विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- स्वराज और सत्याग्रह
14-Nov-2022 6:05 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- स्वराज और सत्याग्रह

किस्त-3
प्रस्तावना
इस विषय पर मैंने जो बीस अध्याय लिखे हैं, उन्हें पाठकों के सामने रखने की मैं हिम्मत करता हूं। 

जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है। बहुत पढ़ा, बहुत सोचा। विलायत में ट्रान्सवाल डेप्युटेशन के साथ मैं चार माह रहा। उस बीच हो सका उतने हिन्दुस्तानियों के साथ मैंने सोच-विचार किया। हो सका उतने अंग्रेजों से भी मैं मिला। अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए। उन्हें पाठकों के सामने रखना मैंने अपना फर्ज समझा। 

‘इण्डियन ओपिनियन’ के गुजराती ग्राहक आठ सौ के करीब हैं। हर ग्राहक के पीछे कम से कम दस आदमी दिलचस्पी से यह अखबार पढ़ते हैं। ऐसा मैंने महसूस किया है। जो गुजराती नहीं जानते, वे दूसरों से पढ़वाते हैं। इन भाइयों ने हिन्दुस्तान की हालत के बारे में मुझसे बहुत सवाल किये हैं। ऐसे ही सवाल मुझसे विलायत में किये गये थे। इसलिए मुझे लगा कि जो विचार मैंने यों खानगी में बताये, उन्हें सबके सामने रखना गलत नहीं होगा। 

जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं; वे मेरी आत्मा मेंं गढ़े-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढऩे के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया। 

यह साबित करने की जरूरत नहीं कि जो विचार मैं पाठकों के सामने रखता हूं, वे हिन्दुस्तान में जिन पर (पश्चिमी) सभ्यता की धुन सवार नहीं हुई है ऐसे बहुतेरे हिन्दुस्तानियों के हैं। लेकिन यही विचार यूरोप के हजारों लोगों के हैं, यह मैं अपने पाठकों के मन में अपने सबूतों से ही जंचाना चाहता हूं। जिसे इसकी खोज करनी हो, जिसे ऐसी फुर्सत हो, वह आदमी वे किताबें देख सकता है। अपनी फुर्सत से उन किताबों में से कुछ न कुछ पाठकों के सामने रखने की मेरी उम्मीद है। 

‘इण्डियन ओपिनियन’ के पाठकों या औरों के मन में मेरे लेख पढक़र जो विचार आयें, उन्हें अगर वे मुझे बतायेंगे तो मैं उनका आभारी रहूंगा। 

उद्देश्य सिर्फ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ रखने का मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक बरतें, ऐसी देश के भले के लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी। 

सुभीते के लिए लेखों को पाठक और संपादक के बीच के संवाद का रूप दिया गया है। 
किलडोनन कैसल, 
मोहनदास करमचंद गांधी
22-11-1909


स्वराज का गांधी अर्थ चर्चा, शोध और विवाद का भी विषय रहा है। अंगरेजी शब्द ‘इंडिपेंडेंस’ का अनुवाद स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वराजी और आजादी जैसे शब्दों में होता रहता है। इसी तरह ‘डेमोक्रेसी’ का अनुवाद भी प्रजातंत्र, लोकतंत्र, लोकशाही या जनतंत्र जैसे अनुवादों में किया जाता है। यह कहना मुमकिन है कि गांधी की समझ ने ‘स्वराजी’ और ‘प्रजातंत्र’ जैसे शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल किया। अंगरेजी शासन से मुक्ति के बाद भारत ‘इंडिपेंडेंट’ तो हुआ है। उसने ‘डेमोक्रेसी’ की स्थापना भी की है। ‘प्रजा’ शब्द से गांधी का आशय प्राचीन, सामंती लेकिन परंपरापोषित भारतीय सांस्कृतिक समाज से रहा है। वह धर्म और संस्कृति के सहारे ही एक तरह की समग्रता में जीता रहा है। वे नए भारत का सपना उसके साभ्यतिक बल्कि सांस्कृतिक समास में ढूंढते रहे थे। गांधी के लिए ‘स्वराज’ षब्द पहला राजनीतिक आजादी या इंडिपेंडेंस के अर्थ में। दूसरा हर व्यक्ति की खुद को आत्मनियंत्रित करती अपनी निजी आजादी के अर्थ में। गांधी का स्व एकल नहीं, वह स्व का गुणक अर्थात  ‘बहुल’ है। वह एक रचा गया समाज-संसार है। फकत यूटोपिया नहीं है। गांधी मनुष्य की अपरिमित शक्तियों और मूल्यों की सार्थकता तलाश करती संभावनाओंं के अंतरिक्ष के (अपने वक्त और अब भी) सबसे प्रमुख एस्ट्रोनॉट हैं। 

‘हिन्द स्वराज’ में गांधी ने संसदीय प्रणाली की बड़ी फजीहत की है। अंग्रेजी पार्लियामेंट को ध्यान में रखकर गांधी ने यहाँ तक कहा था कि संसदीय पद्धति बांझ और बेसवा की तरह है। गांधी का तर्क था कि पार्लियामेंट कानूनों को तो जन्म दे सकती है, लेकिन वह संवेदना, करुणा और लोक कल्याण का प्रजनन नहीं कर सकती। संसद पाँच वर्षों तक फूहड़ बेशर्मी के साथ मतदाताओं का अपमान करते हैं। मतदाता भी इनका चुनाव मुख्यत: समाचार पत्रों को पढक़र सामूहिक राय के आधार पर करते हैं समाचार पत्र वास्तविक जीवन का न तो प्रतिनिधित्व करते हैं और न ही वे उसका प्रतिबिम्ब हैं। बौद्धिक षडय़ंत्र के तहत मत कबाडक़र जीती गयी संसद बांझ प्रक्रिया की हिस्सेदार है। सत्ताधारी दल का नेता अपनी सुविधा के अनुसार संसदीय कार्य का संचालन करता है। इससे सामूहिक प्रतिनिधित्व की भावना का मखौल उड़ता है। इंग्लैंड की आज की स्थिति सचमुच दयनीय है। और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वैसी स्थिति भारत की कभी न हो। जिसे आप पार्लियामेंटों की माता कहते हैं, वह पार्लियामेंट तो वन्ध्या है और वेश्या है। ये दोनों शब्द कड़े हैं, फिर भी ठीक से लागू होते हैं। मैंने वन्ध्या कहा, क्योंकि अब तक पार्लियामेंट ने आपने-आप एक भी अच्छा काम नहीं किया। उसकी स्वाभाविक स्थिति ऐसी है कि यदि कोई उस पर जोर डालने वाला न हो तो वह कुछ भी न करे। और वह वेश्या है, क्योंकि मंत्रिमंडल उसे रखता है वह उसके पास रहती है। आज उसका धनी एस्क्विथ है, तो कल बॉलफर और परसों कोई तीसरा।’ 

जो बात गांधी ने 1909 में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत और संसदीय प्रणाली के सन्दर्भ में कही थी, वह बात उसी वेस्टमिन्स्टर संसदीय प्रणाली की नकल करने वाली भारतीय संसद पर भी लागू क्यों नहीं हो सकती? संसदीय कर्म और कौशल को दूरदर्शन पर देखकर मतदाताओं का सिर आत्मग्लानि से झुक जाता है कि उन्होंने अपने मतों का उपयोग क्यों किया। उन्होंने यह भी माना कि उनकी निगाह में स्वराज्य की जो मुमकिन तस्वीर है, वैसा हिन्दुस्तान बनाने की फिलहाल वे कोशिश नहीं कर रहे हैं। उन्होंने यह भी माना कि हिन्दुस्तान अभी उसके लिए तैयार नहीं है। अलबत्ता गांधी की अपनी निजी कोशिश जरूर चल रही है। महात्मा गांधी ने एक राजनीतिक विचारक के रूप में सत्याग्रह, सर्वोदय, अहिंसा और स्वराज संबंधी कई राजनीतिक थ्योरियां नवोन्मेशित की हैं। ‘हिन्द स्वराज’ में इन सबका उद्गम है। भारत को मिल सकने वाले स्वराज का खाका गांधी ने पहली और आखिरी बार इसी पुस्तक में खींचा था। गांधी की यह अवधारणा इतिहास में किस तरह दुर्घटनाग्रस्त हुई इसका ठीकरा महत्वाकांक्षी और सत्ताभिमुख कांग्रेस नेतृत्व पर फूटना चाहिए अथवा हालात ही इस तरह हो गए थे कि भारत के लिए विभाजन और अंगरेजी शासन पद्धति को स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था? 

गांधी केवल विचारक नहीं थे। वे देश के लिए माक्र्स भी थे और लेनिन भी। वे महापुरुषों की उस श्रेणी में हैं जिनसे परम्परा की पुनर्रचना और नवनिर्माण होता है और जिनसे संस्कृति आत्मबल पाती है। 1946 के हरिजन में उन्होंने यहां तक लिख दिया कि अब तो केवल एक ही जाति हो जिसका नाम भंगी हो और वह एक सुधारक जाति के रूप में व्याख्यायित हो। गांधी की समता और बराबरी की समझ आधुनिक औद्योगिक समाज के लिए विकसित और लागू करना संभव नहीं है। गांधी जानते थे असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि में देश को सकारात्मक कार्यक्रम से लबरेज करना ज्यादा आवश्यक है। उन्होंने अपने केन्द्रीय अभियान में असहयोग की भावना को पुख्ता करने उसके साथ साम्प्रदायिक सद्भाव, अस्पृश्यता उन्मूलन, खादी और हथकरघा, स्वदेषी ग्रामोद्योग, ग्राम विकास, राष्ट्रीय शिक्षा, मद्यनिषेध और पंचायतों का गठन जैसे मुद्दे जोड़ रखे थे। गांधी की रणनीतिक कुशलता रही कि चंपारण और खेदा जैसे आंदोलनों में प्राण फूंकने के वक्त भी गांधी ने केवल उग्र आक्रामक और प्रतिषोधी हथियारों से लडऩा जनमानस को नहीं सिखाया। दुनिया के किसी भी जननेता से पहले उन्होंने हर मनुष्य को खुद सुधरने का आह्वान किया। ताकि वह जनयुद्ध का प्रतीक समझा जाए। 

लोकतंत्र का प्राणतत्व लोकमत या जनमत है। जनमत अमूमन अल्पशिक्षित, अफवाहग्रस्त और भीड़तंत्र की मानसिकता लिए हुए होता है। शिक्षा के अभाव के कारण जनमत अब तक उन मूल्यों से शासित या संसूचित नहीं है जो जम्हूरियत की जिंदगी के लिए जरूरी है। मीडिया, विश्वविद्यालय अर्थात शिक्षा और राजनीतिक पार्टियों को लोकतंत्र में जिम्मेदारी दी गई है कि वे जनमानस को सुशिक्षित करें। हकीकत में राजनीतिक पार्टियों ने जनता को रेवड़ या भीड़ में तब्दील करने में महारत हासिल कर ली है। शिक्षा संस्थान फीस वसूलने, नकल कराने और फर्जी डिग्रियां बांटने के कारखाने बन गए हैं। दौलत बाजार में मीडिया सबसे ऊंची कीमत पर खरीदा बेचा जा रहा है। वह सेठों और जीहुजूरियों की ऐशगाह बनता जा रहा है। 

संविधान की हिदायतों में तय है कि देश की दौलत नागरिकों की जागीर है। सम्पत्ति का दोहन इस तरह हो जिससे सार्वजनिक बंटवारा हो सके। यूरोप ने सिखाया। सब कुछ पुराना नष्ट करो। नये विचारों से भारत में नया यूरोप, अमेरिका बनाओ। उनसे प्रभावित भारतीयों ने मां बाप को ‘ओल्ड होम’ में डाला। खेती करना छोड़ा। शहरी मजदूर बने। ज्यादा पढ़े लिखे लोग विदेश भागे। वहां दोयम दर्जे के नागरिक बनकर गुलामी करते रहे। भारतीय भाषाओं और बोलियों को दकियानूस कहते उन पर थूकने लगे। अंगरेजी पोषाक में बंध गए। यूरो अमेरिकी नग्न संस्कारों में झूमे। इतालवी शराब पी। सस्ता चीनी सामान खरीदा। हथियारों का जखीरा बनाया। पड़ोसी को दुश्मन समझा। देश की अपढ़ जनता को अंगरेजी नारों से भौंचक किया। ‘स्टार्ट अप’, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्मार्ट सिटी’, मेक इन इंडिया जैसे नये मंत्र गूंजने लगे। विधर्मियों को मारा। जन्नत में हूरें ढूंढने लगे। गाय का गोश्त बेचने की फैक्टरी लगाई। किसी को गाय का कातिल कहते उनका बीफ बना दिया। दोमुही बातें कीं। देश की चूलें हिल रही हैं। कोयला खुद गया है। लौहअयस्क देश पार जा रहा है। जंगल कराह रहे हैं। नदियों का पानी सुखाकर कारखाने लग रहे हैं। आध्यात्मिक लुटेरे बच्चियों की अस्मत लूटते जेल में बंद हैं। आर्थिक लुटेरों की पौ बारह है। जनता की गाढ़े की कमाई का रुपया बैंकों में डाका डालकर लुटेरों की तिजोरी में है। सरकारें उन्हें दामाद और समधी बनाए हुए हैं। एक-एक गिरहकट की लालच के लिए नगरों और गांवों को नेस्तनाबूद किया जा रहा है। लोग पस्तहिम्मत हैं। बदबूदार विचारों की अफीम चटाई जा रही है। लोग पीनक में बड़बड़ाते हैं। भारत महान देश है। हम विश्व गुरु बनने वाले हैं। अद्र्धशिक्षित नेता और किताबी विचारक अवाम को मायूसी के दलदल में धकेल चुके हैं। भविष्य पतन के रास्ते पर है। देश का कारवां इतिहास में मिथक को ढूंढने अभिशप्त है। आईना देखकर चीखता रहता है। विकास हो रहा है। गफलत को अध्यात्म समझने का खतरनाक दौर एक सौ तीस करोड़ मनुष्यों को कुछ सैकड़ा नवाबों की चाकरी करने जहरखुरानी का शिकार बना दिया जा रहा है।

 

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