विचार / लेख
-संदीप पौराणिक
छत्तीसगढ़ राज्य के राज्य पशु जंगली वन भैंसा को बचाने की अंतिम उम्मीद उस समय टूट गयी जब इसकी एकमात्र जीवित मादा वनभैंसे की पिछले दिनों मौत हो गयी। उदंति अभ्यारण्य में पाया जाने वाला वनभैंसा भारत की एकमात्र सर्वश्रेष्ठ शुद्ध जंगली भैंसे की प्रजाति है। इसमें अब मात्र 4-5 नर भैसें ही बचे हैं तथा एकमात्र मादा ‘आशा’ जो कि लगभग दो करोड़ की लागत से कृत्रिम प्रजनन क्लोन तैयार की गई है किन्तु वह प्रजनन योग्य नही है। दुर्भाग्यपूर्ण विषय यह है कि छत्तीसगढ़ राज्य के राज्य पशु का दर्जा प्राप्त यह सुन्दर जीव उस समय मौत से हार गया जबकि उसके रख-रखाव पर करोड़ों रूपए खर्च होते हैं। बड़े आश्चर्य की बात ये है कि छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के बाद यहां पर भारी बजट इन जंगली जानवरों पर खर्च हो रहा है किन्तु वर्तमान में राज्य में बाघ, तेंदुआ, भालू, गौर तथा हिरणों की संख्या कम होती जा रही है। छत्तीसगढ़ राज्य उन गिने-चुने राज्यों में से है, जहां वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए बजट राशि सरप्लस में हैं।
वर्ष 2003 की वन्यप्राणी गणना के अनुसार उदंती अभ्यारण में इनकी संख्या 72 थी और वर्ष 2005 तक इनकी संख्या सिर्फ 6 हो गयी। तब पूरे देश में इस शुद्ध प्रजाति के वन भैंसे को बचाने की आवाज उठी किन्तु छत्तीसगढ़ में इन्हें बचाने के लिए वन विभाग ने कोई विशेष अभियान नहीं चलाया। विभाग ने राज्य पशु वन भैंसा को बचाने के लिए जानवरों पर कार्य करने वाली एक प्राइवेट एन.जी.ओ. संस्था ‘डब्ल्यू.आई.टी.’ को सौंप दिया और अपने कार्यों से इतिश्री कर ली।
आज हम पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश की बात करें तो वहां के राज्य पशु बारासिंघा की सन् 1970 में संख्या 66 थी, किन्तु उसे बचाने के लिए समन्वित प्रयास किए गए,। बारासिंघा के संरक्षण और संवर्धन से इनकी संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। आज हजारों की संख्या में बारासिंघा सिर्फ कान्हा नेशनल पार्क में ही नहीं, बल्कि सतपुड़ा नेशनल पार्क तथा अन्य अभ्यारण्यों में फल-फूल रहे हैं, जबकि बारासिंघा बहुत ही असहाय वन्य प्राणी है। अपने बच्चों की रक्षा, सियार जैसे छोटे प्राणियों से भी नहीं कर सकता, वहीं जंगली भैंसा के बच्चों पर बाघ भी हमला नहीं करता। बाघ, हाथी के बाद यदि किसी जीव से डरता है तो वह है जंगली भैंसा। कई बार बाघ और जंगली भैंसे की लड़ाई में बाघ को मरते देखा गया है किन्तु यह शक्तिशाली जीव आज छत्तीसगढ़ में दम तोड़ते नजर आ रहा है। पर किसी भी जिम्मेवार को अफसोस करते नहीं देखा जा सकता।
