विचार / लेख

जैन समाज के प्रतिरोध के मायने
06-Jan-2023 4:48 PM
जैन समाज के प्रतिरोध के मायने

-सचिन कुमार जैन
जैन समाज ने श्री सम्मेद शिखर क्षेत्र के बारे में सरकार द्वारा बनाई जा रही नीति पर एक ठोस पक्ष लेते हुए एक महत्वपूर्ण सन्देश भी दिया है। सन्दर्भ यह है कि झारखंड सरकार ने जैन समाज के पवित्र स्थान श्री सम्मेद शिखर को ‘एक पर्यटन क्षेत्र’ के रूप में वर्गीकृत किया है। सरकार का तर्क यह है कि जब कोई स्थान ‘पर्यटन क्षेत्र’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, तभी सरकार उन स्थानों के विकास के लिए योजना बना सकती है। अगर सम्मेद शिखर को पर्यटन स्थल घोषित नहीं किया जाएगा तो वहां सरकार कोई व्यय नहीं कर पाएगी। 

इसके दूसरी तरफ जैन समाज का पक्ष है। जो यह मानता है कि धर्म के अपने कुछ खास व्यवहार होते हैं, सिद्धांत होते हैं। अगर सरकार सम्मेद शिखर को पर्यटन क्षेत्र घोषित करेगी, तो इससे वहां की व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। 

वास्तव में यह प्रकरण धर्म और धार्मिक स्थलों में सरकार के दखल-अंदाजी और धर्म की राजनीति का सबसे प्रासंगिक उदाहरण है। जब सरकार धर्म और धार्मिक स्थलों की व्यवस्था में दखल देना शुरू करती है, तब उसका मुख्य मकसद आर्थिक लाभ कमाना होता है। दूसरा मकसद राजनीतिक हितलाभ होता है। सरकार ‘सार्वजनिक धन’ का उपयोग खास धर्मों के संरक्षण के लिए करके राजनीतिक लाभ अर्जित करने का प्रयास करती है।

जैन समाज ने हिंदुत्ववादी सोच के ठीक विपरीत पक्ष लिया है। आज हम देख रहे हैं कि पूरे देश में हिन्दू समाज यह चाहता है कि उसके ईश्वर की मूर्तियाँ भी सरकार बनाये, मंदिरों की शिखर भी सरकार बनाए, धर्मशालाएं भी सरकार बनाये, धार्मिक स्थलों के प्रचार का काम भी सरकार ही करे और इससे आगे बढक़र धार्मिक स्थलों को विलासिता के केंद्र बना दे। मूलत: सिद्धांत तो यह है कि समाज को धर्म का प्रबंधन करना चाहिए, लेकिन राजनीति ने सरकारों को धर्म का प्रबंधक बना दिया है और इस काम में हिंदुत्ववादी राजनीति ने हमेशा मुख्य भूमिका निभाई है। 

ऐसा लगता है कि आज के समय में धार्मिक स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने के लिए या धर्म की राजनीति करने के लिए सार्वजनिक/सरकारी धन का उपयोग एक अच्छी  बात मान लिया गया है, जबकि वास्तव में यह एक अनैतिक और असंवैधानिक नीति है। जो धार्मिक समुदाय यह मानते हैं कि उनके धर्मों का प्रबंधन सरकार को करना चाहिए, वे भीतर से बेहद कमज़ोर, पिलपिले और असुरक्षित धार्मिक समुदाय हैं। जऱा सोचिये कि सार्वजनिक/सरकारी धन से धार्मिक स्थलों के विज्ञापनों में ईश्वर/आराध्य के समानांतर सरकारी नुमाइंदों और जनप्रतिनिधियों के प्रचार वाले विज्ञापनों का प्रकाशन समाज को उचित और नैतिक मानना चाहिए? वह भी सरकारी खर्चे पर! 

जैन धर्म के पालकों ने वास्तव में यह सन्देश दिया है कि अपने धर्म और धार्मिक स्थलों का सरकारीकरण और राजनीतिकरण होना उन्हें कतई मंज़ूर नहीं है। जैन समाज खुद अपने धार्मिक स्थलों का संचालन और प्रबंधन करेगा। सरकार कुछ करोड़ रुपये व्यय करके, धर्म और समुदाय की भूमिका को नियंत्रित नहीं कर सकती है। 

सरकार की भूमिका केवल इतनी है कि वह धार्मिक स्थलों की क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने में अपनी भूमिका निभाये और यह सुनिश्चित करे कि देश के संविधान की व्यवस्था और मूल्यों के खिलाफ कोई व्यवहार न किया जाए।

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