विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं- कांग्रेस और बुद्धिजीवी
16-Feb-2023 6:40 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- कांग्रेस और बुद्धिजीवी

विवाद न खड़ा किया जाए कि आजादी के आंदोलन में कांग्रेस ही मुख्य भारवाहक पार्टी रही है। मुस्लिम लीग के योगदान को दाएं बाएं नहीं किया जा सकता। हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आजादी की लड़ाई में जनता के पक्ष में खड़े होने के बदले अंगरेजों के कान भरने और चुगली करने का मौका नहीं छोड़ा। दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा देती कम्युनिस्ट पार्टी भी आजादी की लड़ाई में क्षमता के अनुरूप कुछ कर नहीं पाई। हालांकि अब बहुत खोजबीन मची हुई है कि हिन्दू महासभा और आरएसएस एक तरफ तथा कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी तरफ, ने स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेख करने के लायक योगदान किया है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने बुद्धिजीवी वी. के. कृष्ण मेनन से युद्ध की खंदकों में बैठकर समाजवाद के तेवर और गुर पर बहस मुबाहिसा किया था। नेहरू मोटे तौर पर फेबियन समाजवादी समझे जाते हैं जिनमें हेराल्ड लास्की, जॉर्ज बर्नर्ड शॉ, बर्टेंड रसेल और तमाम बुद्धिजीवियों का नाम जोड़ा जाता है। 

नेहरू आज़ादी के युवा योद्धा की तरह वामपंथियों के पक्षधर थे। उनके और सुभाष बोस के संयुक्त हो जाने से कांग्रेस को लगभग दो फाड़ करते गांधी से अहसमत होकर उन्होंने भगतसिंह के पक्ष में पैैरवी की थी। भगतसिंह ने अपने पंजाब के मित्रों को लिखा कि भविष्य के भारत के लिए वे नेहरू के वैज्ञानिक समाजवाद से जुड़ जाएं। नेेहरू ने समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया को कांग्रेस पाटी में महत्वपूर्ण पद और जिम्मेदारियां देकर आगे बढ़ाया। उनका ऐसा सलूक जयप्रकाश, नरेन्द्र देव और अन्य समाजवादी नेताओं के साथ भी रहा। हालांकि बाद मेें कांग्रेस के अंदर रहते कांग्रेस सोशलिस्ट घटक ने पार्टी से छोड़ छुट्टी कर ली, तो नेहरू आग बबूला हो गए। कृष्ण मेनन के अतिरिक्त कम्युनिस्ट केशव देव मालवीय, चंद्रजीत यादव, मोहन कुमार मंगलम और समाजवादी खेमे से अशोक मेहता, मोहन धारिया, चंद्रशेखर जैसे कई नेता कांग्रेस पार्टी में समय समय पर आवाजाही करते रहे। 

मौजूदा कांग्रेस कार्यकर्ता बरसों से किताबों से बैर किए बैठे हैं। आरोप भले हो संघ परिवार और भाजपा में स्तरीय बुद्धिजीवियों का टोटा है। यह नहीं देखा जाता कि संघ परिवार में जो जितना भी आलिम फाजिल है, उस पर भरोसा करते जिम्मेदारी के काम सौंप दिए जाते हैं। वह धीरे धीरे प्रोन्नत होता सशक्त भी होता चलता है। उसे इत्मीनान होता है कि पार्टी नेतृत्व उसके पीछे है। कांग्रेस में टांग घसीटो अभियान लगातार चलता है। निष्ठावान लोगों को चीन्ह चीन्ह कर रेवड़ी देती भाजपा ने हाईकोर्ट के रास्ते चलते सुप्रीम कोर्ट के जजों तक पर अपना वैचारिक कब्जा भी कर लिया लगता है। कांग्रेस के कई नेताओं को पार्टी के आदर्ष सहित इतिहास और किए गए आधे अधूरे वायदे और पार्टी का संविधान तथा उसके राष्ट्रीय सम्मेलनों के ऐलान तक मालूम नहीं होंगे। 

लगता नहीं कांग्रेस दफ्तरों में किसी पुस्तकालय संस्कृति का बीजारोपण हुआ है। कांग्रेस सांसदों और विधायकों को ऐसे बौड़म जवाब देते इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया में दिखाया जाता है कि उनकी अक्ल और कांग्रेस के भविष्य पर तरस आता है। एयर कंडीशन्ड हॉल में बैठकर मु_ी भर लोगों के सामने जश्न और जलसे किए जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को क्या बौद्धिक खूराक मिलती है? खत्म होते होते भी कांग्रेस में कुछ न कुछ बुद्धिजीवी शेष हैं। वे अन्य विचारों से से प्रेरणा लेने के बदले कांग्रेस की वैचारिक परंपरा के पक्षधर हैं। उन्हें गांधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, पुरुषोत्तमदास टंडन बल्कि कांग्रेस में रहे समाजवादी जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव से सरोकार और सहमति है। उनकी लेकिन कांग्रेस के मौजूदा सत्ता संकुल में पूछपरख नहीं है।

यह भी दुखद है कि एक लोकतांत्रिक पार्टी में अब मुख्यमंत्री ही सर्वेसर्वा हो गए हैं। पीर, बवर्ची, भिश्ती, खर की भी भूमिका निर्वाह करते मुख्यमंत्री अपने मुंह मियां मि_ू बनते रहते हैं। पार्टी को हर स्तर पर एक जेबी संगठन बनाया जा रहा है। 

राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के कई तरह के अर्थ निकाले जा रहे हैं। लोग उम्मीदजदां हैं लेकिन उनकी शिकायत है कि राहुल में सैद्धांतिक तेवर के साथ साथ समयसिद्ध बुद्धिजीवी लक्ष्मण इस तरह उगते दिखाई दें कि भाजपा के महाबली से मुकाबला करने की उम्मीदें जनदृष्टि में लहलहाने लगें। उनके निधन के 55 वर्ष से ज्यादा होने के बाद भी भाजपा, नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार का हमला सबसे ज्यादा जवाहरलाल नेहरू पर है। उन्हें मालूम है कि नेहरू के विचार, कर्म और उनकी सेवा का इतिहास देश के लिए अब भी एक सार्थक विकल्प है। विरोधाभास है कि जवाहरलाल नेहरू का वैचारिक फलसफा कांग्रेस नेताओं तक पहुंचता ही नहीं है। कई कांग्रेसी भाजपा के धर्मांध एजेंडा में फंसकर साफ्ट हिन्दुत्व का आचरण करते हैंं, मानो कांग्रेस भाजपा की बी टीम है। शुरू कांग्रेस की वैचारिकता दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, आबादी और बहुसंख्यक धर्मों के सामूहिक विष्वास का कोलाज रही है। कांग्रेस के इतिहास की भविष्यमूलकता और उसके द्वारा संविधान में गूंथी गई वैश्विक समझ से भी सराबोर उद्देष्य पत्र को हर कांग्रेस कार्यकर्ता के जेहन में जज्ब करा देना कांग्रेस के नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी है। परिवार की परंपराओं को अग्रसर करना और उनमें नए मूल्य जोडऩा तथा समायोजित करना परिवार के लोगों का ही दायित्व होता है। किराए के लोगों से मदद लेकर करना कांग्रेस क्यों समझती है कि क्रांति करना तो जरूरी है लेकिन पड़ोसियों के बच्चों के दम पर करना चाहिए, अपने बच्चों के दम पर नहीं।  

देश के संविधान, लोकतंत्र और जनमानस की संतुलित समझ की प्रतिनिधि रही कांग्रेस सत्तानषीन होकर एक मैनेजमेंट संगठन में तब्दील होती गई। उसे गुरूर या मतिभ्रम भी रहा कि कांग्रेस और भारत एक दूसरे के पर्याय हैं। यह भी कि देश में ऐसा कोई परिवार नहीं होगा जिसका कम से कम एक सदस्य प्रतिबद्ध कांग्रेसी की तरह नहीं हो। हालांकि यह मिथक अब इतनी बुरी तरह टूट चुका है कि उसका पुराना चेहरा तलाष करना भी मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने अपना अध्ययन क्रम जारी नहीं रखा। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में खासतौर पर केन्द्रीय मंत्री और बौद्धिक मणिशंकर अय्यर ने मैदानी स्तर पर जाकर भी पंचायती राज के संवैधानिक, ऐतिहासिक और सामाजिक फलक को विस्तारित और व्याख्यायित किया। कांग्रेस पार्टी आत्मसंतुष्ट और अनुर्वर विचारों के साथ क्यों हिलगती गई कि उसके वैचारिक फलक पर उन व्यापारिक सामंती और खुशामदखोर तत्वों का कब्जा होता गया जो कांग्रेस के मूल विचार, इतिहास, दर्शन और सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से पूरी तौर पर अलग थलग, बेरुख और अपरिचित थे। श्रीकांत वर्मा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनाए गए। तब उन्हें राजनीति में प्रोन्नत करने का एक प्रमुख कारण यह भी था वे श्रीकांत सक्रिय और सार्थक बौद्धिक योगदान करने वाले बुद्धिजीवियों को कांग्रेस पार्टी के आदर्षों और वैचारिकी से जोड़ पाने में समर्थ होंगे। कांग्रेस अभियान विभाग के तहत राष्ट्रीय लेखक मंच, राष्ट्रीय अधिवक्ता मंच, राष्ट्रीय डॉक्टर मंच और न जाने इस तरह के कितने मंच बनाए गए और उन पर काम करना षुरू भी हुआ। आज यह सब भुला दिए गए अतीत की बातें हैं। 

कांग्रेस ने देश में ऐसे बुद्धिजीवियों को जानबूझकर उपेक्षित भी किया है जिनके पूर्वज-परिवार कांग्रेस के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण बाद की पीढ़ी को भी अपने संस्कार दे गए। आज कांग्रेस संगठन पर गैरबुद्धिजीवियों का जमावड़ा हुकूमत कर रहा है। लोग सत्याग्रह, अहिंसा, सर्वोदय, सिविल नाफरमानी जैसे तत्वों को अपने विवेक के माइक्रोस्कोप से देख भले नहीं पाते होंगे लेकिन उनके आचरण की ईमानदारी पर इतिहास ने कभी शक नहीं किया। देश में अब भी कई ऐसे बुद्धिजीवी हैं जिन्हें कांग्रेसियों से ज्यादा कांग्रेस को बचाए रखने की चिंता है। हालिया विष्वविद्यालय के कई प्राध्यापक इस काम को अपने दम पर आगे बढ़ाए हुए हैं। लेकिन उन्हें समयानुकूल करने की जरूरत है। समय ठहरा हुआ नहीं होता। वह नए परिवर्तनों के साथ भी चलता होता है। 

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