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चुनाव, प्रत्याशी और जातियों का मिथक
20-Jan-2022 11:34 AM
चुनाव, प्रत्याशी और जातियों का मिथक

- डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी

जब भी आम चुनाव नजदीक आते हैं या उत्तर प्रदेश अथवा हिन्दी पट्टी के चुनाव की घोषणा होती है, तब तमाम चुनाव पर्यवेक्षक और कथित विशेषज्ञ मतदाताओं की जाति पर जरूर कोई न कोई टिप्पणी करते हैं। अखबारों की रिपोर्टिंग और टेलीविजन चैनलों की बहस में भी यह बात साफ दिखाई देती है। क्या सचमुच में भारत में चुनाव जाति के आधार पर होते हैं? क्या लोग जाति के आधार पर ही अपना प्रतिनिधि चुनते हैं? चुनाव के बाद भी जिस तरह की समीक्षाएं आती हैं उसमें यही बात कही जाती है कि इस इलाके में फलां जाति के लोगों का बहुमत है और इस जाति के लोगों ने इस उम्मीदवार को वोट दिया होगा, इसलिए इस जाति के उम्मीदवार उम्मीदवार विजयी हुए हैं। यह बात कितनी सच है और कितनी गलत, यह तो कहा नहीं जा सकता।  

पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और चुनाव को लेकर इस बार भी इसी तरह की समीक्षाएं आ रही हैं। इस इलाके में फलां जाति के मतदाताओं का वर्चस्व है तो इस इलाके में इस जाति के मतदाता ज्यादा सक्रिय हैं। हाल ही में जब कुछ नेताओं ने दलबदल किया, तब उनकी जाति को लेकर भी ऐसी ही तरह-तरह की चर्चाएं चल पड़ी। ऐसा लगता है मानो टेलीविजन चैनलों के पैनलिस्ट्स और राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अपनी बातें बनाने के लिए कोई मुद्दा मिल गया है।  भारत में लोग जाति को देखकर वोट देते हैं,  इस बारे में लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन इस बारे में प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. दीपांकर गुप्ता की बात बहुत सही लगती है जिन्होंने एक बहुत दिलचस्प किताब लिखी है- ‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’। दीपांकर गुप्ता का यह अनुभव रहा कि चुनावी सर्वेक्षणों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि चुनावी सर्वेक्षण और टेलीविजन चैनलों पर पैनलिस्ट्स की बातें आमतौर पर वक्त काटने का ज़रिया होती हैं।

प्रो. गुप्ता का यह कहना है कि यह बात सही है कि भारत में जाति व्यवस्था का अपना महत्व है। ज़्यादातर लोग शादी-ब्याह में जातियां देख कर ही वर-वधू चुनते हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज बड़ा ही अलग और अनूठा समाज है। यहां लोग शादियां करते हैं भारतीय या हिन्दू तिथि के अनुसार; लेकिन शादी की सालगिरह मनाते हैं हमेशा अंग्रेजी तिथि के अनुसार। हिन्दू पंचांग को लेकर लोगों के मन में इस तरह का कोई बहुत गंभीर या पूर्वाग्रह नहीं है। उनका कहना है कि भारत में लोग न तो जाति देखकर दोस्ती करते हैं और ना ही जाति देखकर वोट देते हैं। हां, यह बात सही है कि तमाम राजनीतिक दल जब अपने उम्मीदवार का चुनाव करते हैं तब इस बात पर बहुत ध्यान देते हैं कि उनकी पार्टी का प्रत्याशी किस जाति का हो। पार्टियां यह भी समीक्षा करती हैं कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने मतदाता हैं।  अनुमान लगाने की कोशिश होती है कि वह उम्मीदवार अपनी जाति या समाज के कितने लोगों से वह वोट खींच पायेगा। आम तौर पर ऐसे अनुमान सही नहीं होते और इसके बहुत सारे उदाहरण हैं कि लोग जाति के आधार पर वोट नहीं देते।

दीपांकर गुप्ता का कहना है कि महाराष्ट्र में लगभग एक तिहाई मतदाता मराठा है। जब पार्टियां वहां टिकट का वितरण करती है तब यह बात ज़रूर देखती है कि उस क्षेत्र में मराठा उम्मीदवार को ही अवसर दिया जाए। जब चुनाव की नौबत आती है तब एकाधिक पार्टियां मराठा व्यक्ति को ही अपने पार्टी की तरफ से चुनाव में खड़ा कर देती है।  एक ही जगह एकाधिक उम्मीदवारों के होने से मराठा मतदाताओं के वोट भी बंट  जाते हैं और चुनाव के नतीजों पर उम्मीदवार के जाति कोई बहुत असर नहीं दिखा पाती।

