विचार / लेख
अपूर्व गर्ग
राजेंद्र यादव हमारे प्रिय और प्यारे लेखक हैं। हमारे पास उनकी 'आवाज तेरी हैÓ (उनका एकमात्र दुर्लभ कविता संग्रह) और लॉरेंस बिनयन की लिखी राजेंद्र यादव जी की अनुवाद की गई 'अकबरÓ भी है। ये दोनों पुस्तकें आज शायद ही किसी के पास हों।
ये इसलिए बताया कि जब ये पुस्तकें उपलब्ध हैं मतलब राजेंद्र यादव जी की बाकी तो होंगी ही।
कोशिश रहती है अपने प्रिय लेखकों का सम्पूर्ण संग्रह रखें। यह कोशिश प्रेमचंद, राहुल जी से लेकर कमलेश्वर और बाद में रविंद्र कालिया तक ही नहीं इससे आगे भी रही है ।
ज्यादातर पाठक अपने प्रिय लेखकों की सभी पुस्तकें जरूर खरीदते हैं, बल्कि कुछ तो बेसब्री से इंतजार भी करते हैं।
खैर, न आज आदरणीय राजेंद्र जी हमारे बीच हैं न कालियाजी। पर इनकी पुस्तकें हैं।
एक सवाल मौजूद लेखकों और प्रकाशकों से है कि आप अपने पाठकों को हलके में क्यों लेते हैं?
ये एक बहस का विषय है कि पेपरबैक सौ का तो हार्ड बाउंड 500 का! इस पर पाठक और प्रकाशकों के बीच बहस अक्सर जारी रहती है। ऐसे कुछ और भी मुद्दे हैं।
इनसे अलग मेरा एक सवाल है कि बिके हुए माल को लेबल बदल कर कुछ तब्दीलियां कर नए नाम, कवर के साथ क्यों बेचा जाता है।
उदाहरण : हमने ङ्ग ,ङ्घ, र्ं को अलग-अलग खरीदा। इसके बाद कभी ङ्ग+ङ्घ =नई किताब, कभी ङ्घ+र्ं = नई किताब, कभी ङ्ग+र्ं= नई किताब बनाकर क्यों किताब बाजार में उतरा जाता है?
किसी के अखबारों में प्रकाशित कई वर्ष लिखे हुए कॉलम, लेख आते हैं तो उसका स्वागत है। वो एक किताब में दस्तावेज बन जाता है।
आज कल फेसबुक पोस्ट का संग्रह किताब के तौर पर आ रहा है जो सही है ।
अब एक दूसरा पक्ष देखिये । रवींद्र कालिया का 'गालिब छुटी शराबÓ हंस में लगातार प्रकाशित होने के बाद पुस्तक के तौर पर आई जिसने धूम मचा दी, आज तक न जाने कितने संस्करण निकल रहे हैं ।
कालिया जी की 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ आई इसमें भी जगजीत सिंह, सुदर्शन फाकिर, कमलेश्वर, इंद्रनाथ मदान श्री लाल शुक्ल मार्कण्डेय, इलाहबाद। ज्ञान रंजन, जालंधर, दिल्ली चाय घर भी शामिल है पर काफी सामग्री और लोगों पर कुछ अलग भी है। ये तो आना ही चाहिए ।
रवींद्र कालिया की ही 'कामरेड मोनालिजाÓ शानदार संस्मरण पुस्तक है। इसमें भी कमलेश्वर, मार्कण्डेय, श्री लाल शुक्ल ज्ञानरंजन, आदि हैं पर नई यादों बातों के साथ भी ।
ये बात जरूर है 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ हो या 'कामरेड मोनालिजाÓ बेहद दिलचस्प और कालिया जी का फ्लेवर-तेवर दिखता है पर 'गालिब छुटी शराबÓ का नशा इनमें बराबर दीखता है।
इसी बरस अभी हाल में ही रवींद्र कालिया जी की पुस्तक 'छूटी सिगरेट भी कम्बख्तÓ सेतु प्रकाशन से आई है।
रवींद्र कालिया के पाठकों के लिए उनकी अनुपस्थिति में पुस्तक आना एक बड़ी खुशखबरी है पर इसमें कुछ संस्मरण के अलावा अब 'स्मृतियों की जन्मपत्रीÓ के ही लेख डाल दिए गए हैं। कृष्णा सोबती। हमारी कृष्णा सोबती हैं, कमलेश्वर : इलाहबाद को मेरा सलाम से लेकर, जगजीत शीर्षक बदलकर हैं, टी हाउस चाय घर के रूप में है, वहीं समकालीन समय और लेखन की चुनौतियां हैं।
इसी तरह राजेंद्र यादवजी के हंस के सम्पादकीय काँटों की बात करीब 12 पुस्तकों के रूप में आये, जो आज हंस के सम्पादकीय लेखों का जरूरी और महत्वपूर्ण संकलन है ।
इसके बाद काँटों की बात के कई कांटें वे देवता नहीं, मुड़-मुड़ के देखता हूँ, औरों के बहाने में दिखे ।
हकीर कहो-फकीर कहो जैसे लेख तो वो देवता नहीं के बाद फिर मुड़-मुड़ के देखता हूँ में प्रकाशित हैं ।
'अपनी निगाह मेंÓ मुड़-मुड़ के देखता हूँ और औरों के बहाने में है।
एक और पुस्तक 'आदमी की निगाह में औरतÓ में कांटें तो हैं ही पर यहाँ काँटों से औरों के बहाने होते हुए कृष्णा सोबती हैं।
ठीक है। पर ये सब पुस्तकें यादों का दस्तावेज हैं, महत्वपूर्ण हैं, अपने वक्त का साहित्यिक इतिहास इनमें दर्ज है ।
एक पाठक के तौर पर अपने प्रिय और सम्माननीय लेखकों के साथ यात्रा करते-करते लगता है कि हमारे लेखकों-प्रकाशकों को भी पाठकों का ध्यान रखना चाहिए ।
इन पुस्तकों के लेखक ऐसे हैं कि इनके लेख पुनरावृत्ति के बावजूद हर नई पुस्तक के साथ बिकेंगे पर ये जो ट्रेंड बन रहा है, पाठकों को कब तक रास आएगा?