विचार / लेख
-आर.के. जैन
न्याय की अवधारणा का आधार ही निष्पक्षता है। अगर निष्पक्षता कसौटी पर है तो प्रेमचंद की पंच परमेश्वर को पढ़ा जाये या फिर मोहम्मद करीम छागला की जीवनी को । जस्टिस छागला कोर्ट व कानून को कितनी अहमियत देते थे उसके दो किस्से आज भी याद किये जाते है। महाराष्ट्र के नये गवर्नर महोदय का स्वागत समारोह में वह प्रोटोकॉल की परवाह किये बगैर गवर्नर महोदय के आने के बाद पहुँचे थे। वजह कोर्ट का काम बीच में नहीं छोड़ा जा सकता था। दूसरा वाकय़ा लॉर्ड माउंटबेटन के बॉम्बे दौरे का है। उनके स्वागत के लिये भी वह सिर्फ इसलिए नहीं गये थे कि उनका कोर्ट चल रहा था।
1958 में उन्होंने न्याय को पारदर्शी बनाने का एक अनूठा प्रयोग किया।एलआईसी मामले की सुनवाई खुले में कराई और लाउडस्पीकर लगाये ताकि लोग अदालत की कार्यवाही सुन सके। नेहरूजी इस पर बहुत खफा हुए थे क्योंकि सुनवाई तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी के विरूद्ध हो रही थी जिसमें जस्टिस छागला ने उन्हें दोषी पाया था। नेहरूजी को न चाहते हुए भी उन्हें मंत्री पद से हटाना पड़ा था।
इस कड़वाहट के बावजूद भी नेहरूजी जानते थे कि जस्टिस छागला जैसे लोग देश की पूँजी है और इसलिये उनके रिटायरमेंट के बाद वर्ष 1958 में उन्हें अमेरिका में भारत का राजदूत नियुक्त किया था। यही नहीं वर्ष 1962 में इंग्लैंड में भारत का उच्चायुक्त भी नियुक्त किया था तथा वर्ष 1963 के नवंबर में देश के चौथे शिक्षा मंत्री के रूप में भी उनकी सेवाएं ली गई थी। नेहरूजी ने यह कहा था कि अपने जीवन में वह बहुत कम ऐसे लोगों से मिले है जो जस्टिस छागला जैसे धर्मनिरपेक्ष और कानून का सम्मान करने वाले है।
जस्टिस छागला की योग्यता व गुणों का सम्मान नेहरूजी के उपरांत श्री लाल बहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी ने भी किया था। इंदिरा जी के पहले मंत्रिमंडल में उन्हें देश का विदेश मंत्री बनाया गया था।
मेरा ख्याल है कि जो व्यक्ति उसूलों का पाबंद हो, सत्य व न्याय पर अडिग हो और अपने कर्तव्यों को ही अपना धर्म समझता हो , उसका सम्मान उसके विरोधी भी करते है। नेहरूजी ने इन्हीं गुणों के कारण जस्टिस छागला को पूरा सम्मान दिया और उनके प्रति कोई कड़वाहट नहीं रखी ।