विचार / लेख
-सचिन कुमार जैन
भारत को 5 लाख करोड़ डॉलर की इकोनामी बनाना है। आपने यानी भारत के लोगों ने ही यह तय किया है। यह अलग बात है कि आपको यह कुछ अता पता नहीं है कि इसका मतलब क्या होता है? वैसे आजकल बड़े तबके किसी बात के मतलब से, अर्थ से, तर्क से कोई लेना देना नहीं होता है। उसने आटा और डाटा में से डाटा को चुना है।
5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का निर्माण एक यज्ञ है। इसमें देश के 99.99999 प्रतिशत लोगों को बलिदान देना है। 0.00001 प्रतिशत स्वाहा: करने की भूमिका में है।
पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए पेट्रोल 150 रु. लीटर., दाल 300 रु किलो., बिजली 20 रु. यूनिट की जाना जरूरी है। इससे लोगों ने भविष्य सुरक्षा के लिए जो कुछ जमा कर रखा है वह बाहर निकल आएगा। जीवन जीने के लिए जरूरी सामग्रियों की कीमत दो से पांच गुना बढ़ा देने से ही तो 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल होगा। इतना ही नहीं सत्ता संचालकों ने यह तकनीक भी सीख ली है कि जो कुछ भी लूटा जाना है या बेंचा जाना है, उसकी किल्लत पैदा कर दो। जैसे कोयले की किल्लत बता कर संसाधनों की कौडिय़ों के भाव निजी हाथों में देने की कोशिश।
5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए रेल, सडक़, अस्पताल, स्कूल, जंगल बेचे जाना जरूरी है। इस अर्थव्यवस्था में जनकल्याण और संविधान नाम की अवधारणाओं का कोई स्थान न होगा। जनकल्याण, सबको स्वास्थ्य, रोजग़ार, समान शिक्षा से 5 लाख करोड़ डॉलर की इकोनामी न बनती है।
20-40 ग्राम हशीश, चरस वाले फुटकरिये गिरफ्तार होंगे। 3000 किलो चरस, हेरोइन वाले थोक कारपोरेट को स्वतंत्रता और सम्मान मिलेगा। इससे, यानी नशाखोरी से लोग, खासकर युवा बेरोजगारी, मंहगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा के संकट को भूल जाएंगे। वे माया मोह से मुक्त रहेंगे। उन्हें यह अहसास ही नहीं होगा कि वे बेरोजगारी के भौतिक भ्रमजाल में फंसे हैं।
उन्हें यह दुख छू भी न पायेगा कि उनकी मां को दवा, उपचार नहीं मिला और वह बीमारी से नहीं संवेदनहीनता के कारण दुनिया छोड़ गई। उनके बच्चे भूखे रहते हैं और गाहे बगाहे उन्हें सूखी रोटी या चावल मिल जाता है। इससे पेट भर जाता है लेकिन मांसपेशियां, हड्डियां और दिमाग कमज़ोर होते जाते हैं। ऐसे बच्चे नई 5 लाख डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए अनिवार्य होते है क्योंकि इनसे ऐसी कमज़ोर पीढ़ी जन्म लेगी जो मूलभूत मानवीय और संवैधानिक मूल्यों का सपना भी न देख पाएगी।
देश के नीति बनाने वाले से लेकर शेयर बाजार से बड़े दलाल तक, बड़े नेता से लेकर बेरोजग़ार युवा तक खुल के कहने लगे हैं कि लोकतंत्र नहीं चाहिए। इससे विकास बाधित होता है। संविधान नहीं चाहिए, बर्बर मजहबी मुल्क चाहिए। 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थ व्यवस्था के लिए बर्बरता और हिंसा सबसे बड़ी जरूरत है।
हम यह नहीं सोचना चाहते हैं कि आखिर ये 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का मतलब क्या है? इस अर्थ व्यवस्था में ऐसा कैसे होता है कि 2 उद्योगपति कोविड-19 महामारी के विकट काल में 1500 करोड़ रुपये रोज़ कमा पाते हैं और बाकी लोगों की घर संपत्ति बिक जाते हैं, 10 करोड़ लोगों का रोजगार चला जाता है? इसमें एक शेयर दलाल 250000000000 का मालिक हो जाता है।
हमनें आजादी के बाद वैज्ञानिक नजरिया, बंधुता, न्याय, तर्क के पाठ उस पीढ़ी को पढ़ाये ही नहीं, इसलिए हम अब एक ऐसी पीढ़ी के दौर में पहुंच गए हैं, जहां यह कहावत मूल सिद्धांत है-लाठी जरूरी कि तर्क? इस पीढ़ी का जवाब है-लठैत।
5 लाख करोड डालर की अर्थव्यवस्था की समझने की कोशिश न करने वाले, संविधान और लोकतंत्र का विरोध करने वाले, भीड़ हिंसा को उचित मानने वाले, आसमानी मंहगाई और बेरोजगारी पर चुप रहने वाले, किसानों की कुचल देने का नारा लगाने वाले, शिक्षा और स्वास्थ्य को देश का मुद्दा न मानने वाले एक ही हैं। क्या आप उस अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हैं, जिसमें देश की सभी सार्वजनिक संपत्तियां बिक चुकी होंगी? जिसमें अराजक और अमानवीय तत्व मुख्य भूमिका में होंगे?
हम ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां राष्ट्रघात को राष्ट्रवाद का मुखौटा पहना कर हवन यज्ञ किये जा रहे हैं। ये पीढ़ी इतनी कमज़ोर हो चुकी है कि इसमें उस मुखौटे को उतारने की ताकत भी नहीं रही। जबकि इस काम के लिए उसे कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। उसे केवल दूसरे इंसान, बच्चों की आंखों में झांकने की जरूरत है। खुद से सवाल पूछने की जरूरत है कि क्या भीड़ हिंसा जरूरी है? क्या बस्ती उजाड़ कर चमकदार धार्मिक स्थल बनाने जरूरी हैं? बेरोजगारी, भुखमरी फैलाकर हम कौन सी सांस्कृतिक पहचान स्थापित कर रहे हैं?