारित हैं। आंध्र प्रदेश में कुल प्रजनन दर, किसी महिला से जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या 1.7 है, जबकि बिहार में यह दर 3 है। फिलहाल भारत में यह दर 2 के आसपास है और करीब एक दशक में हमारी आबादी घटने लगेगी। हालांकि हमारे 29 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पहले ही प्रतिस्थापन दर 2 से नीचे है। लेकिन बाकी 7 राज्यों की दर ऐसी है जिससे कि देश का औसत बढ़ जाता है।
पचास साल पहले उत्तर प्रदेश से (तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा था) 85 सांसद चुने जाते हैं, और हर सीट पर लगभग 10 लाख आबादी थी, इसी तरह केरल से 20 सांसद, तमिलनाडु से 40 सांसद, कर्नाटक से 28 सांसद और राजस्थान से 25 सांसद चुने जाते थे।
बीते 50 साल में यानी जब आखिरी बार लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाई गई थी, तब से केरल की आबादी में 56 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इसी अवधि में राजस्थान में आबादी 166 फीसदी बढ़ गई है। तमिलनाडु की आबादी में 75 फीसदी तो हरियाणा में 157 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे में यह तर्क कि परिवार नियोजन को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले दक्षिणी राज्यों की अनदेखी कर उत्तरी राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व देना अर्थपूर्ण और सही है। लेकिन यह तर्क भी सही है कि उत्तरी राज्यों के सांसद कहीं अधिक भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह तर्क सही नहीं होगा। बिहार के 40 और उत्तर प्रदेश के 80 सांसद औसतन प्रति सांसद 30 लाख भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उधर केरल का हर सांसद 17 लाख और तमिलनाडु का हर सांसद औसतन 19 लाख भारतीयों के प्रतिनिधि होते हैं।
विभिन्न राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उस राज्य की आबादी के हिसाब से तय हुआ था, और उस समय सभी सांसद लगभग एक जैसी संख्यी में भारतीयों के प्रतिनिधि है। लेकिन आज स्थितियां अलग हैं।
इस बाबत दोनों तरफ से अर्थपूर्ण और जायज तर्क दिए जा रहे हैं और जब परिसीमन आयोग की बैठक होगी तो उस पर एक किस्म का दवाब होगा क्योंकि वह कोई भी तरीका अपनाए, सबको तो संतुष्ट नहीं किया जा सकता।
संभवत: परिसमीन का काम अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाए, खासतौर से इसलिए क्योंकि इससे पहले तो जनगणना होनी है जोकि बिना किसी कारण के स्थगित कर दी गई है। और, इसलिए भी क्योंकि महिलाओं को लोकसभा में एक तिहाई हिस्सेदारी देने वाला महिला आरक्षण विधेयक अब कानून बन चुका है, यानी परिसीमन का आधार अब सिर्फ भौगोलिक स्थितियों पर ही निर्भर नहीं होगा। लेकिन इससे हमें भ्रम में नहीं आना चाहिए और समस्या जस की तस बनी रहेगी।
तो फिर क्या किया जाए?
इस पर अमल न करने का अर्थ है संविधान का उल्लंघन। संविधान का अनुच्छेद 82 (प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण) कहता है, ‘प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को लोक सभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य का क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसे तरीके से पुन: समायोजित किया जाएगा जैसा संसद कानून द्वारा निर्धारित कर सकती है।’
यहां ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘प्रत्येक जनगणना’ और इस पर बीते 50 साल में अमल न होगा ही समस्या की जड़ है। 1972 तक इस प्रक्रिया का पालन किया गया। 1950 के दशक की 494 लोकसभा सीटें 1960 के दशक में 522 और फिर 1970 के दशक में 543 हो गईं। इस समय, जैसा कि ऊपर दिए गए आंकड़ों से पता चलता है, जबकि सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व समान था, यह मान्यता थी कि दक्षिण बहुत बेहतर कर रहा था और राज्य को विशेष रूप से उत्तर के लिए परिवार नियोजन को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी।
पाठकों को इंदिरा गांधा द्वारा इमरजेंसी के दौरान उठाए गए कठोर कदमों की याद होगी और बहुत से लोगों को परिवार नियोजन को प्रोत्साहन देने वाले विज्ञापन भी याद होंगे जो 1980 के दशक में दूरदर्शन और अखबारों में दिखते थे।
इस अभियान का एक दीर्घगामी लक्ष्य था परिसीमन के लिहाज़ से राज्यों को एक स्तर पर लाना। लेकिन जनगणना और परिसीमन के बीच का सूत्र टूट गया या और साफ कहें तो इसे स्थगित कर दिया गया।
1980 और 1990 के दशक में जब हमने जनगणना की तो राज्यों की आबादी के आकार में काफी विभिन्नता सामने आई थी, लेकिन तब भी परिसीमन नही किया गया।
वाजपेयी सरकार ने 2002 में इसे और अगले 25 साल के लिए टाल दिया, कि परिसीमन 2031 में होगा (यानी 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना)
यह कब होगा? हमें नहीं पता। 1880 के बाद पहली बार कोई जनगणना नहीं की गई है, जोकि 2021 में हो जानी थी। इसे न करने का कारण कोविड महामारी बताया गया, लेकिन महामारी खत्म होने के बाद भी अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिख रहा है कि जनगणना कराई जाएगी (या फिर सीएए को कैसे लागू किया जाएगा जोकि महामारी के बाद लागू किया जाना था)।
यह मानते हुए कि जनगणना जल्द ही शुरु होगी, सरकार को कुछ धारणाओं को बदलने की कोशिश करनी होगी। लेकिन पिछले 50 वर्षों में असमानता और भारी बदलाव को देखते हुए ऐसा होना आसान नहीं लगता। हो सकता है इसे लोगों के साथ खुले औ स्पष्ट संवाद के बिना ही कर लिया जाए, और नेता जी की शैली को जानते हुए, इसके शुरु होने की उम्मीद भी कम ही है।