विचार / लेख
-रमेश अनुपम
प्रवीर चंद्र भंजदेव का बचपन जितना कष्टप्रद और दुखद था, उनका यौवन भी उतना ही संघर्षमय और कांटों से भरा हुआ था। महाराजा होने के बावजूद महाराजाओं जैसा जीवन उन्हें नहीं मिला। सुख और वैभव उनके भाग्य में नहीं थे। मधु की जगह केवल गरलपान ही उनके भाग्य की लकीरों में लिखा हुआ था।
पिता महाराजा प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव का रक्त उनके भीतर प्रवाहित हो रहा था। महाराजा प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव अन्य देशी महाराजाओं की तरह अंग्रेजों की चाटुकारिता करने में विश्वास नहीं करते थे। वे अपने आदर्शों और मूल्यों पर सदैव अडिग रहने वाले स्वतंत्रचेत्ता महाराजा थे।
महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी की इंग्लैंड में रहस्यमय मृत्यु को लेकर अंग्रेज यह चाहते थे कि महाराजा प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव बस्तर के आदिवासियों के समक्ष यह बयान दें कि उनकी मृत्यु स्वाभाविक तौर पर हुई है, किसी षड्यंत्र के तहत नहीं।
अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें प्रलोभन दिया कि उनके ऐसा करने पर अंग्रेज सरकार उन्हें महाराजा की उपाधि देगी और सरकार से मिलने वाले भत्ते को बढ़ा देगी। प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव ने अंग्रेजों की एक भी शर्त को नहीं मानी। अंग्रेज उनके स्वाभिमान से उन्नत शीश को झुका नहीं सके थे।
ऐसे वीर और स्वाभिमानी पिता के पुत्र थे प्रवीर चंद्र भंजदेव।
देश की आजादी के ठीक एक माह पूर्व प्रवीर चंद्र भंजदेव को ब्रिटिश हुकूमत ने बस्तर रियासत की बागडोर सौंप दी। सन 1947 में प्रवीर चंद्र भंजदेव अठारह वर्षीय युवा हो चुके थे। बस्तर में उनका राज्याभिषेक हुआ। अब बस्तर रियासत पूर्णत: उनके अधीन थी।
आजादी मिलने के पश्चात किसने यह सोचा था कि 13 जून सन 1953 को बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत सरकार अपने अधीन कर लेगी। लेकिन यह हुआ और आजाद भारत में हुआ।
यह आजाद भारत में प्रवीर चंद्र भंजदेव पर पहला वज्राघात था। स्वतंत्र भारत में पहली बार उनकी अस्मिता पर चोट हुई थी।
प्रवीर चंद्र भंजदेव बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द और उत्पीडऩ से बखूबी वाकिफ थे। आजादी के बाद सरकारी कर्मचारी और अधिकारी, बाहरी व्यापारी बस्तर के भोले भाले आदिवादियों को दोनों हाथों से लूटने में लगे हुए थे।
बस्तर के आदिवासियों के लिए आजादी का यही अर्थ था। जंगल विभाग के कारिंदे, राजस्व के नुमाइंदे और पुलिस के दरिंदे आदिवासियों की जिंदगी को नर्क बना रहे थे।
प्रवीर चंद्र भंजदेव इस सबसे बेहद आहत थे। इसी के चलते सन 1955 में उन्होंने बस्तर में ‘बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ’ की स्थापना की। यह एक तरह से बस्तर के आदिवासियों के सरकार के खिलाफ उठ खड़े होने की कोशिश थी।
सन् 1956 में भारत सरकार ने उन्हें पागल घोषित कर दिया और उसके उपचार के लिए उन्हें स्विट्जरलैंड भेज दिया गया। यह एक तरह से सरकार की सोची समझी चाल थी। इसके द्वारा प्रवीर चंद्र भंजदेव को सबक सिखाने की कोशिश की गई थी।
यह सरकार का सबसे बड़ा हथकंडा था। यह एक सुनियोजित षडयंत्र का हिस्सा था।
स्विट्जरलैंड के चिकित्सकों ने प्रवीर चंद्र भंजदेव के गहन परीक्षण के उपरांत यह पाया कि वे किसी भी तरह की व्याधि से ग्रस्त नहीं है, वे शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ हैं।
इस तरह सरकार को धता बताकर प्रवीर चंद्र भंजदेव कुछ ही महीने में वापस बस्तर लौट आए।
सन 1961 में प्रवीर चंद्र भंजदेव ने बस्तर में आदिवासियों के साथ हो रहे शोषण और उत्पीडऩ को लेकर एक लंबा पत्र मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू को लिखा। पत्र मिलने के बाद कैलाश चंद्र काटजू ने उन्हें चर्चा के लिए भोपाल बुलवा लिया। भोपाल पहुंचने पर प्रवीर चंद्र भंजदेव को मुख्यमंत्री जी ने यह नेक सलाह दी कि बस्तर की भलाई के लिए वे बस्तर से बाहर ही रहें तो बेहतर होगा।
यह सीधे सीधे मुख्यमंत्री की ओर से एक चेतावनी थी, जिसे प्रवीर चंद्र भंजदेव को समझने में देर नहीं लगी।
वे देश के गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत से इस विषय में चर्चा करने के लिए दिल्ली निकल गए।
दिल्ली में उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत से भेंट की और उन्हें बस्तर के आदिवासियों के साथ हो रहे दमन शोषण और उत्पीडऩ के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी दी।
गृह मंत्री से बातचीत कर वे वापस बस्तर लौटे। उन्हें राज्य सरकार द्वारा अपनी गिरफ्तारी की आशंका थी, सो उन्होंने गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत को तार द्वारा इसकी सूचना दी।
पर राज्य सरकार तो उनकी गिरफ्तारी का पहले ही फैसला ले चुकी थी। सो बस्तर की सीमा पर स्थित धनपुंजी नामक गांव के पास 11 फरवरी सन 1961 को उन्हें नजरबंदी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।
यही नहीं एक सुनियोजित साजिश के तहत प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी के दूसरे ही दिन उन्हें महाराजा के पद से अपदस्थ कर, उनके अनुज विजय चंद्र भंजदेव को आनन फानन में बस्तर का महाराजा भी घोषित कर दिया गया।
शेष अगले सप्ताह...