विचार / लेख
-कनक तिवारी
दिलीप साहब ने ‘आत्मकथा‘ में लिखा है उन्हें राजनीति में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। बाद में राज्यसभा के सदस्य बनाए गए। धुंधली हो रही घटनाओं, संस्मरणों और यादों के साथ निहत्थापन है कि उन पर कोई भरोसा तो कर ले!
किस्सा 1972 का है। विद्याचरण शुक्ल रक्षा उत्पादन मंत्री थे। प्राध्यापकी छोड़कर वकालत के पहले मैं सहसा प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया, नवभारत टाइम्स और नवभारत वगैरह का संवाददाता हो गया था। अभिजात्य आदतों में रचे बसे शुक्ल को छोटे भाई की उम्र के मुझ पत्रकार को दिल्ली दरबार की ठसक दिखाने का एक दिन भी आया। मैं रेसकोर्स की उनकी कोठी में ठहरा था। उस इतवार लंच के तीन निमंत्रण मंत्री जी के पास थे। एक महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग, दूसरा केन्द्रीय मंत्री इंद्रकुमार गुजराल और तीसरा पत्रकार सुदर्शन भाटिया का जिनकी पत्नी मक्के की रोटी और सरसों का साग अपने हाथों बनाकर खिलाने वाली थीं। शुक्ल ने मुझसे मेजबान चुनने कहा। बेतुके कपड़ों, हीन भावना और पत्रकारिक मित्र से परिचय पाने की ललक में मैंने मक्के की रोटी और सरसों का साग चुना।
शुक्ल स्पोर्ट्स् कार में, जीन्स और टी शर्ट पहने फिल्मी हीरो लगते सामने की सीट पर कुर्ता पाजामा पहने बैठे मुझे ले चले। गुजराल की कोठी में कार घुस रही थी। सामने से एक खूबसूरत कार आ रही थी। मंत्री बुदबुदाए, ‘ये हज़रत उतरेंगे। तुम इन्हें संभालना। मैं गुजराल से माफी मांगकर आता हूं।‘ उस कार की पिछली सीट पर बैठा व्यक्ति ‘शुक्ला साहब, शुक्ला साहब‘ कहता अपनी कार को पलटाकर हमारी कार के पीछे दौड़ा आया। उतरते उतरते उसने विद्याचरण शुक्ल को घेरा। शुक्ल ने मुझसे तआरुफ कराया ‘ये मेरे राजनीतिक सचिव हैं। छोटे भाई और बड़े पत्रकार भी। इनकी सलाह से राजनीतिक फैसले करता हूं।‘ हर नेता की तरह शुक्ल ने हजारों कामचलाऊ झूठ बोले ही होंगे। इस झूठ से लेकिन मेरे लिए सपना झरने लगा।
उस आकर्षक पुरुष ने मेरा दायां हाथ गर्मजोशी से पकड़ा और मिनटों तक नहीं छोड़ा। इतनी देर तक तो अपनी फिल्मों में किसी नायिका का हाथ पकड़े मैंने उसे नहीं देखा था। उसके हाथों में उसकी भाषा थी। उसके मन को बयान कर रही थी। उसकी आंखों में जुंबिश थी जो हर फिल्म में इस कदर साफ साफ बोलती रहीं कि अंधे को भी दिखाई पड़ जाता। आज ज़रूरी नहीं होने पर भी वह जुबान से बोल रहा था कि मैं शुक्ल के मन की थाह लूं। खुद्दार अतिमानव बीस वर्ष छोटे युवक का हाथ पकड़े खड़ा था। मुझे राजनीति में रुचि नहीं पैदा हो रही थी।
मेरे लिए वे दिलीप कुमार नहीं, देवदास थे। कितने सौभाग्यशाली क्षण थे। मेरा देवदास पारो की ड्योढ़ी पर मरने वाले मेरा हाथ पकड़ने दिल्ली के सरकारी बंगले की चौहद्दी के अंदर खड़ा है। मैं देवदास से मुखातिब होता हूं। दिलीप कुमार को अभिनय कला की उनकी चापलूसी में दिलचस्पी नहीं है। मैं ‘देवदास‘ के कारुणिक संवादों का रटा हुआ कोलाज़ बिखेरता हूं। ये डायलाॅग फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने पर चंद्रमुखी, धरमदास, पारो, उनकी मां और चुन्नी बाबू तक की आंखों में आंसू छलछलाए थे। मैं झुंझलाता हूं। कैसा देवदास है जो दिलीप कुमार बने रहने का अभिनय कर रहा है। ज़मींदार का बेटा होकर ऊंची जाति की गरीब लड़की पारो से प्रेम के कारण इसी ने ऐसी त्रासद मौत पाई। हम जैसे लोग जीवन में कुछ पाने के बदले इसके जैसी त्रासद मौत चाहते रहे। हमें पी.सी. बरुआ या बिमल राॅय नहीं मिले। कितना निष्ठुर है कलाकार!
मैं ‘देवदास‘ के मुकाबले उसकी एक कम प्रसिद्ध फिल्म की गोद में पनाह मांगता हूं। पूछता हूं, ‘आपको ‘शिकस्त‘ में अपना अभिनय कैसा लगा?‘ ‘शिकस्त‘ में भी तो बांग्ला कहानी का ही नायक है। बांग्ला कुमारिकाओं ने काॅलेज के हम दोस्तों को घास नहीं डाली। तब हम दिलीप कुमार में अपना नायक ढूंढ़ते रहे। ‘शिकस्त‘ में दिलीप का अभिनय अंगरेज़ी के महान रूमानी कवि कीट्स के मृत्यु-लेख की तरह अमर है। कीट्स ने लिखा है, ‘यहां वह लेटा है, जिसका नाम पानी पर खुदा है।‘ मैं शिकस्त हो रहा हूं। मेरे अभिनय का दिलीप कुमार पर असर नहीं हो रहा है। उन्हें आज राजनीति के कीड़े ने काट खाया है। नेता अभिनेता को तबाह कर रहे हैं।
पठान के हाथ ने मेरी हथेली को दबोचा। स्पर्श ने मनुष्य होने की समझ मुझमें विकसित और विस्तारित कर दी। पठान का कड़ा हाथ ब्राह्मण पुत्र के मुलायम हाथ को शिकंजे में कस चुका। पठान ने अपनी नायिकाओं के हाथ भी इतनी सख्ती से नहीं पकड़े होंगे। मेरे मुकाबले वे बेचारियां कोमलांगी ही होंगी। हाथों में क्या दम तो इसके पैदा होने में ही है। कभी उसके हाथ पांव, देह और हम नहीं रहेंगे। तब उसका इतिहास और हमारी गुमनामी एक साथ होंगे। अकेले में शुक्ल ने मुझे बताया तो था कि दिलीप साहब के राज्यसभा में जाने की बात चल रही है।
मैंने उस दोपहर दायां हाथ नहीं धोया। सुदर्शन भाटिया के घर बाएं हाथ से खाया। शुक्ल की कोठी पहुंचकर मैंने आदत के खिलाफ पत्नी से हाथ मिलाया। वह चौकी। मैंने कहा मेरे इस हाथ में दिलीप कुमार का स्पर्श है।