विचार / लेख
दिसंबर में हरिद्वार की एक धर्म संसद में कुछ हिंदू नेताओं ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की बातें की थीं
- शरण्या ऋषिकेश
क्या भारत में हेट स्पीच देकर बच निकलना आसान है? हाल ही में 10 अप्रैल को रामनवमी के ठीक पहले घटित हुए वाकयों से तो कम से कम ऐसा ही लगता है।
रामनवमी के त्योहार के दौरान ना सिर्फ कई राज्यों में इस तरह की बयानबाजी हुई बल्कि इस दौरान कुछ हिंसक घटनाएं भी दर्ज की गईं।
हैदराबाद में बीजेपी के एक विधायक ने बिना किसी परवाह के एक बार फिर भडक़ाऊ बयान दे डाला जिन्हें 2020 में हेट-स्पीच के लिए ही फेसबुक ने बैन किया था। अपने संबोधन के दौरान बीजेपी के इस नेता ने एक गीत गाया जिसके बोल कुछ इस तरह थे- ‘अगर किसी ने हिंदू देवता राम का नाम नहीं लिया तो उसे बहुत जल्दी ही भारत छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया जाएगा।’
महिलाओं के अपहरण और बलात्कार की धमकी
इस घटना से कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश में एक हिंदू पुजारी बजरंग मुनि का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें खुले तौर पर मुस्लिम औरतों के अपहरण और बलात्कार की धमकी दी जा रही थी। इस वीडियो पर काफी हंगामा हुआ और आखिर 11 दिन बाद पुलिस ने इस मामले में केस दर्ज किया और बीते बुधवार इस शख्स को गिरफ्तार किया गया।
लगभग इसी समय, हेट स्पीच मामले में जमानत पर रिहा एक अन्य हिंदू पुजारी यति नरसिंहानंद सरस्वती ने दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान हिंदुओं से अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए हथियार उठाने की मांग की है। इस मामले में दिल्ली पुलिस का कहना है कि कार्यक्रम के आयोजन की इजाजत नहीं दी गई थी और यति नरसिंहानंद को जिन शर्तों पर जमानत दी गई थी, उनमें से एक शर्त का उल्लंघन किया गया है। लेकिन उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गयी है।
पुरानी समस्या है हेट स्पीच
भारत में हेट स्पीच एक पुरानी समस्या रही है। साल 1990 में कश्मीर की कुछ मस्जिदों से हिंदुओं के खिलाफ भावनाएं भडक़ाने के लिए नफरत भरे भाषण दिए गए जिससे कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडक़र भागना पड़ा।
इसी साल बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिए रथ यात्रा शुरू की। इसकी वजह से भीड़ ने सदियों पुरानी बाबरी मस्जिद को ढहा दिया जिसके बाद भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए।
लेकिन हाल के दिनों में ये समस्या काफी व्यापक हो गयी है और लोगों तक नफऱत भरे भाषण और बांटने वाली सामग्री भारी मात्रा में पहुंच रही है।
राजनीतिक विश्लेषक नीलांजन सरकार मानते हैं कि सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर छोटे नेताओं के भी बयानों और ट्वीट्स को भी ज़्यादा अहमियत मिलने से उन्हें लगता है कि इससे आसानी से सुर्खियां बटोरी जा सकती हैं। इसकी वजह से नफरत भरी बयानबाजी रुकने का नाम लेती नहीं दिख रही है।
वे कहते हैं, ‘पहले हेट स्पीच सामान्यत: चुनावों के दौरान सुनाई पड़ती थी। लेकिन अब बदले हुए मीडिया जगत में राजनेताओं को ये अहसास हो गया है कि किसी एक राज्य में की गई आपत्तिजनक टिप्पणी को राजनीतिक फायदे के लिए किसी अन्य राज्य में तत्काल फैलाया जा सकता है।’
न्यूज चैनल एनडीटीवी ने साल 2009 में सांसदों और मंत्रियों द्वारा दिए जाने वाले भडक़ाऊ बयानों को ट्रैक करना शुरू किया था। और साल 2019 में एनडीटीवी में अपनी रिपोर्ट में बताया है कि पीएम नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के साल 2014 में सत्ता में आने के बाद से इस तरह की बयानबाजी में भारी बढ़ोतरी हुई है।
कई बीजेपी नेताओं समेत एक केंद्रीय मंत्री पर भी नफरत भरी बयानबाजी करके बच निकलने का आरोप है। कुछ विपक्षी सांसद जैसे असदुद्दीन ओवैसी और उनके भाई अकबरुद्दीन ओवैसी के खिलाफ नफरत भरे भाषण देने का आरोप है। दोनों नेता इन आरोपों का खंडन करते हैं। बीते बुधवार अकबरुद्दीन ओवैसी को साल 2012 के हेट स्पीच से जुड़े दो मामलों में रिहाई मिल गई है।
हेट स्पीच के लिए पर्याप्त कानून?
विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत में हेट स्पीच पर लगाम लगाने के लिए पर्याप्त कानून हैं। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश ने बीते साल दिसंबर में उत्तराखंड में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का आह्वान करने वाले हिंदू धार्मिक नेताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है।
अंजना प्रकाश कहती हैं, ‘कार्यपालिका द्वारा इन कानूनों को लागू किए जाने की जरूरत है। और अक्सर वे कार्रवाई नहीं करना चाहते।’ भारत में हेट स्पीच को परिभाषित करने के लिए कोई कानूनी परिभाषा नहीं है। लेकिन कई कानूनी प्रावधानों के तहत कुछ खास तरह के भाषणों, लेखों और गतिविधियों को अभिव्यक्ति की आजादी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इनके तहत ऐसी गतिविधियां जो ‘धर्म के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता’ को बढ़ा सकती हैं, अपराध की श्रेणी में आती हैं। और ऐसे ‘जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण किए गए काम जिनका उद्देश्य किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करना है’ भी अपराध की श्रेणी में आते हैं।
भारत की अदालतों के समक्ष हेट स्पीच के मामले आते रहे हैं। लेकिन भारतीय न्यायपालिका अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी लगाने से हिचकती रही है।
सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश
साल 2014 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की ओर से दी जाने वाली हेट स्पीच पर लगाम लगाने के लिए दिशानिर्देश जारी किए थे।
अदालत ने ये माना था कि इन नफरत भरे भाषणों का आम लोगों पर बुरा असर पड़ता है लेकिन कोर्ट ने मौजूदा कानूनों से आगे जाकर कोई कदम उठाने से इनकार कर दिया था।
अदालत ने कहा था कि गैर-वाजिब हरकतों पर उचित प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए लेकिन इससे ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जहां प्रतिबंधों पर पूरी तरह अमल करना कभी-कभी मुश्किल हो सकता है। इसकी जगह कोर्ट ने सरकार को कानूनी मामलों में सलाह देने वाली विधि विशेषज्ञों की स्वतंत्र संस्था विधि आयोग से इस मामले की पड़ताल करने को कहा था। विधि आयोग ने 2017 में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में सलाह दी थी कि हेट स्पीच को अपराध की श्रेणी में रखने के लिए भारतीय दंड संहिता में नये प्रावधान जोड़े जाने चाहिए।
नए कानूनों से फायदा होगा?
लेकिन कई कानून विशेषज्ञों ने प्रस्तावित संशोधनों पर चिंता जताई है। सुप्रीम कोर्ट के वकील आदित्य वर्मा कहते हैं, ‘जब हेट स्पीच को परिभाषित करने वाली हरकतें पहले से अपराध की श्रेणी में हैं तो हेट स्पीच की परिभाषा को व्यापकता देने और उसे चिह्नित करने वाले कानून का बहुत फायदा नहीं होगा।’ वह कहते हैं कि बड़ी चिंता संस्थागत स्वायत्तता से जुड़ी है। वर्मा ब्रिटेन का उदाहरण देते हैं जहां पुलिस ने उच्च सरकारी अधिकारियों, जिनमें प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन शामिल हैं, पर कोविड नियमों का उल्लंघन करके पार्टी में शामिल होने की वजह से जुर्माना लगाया है। हालांकि, भारत में पुलिस द्वारा राजनीतिक दबाव की वजह से कार्रवाई करने से हिचकना सामान्य माना जाता है।
वर्मा कहते हैं, ‘कानून को लेकर कुछ पेचीदगियां हो सकती हैं लेकिन अहम ये है कि कानून की स्पष्ट धाराओं का पालन नहीं हो रहा है।’ अंजना प्रकाश कहती हैं कि जिम्मेदारियों का निर्वाहन नहीं किया जाना काफी गंभीर है।
वह सवाल उठाती हैं, ‘जब तक आप नफरत भरे भाषण देने वाले व्यक्ति को दंड नहीं देते हैं तब तक एक कानून इस तरह की हरकत को रोकने में कामयाब कैसे हो सकता है।’ इसके साथ ही जब नफरत भरे भाषणों को सामान्य मान लिया जाता है तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
सरकार कहते हैं, ‘जब आबोहवा इतनी असहज हो जाती है और लोग इतना भयभीत हो जाते हैं कि वे सामान्य सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने में दो बार सोचते हैं।’
‘ये इसकी असली कीमत है।’ (bbc.com/hindi)