विचार / लेख
राजा ललित कुमार सिंह, रायगढ़
-डॉ. परिवेश मिश्रा
समाजसेवा और धर्मार्थ कार्य करने में उद्यत मारवाड़ी जब रायगढ़ और सारंगढ़ जैसे जनहितैशी आदिवासी राजाओं के इलाकों में बसे (उत्तर के जशपुर राज्य में व्यवसायी वर्ग अधिकतर जैन धर्म का था और बिहार के हजारीबाग जैसे इलाकों से पहुंचा था) तो सामाजिक व्यवस्था में जो कई असर नजऱ आये, उनमें प्रमुख था : राज्य-संरक्षण में होने वाली जनकल्याणकारी और परोपकारी गतिविधियों में घुलमिल कर ‘धरम-करम’ की व्यक्तिगत परम्परा का समाजीकरण होना।
पहला बड़ा उपक्रम 1935-36 में रायगढ़ में सामने आया। मारवाडिय़ों की ओर से पहल हुई और राजा चक्रधर सिंहजी के द्वारा दान की गयी भूमि पर एक अनाथालय स्थापित किया गया। नामकरण में कोई समस्या नहीं थी। 'श्री चक्रधर अनाथालय' अब भी रायगढ़ की पहचान है।
धीरे-धीरे दानदाताओं की संख्या बढ़ी, शहर के सेठ तथा अन्य लोगों के अलावा गावों से सम्पन्न किसान भी जुड़ते चले गये और 1954 में सेठ पालूराम धनानिया की अध्यक्षता में इसे एक पंजीकृत ट्रस्ट का रूप दे दिया गया। सेठ किरोड़ीमल शुरुआती दानदाता थे। बीस वर्षों में सेठ जगतनारायण, सेठ पुरुषोत्तम दास मोड़ा, सेठ हरिश्चंद्र, श्री किशोरीमोहन त्रिपाठी, रामस्वरूप रतेरिया जैसे नामों की लिस्ट लम्बी होती चली गयी थी। इलाके में शायद ही कोई छूटा होगा जिसके पास कुछ धन हो और उसने दान न दिया हो। आज़ादी के बाद बाहर से आनेवाले मंत्री और नेताओं के लिए यहां दान देना उतना ही आवश्यक मान लिया गया जितना विदेश से आने वाले राजनेता के लिए कभी राजघाट पर पुष्पार्पण होता था। राज्य और केन्द्र के समाज कल्याण विभागों से भी बहुत सहायता मिली।
राजा चक्रधर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र ललित कुमार सिंह जी राजा बने। राज्य का भारतीय संघ में विलय हुआ और राजा ललित कुमार सिंहजी पहले और दूसरे आमचुनावों में कांग्रेस की ओर से घरघोड़ा (रायगढ़ के पास) क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुए। विधायक के रूप में उन्हे 150 रुपये का भत्ता प्रतिमाह मिलता था। अपने पूरे कार्यकाल में प्राप्त इस राशि को वे अनाथालय के लिए दान करते रहे।
उस दौरान सारंगढ़ से राजा नरेशचन्द्र सिंहजी विधायक (और मंत्री) थे। (प्रथम दो आमचुनावों में एक व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत आरक्षित सीटें सामान्य सीटों से अलग नहीं थीं। अनेक विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र ऐसे थे जहां से दो-दो प्रत्याशी निर्वाचित होते थे। प्रत्येक वोटर दो वोट देता था - एक सामान्य उम्मीदवार के लिए दूसरा आरक्षित वर्ग के लिए)। सारंगढ़ में सामान्य कोटे से राजा साहब और आरक्षित कोटे से 1951 में श्री वेदराम तथा 1957 में इलाके की एकमात्र महिला उम्मीदवार श्रीमती नान्हू दाई चुनी गयी थीं।)
तीसरा आमचुनाव (1962) आते तक स्थितियां बदल गयीं। संविधान के प्रावधान के अनुसार हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना भी हो चुकी थी और विधान सभा/लोक सभा के क्षेत्रों का परिसीमन भी हो चुका था। (दोनों मामलों में, देश की सरकारें अब इस प्रति-दस-वर्ष वाले नियम से बचने के रास्ते/बहाने ढूंढऩे लगी हैं)।
परिसीमन के बाद एक नया विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया जिसका नाम था पुसौर। महानदी के दोनों ओर फैला हुआ - उत्तर में पुराना रायगढ़ राज और दक्षिण में सारंगढ़ का इलाका। एक परिवर्तन और आया था। राजा ललित कुमार सिंह कांग्रेस छोडक़र रामराज्य परिषद में शामिल हो गये थे। घरघोड़ा से कांग्रेस ने राजा ललित के छोटे (मंझले) भाई श्री सुरेन्द्र कुमार सिंह को टिकिट दिया (और वे विजयी भी हुए)।
