विचार / लेख
-दिनेश श्रीनेत
कभी तो लगता है कि कितना समय बीत गया... कभी लगता है कि कल की बात है।
जैसे-जैसे उम्र बीतती जाती है समय एक खेल, एक भूलभुलैया-सा लगने लगता है। बीते दिनों की स्मृतियों से मुझे बहुत लगाव है। चाहे वो दुःख के दिन हों या सुख के। कुछ था, जिसके खोने की कसक मन के किसी कोने में दबी है। बार-बार उन स्मृतियों की तरफ लौटता हूँ। मन के भीतर पुरानी तस्वीरों की तरह वो भी धुंधला रही हैं। कई बार बीता हुआ वक्त बहुत साफ, निथरा हुआ किसी सपने में दिखाई देता है। जीवन से ज्यादा उजला और स्पष्ट... नींद खुलती है तो मन को हकीकत की दुनिया में लौटने में वक्त लगता है।
कई बार सपनों में अतीत नहीं दिखता, मगर एक भावना जो सुप्त-सी पड़ गई है, वह महसूस होती है। न वो ठीक-ठीक भविष्य होता है, न वर्तमान और न ही अतीत। बेचैन मन उन सांसों को पकड़ने की कोशिश करता है। मगर देखते-देखते दिन अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और सब कुछ भूल जाता है।
कभी देर रात पुराने गीतों को सुनता हूँ, वो गीत जिनके पीछे बहुत सी यादें जाने कहां से खिंचती हुई चली आती हैं। सोने से पहले सोचता हूँ कि शायद मैं उस खोए हुए भाव को महसूस कर सकूंगा, पकड़ सकूंगा, जिसके न होने से खुद को खाली महसूस करता हूँ।
बंद आँखों के भीतर एक खुले आसमान का फ्रेम बनता है, जिसके एक कोने पर छोटी सी पतंग धीरे-धीरे डोलती है। किसी के धीमे-धीमे कदमों की चाप सुनाई देती है। मैं एक बहुत बड़ी सी छत पर भागता हूँ। कोई पीछे से आकर मेरी आँखें बंद कर देता है। हाथों का गर्म स्पर्श और उसमें रची-बसी कई चीजों की गंध याद रह जाती है।
मुझे बारिश बहुत अच्छी लगती है। बारिश की हर रंगत से बीते दिनों की किताब का कोई न कोई पन्ना खुल जाता है। मुझे पता है कि लौटने से कुछ नहीं मिलता। फिर भी बार-बार उन जगहों पर जाने का मन होता है। मैं चाहता हूँ कि जिन-जिन शहरों में मेरा बचपन बीता था, एक बार फिर से उन शहरों में जाऊँ। उन दीवारों को एक बार फिर से छू सकूँ, जिन्हें कभी मैंने अपनी छोटी हथेलियों से छुआ था।
मुझे दुपहरें भी बहुत पसंद हैं। मई और जून की तपती दुपहरें। एक अजीब-सी तपिश और वासना होती उनमें। ऐसी दुपहरी में बिल्कुल अकेले और खाली होना आपको अपने करीब ले जाता है। ऐसी लंबी अंतहीन दुपहर में साइकिल से भटकना जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था।
मुझे शामें भी बहुत याद आती हैं। खास तौर पर वह वक्त जब सूरज डूब जाता है पेड़ों की पत्तियों पर एक कालिमा सी ठहर जाती है। जब घरों की बत्तियां एक-एक करके जलती हैं। हर घर किसी अपरिचित के स्वागत के लिए उत्सुक लगता है। जब बच्चों का शोर और चिड़ियों कलरव एक-दूसरे में घुलमिल जाता है। जब कदम खुद-ब-खुद घर से बाहर निकल पड़ते हैं। जब आप अपनी शाम में रंग भरने के लिए किसी का इंतज़ार करते हैं। जब बातें इतनी लंबी हो जाती हैं कि रात भी छोटी लगती है। जब लगता है कि न इसके पहले कुछ था न इसके बाद कुछ होगा। मैं वो शामें कहाँ से लाऊँ?
उन रातों का क्या करूँ, जिन रातों में हम यात्राओं में निकले थे, जिन रातों के बाद बहुत सारे दिन आने थे। कुछ आए और कुछ कभी नहीं आए... वो कौन था जो इन रातों में जागा करता था? वो कौन था जिसकी आँखों में शाम की रोशनी उतरती थी। कौन था जो गर्मी की किसी दोपहर अपनी साइकिल उठाकर शहर से बहुत दूर चला जाता था। अब वो कहाँ है? नींद की मुंडेर तक आकर उसे खोजता हूँ...
हर अगली सुबह वह मुझसे और दूर चला जाता है...