विचार / लेख
रसूल हम्जातोव
-अशोक पांडे
रूस के उत्तरी कॉकेशिया में दागि़स्तान नाम का एक छोटा सा मुल्क है। करीब तीस लाख की आबादी वाले इस मुल्क में रूसी के अलावा कोई पंद्रह भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के नाम बड़े दिलचस्प हैं- रुतुल, अगुल, दारगिन, नोगाई, कुम्यिक, अवार वगैरह।
किस्सा 1968 के आसपास का है जब दागि़स्तान भी सोवियत संघ का हिस्सा था। अवार भाषा के उस समय के सबसे नामी लेखक रसूल हम्जातोव के पास मॉस्को से निकलने वाली एक बड़ी पत्रिका के सम्पादक की चिठ्ठी आई। लिखा था कि पत्रिका के आगामी अंकों में दागिस्तान पर विशेष सामग्री छपने जा रही है। चिठ्ठी में इसी उद्देश्य से रसूल से उनकी कोई रचना माँगी गई थी। पत्रिका का बड़ा नाम था और उसकी दस लाख प्रतियाँ छपा करती थीं। रचना कैसी हो इस बारे में सम्पादक ने रसूल को स्पष्ट हिदायतें देने के बाद लिखा था कि उसे नौ से दस पन्नों में टाइप कर के बीसेक दिनों में मॉस्को पहुँच जाना चाहिए।
और कोई लेखक होता तो इतनी बड़ी पत्रिका में छपने का मौका मिलने के विचार से ही खुश हो गया होता पर रसूल को झल्लाहट हुई। चिठ्ठी किनारे रख दी गई। कुछ दिनों बाद सम्पादक ने फोन पर तकाज़े करने शुरू कर दिए। रसूल के कुछ दिन टालमटोल की तो सम्पादक ने प्रस्ताव दिया कि वह अपने दफ्तर से किसी को उनके पास भेज देंगे। सम्पादक ने आगे कहा, ‘तुम अपने कुछ विचार और तफसीलें उसे बता देना, बाकी वह सब कुछ खुद ही कर लेगा। तुम उसे पढक़र, ठीक-ठाक करके उस पर अपने हस्ताक्षर कर देना। हमारे लिए तो मुख्य चीज तुम्हारा नाम है।’
रसूल की समझ में नहीं आ रहा था कि नौ पन्नों में बाईस दिन के भीतर कोई अपने देश के बारे में कैसे लिख सकता है।
रसूल और सम्पादक के बीच हुई वह आखिरी बातचीत थी। रसूल उन दिनों मॉस्को में ही नौकरी करते थे। सम्पादक कहीं घर न चला आये इस आशंका से उन्होंने एक महीने की छुट्टी ली और अपने दागिस्तान के अपने छोटे से गाँव त्सादा चले आये।
गाँव पहुँचने पर रसूल को अपने पिता का एक पुराना खत याद हो आया, जो पहली बार मास्को देखने पर उन्होंने उसे लिखा था। मास्?को देखकर उन्हें बड़ी हैरानी हुई थी।
‘ऐसा लगता है कि यहाँ मास्को में खाना पकाने के लिए आग नहीं जलाई जाती, क्योंकि मुझे यहाँ अपने घरों की दीवारों पर उपले पाथनेवाली औरतें नजर नहीं आतीं, घरों की छतों के ऊपर अबूतालिब की बड़ी टोपी जैसा धुआँ नहीं दिखाई देता। छत को समतल करने के लिए रोलर भी नजर नहीं आते। मास्कोवासी अपनी छतों पर घास सुखाते हों, ऐसा भी नहीं लगता। पर यदि घास नहीं सुखाते, तो अपनी गायों को क्या खिलाते हैं? सूखी टहनियों या घास का ग_ा उठाए एक भी औरत कहीं नजर नहीं आई। न तो कभी जुरने की झनक और न खंजड़ी की धमक ही सुनाई दी है। ऐसा लग सकता है मानो जवान लोग यहाँ शादियाँ ही नहीं करते और ब्याह का धूम-धड़ाका ही नहीं होता। इस अजीब शहर की गलियों-सडक़ों पर मैंने कितने भी चक्कर क्यों न लगाए, कभी एक बार भी कोई भेड़ नजर नहीं आई। तो सवाल पैदा होता है कि जब कोई मेहमान आता है, तो मास्कोवाले क्या जिबह करते हैं! अगर भेड़ को जिबह करके नहीं, तो यार-दोस्त के आने पर वे कैसे उसकी खातिरदारी करते हैं! नहीं, ऐसी जिंदगी मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने त्सादा गाँव में ही रहना चाहता हूँ, जहाँ बीवी से यह कहकर कि वह कुछ ज्यादा लहसुन डालकर खीनकाल बनाए, उन्हें जी भरकर खाया जा सकता है।’
तो सत्तर घरों, सत्तर चूल्हों और नीला धुआं छोडऩे वाली सत्तर चिमनियों वाले अपने इस सुन्दर पहाड़ी गाँव के खेतों, धारों, पत्थरों, पगडंडियों, झरनों और रिश्तेदारों-पड़ोसियों की संगत में रसूल की समझ में आता है कि उनका गाँव पूरे संसार की सबसे खूबसूरत जगह है। उनके पिता जो खुद एक बहुत नामी लोकगायक थे, अपनी हर बातचीत में अक्सर अपने इलाके के बड़े विद्वान और कवि अबूतालिब की पंक्तियों को उद्धरणों की तरह इस्तेमाल करते थे। पिता की बातों से रसूल ने जाना कि दुनिया भर के ज्ञान से अधिक समझदारी की बातें उनके गाँव के बड़े-बूढ़ों की बनाई लोरियों, कहावतों और लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजों पर उकेरी गई इबारतों के भीतर मिलती हैं।
इस पूरे घटनाक्रम का परिणाम यह हुआ कि रसूल हम्जातोव ने अपने गाँव, अपने देश पर एक ऐसी किताब लिख डाली जिसके टक्कर की किताब संसार भर के साहित्य में नहीं मिलती।
यह किताब किसी भी स्थापित विधा के खांचे में फिट नहीं बैठती। कोई उसे गीतनुमा कथा बताता है, कोई गद्य कविता। कोई आत्मकथा कहता है, कोई दागिस्तान के इतिहास की पाठ्यपुस्तक। कोई उसे दागिस्तान के लोकगीतों और मुहावरों के संग्रह के तौर पर देखता है तो कोई किस्सागोई की एक मिसाल के तौर पर।
अपने घर, गाँव और देश के बारे में जितनी मोहब्बत ‘मेरा दागि़स्तान’ में रसूल ने भरी है उसने इस किताब को बीते पचास बरसों से लिखने-पढऩे वालों के बीच किसी महबूबा के तौर पर स्थापित किया है। चालीस जबानों में अनूदित हो चुकी इस किताब के सैकड़ों एडीशन छप चुके हैं और उसकी मांग में कमी नहीं आई है।
इस किताब को हर समझदार इंसान के घर में होना चाहिए। परिवार के लोगों के साथ इस का वाचन किया जाना चाहिए।