आज़ादी के बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ में कुछ राजे-रजवाड़े अखिल भारतीय रामराज्य परिषद में शामिल हुए थे। 1948 में स्वामी करपात्री जी ने एक हिन्दु-राष्ट्रवादी राजनैतिक पार्टी के रूप में इस पार्टी का गठन किया था।
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जि़ले में हरनारायण ओझा के नाम से जीवन शुरु करने वाले स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती जी को स्वामी करपात्री या करपात्री महाराज के रूप में जाना गया था। उनकी एक विशिष्ट आदत थी : वे केवल उतना ही भोजन ग्रहण करते थे जो पात्र के रूप में फैली उनकी हथेली (‘कर’) में समा जाए। कुछ राजाओं के जुडऩे का लाभ अवश्य मिला किन्तु एक राजनैतिक पार्टी के रूप में रामराज्य परिषद की अपनी स्वतंत्र जड़ें समाज में नहीं थीं।
इस तीसरे चुनाव में राजा ललित कुमार सिंहजी ने राम राज्य परिषद के उम्मीदवार के रूप में नये अस्तित्व में आये पुसौर क्षेत्र से लडऩे का फ़ैसला किया। इधर परिसीमन का प्रभाव सारंगढ़ सीट पर भी पड़ा था। क्षेत्र आरक्षित घोषित हो गया था। राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को नयी सीट पर लडऩा था और कांग्रेस ने उन्हे पुसौर सीट पर प्रत्याशी बनाया।
यहां उल्लेख करते चलें कि राजा नरेशचन्द्र सिंहजी की बहन बसन्तमाला जी का विवाह सन 1932 में बड़ी धूमधाम के साथ रायगढ़ के राजा चक्रधर सिंह के साथ हुआ था। पुराने किस्से सुनाने वाले लोग बताते थे कि शादी के बाद मेहमानों और दहेज का सामान ले जाने वाली पहली बैलगाड़ी जब रायगढ़ पहुंची तब तक कतार में चल रही अंतिम गाड़ी सारंगढ़ से रवाना नहीं हो पायी थी।
चुनाव अभियान शुरू हुआ तो पब्लिक मीटिंग भी होने लगीं। ऐसी ही एक सभा में राजा ललित कुमार सिंह जी ने कांग्रेस के उम्मीदवार राजा नरेशचन्द्र सिंह जी के बारे में कुछ ऐसा कहा जिसे मसखरी में की गयी आलोचना जैसा कहा जा सकता है।
चूंकि उनकी पार्टी उनके इर्द-गिर्द के लोगों की ही अधिक थी, इसलिए स्वाभाविक था उनके प्रचारक साथियों में स्थापित और अनुभवी राजनैतिक कार्यकर्ताओं के स्थान पर दरबारी किस्म के लोगों की बहुतायत होती थी। सभा में राजा ललित कुमारजी के भाषण के बाद जो वक्ता बोलने आये वे कुछ समय पहले रायगढ़ में हुए फज़ऱ्ीवाड़े के एक चर्चित काण्ड में लिप्त पाये जाने के कारण कांग्रेस से निष्कासित किये जा चुके थे। इस काण्ड की जांच प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरुजी के व्यक्तिगत आदेश पर की गयी थी। पं. नेहरू तक इस फज़ऱ्ीवाड़े की जानकारी राजा साहब सारंगढ़ के माध्यम से पहुंची थी (यह कहानी कभी और)। निष्कासित नेताजी इस चुनाव में राजा ललित जी के समर्थक के रूप में अवतरित थे। मंच पर बोलने का अवसर मिला तो शायद अतिउत्साह में या अपने राजा को प्रसन्न करने की गरज से, अपने भाषण में विरोधी पार्टी कांग्रेस के उम्मीदवार राजा नरेशचन्द्र सिंह जी का नाम ले कर कुछ कहना शुरू कर दिया।
शब्द उनके मुंह से बाहर आये ही थे कि गुस्से से तमतमाये चेहरे के साथ राजा ललित कुमार सिंह खड़े हो गये। उन्होंने अपने वक्ता समर्थक के चेहरे पर एक थप्पड़ चस्पा किया था और कहा : ‘सारंगढ़ राजा साहब मेरे मामा हैं। मैं जो चाहे बोलूं मुझे क्षम्य है। पर अपनी पार्टी की बात छोडक़र उनके बारे में अपशब्द बोलने वाले आप कौन होते हैं?’
