विचार / लेख
-ओम थानवी
बरस दिल्ली में बीते, पर कभी यह अहसास नहीं हुआ कि लोदी बाग में नवरोज के मौके पर हर साल फारसी समुदाय का मेला-सा जुटता है।
सिर्फ पारसी (जरथुस्त्र धर्म वाले) नहीं, फारसी बोलने वाले अफगान, उज्बेक, ताजिक और ईरानी भी। बल्कि अफगान सबसे ज्यादा, क्योंकि रूस और अमेरिका के दखल से उजड़े चमन वालों को राहत की जमीन भारत में ही नसीब हुई। दिल्ली की दूरस्थ बस्तियों में ऐसे शरणार्थी बड़ी संख्या में हैं।
नवरोज-21 मार्च-को वसंत ढलता है, रात और दिन बराबर हो जाते हैं। मौसम के इस खुशगवार बदलाव के साथ नया फारसी साल शुरू होता है। नवरोज कहलाता है।
बुजुर्ग पत्रकार जाविद लईक पिछले तीस साल से मार्च की इस तारीख़ को लोदी गार्डन आते हैं। उनके इस जिक्र भर से सोमवार की शाम मैं भी उनके साथ हो लिया।
कैसा अद्भुत नजारा था। चप्पे-चप्पे पर फूलों भरी जाजम बिछाए लोग। खाते-पीते-गाते-हँसते। खेलते हुए बच्चे और किशोर। उम्रदराज दोस्तों की बतरस। मानो दिल्ली के इस विशाल बाग में एक रोज के लिए कोई परदेस पिछवाड़े से आ बसा हो। अपने सारे गम भुलाकर।
मगर कभी इस मेले पर मैंने टीवी पर कोई हलचल आज तक नहीं देखी। आपने देखी?
एक बड़े परिवार से रूबरू हुआ। पुलाव और कबाब की दावत चल रही थी। साथ में पत्ती वाली चाय। इतना प्यार से पूछा गया कि चाय के लिए मैंने मना नहीं किया, बल्कि दूर पेड़ की छाँव में बैठे लईक साहब के लिए भी ले आया। बिना दूध और चीनी की अनूठी चाय, जिसका स्वाद मैं काबुल, इस्तांबुल, काहिरा आदि में खूब ले चुका हूँ। इस बार कुछ दालचीनी की-सी महक भी अनुभव हुई।
लेकिन सबसे मुग्ध करने देने वाली महक तो नवरोज मना रहे उन लोगों की मुस्कान में थी। खूबसूरत चेहरे, वतन से दूर, मगर अनचाहे प्रवास में भी उत्सव की कैसी सहज उमंग। चाय पेश करने वाले बुजुर्गवार ने कहा था — पीछे अमन नहीं है न, इसलिए उड़ानें बंद हैं। वरना यहाँ रौनक कई गुना होती।
शुक्रिया लईक साहब। मेरे समक्ष दिल्ली में एक नई दिल्ली के दरवाजे अकस्मात् खोलने के लिए।
दुनिया अब भी कितनी निश्छल है-कितना सौंदर्य, आत्मीयता और जिंदादिली का ताप समेटे हुए। और बाँटते हुए।
चुपचाप। किसी एक रोज। नवरोज।