प्रो. गुप्ता का कहना है कि लोग जाति के आधार पर वोट देते हैं, यह मतदान का विश्लेषण करने का सरलीकरण है। व्यवस्था उस तरह से काम नहीं करती। लोगों का मानना है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों का बहुमत है, लेकिन यह ग़लत है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की संख्या दस प्रतिशत के आसपास है।  लेकिन यह अवधारणा बनी है कि इस इलाके में जाट बहुत ज्यादा हैं इसलिए यहां से किसी जाट को ही उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए। मधेपुरा में करीब बीस प्रतिशत ही यादव हैं। चुनाव में एक से अधिक पार्टियां यादव को टिकट दे देती है और यादवों के वोट कट जाते हैं।जिस व्यक्ति को दूसरी जातियों के वोट ज्यादा मिलते हैं, वह चुनाव में जीत जाता है।
जाति की भूमिका टिकट देने में तो है ही, पार्टियों के पदाधिकारी चुनने में भी होती है। यह राजनीतिक दलों का सरलीकरण है कि अगर किसी राज्य में मुख्यमंत्री एक जाति का है तो दूसरी जाति का व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाए। जब चुनाव होता है और राजनीतिक दलों को अपने  चुनाव एजेंट चुनने होते हैं, तब भी  वे दल यह देखते हैं कि उनका पोलिंग एजेंट किस जाति का है। वास्तव में वहां वोट देने वाले को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी जो पोलिंग एजेंट वहां बैठा है, वह किस जाति का है। ग्राम पंचायत के चुनाव में अवश्य जाति के आधार पर वोट पड़ते हैं, क्योंकि वहां मतदान की यूनिट छोटी  होती है।

‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’ पुस्तक के एक अध्याय में दीपांकर गुप्ता ने लिखा है, 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी बहुत शानदार तरीके से जीती थी। बहुजन समाज पार्टी को 36. 27 प्रतिशत वोट मिले थे।  403 सीटों में से उसे 206 सीटों का पूर्ण बहुमत मिला था। जिन-जिन सीटों पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी जीती, उन सभी में अनुसूचित जाति का बहुमत नहीं था। 2012 में बहुजन समाज पार्टी को 80 सीटें ही मिलीं। गत चुनाव में मिली सीटों का 40 प्रतिशत से भी कम। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि 2009 में उसे 21 सीटें मिली थीं।

प्रो. गुप्ता ने 1990 के दशक में हुए लोकसभा के तीन चुनाव और बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के चुनाव का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि चुनाव के नतीजों का मतदाताओं की जाति से कोई ताल्लुक नहीं है। अनेक चुनाव क्षेत्रों में कुछ जातियों का बड़ा बोलबाला होता है, लेकिन उनके मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। हमारे जाति समाज में अजा और अजजा  में भी उप जातियों का बोलबाला है। वहां भी अनेक जगह पर एक जाति के लोग दूसरी उप जाति के लोगों से बेटी-रोटी के रिश्ते नहीं रखते।

पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग जातियों के लोगों का बोलबाला है। किसी एक इलाके में ठाकुरों का वर्चस्व है तो किसी दूसरे इलाके में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत ज्यादा है। कई इलाकों में अनेक  प्रभावशाली पदों पर एक ही जाति के लोग होते हैं। जिस जाति का कलेक्टर, उसी जाति का एसपी, उसी जाति के विधायक वगैरह, वगैरह। ऐसे में यह मानना कि वे दूसरी जातियों के लोगों से नफरत करते हैं और उनको कभी वोट नहीं देंगे, सही नहीं है।  हां, वे अपने  समाज और जाति के व्यक्ति की सलाह लेने ज़रूर जाते हैं।  जैसे कि हम अपने बच्चों को किस तरह की पढ़ाई की तरफ आगे बढ़ाएं?अपने कारोबार का किस तरह से विस्तार करें, आदि। यह सब बातें समाज के प्रभावशाली लोग अपने जाति के लोगों को बताते हैं लेकिन अगर वे यह कहने लगे कि  इस चुनाव में इस विशेष उम्मीदवार को ही वोट दीजिए तो वे उसे वोट देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जाहिर है कि इस तरह की बातें उनके लिए बचकानी है।

याद कीजिए, जब अकाली दल पंजाब में जीतकर सरकार बना रहा था तब किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था। जब उत्तर प्रदेश में कहा गया था कि गठबंधन की सरकार बनेगी, लेकिन गठबंधन की सरकार नहीं बनी। आमतौर पर टेलीविजन चैनलों में पैनलिस्ट के रूप में बैठने वाले लोग और अखबारों में समीक्षा लिखने वाले लोग जाति के आधार पर उम्मीदवारों की हार-जीत की घोषणा कर डालते हैं और जब नतीजे आते हैं तो वह एकदम अलग ही निकलते हैं। टीवी चैनलों पर बहस करने वाले बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि जिस तरीके से वे जाति के आधार पर विवेचना करते हैं उसका समाज पर कोई असर नहीं। हां, यह बहस लोगों का मनोरंजन करने और समय काटने के लिए बहुत अच्छा जरिया होती है।

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