सामान्य ज्ञान

कुंडल
09-Dec-2021 6:32 PM
कुंडल

कुंडल कान में पहनने का एक आभूषण, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों पहनते थे। प्राचीन काल में कान को छेदकर जितना ही लंबा किया जा सके उतना ही अधिक वह सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। इसी कारण भगवान बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं।

इस प्रकार कान लंबा करने के लिये लकड़ी, हाथीदांत अथवा धातु के बने लंबे गोल बेलनाकार जो आभूषण प्रयोग में आते थे, उसे ही मूलत: कुंडल कहते थे, और उसके दो रूप थे - प्राकार कुंडल और वप्र कुंडल। बाद में नाना रूपों में उसका विकास हुआ। साहित्य में प्राय: पत्र कुंडल (पत्ते के आकार के कुंडल), मकर कुंडल (लकड़ी, धातु अथवा हाथीदांत के कुंडल), शंख कुंडल (शंख के बने अथवा शंख के आकार के कुंडल), रत्न कुंडल, सर्प कुंडल, मृष्ट कुंडल आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। देवताओं के मूर्तन के प्रसंग में बृहत्संहिता में सूर्य, बलदेव और विष्णु को कुंडलधारी कहा गया है। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।

नाथ पंथ के योगियों के बीच कुंडल का विशेष महत्व है। वे धातु अथवा हिरण की सींग के कुंडल धारण करते हैं।

उपशास्त्रीय संगीत
उपशास्त्रीय संगीत में शास्त्रीय संगीत तथा लोक संगीत अथवा शास्त्रीय संगीत और लोकप्रिय संगीत जैसे पश्चिमी या पॉप का मिश्रण होता है। ऐसा संगीत को लोकप्रिय बनाने या विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए फिल्मों या नाटकों में किया जाता है।

लोकगीतों में धु्रपद, धमार, होली व चैती आदि अनेक विधाएँ हैं जो पहले लोक संगीत की भांति प्रकाश में आए और बाद में उनका शास्त्रीयकरण किया गया। इनके शास्त्रीय रूप का विद्वान पूरी तरह पालन  करते हैं, लेकिन आज भी लोक-संगीतकार इनके शास्त्रीय रूप का गंभीरता से पालन किए बिना इन्हें सुंदरता से प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार के मिश्रण को उपशास्त्रीय संगीत कहते हैं।

मिथक क्या है?
 ‘मिथक’ यूनानी शब्द ‘मिथ’ का हिन्दीकरण है। इसे दन्तकथा, पुराख्यान आदि के रूप में इसका प्रयोग किया जाता है। मिथक परिवर्तनशील नहीं होता। यह अतर्क्य रीति से ज्यों का त्यों स्वीकृत किया जाता है। अज्ञेय के अनुसार मिथक किसी भी जाति की सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा का महत्वपूर्ण अस्त्र है।

‘मिथक’ देश कालातीत होते हैं। किसी विशेष देशकाल में केवल ऐसे ही मिथक स्वीकृत होते हैं जो जनमानस में रचे बसे हों। जिसकी प्रासंगिकता लोगों के बीच जानी और पहचानी जाती हो। अन्यथा प्रयुक्त मिथक अर्थ की जगह अनर्थ की जड़ बन जा सकते हैं। इसलिए एक साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रयुक्त मिथक की प्रासंगिकता पर अच्छी तरह सोच-विचार करले कि मिथकों की प्रासंगिकता युग का यथार्थ बोध करा रही है या नहीं।

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