मैंने 1998 से 2000 तक जंगली भैंसों के कई झुंड उदंति अभ्यारण में देखे थे किन्तु दुर्भाग्य है कि वहां पर आज भी शिकारी, तीर धनुष लेकर खुले आम घूमते हैं। छत्तीसगढ़ में उदंति से लेकर बस्तर तक तथा राजनांदगांव से लेकर जशपुर तक शिकारी बेखौफ हैं। जंगलों से घास खत्म होती जा रही है एवं छत्तीसगढ़ के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारण्यों पर मवेशियों ने कब्जा कर लिया है। छत्तीसगढ़ के जंगलों की रक्षा के लिए मात्र 50 प्रतिशत ही स्टाफ है, जिसमें 90 प्रतिशत अप्रशिक्षित हैं। जबकि जंगली भैंसा घास के अलावा शायद ही कुछ खाता हो, हालांकि एक मात्र आशा की किरण अब इंद्रावती के वनभैंसे पर टिकी है यदि हम वहां से मादा वन भैंसा लेकर आते हैं तो शायद इनकी वंशवृद्धि हो सकती है। क्योंकि उदंति एवं बस्तर के वन भैंसे का जेनेटिक पूल एक ही है।
अब अंत में सवाल यह उठता है कि क्या छत्तीसगढ़ से हमारा राज्य पशु समाप्त हो जायेगा। वैसे भी अंतिम मादा वन भैंसे की मौत के बाद कुछेक समाचार पत्र व इलेक्ट्रानिक मीडिया को छोड़कर किसी भी राजनैतिक दल या वन विभाग के जिम्मेवार अधिकारियों की कोई प्रतिक्रिया नजर नहीं आयी। जैसे कोई बड़ी बात घटित नहीं हुई या कोई नई बड़ी घटना। जब बस्तर में वन विभाग विभिन्न परियोजनाओं पर राशि खर्च कर सकता है और उसे किसी भी प्रकार की नक्सलवादी चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता। फिर वहां का वन विभाग जंगली भैंसों और बाघों की गणना का कार्य क्यों नहीं कर सकता है। उदंति और बस्तर के वनभैंसे का डी.एन.ए. लगभग एक जैसा ही है। मैंने यह बात वन्य जीव बोर्ड की मीटिंग में कई बार उठाई कि असम के वनभैसे की अपेक्षा हमें बस्तर इन्द्रावती अभ्यारण्य से मादा वन भैसे को यहां लाना चाहिए। यदि वनविभाग यह कार्य नहीं कर सकता तो वह किसी स्वयंसेवी संस्था की सहायता ली जा सकती है। छत्तीसगढ़ वन विभाग को साथ ही विभाग को ऐसे पशु चिकित्सकों को रखने चाहिए वनभैंसों पर जानकारी रखते हो। इन्हें बचाने के लिए असम राज्य के उन वाइल्डलाईफ विशेषज्ञों की सहायता लेनी चाहिए, जिन्होंने असम में सफलतापूर्वक वहां के वनभैसों को संरक्षण और संवर्धन की योजना बनाई। परिणाम स्वरूप वहां सैकड़ों के तादात में वन भैंसे फलफूल रहे हैं।
वनविभाग को अपने राज्य पशु को बचाने के लिए एक अभियान चलाना चाहिए जो सिर्फ राज्य की राजधानी की दीवारों पर, सिर्फ उनका चित्र बनाकर या नारे लिखकर ही नहीं बल्कि जंगल के अंदर एक नई कार्ययोजना बनाकर करना हो। अंत में हम सब अंतिम मादा वन भैसे की मृत्यु पर एवं कुप्रबंधन पर राज्य पशु से माफी ही मांग सकते हैं कि जब हमारे पास सरप्लस बजट है, सारे संसाधन हैं, ऐसी स्थिति में भी हम अपने राज्य पशु को नहीं बचा पाए। मुझे किसी शायर का यह शेर याद आता है कि कस्ती वहां डूबी जहां पानी कम था, सिर्फ होर्डिंग्स एवं दीवारों पर ही वन भैंसे को जिंदा बताया जा रहा है तथा इसके संवर्धन की बात की जा रही है, जबकि जंगल में यह प्रजाति विलुप्त हो चुकी प्रतीत होती है।
(लेखक वन्य प्राणी विशेषज्ञ हैं)