विचार / लेख
विवेक कुमार
भारतीय साहित्य के हजारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। मिर्जा गालिब उनमें से एक हैं। विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के सौंदर्यबोध से गुजरना एक दुर्लभ अनुभव है।
लफ्जों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, नए-नए अर्थ खुलते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का गालिब का अंदाज भी अलग था और तेवर भी जुदा। वहां कोई बंधा-बंधाया जीवन-मूल्य या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढिय़ों का अतिक्रमण ही जीवन मूल्य है और आवारगी जीवन दर्शन। गालिब में हर कहीं एक अजीब-सी बेचैनी नजऱ आती है।
रवायतों को तोडक़र आगे निकल जाने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। इश्क के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे हुए सिरों को फिर से उलझा देने की बेचैनी। यह बेचैनी उनकी शायरी की रूह है।
मनुष्य के मन की गुत्थियों और वक़्त के साथ उसके अंतर्संघर्ष का जैसा चित्र ग़ालिब की शायरी में मिलता है, वह उर्दू ही नहीं विश्व की किसी भी भाषा के लिए गर्व का विषय हो सकता है। आज उनकी पुण्यतिथि पर खिराज-ए-अकीदत, उनके शेर के साथ-
‘गालिब’ बुरा न मान जो वाइज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे !