विचार / लेख
-आशुतोष भारद्वाज
सोते हुए जख्म में तब्दील हो चुका बचपन का घर आपकी आहट से उठ जाता है। इस जख्म के कई निशान हैं। शायद सबसे तीखी कसक उन किताबों की है जो बेसमेंट में जमा होती गयीं। आप शहर और मकान बदलते रहे, हर बार घर लौटते वक्त गाड़ी में भरकर किताबें आती रहीं, बेसमेंट में इकट्ठा होती गईं। अशक्त होते माता-पिता इस घाव की पहरेदारी करते रहे।
किताबों की मेरी स्मृति चार बरस की उम्र से वीर बालक, महापुरुषों की कथाएँ, कॉमिक्स इत्यादि से शुरू होती है। इन किताबों और किरदारों ने मेरी कल्पना को रंग दिए, लेकिन जिन किताबों ने मुझे झकझोर दिया वे चमत्कार की तरह आठ-नौ की उम्र में आईं। घर की अलमारी में रखे शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास जो बहुत बाद में पता चला नानाजी ने माँ-पिता को शायद विवाह की वर्षगाँठ पर दिये थे-परिणीता, बैकुंठ का दानपत्र, अकेली और बिंदु का बेटा।
इनमें से आखिरी उपन्यास न मालूम कहाँ खो गया, तीन साथ रहे आए। इन उपन्यासों की तरलता बहुत देर तक साथ रही, जब तक यह एहसास नहीं हुआ कि अब वही किताबें पढऩे की उम्र है, जो कोई बीता घाव भर दें, या नया घाव दे जायें।
कुछ बरस पहले दीपावली की छुट्टी में घर जाने पर पाया कि किताबों पर दीमक लग गई है। कई सारी किताबें मिट्टी हो गई थीं, उनमें शरत चन्द्र के तीन उपन्यास भी थे। जीवन में नयी किताबें आती गयीं, पिछली किताबें बेसमेंट में जमा होती गयीं। माँ-पिता कब तक नीचे सीढिय़ाँ उतर कर जाते? इतनी उपेक्षा कोई स्वाभिमानी किताब कैसे सहती? उसे तो छोडक़र जाना था।
उसके बाद की दीपावली पर मैंने बढ़ई को बुलाकर घर के हॉल में छत तक जाती कई शेल्फ बनवा लीं। यहाँ माँ-पिता की निगाह रोज जाती थी, किताबें सुरक्षित थीं, लेकिन अब मैंने उनकी बैठक में अपनी उन किताबों को स्थापित कर दिया था, जिन्हें मैं अपने साथ नहीं रख पा रहा था। ऐसा भी नहीं था कि जिन शहरों के जिन मकानों में रहता आया था, वहाँ इन किताबों को नहीं रख सकता था। लेकिन चूँकि खटका लगा रहता था कि यह मकान और यह शहर कभी भी छूट सकते हैं, किताबें इस आशंकित जीवन से हारती गईं, बचपन के घर का जख्म गहरा होता गया।
जब भी घर जाना होता है, मसलन पिछले हफ्ते होली पर, यह घाव गुनाह की तरह दिखाई देता है।