विचार / लेख
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के संविधान ने हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था दी है हालांकि हमारा इतिहास और संस्कृति आदि काल से मुख्यत : अलोकतांत्रिक रही हैं। जिस तरह से यूरोप और अमेरिका में लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात किया है उस तरह भारत और एशिया के लोगों ने नहीं किया। यही कारण है कि लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने न अपने दलों में आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की है और न ठीक से देश के नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ लेने दिया है। निश्चित रूप से राजनीतिक दल इसके लिए जितने जिम्मेदार हैं हम भारत के नागारिक भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात करें तो लोकतंत्र के मंदिर में जवाहर लाल नेहरू के समय हल्की फुल्की घुन शुरु हो गई थी जिसके चलते सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे ऊंचे कद के जमीनी नेताओं की जगह कृष्णा मेनन जैसे हवाई नेताओं को ज्यादा अहमियत दी जाने लगी थी। उसी के चलते राम मनोहर लोहिया जैसे नेता को अलग पथ चुनना पड़ा था।इंदिरा गांधी तक पहुंचते पहुंचते कांग्रेस लोकतंत्र का बुरा हाल कर चुकी थी। कभी गांधी नेहरू के करीबी रहे वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण को आपात काल की अलोकतांत्रिक कुव्यवस्था को बदलने के लिए ही समग्र क्रांति का आव्हान करना पड़ा था।आज स्थिति यह है कि राजीव गांधी परिवार के तीनों जीवित सदस्य ही कांग्रेस के सर्वे सर्वा हैं। यही कारण है कि प्रियंका गांधी जो न कांग्रेस संगठन में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है और न किसी वार्ड की पार्षद तक हैं, वे कांग्रेस के हर पोस्टर में मौजूद रहती हैं। वर्तमान कांग्रेस की अलोकतांत्रिक परंपरा का यह अपने आप में अकाट्य प्रमाण है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है वह अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी के जमाने तक काफी हद तक लोकतांत्रिक थी लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के युग में पहुंचकर इस मामले में वह भी कांग्रेस पथ पर अग्रसर है। भाजपा में आजकल विधानसभा चुनावों में भी स्थानीय नेताओं की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखा जाता है जो निहायत अलोकतांत्रिक है। यह जग जाहिर है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जे पी नड्डा की जगह संगठन की कमान गृहमंत्री अमित शाह ही संभालते हैं। भारतीय जनता पार्टी में अलोकतांत्रिकता का विकास कांग्रेस की तुलना में ज्यादा तेजी से हुआ है।
अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन की छत्रछाया में आम आदमी पार्टी जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए खड़ी हुई थी उसने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में बाल्यावस्था में ही तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को धता देकर किनारे कर दिया है। जिन प्रमुख लोगों ने इस बहुत तेजी से उभरे दल की नीव रखी थी उनमें से अधिकांश या तो पूत के पांव पालने में देखकर खुद पार्टी से अलग हो गए या तिरस्कृत कर बाहर निकलने के लिए मजबूर किए गए हैं।
जहां तक प्रमुख क्षेत्रीय दलों का प्रश्न है उनकी शुरुआत ही एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए होती है चाहे वह महाराष्ट्र की बाल ठाकरे की शिव सेना हो या मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी हो या ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कडगम आदि। ऐसे दलों की नीव में ही तानाशाही का म_ा होता है जो लोकतंत्र की हरी घास को पनपने ही नहीं देता।
वामपंथी दलों में जरूर लोकतांत्रिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया भर की गरीबी और आर्थिक विषमताओं के बावजूद हमारे देश मे वामपंथी दलों का विभाजित होकर ह्रास होते जाना बेहद दुर्भाग्यजनक है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आज़ादी के बाद उभरी वामपंथी पीढ़ी भारतीय जन जीवन के बजाय रूस और चीन की क्रांतियों से ज्यादा प्रभावित रही है। वाम दल भी भारत के संविधान में प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात नही कर पाए। लगता है हमारे लोकतंत्र के पौधे को वट वृक्ष बनने के लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा।