विचार / लेख
किस्त-4
‘हिन्द स्वराज’ का एक महत्वपूर्ण संदेश अहिंसा का है। दरअसल पुस्तक हिंसावादियों और अराजकता समर्थकों को आश्वस्त नहीं कर पाने की असफलता से खिन्न होकर गांधी ने लिखी थी। ‘हिन्द स्वराज’ उन्हीं तत्वों और व्यक्तियों से गांधी की बहस का निरंतर सिलसिला भी है। पाठक की भूमिका में वे सारे तर्क, विचार और लोग हैं जिनसे गांधी वर्षों तक जूझते रहे। अहिंसा को गांधी का समर्थन राजनीतिक फलसफा भर नहीं था। यह उनकी मूल बनावट से आया था। जीवन के प्रति औसत भारतीय आध्यात्मिक ही होता है। बचपन से ही नीतिबोध की कथाओं से गांधी को संवारा गया। उनके केन्द्रीय तत्व गांधी में औसत हिन्दुस्तानी के लक्षण बनकर उभरते रहे। उन्होंने एक राजपुत्र या जननेता के हठ को भी जोड़ा कि चाहे कुछ हो जाए, अहिंसा के मार्ग से विरत हो जाने का कोई सवाल नहीं है। चुनौतियां व्यक्तिगत स्तर से उठकर पूरे देश के सामने खड़ी हो जाएं तब भी उनका उत्तर देना गांधी की थ्योरी के अनुसार अहिंसक रूप में संभव रहा है। शर्त है कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा अहिंसा की आभा से आलोकित होती रहे।
गांधी की असफलताओं की भी लंबी चौड़ी फेहरिस्त है। वे पूरी जिंदगी यह अफसोस भी सचेत बयानों में करते रहे कि लोगों ने उनकी बात नहीं मानी। ‘लोगों‘ से उनका संकेत और आशय सत्ता की चौकड़ी से था। उन्हें एक बात का संतोष था कि सामाजिक अहिंसा का अनोखा और लगभग मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान में अपनी आजादी की जद्दोजहद में उनके समझाने से जरूर हुआ है। कई मौकों पर जहां हिंसा हो सकती थी, वहां फकत गांधी के कई बार अनशन के भी कारण अहिंसा का वैकल्पिक प्रयोग हिन्दुस्तान ने किया। वेस्टमिन्स्टर पद्धति की संसद और प्रशासन व्यवस्था भारत में आई। उसे अलबत्ता गांधी रोक नहीं पाए। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में उसका रोका जाना संभव नहीं था।
यह समझना भी गलत है कि गांधी अहिंसा के अतिवादी पुजारी थे। 1942 में मौलाना आजाद ने इशारा किया था। ‘जब आखिरी इंकलाब या क्रांति करते हो और अंग्रेज जब पकडक़र जेल ले जाने लगे, तो मत जाओ। जेल के कानून को मत मानो और उपवास करो।’ अपनी बात को तेज बनाने के लिए उन्होंने यहाँ तक कहा था कि जेल की दीवार से सिर टकरा-टकरा कर मर जाओ लेकिन गलत बात मत मानो, अन्याय के आगे मत झुको। गांधी अन्याय का विरोध करने की अहिंसक राष्ट्रीय आदत बनाने के पक्षधर थे। हिंसक राष्ट्रीय आदत संभव है, लेकिन हर वक्त उतनी भौतिक ताकत कहाँ होगी? एक दूसरे अवसर पर गांधी ने कहा था कि मुझे सत्य और अहिंसा में से एक चुनना पड़े तो मैं सत्य को चुनूँगा। अहिंसा का आदर्श गांधी का मौलिक योगदान नहीं था। उपनिषदों, भगवान बुद्ध और चौबीसों जैन तीर्थंकरों ने सामाजिक जीवन में अहिंसा पर जोर दिया है। चीन के लाओ त्से, ईसा, कुरान शरीफ की कई आयतों और तॉल्स्तॉय के जीवन दर्शन में भी अहिंसा है। बापू के लेखे ऐटम से आत्मा की आवाज बड़ी है और रहेगी। अमेरिकी विचारक थोरो की सिविल नाफरमानी का मतलब है मामूली इंसान का मामूली वीरता से काम चलाना। सिविल नाफरमानी नया इंसान पैदा करती है जो जालिम के सामने घुटने नहीं टेकता लेकिन साथ ही उसकी गर्दन भी नहीं काटता।
गांधी चाहते तो लोकप्रियता के आधार पर हिंसक आंदोलनों को अंजाम दे सकते थे। गोलीकाण्ड करवाते। धार्मिक उपासना स्थल ढहा देते और कथित अराजकता के बावजूद अपनी सम्पूर्ण शैली पर दार्शनिकता का मुलम्मा चढ़ा देते। कुछ लोग आज यही कुुचक्र करने का प्रयास कर रहे हैं। गांधी के कर्म-संसार में शरीर एक पूरक आवश्यकता के रूप में उपस्थित होकर दिखाई पड़ता है। बापू आत्मा के लुहारखाने के कारीगर थे। सांसों की धौंकनी चलाकर वे हर आदमी के अन्दर देखना चाहते थे, उसमें आत्मा ही आत्मा से सरोकार था। गरीब के मन से हीनता, और अमीर के मन से अहंकार निकालकर जीवन को गांधी ने संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण से अलग हटकर समास बनाया था। वे आत्मबल के आधार पर उत्फुल्ल होकर जी रहे थे मौत उनके लिए एक छोटी मोटी चोट, खिलवाड़ या सामान्य दुर्घटना थी। उनकी छाती पर गोलियां लगने के बाद भी उनके शरीर का पूरा फ्रेम आत्मा के कब्जे में होने कारण विचलित, आशंकित या बदहवास नहीं हुआ। उन्होंने शान्तिपूर्वक ‘हे राम‘ का उच्चारण किया।
आज के जलते सवाल का संभावित उत्तर, वक्त की दीवार पर महात्मा ने दशकों पहले लिख दिया था। उनका कहना था जब तक अहिंसा के लिए जगह न हो, कायरों को सांप्रदायिक दंगों से बचाया नहीं जा सकता। गांधी ने खुद को दंगों के संदर्भ में लाचार पाया था। अपनी लाचारी की हालत में वे ईश्वर के दरबार में प्रार्थना करने लगते थे। उन्होंने दोनों समुदायों के बुद्धिजीवियों में गहरा भरोसा किया था। ऐसा होता है, तो पारस्परिक अहिंसा का रास्ता खुलता है। गांधी का दावा था कि किसी भी सभ्य समाज में कायरों के लिए कोई जगह नहीं है। स्वराज्य कायरों के लिए नहीं होता। बीसवीं सदी के तीसरे दशक की राजनीतिक पृष्ठभूमि में संघ परिवार सांप्रदायिक दंगों में मषगूल रहा होगा। उसकी भूमिका अंग्रेजोंं को सुहाती थी। क्या देश के अंदर और बाहर सांप्रदायिक और आतंकवादी गतिविधियां इसलिए जारी हैं जिससे कभी न कभी भारतीय लोकतंत्र हिंसा की चपेट में आकर रिरियाने लगे? नरेन्द्र मोदी राजधर्म सिखाते हैं और बिना मांगे अमेरिका के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। वे गांधी को भी जानने का दावा करते हैं जो गांधी जीवन भर उस विचारधारा की मुखालफत करते रहे। महान हिन्दू कौम को गांधी ने कभी कायर नहीं कहा और न ही उनकी दृष्टि में मुसलमान कभी अराजक बने। यही वक्त है जब गांधी को नफरत की आंधी के मुकाबले चट्टानी दीवार बनाया जाये।
भारत में हालिया हुआ किसान आंदोलन याद रखा जाएगा। वह अवाम के एक अंश का आजादी के आन्दोलन के बाद सबसे बड़ा जनघोष हुआ। उसमें सैकड़ों किसानों की मौतें हो चुकीं। वह लाखों करोड़ों दिलों का स्पंदन गायन बना। कहां विवरण है कि किसानों की लाठियों या अन्य हथियारों से पुलिस या नागरिकों की कितनी मौतें हुई हैं? जाहिर है कई पुलिस वालों को काफी चोटें लगी। कई किसानों को भी पुलिसिया दमनात्मक कार्रवाई का शिकार होना पड़ा। इसीलिए महात्मा गांधी ने अंगरेजी सल्तनत के मुकाबले अहिंसा को खड़ा किया। उन्होंने अंगरेज की हत्या करने के बदले भारतीयों के प्राण उत्सर्ग करने की अपील की। सामाजिक अहिंसा से संसार की सबसे बड़ी ताकत को भारत से रुखसत होना पड़ा था।
नेताओं की भाषा हिंसा भडक़ाने उत्प्रेरक है। नरेन्द्र मोदी श्मशान और कब्रिस्तान का संदर्भ उठाते हैं। वोटों के लिए सद्भाव का भी धु्रवीकरण होने लगता है। खून के सौदागर जैसा जुमला विरोधी चस्पा करते हैं। गधा नाम के शब्द का व्यंग्य और कटाक्ष में अनावश्यक रूप से बार बार इस्तेमाल करते हैं। कई सांसद, विधायक और मंत्री गाली गलौज, बदतमीजी, अश्लीलता और असंसदीय भाषा के बगैर गंभीर बातें भी बोलना नहीं चाहते। दूसरों को सहिष्णुता का पाठ सिखाने वाले तस्लीमा नसरीन के मामले में कठमुल्ला और संकीर्ण हो जाते हैं। गोविंद पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर और प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्याओं के पीछे खास विचारधारा को दोषी ठहराया जाता है। वेलेन्टाइन डे की आड़ में कर्नाटक की श्रीराम सेने परंपराओं की आड़ में गुंडागर्दी करने से परहेज नहीं करतीं।
गांधी की अहिंसा पर लौटते कुछ बुनियादी बातों को समझना होगा। गांधी ने कभी नहीं कहा अहिंसा उनका अकेला हथियार है। उन्होंने अपनी किताब का नाम अहिंसा के साथ मेरे प्रयोग नहीं लिखा। उसे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ कहा था। कहा था सत्य और अहिंसा में अगर छोडऩा पड़े तो सत्य को नहीं छोडंूगा। अहिंसा को छोड़ दूंगा। कहा था अहिंसा कायरों का हथियार नहीं है। वह आत्मा के बहादुरों का हथियार है। कहा था कि अगर हर मजबूरी के चलते अहिंसा साथ नहीं दे रही है, तो जनता के हक में जनकल्याणकारी फैसलों के लिए हिंसा का आनुपातिक, यथार्थपरक और वांछितता के साथ सहारा लिया जा सकता है। इसी विचार को भारतीय प्राचीन मनीषा में धर्म के साथ आपद् धर्म कहा गया है।