कम से कम पहले तीन आमचुनावों में किसी विरोधी उम्मीदवार के लिए व्यक्तिगत टिप्पणी किये जाने का (और उसकी असरकारी परिणति का) मेरे लिए यह एकमात्र ज्ञात वाकया है। अनेक उदाहरण बताते हैं उन दिनों राजनैतिक संबंधों की परिभाषा अलग थी।
डॉ खूबचंद बघेल छत्तीसगढ़ के बहुत वरिष्ठ और सम्मानित नेता रहे हैं। जीवन भर तो वे कांग्रेस में थे लेकिन 1950 में आचार्य कृपलानी के साथ कांग्रेस छोडक़र नवगठित ‘कृषक मजदूर प्रजा पार्टी’ में चले गये थे। (1957 का चुनाव आते तक इस पार्टी ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का रूप ले लिया था)। 1957 के दूसरे आमचुनाव में सारंगढ़ का इलाका बलौदा बाज़ार नामक लोक सभा का हिस्सा था। ( 1951 में महासमुंद का था)। इस क्षेत्र से कांग्रेस के दो उम्मीदवार थे - सामान्य कोटे से श्री विद्याचरण शुक्ल तथा आरक्षित से श्रीमती मिनीमाता। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की ओर से प्रचार करते घूम रहे श्री खूबचंद बघेल सारंगढ़ क्षेत्र में भी आये। कुछ गांवों में सभाएं की, लोगों से मिले, उनका नज़रिया जाना और उसके बाद वे सीधे राजा नरेशचन्द्र सिंह जी के पास पहुंचे। राजा साहब ने अपने से वरिष्ठ बघेल जी का स्वागत किया। एक दूसरे के हालचाल पूछे गये, बघेल जी ने भोजन किया, विश्राम किया और वापस चले गये। उनके अनुसार यहां प्रचार करना बेमानी था। यह राजा साहब का प्रभाव क्षेत्र था। उन्होने किसी और क्षेत्र में समय का अधिक प्रभावी उपयोग करना बेहतर समझा। जाते समय यह बात स्वीकार करने में उन्हे कोई झिझक नहीं हुई थी।
राजनैतिक प्रतिबद्धताओं की अपेक्षा आपसी रिश्तों को प्राथमिकता देने के उदाहरण बाद में भी मिले।
1980 में सुश्री पुष्पा देवी सिंहजी पहली बार रायगढ़ क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव लडऩे के लिए मैदान में थीं। अपने घर से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर जशपुर के पहाड़ी क्षेत्र में प्रचार और जनसम्पर्क के दौरान एक दिन सामने से जशपुर के राजा विजयभूषण सिंह देव जी की गाड़ी आते दिखी।
राजा साहब पहले दोनों आमचुनावों में जशपुर से विधायक रह चुके थे। तीसरा आमचुनाव परिसीमन के बाद हुआ था। लोकसभा के लिए रायगढ़ पहली बार एक स्वतंत्र (अनारक्षित) सीट बनी थी (1951 और 1957 में इसे सरगुजा-रायगढ़ कहा जाता था)। राजा साहब इस तरह रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र से पहले सांसद थे। उस समय उनकी पार्टी थी राम राज्य परिषद। उस चुनाव में इस पार्टी से केवल दो सांसद लोकसभा में पहुंचे थे। राजा साहब उनमें से एक थे। बाद में इस पार्टी का जनसंघ में विलय हो गया था। किन्तु 1980 का चुनाव ऐसे समय में हो रहा था जब न जनसंघ थी न भाजपा। जनसंघ के जनता पार्टी में विलीन हुए तीन वर्ष हो चुके थे और दोबारा एक नये नाम 'भारतीय जनता पार्टी' के साथ उदय होने में तीन माह बाकी थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रहे और मूलत: जनसंघ के नेता श्री नरहरि साय जनता पार्टी की ओर से सामने थे।
राजा विजयभूषण सिंह देव, जशपुर
पुष्पा देवीजी ने कार से उतर कर राजा साहब को झुक कर प्रणाम किया। राजा साहब ने आशीर्वाद दिया, दोनों ने एक दूसरे के परिवार की कुशलक्षेम पूछी। राजा साहब ने पूछा रहने की क्या व्यवस्था है? और खाने-पीने की ? कोई अन्य तकलीफ तो नहीं है? और फिर जाते जाते कहा ‘फलां गांव में आपके कार्यकर्ता कमज़ोर हैं’। राजनैतिक प्रतिबद्घता एक तरफ, सामाजिक और व्यक्तिगत शिष्टता राजा विजयभूषण सिंह देव जी के बाद की पीढिय़ों में भी बरकरार रही। आज भी है।
समय के साथ सामाजिक जीवन के हर पहलू में बदलाव आया है तो राजनीति कैसे अछूती रहे ?